Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 9
________________ अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि-मथितादागमोदधेः । भूयांसि गुणरत्नानि प्राप्यते विबुधैर्न किम् ? ॥२०॥ भावार्थ : क्या अध्यात्म - शास्त्ररूपी मेरुपर्वत से आगम-समुद्र का मंथन करके विद्वान् अनेक गुणरूपी रत्नों को नहीं पाते हैं? अवश्य पाते हैं ||२०|| रसो भोगावधिः कामे सद्भक्ष्ये भोजनावधिः । अध्यात्मशास्त्र - सेवायामसौ निरवधिः पुनः ॥२१॥ भावार्थ : कामविषयक रस सम्भोग के समय तक रहता है, स्वादिष्ट आहार का स्वाद भोजन करते समय ही रहता है, किन्तु अध्यात्मशास्त्र का सेवन करने पर जो रस मिलता है, उसके स्थायित्व की तो सीमा ही नहीं है ॥२१॥ कुतर्कग्रन्थ सर्वस्व - गर्वज्वरविकारिणी । एति दृग् निर्मलीभावमध्यात्मग्रन्थभेषजात् ॥२२॥ ― भावार्थ : कुतर्क-ग्रन्थों के अधिकारपूर्वक ज्ञान से तो प्रायः अहंकाररूपी ज्वर से दृष्टि विकारी हो जाती है, जबकि अध्यात्म-ग्रन्थरूपी औषध से दृष्टि निर्मल होती है । अध्यात्मशास्त्र से दृष्टि में शोधकत्व गुण प्रगट होता है, इसके अभ्यास से निर्विकारत्व प्राप्त होता है, जिससे अभिमानरूपी ज्वर शान्त हो जाता है । इसलिए यह अध्यात्मशास्त्र औषधरूप है ॥२२॥ अधिकार पहला ९

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