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व्यक्ति की आदतें ही उसके चरित्र का निर्माण करती हैं। अगर आप चरित्रशील समाज का निर्माण करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम अपनी सोच को चरित्र-संपन्न बनाइये। वे ही चीजें तो अभिव्यक्त होंगी जो भीतर में जड़ों और बीजों की तरह समाई हुई हैं। अगर भीतर कुछ होगा ही नहीं, तो बाहर क्या आएगा? अगर आप घर, परिवार, समाज व संसार को सुधारना चाहते हैं तो पहले स्वयं को सुधारिये, खुद की सोच में सुधार लाइये । बिना सोच को सुधारे, व्यक्ति द्वारा किया गया हर संकल्प, प्रत्येक व्रत, प्रतिज्ञा और नियम राख पर की गई लीपापोती भर होगी। अपने दिमाग को निरर्थक विचारों के बोझ से मुक्त करो, खाली करो। अपने ऑफिस की टेबल पर तीन बन्दरों के प्रतीकों के साथ चौथा बन्दर और रखो, जो अपनी अंगुली सिर से लगाए हमें प्रेरणा देता हो कि बुरा मत सोचो।
ओ मन के मधुमास ! तुम्हारी चिंता है । शेष बचे विश्वास ! तुम्हारी चिंता है । कभी निराशा इतना नहीं डिगा पाई, बुझे बुझे उल्लास ! तुम्हारी चिंता है । आँसू पी - पीकर भी क्वाँरी रह जाती, ओ अनब्याही प्यास! तुम्हारी चिंता है । जिसे ग्रहण कर कड़वाहट ने जन्म लिया, हास और परिहास ! तुम्हारी चिंता है । जीवन-कविता गुँथी शृंखला साँसों की, अर्थहीन अनुप्रास ! तुम्हारी चिंता है ।
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वक़्त मुट्ठियों की बालू है, भूल गए, भटक गए एहसास! तुम्हारी चिंता है । पानी पीकर अपनी भूख मिटा लेता, बच्चों के उपवास ! तुम्हारी चिंता है ।
बेहतर सोचिये बेहतर जीवन के लिए
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