Book Title: Aapki Safalta Aapke Hath
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ सहानुभूति रखना, ये किसी पवित्र तीर्थ-यात्रा के समान है। अपने लिए तो कोई भी जी सकता है लेकिन जो औरों की भलाई के लिए अपने स्वार्थों का त्याग कर दे, उसी का जीना जीना कहलाता है। केवल अपनी ही भलाई के लिए जीना तो स्वार्थ मात्र है। औरों की भलाई के लिए अपने स्वार्थों का त्याग कर देना जीवन का परमार्थ है। परमार्थ से बढ़कर जीवन का और कोई पुण्यपथ नहीं होता। स्वार्थ स्वयं ही पाप है जब कि परमार्थ स्वयं ही पुण्य है। जब मनुष्य के द्वारा अनायास ही परमार्थ साधा जा सकता है तो फिर हर व्यक्ति अपने आप में पुण्यात्मा क्यों न बने? सबके प्रति सहानुभूति रखना, यही जीवन का सबसे बड़ा पुण्य है। सच्चा पुण्यात्मा वही है, जो दुनिया के किसी भी प्राणी के प्रति वैर भाव नहीं रखता। अपने हर पल में वह यही सद्भावना रखता है कि अगर मेरे द्वारा किसी का भला हो सकता हो तो मुझे वह अवश्य ही करना चाहिए। अगर चन्द्रप्रभ के शरीर के रक्त की एक भी बूंद किसी प्राणी के काम आ सकती है, तो शायद इस मरणधर्मा शरीर का इससे बेहतरीन उपयोग और क्या हो सकता है? अगर कभी चन्द्रप्रभ की काया गिर जाए तो वह दुनिया के हर समाज को यही कहना चाहेगा कि उसकी काया की अंत्येष्टि करने से पहले यदि उसके नेत्रों के द्वारा किसी अंधे आदमी को ज्योति मिल सकती हो तो उसके नेत्रों को निकाल कर अंधे आदमी को अवश्य ही प्रदान कर दी जाए। अगर इंसान इंसान होकर इंसान के काम न आया तो मैं पूछना चाहूँगा कि किस ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारी पूजा और तुम्हारी अर्चना की? दुनिया के किसी भी देवता या भगवान को आवश्यकता नहीं है कि तुम उसके नाम पर चार दीप जलाओ। हम दीपक जला कर क्या भगवान के घर को रोशन करना चाहते हैं? अरे, जिससे तीन लोक प्रकाशित है, उसके नाम पर चार दीप जला दिए या चार पेड़े चढ़ा दिए तो क्या फर्क पड़ता है! वे दीप जो हम परमात्मा के नाम पर जलाया करते हैं, वे दीप किसी गरीब व्यक्ति की झोंपड़ी में जाकर उसके अंधकार को मिटाने के लिए जलाएँ। ऐसा करना ही ईश्वर को दीप-दान करने के समान होगा। अगर हम १०० ___आपकी सफलता आपके हाथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122