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और उसे छात्रवृत्ति की जरूरत है तो उसकी व्यवस्था पूर्ण करें। हमारे यहाँ वर्षभर चढ़ावा होता है तो मैं कहूँगा कि उस चढ़ावे की रकम को उसमें खर्च कर दें। अगर सौ बेहतर इंसानों का निर्माण हो जाए तो यह हमारी ओर से सौ मंदिरों के निर्माण का कार्य होगा।
अगर हम कर सकें तो अपने समाज में एक अस्पताल जरूर बनाएँ। जहाँ हमारे समाज का कोई भी व्यक्ति यदि दो लाख का खर्च करवा कर 'हार्ट सर्जरी' का ऑपरेशन नहीं करवा सकता, समाज तब उसका सहायक बने, समाज तब उसका तीर्थ बने और उसको सहायता प्रदान करे। जैसे तीर्थ भवसागर में डूबे हुए आदमी को पार किया करता है, ऐसे ही हममें से कोई भी व्यक्ति किसी दीन-दुःखी व्यक्ति के दुःखों को दूर करने का काम करेगा तो ऐसा करना तीर्थ की अर्चना ही होगी।
भगवान श्री महावीर ने तो साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका- इन चारों को भी तीर्थ की संज्ञा दी है। किसी श्रावक की सेवा करना, किसी श्राविका की सेवा करना, ये भी तीर्थ की सेवा ही है। जब उनसे पूछा गया, 'भंते, एक व्यक्ति तो वह है जो कि रात-दिन आपके नाम की माला फेरा करता है और दूसरा व्यक्ति वह है जो कि उतने समय को दीन-दु:खी और म्लान की सेवा में व्यय करता है तो आप यह बताएँ कि आपको इन दोनों में से ज्यादा प्रिय कौन हैं?' भगवान् ने कहा, 'मुझे वह व्यक्ति ज्यादा प्रिय है जो दीन-दुःखी
और म्लान लोगों की सेवा करता है। भगवान् को भी वह व्यक्ति प्रिय है तो मैं आप सभी महानुभावों से अपने हृदय की पीड़ा के साथ कहूँगा कि हम सब लोग भी मनुष्य हैं तो मनुष्य की तरह जिएँ। मनुष्य होकर मनुष्य के काम आने का प्रयास करें।
क्या करेगा प्यार वो ईमान को, क्या करेगा प्यार वो भगवान को। जन्म लेकर गोद में इंसान की, कर न पाया प्यार जो इंसान को॥
सफलता के हाथों में दीजिए सहानुभूति की रोशनी
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