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कितनी दिव्य शक्ति होती है।
उस समय कलकत्ता का एक एस.पी. जिसने कि यह संकल्प लिया था कि मैं मदर टेरेसा को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल कर ही रहूँगा, वहाँ से गुजरा। जब उसने मदर टेरेसा को महंत की इस तरह से सेवा करते हुए देखा, तो वह भीड़ के सामने आकर कहने लगा कि निश्चित ही कलकत्ता का एस.पी. मदर टेरेसा को इस देश से निकालने वाला पहला आदमी होगा, लेकिन यह तभी होगा जब हममें से कोई नई मदर टेरेसा पैदा हो जाएगी। निश्चय ही वह दिन भारत के इतिहास का स्वर्णिम सूर्योदय कहलाएगा। मदर टेरेसा का जीवन मानवता की सेवा की सर्वोच्च मिसाल है।
यदि कोई मुझसे यह पूछे कि मैं अपनी जिदंगी में अगर संत न बनता तो क्या बनना पसंद करता? मैं कहूँगा कि मैं अपने जीवन में मदर टेरेसा बनना पसंद करता। और आज भी, मैंने एक गौरवपूर्ण परम्परा का संन्यासीजीवन स्वीकार कर लिया है इसलिए उसकी मर्यादा का निर्वाह करना मेरा कर्तव्य बनता है। इसके बावजूद कोई हमसे पूछे तो हम सच्चा धर्म मनुष्यता को ही मानते हैं। हमारे पास अगर दो पैसों की भी सहूलियत है तो हम उसको इंसानियत के नाम पर खर्च करते हैं। हम यही पूरी-पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे द्वार पर आया हुआ कोई भी याचक खाली हाथ न चला जाए।
हम अपने आप में यदि थोड़े से भी धनी-मानी हैं तो सदैव अपना हाथ खुला रखें । देने वाले बनें, चाहे लेने वाला उसका दुरुपयोग ही कर बैठे।
अरे, गृहस्थ तो देने मात्र से ही धन्य होता है। उसमें फिर पात्र और अपात्र का विचार ही क्या करना! जिनको नहीं देना होता है वे ही यह सोचते हैं कि मांगने वाला व्यक्ति कुपात्र है कि सुपात्र । अरे, देने वाला तो देने मात्र से ही धन्य हो जाता है।
मैं समझता हूँ कि आज ऐसे दानी लोगों की ज्यादा जरूरत है। मानवता बहुत दुःखी है। यहाँ अगर हम हजार आँखों में झाँक कर देखते हैं तो सुख सौ आँखों में ही दिखाई देता है और दुःख नौ सौ आँखों में । अगर तुम
सफलता के हाथों में दीजिए सहानुभूति की रोशनी
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