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सहानुभूति तो हर धर्म का प्राण है, हर मानव की आवश्यकता है, हर प्राणी की अपेक्षा है । सहानुभूति संसार का वह सौंदर्य है, जिसने सदैव एकदूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होने की प्रेरणा प्रदान की है । यह वह शक्ति है, जिसने सदैव प्राणी से प्राणी को आपस में जोड़कर रहने की कला प्रदान की है। जैसे किसी रोगी आदमी को च्यवनप्रास खाने को दिया जाए और वह अपने शरीर में किसी नई प्राणचेतना का अनुभव करने लगे, ऐसे ही किसी भी व्यक्ति को अगर किसी भी व्यक्ति की सहानुभूति मिल जाए, तो उसके जीवन में नया माधुर्य, नया सुकून और नया आनन्द उपलब्ध हो जाता है।
सेवा से बढ़कर कोई सुख नहीं होता, प्रेम से बढ़कर कोई प्रार्थना नहीं होती, और सहानुभूति से बढ़कर कोई सौंदर्य नहीं होता है। जो मनुष्य अपने परिजनों के प्रति अनुराग रखते हुए उन्हें सहानुभूति प्रदान करता है, वह सहानुभूति 'सहयोग' कहलाती है। दूसरों के प्रति सहयोग की भावना ही सहानुभूति कहलाती है। जब व्यक्ति संसार के किसी भी प्राणी के दुःख-दर्द में सहभागी होने के लिए अपना प्रेम, करुणा और सहानुभूति समर्पित करता है तो व्यक्ति की वह अवस्था सहानुभूति कहलाती है ।
जब मैं किसी भी व्यक्ति के दुःख-दर्द को सुनता हूँ या किसी भी असहाय और बेसहारा आदमी को देखता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि दु:खी वह नहीं है बल्कि उसके ग़म और दुःख की धारा मेरे भीतर साकार होने लगी है । तब मेरा यह प्रयास शुरू होता है कि किस तरह से मैं उस व्यक्ति की पीड़ा को दूर कर दूँ, ठीक वैसे ही जैसे कि मैं अपनी पीड़ा को दूर करता हूँ । किसी भी व्यक्ति की पीड़ा को देखकर उसकी पीड़ा को अपने भीतर अनुभव करना ही सहानुभूति का उच्च स्तर है ।
एक मनुष्य मनुष्य होकर मनुष्य के काम आए, इससे बढ़कर मनुष्य का धर्म और क्या होगा? मनुष्य तो स्वयं ही एक मंदिर है और यह सारी धरती किसी पवित्र तीर्थभूमि के समान है। स्वयं को बुराइयों से दूर रखना और नेक रास्तों पर अपने कदम आरूढ़ करना ही स्वयं को मंदिर मानने के समान है। धरती पर रहने वाले हर छोटे-से-छोटे जीव के प्रति अपना प्रेम और अपनी सफलता के हाथों में दीजिए सहानुभूति की रोशनी ९९
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