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है। जो फूल खिलता है, वह मुरझाता भी है। जो सूरज उगता है, वह अस्त भी होता है। जहाँ संयोग है वहाँ वियोग भी है। जहाँ सुख का कमल है वहाँ दुःख के कांटे भी छिपे होते हैं।
जो व्यवस्था मनुष्य के हाथ में होती है वह चिंता करने जैसी नहीं होती, वह अंजाम देने के लिए होती है। सारी व्यवस्था प्रकृति के हाथ में है क्योंकि मनुष्य स्वयं प्रकृति की रचना है। तो फिर प्रकृति की व्यवस्थाओं के लिए व्यर्थ की चिंता, व्यर्थ के अवसाद को पालने का कोई अर्थ नहीं होता। जब हम कांटों से घिरे हुए गुलाब के फूल को देखते हैं तो लगता है कि हर इंसान भी ऐसे ही कांटों से घिरा हुआ है, भले ही कोई राजसिंहासन पर बैठकर राजमुकुट ही क्यों न धारण कर ले। लेकिन जब-जब भी हम मनुष्य के मन और मस्तिष्क की दशा देखते हैं तब-तब ऐसा लगता है कि हर मनुष्य के माथे पर काँटों का ताज रखा हुआ है। सबको अपने कंधे पर सलीब ढोना पड़ रहा है।
अतीत में कभी जीसस के सिर पर काँटों का ताज और पीठ पर सलीब रखा गया था लेकिन वह बात तो एक शहादत की हुई। आज हममें से हर किसी इंसान ने अपने माथे पर काँटों का ऐसा ताज पहन रखा है कि जिसे आदमी उतारना भी चाहता है पर उसे उतारने का तरीका नहीं जानता। अगर इंसान को जीने की कला आ जाए तो ऐसा कौन-सा काँटों का ताज है जिसे इंसान उतारना चाहे और उतार न पाए। विडंबना यह है कि कुछ काँटों के ताज तो ऐसे होते हैं जिन्हें लोग पहना जाया करते हैं, पर कुछ काँटों के ताज ऐसे भी होते हैं जिन्हें इंसान खुद ही अपने हाथों से पहन लिया करता है। चिन्ता, ईर्ष्या, उत्तेजना, तनाव, अवसाद के काँटे ऐसे ही हैं जिन्हें आदमी खुद अपने हाथों से माथे पर पहनता है। ये काँटे हमें परेशान करते हैं। इसके बावजूद हम अपने आप को उन निमित्तों से, उन परिस्थितियों या अन्य उन पहलुओं से अपने आपको अलग करने का प्रयत्न नहीं करते जो कि बार-बार काँटे बनकर हमें बेधा करते हैं।
मुस्कान लाएँ, तनाव हटाएँ
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