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प्राकृत-व्याकरण सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
डॉ० कमलचन्द सोगाणी
(पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर
मायरधारा-दा
जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
org
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प्राकृत-व्याकरण सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
डॉ० कमलचन्द सोगाणी
(पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर
Tulatk
नविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान . दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, श्री महावीरजी 322 220 ( राजस्थान)
प्राप्ति स्थान
1. जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र,
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी,
सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004
प्रथम संस्करण अगस्त 2005
सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन
मूल्य : 40/
—
पृष्ठ संयोजन
श्याम अग्रवाल,
ए - 336, मालवीय नगर,
जयपुर
मुद्रक जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि., एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001
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आरम्भिक व प्रकाशकीय
'प्राकृत व्याकरण' पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्राकृत भाषा भारतीय आर्य भाषा परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है। यह सर्वविदित है कि तीर्थंकर महावीर ने जनभाषा प्राकृत में उपदेश देकर सामान्यजनों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। भाषा, संप्रेषण का सबल माध्यम होती है। उसका जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जीवन के उच्चतम मूल्यों को जनभाषा में प्रस्तुत करना प्रजातान्त्रिक दृष्टि है।
प्राकृत भाषा को सीखने-समझने को ध्यान में रखकर 'प्राकृत रचना सौरभ' 'प्राकृत अभ्यास सौरभ' 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ' 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ' आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में 'प्राकृत व्याकरण' पुस्तक तैयार की गई है।
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना सन् 1988 में की गई। वर्तमान में इसके माध्यम से प्राकृत-अपभ्रंश का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से कराया जाता है।
किसी भी भाषा को सीखने-समझने के लिए उसकी व्याकरण व रचनाप्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है। प्राकृत व्याकरण' इसी क्रम का एक प्रकाशन है। इसमें प्राकृत के संधि, समास, कारक, तद्धित, स्त्री प्रत्यय और अव्ययों को परिभाषा व उदाहरण सहित समझाया गया है जिससे पाठक सहज-सुचारु रूप से प्राकृत भाषा के व्याकरण को सीख सकेंगे और प्राकृत में रचना करने का अभ्यास भी कर सकेंगे। इसकी शैली, प्रणाली एवं प्रस्तुतिकरण अत्यन्त सरल एवं आधुनिक है जो विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। शिक्षक के अभाव में स्वयं पढ़कर भी विद्यार्थी इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
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पुस्तक प्रकाशन में प्रदत्त सहयोग के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों, प्राकृत भारती अकादमी के विद्वानों एवं सम्पर्क कक्षा श्री महावीरजी के विद्वानों के हम आभारी हैं।
पृष्ठ संयोजन के लिए श्री श्याम अग्रवाल एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि. धन्यवादार्ह हैं।
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
संयोजक
नरेशकुमार सेठी नरेन्द्र पाटनी अध्यक्ष
___मंत्री ___प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
जैनविद्या संस्थान समिति
तीर्थंकर पार्श्वनाथ मोक्ष कल्याणक दिवस श्रावण शुक्ल सप्तमी, वीर निर्वाण संवत् 2531
12.8.2005
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अनुक्रमणिका
विषय
पृष्ठ संख्या
आरम्भिक एवं प्रकाशकीय
सन्धि
1-8
सन्धि प्रयोग के उदाहरण
9 - 13
समास
14 - 21
समास प्रयोग के उदाहरण
22-24
कारक
25-51
तद्धित
-61
स्त्री-प्रत्यय
62-65
अव्यय एवं वाक्य प्रयोग
66 - 85
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समर्पण
डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्री
एवं
पं० बेचरदास जीवराजजी दोशी
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सन्धि दो निकट वर्गों के परस्पर मिल जाने को सन्धि कहते हैं। जब एक शब्द के आगे दूसरा शब्द आता है तो पहले शब्द के अंतिम वर्ण और दूसरे शब्द के प्रथम वर्ण के मिल जाने से जो परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन सन्धि कहलाता है। जैसे
जीव + अजीव = जीवाजीव नर + ईसर = नरेसर लोग + उत्तमा = लोगुत्तमा नर + इंद = नरिंद।
प्राकृत साहित्य में पाई जाने वाली विभिन्न सन्धियाँ निम्न प्रकार हैं : 1) समान स्वर सन्धि : (हेम - 1/5) (क) अ + अ = आ जैसे - जीव + अजीव = जीवाजीव (जीव और अजीव)
अ + आ = आ जैसे - हिम + आलय = हिमालय (हिमालय पर्वत) आ + अ = आ जैसे - दया + अणुसरण = दयाणुसरण (दया का अनुसरण)
आ + आ = आ जैसे - विज्जा + आलय = विज्जालय (विद्या का स्थान) (ख) इ + इ = ई जैसे - सामि + इभ = सामीभ (स्वामी का हाथी)
इ + ई = ई जैसे - गिरि + ईस = गिरीस (हिमालय पर्वत) ई + इ = ई जैसे - गामणी + इसु = गामणीसु (गाँव के मुखिया का बाण)
ई + ई = ई जैसे - पुहवी + ईस = पुहवीस (पृथ्वी का स्वामी) (ग) उ + उ = ऊ जैसे - गुरु + उवदेस = गुरूवदेस (गुरू का उपदेश)
उ + ऊ = ऊ जैसे - साहु + ऊआस = साहूआस (साधु का उपवास) ऊ + उ = ऊ जैसे - चमू + उदय = चमूदय (सेना की उन्नति)
ऊ + ऊ = ऊ जैसे - सयंभू + ऊसाह = सयंभूसाह (स्वयंभू का उत्साह ) 2) असमान स्वर सन्धि : (ए और ओ रूप विधान) [पिशल, पारा 149 (पृ.247)] (क) अ + इ = ए जैसे - देस + इला = देसेला (देश की भूमि)
___
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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आ + इ = ए जैसे - गुहा + इसि = गुहेसि (गुफा का ऋषि) अ + ई = ए जैसे - दिण + ईस = दिणेस (सूर्य)
आ + ई = ए जैसे - सिक्खा + ईहा = सिक्खेहा (शिक्षा का विचार) (ख) अ + उ = ओ जैसे -- सव्व + उदय = सव्वोदय (सर्वोदय)
आ + उ = ओ जैसे - गंगा + उदय = गंगोदय (गंगा का जल) अ + ऊ = ओ जैसे - परोप्पर + ऊहापोह = परोप्परोहापोह
(आपस में सोच-विचार) आ + ऊ = ओ जैसे - दया + ऊण = दयोण (दया से हीन) 3) स्वर-सन्धि निषेध : (हेम - 1/6, 7, 9) (क) इ, ई, उ, ऊ के पश्चात् कोई विजातीय स्वर आवे तो सन्धि नहीं होती है।
जैसेजाइ + अन्ध = जाइअन्ध (जन्म से अन्धा) पुढवी + आउ = पुढवीआउ (पृथ्वी की आयु) बहु + अट्ठिय = बहुअट्ठिय (बहुत हड्डियों वाला)
तणू + अकय = तणूअकय (शरीर से नहीं किया हुआ) (ख) ए और ओ के बाद स्वर होने पर सन्धि नहीं होती है। जैसे – (हेम - 1/7)
लच्छीए + आणंदो = लच्छीएआणंदो (लक्ष्मी का आनन्द)
महावीरे + आगच्छइ - महावीरेआगच्छइ (महावीर आते है)
अहो + अच्छरियं = अहोअच्छरियं (प्रशंसनीय आश्चर्य) (ग) क्रियापद के प्रत्यय के स्वर की अन्य किसी भी दूसरे स्वर के साथ सन्धि
नहीं होती है (हेम - 1/9) जैसे -- होइ + इह = होइ इह (यहाँ होता है) .
(2)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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4) लोप-विधान सन्धि : (हेम – 1/10) (क) स्वर के बाद स्वर रहने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जैसे
नर + ईसर = नरीसर अथवा नरेसर (नर का स्वामी) महा + इसि = महिसि अथवा महेसि (बड़ा इन्द्र) सासण + उदय = सासणोदय अथवा सासणुदय (शासन का लाभ)
महा + ऊसव = महूसव अथवा महोसव (महा उत्सव) (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का लोप हो जाता है। [पिशल, पारा 153 (पृ. 251)]
जल + ओह = जलोह (जल का भंडार)
णव + एला = णवेला (इलायची का नया पेड़)
वण + ओली = वणोली (वन की श्रेणी)
माला + ओहड = मालोहड (माला फेंकी हुई) (ग) (i) पूर्व पद के पश्चात् अ का लोप दिखाने के लिए एक अवग्रह चिन्ह (5)
लिखा जाता है, जैसे -
का+ अवत्था = काऽवत्था (क्या अवस्था) (प्रा. गद्य-पद्य सौरभ, पाठ 7, गा. 61) (ii) पूर्वपद के पश्चात् आ का लोप दिखाने के लिए दो अवग्रह चिन्ह भी (55) भी लिखे जाते हैं, जैसे -
ना + आलसेण = नाऽऽलसेण (आलस्य के बिना)
5) पदों की द्विरुक्ति में सन्धि-विधान : (हेम - 3/1)
जहाँ पदों की द्विरुक्ति हुई हो, वहाँ दो पदों के बीच में 'म्' विकल्प से आ
जाता है। जैसे - (क) एक्क + एक्कं = एक्क + म् + एक्कं = एक्कमेक्कं अथवा एक्केक्कं (हरेक) . (ख) एक्क + एक्केण = एक्क + म् + एक्केण-एक्कमेक्केण अथवा एक्कक्केण (हर एक से)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय (3)
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6) अनुस्वार विधान : (हेम - 1/23, 24, 25) (i) पद के अंतिम 'म्' का अनुस्वार हो जाता है।
जैसे - जलम् - जलं, फलम् > फलं यदि पद के अन्तिम 'म्' के पश्चात स्वर आवे तो उसका विकल्प से अनुस्वार होता है। जैसे - उसभम् + अजिअं = उसभं अजिअं अथवा उसभमजिअं (ऋषभ अजित)
धणम् + एव = धणं एव अथवा धणमेव (धन ही) (iii) ङ् ञ्, ण् तथा न् के बाद व्यंजन आने पर इन व्यंजनों का अनुस्वार हो जाता
है। जैसे - सङ्ख > संख (पु.) = शंख, कञ्चुअ > कंचुअ (पु.) = साँप की केंचुली
उक्कण्ठा > उक्कंठा (स्त्री.) - प्रबल इच्छा, अन्तर > अंतर (नपु.) = भीतर का (iv) अनुस्वार के पश्चात् कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग के अक्षर होने से
क्रम से अनुस्वार को ङ् ञ्, ण, न् और म् विकल्प से होते हैं । (हेम-1/30) कवर्ग
पं + क = पङ्क, पंक (पु.)(कीचड़) ख - संख
सं + ख = सङ्घ, संख (पु.)(शंख) . ग - अं + गण = अङ्गण, अंगण (नपु.)(आंगण/चौक)
लं + घण = लवण, लंघण (नपु.) (उपवास)
+
+
+
कं + चुअ = कञ्चुअ, कंचुअ (पु.) (साँप की केंचुली) लं + छण = लञ्छण, लंछण (नपु.) (चिह्न) अं + जिअ = अञ्जिअ, अंजिअ (नपु.) (अंजनयुक्त)
सं + झा = सञ्झा, संझा (स्त्री.)(सायंकाल) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(4)
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ठ -
।
टवर्ग ट - कं + टअ = कण्टअ, कंटअ (पु.) (काँटा)
उ + कंठा = उक्कण्ठा, उक्कंठा (स्त्री.) (प्रबल इच्छा) ड - कं + ड = कण्ड, कंड (नपु.) (बाण)
सं + ड = सण्ड, संड (पु.) (बैल) तवर्ग त - अं + तर = अन्तर, अंतर (नपु.) (भीतर का) थ - पं + थ = पन्थ, पंथ (पु.) (मार्ग) द - चं + द = चन्द, चंद (पु.) (चन्द्रमा) ध - बं + धव = बन्धव, बंधव (पु.) (बन्धु) पवर्ग
कं + प = कम्प, कंप (पु.) (चलन)
वं + फइ = वम्फइ, वंफइ (चाहता है) (वर्तमान काल) ब - कलं + ब = कलम्ब, कलंब (पु.) (कदम्ब वृक्ष)
आरं + भ = आरम्भ, आरंभ (पु.) (शुरुआत) 6.1 अनुस्वार आगम : (हेम - 1/26)
(i) प्रथम स्वर पर अनुस्वार का आगम : असु - अंसु (आँसू) दसण - दंसण (दाँत से काटना) (ii) द्वितीय स्वर पर अनुस्वार का आगम : इह - इहं (यहाँ) मणसी » मणंसी (प्रसन्न मनवाला) मणसिणी ) मणंसिणी (प्रसन्न मनवाली)
।
फ
।
।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(5)
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1
मुहु
अज्ज
(iii) तृतीय स्वर पर अनुस्वार का आगम :
उवरि >
उवरिं (ऊपर)
(6)
अइमुत्तय >
6.2 अनुस्वार लोप : (हेम - 1 / 29 )
7) अव्यय -
>
>
(i) प्रथम स्वर पर अनुस्वार का लोप :
सिंह
सीह (सिंह)
किं
कि (क्या)
(ii) द्वितीय स्वर पर अनुस्वार का लोप :
कहं
कह (कैसे)
ईसिं
ईसि (थोड़ा)
एवं
दाणिं
1
>
मुहुं (बारबार)
अज्जं (आज)
>
एव ( इसप्रकार )
दाणि (इस समय)
(iii) तृतीय स्वर पर अनुस्वार का लोप :
इयाणिं >
इयाणि (इस समय )
- सन्धि' :
(अइमुंत्तय ) (एक प्रकार की लता )
>
अव्यय पदों में सन्धिकार्य करने को अव्यय सन्धि कहा गया है । यद्यपि यह सन्धि भी स्वर सन्धि के अन्तर्गत ही है, तो भी विस्तार से विचार करने के लिए इस सन्धि का पृथक् उल्लेख किया गया है।'
अभिनव प्राकृत व्याकरण द्वारा डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री पृष्ठ १९ - २०
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
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(i) किसी भी पद के बाद आये हुए अपि/अवि अव्यय के 'अ' का विकल्प से
लोप होता है (हेम - 1/41) जैसे - केण + अपि/अवि केणपि/केणवि अथवा केणापि/केणावि
किं +अपि/अवि किंपि/किंवि अथवा किमपि/किमवि (ii) किसी भी पद के बाद में रहने वाले इति अव्यय के 'इ' का लोप हो जाता
है। (हेम - 1/42) जैसे - किं + इति = किंति
जुत्तं + इति = जुत्तंति (iii) यदि स्वरान्त पद के बाद 'इति' अव्यय आ जाए तो उपर्युक्त नियम से इ को
लोप कर देने पर ति का द्वित्व त्ति हो जाता है। (हेम - 1/42) जैसे - तहा + इति = तहात्ति > तहत्ति (और इस प्रकार) (संयुक्त अक्षर आगे आने के कारण हा > ह हो जाता है) पुरिसो + इति = पुरिसोत्ति > पुरिसुत्ति (पुरुष इस प्रकार) (संयुक्त अक्षर
आगे आने के कारण सो > सु हो जाता है) (iv) सर्वनामों से परे अव्ययों के आदि स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है,
(हेम - 1/40) जैसे - अम्मि + एत्थ = अम्मित्थ अथवा अम्मि एत्थ (मैं यहाँ)
तुज्झ + इत्थ = तुज्झत्थ अथवा तुज्झ इत्थ (तुम सब यहाँ) (v) अव्ययों से परे सर्वनामों के आदि स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है।
(हेम - 1/40) जैसे - जइ + अहं = जइहं अथवा जइ अहं (यदि मैं)
जइ + इमा = जइमा अथवा जइ इमा (यदि यह)
प्राकतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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8.1 निम्नलिखित विधा के शब्दों के संधि विधान को जानना उपयोगी है। दीर्घ
स्वर के आगे यदि संयुक्त अक्षर हो तो उस दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर हो जाता है। (हेम - 1/84)
निम्नलिखित कुछ उदाहरण दिये जा रहे है --- (i) विरह + अग्गि = विरहाग्गि > विरहग्गि (आ > अ) = विरह की अग्नि
मुणि + इंद = मुणींद > मुणिंद (ई > इ) = मुनियों में श्रेष्ठ
चमू + उच्छाह = चमूच्छाह > चमुच्छाह (ऊ > उ) = सेना का उत्साह (ii) देस + इड्ढि = देसेड्ढि > देसिड्डि (ए > इ) = देश का वैभव
पुप्फ + उज्जाण = पुप्फोजाण > पुप्फुज्जाण (ओ > उ) = फूलों का बगीचा । 8.2 आदि स्वर 'इ' के आगे यदि संयुक्त अक्षर आ जाए तो उस आदि 'इ' का
'ए' विकल्प से होता है। जैसे - सिन्दूर अथवा सेन्दूर। कहीं कहीं पर 'इ' के आगे संयुक्त अक्षर होने पर 'इ' का 'ए' नहीं होता। जैसे - चिन्ता (यहाँ 'इ' का 'ए' नहीं हुआ), इच्छा (यहाँ 'इ' का 'ए' नहीं हुआ)। इनको साहित्य एवं कोश के आधार से जानना चाहिए। (हेम - 1/85) न + इच्छसि = णेच्छसि > णिच्छसि (ए > इ)। किन्तु प्रयोगों में 'नेच्छसि'
मिलता है। यह अनियमित प्रयोग है। 9) प्राकृत में सन्धि वैकल्पिक है अनिवार्य नहीं। अक्षर परिवर्तन तथा लोप के
नियम का उपयोग करते समय अर्थ भ्रम न हो, इसका ध्यान रखना जरूरी है। जैसे - पुप्फयंत + आइरिय = पुप्फयंताइरिय अथवा पुप्फयंत आइरिय
(प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ, पाठ-14, पैरा 5 )
(8)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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सन्धि-प्रयोग के उदाहरण
(प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ )
निम्नलिखित का सन्धि विच्छेद कीजिए और सन्धि का नियम बतलाइये ।
पाठ 1 = : मंगलाचरण
गा. सं.
एगंतसुहावहा
लोगुत्तमा
दिट्ठसयलत्थसारा भवियाणुज्जोययरा
पंचक्खरनिप्पण्णो
पाठ 2 = समणसुत्तं
मोहाउरा
तस्सुदयम्मि
दुक्खोहपरंपरेण
मंगलमुक्किट्ठ
साही
जाणमजाणं
खप्पमप्पाणं
अत्तोवम्मेण
धम्ममहिंसा नाऽऽलस्सेण
जस्सेयं
आहारासणणिद्दाजयं
जाविंदिया
=
=
=
=
=
= 2
=
=
1F
5 1=
11
=
=
=
3-5
====
8
10
=
12
3
७
7
15
15
19
22
24
26
32
जयमा
सरणमुत्तमं
पाठ 3
मगहाहिवो
नंदणोवमं
सुहोइयं
नाइदूरमणासन्ने
नाभिसमेमऽहं
विम्हयन्त्रितो
संपयग्गम्मि
इंदासणिसमा
नोवभुंजई
एवमाहंसु
पाठ 4 =
नेच्छसि
परावयारं
परोवयारं
=
उत्तराध्ययन
33
निच्चमावहसि
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक -तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
=
=
-
=
=
||
=
=
=
H
||
=
=
35
=
36
37
=
1
2
3
6
00
8
30
वज्जालग्ग में जीवन मूल्य
127
14
20
28
= 12
12
= 12
12
(9)
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सरणागए
___ = 14
=
22
बहिरंधलिया एक्कमेक्केहि
कमलायराण
तेव
__ = 34 पाठ 6 = कार्तिकेयानुप्रेक्षा गिह-गोहणाइ भुंजिज्जउ सयलट्ठ-विसयजोओ सव्वायरेण एयत्ताविट्ठो कहिज्जमाणं
गव्वमुव्वहइ
=
15
नराहिवा
-
21
जुत्ताजुतं
= 23
थिरारंभा
=
25
घरंगणं
पाठ 7 = दसरह पव्वज्जा
तणमसारं
= 53
पाठ 5 = अष्टपाहुड चारित्तसमारूढो अरसमरूवमगंधं चेयणागुणमसदं
मरणग्गिणा जेणाहं
=
15
= 56
= 15
दिक्खाभिमुहं
= 58
जाणमलिंगग्गहणं
= 15
पालणट्ठाए
= 60
= 15
किमेत्थं
= 61
=
16
काऽवत्था
=
61
जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं सायारणयारभूदाणं झाणज्झयणो परन्भिंतरबाहिरो अंतोवायेण
%=
17
एक्कोऽत्थ
= 62
= 22
= 22
भवारण्णे मोहन्धो दिक्खाहिलासिणो विणओवगया
बहिरत्थे
=
25
= 64
कम्मिंधणाण
=
27
=
65
(10)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
Page #20
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________________
वयणमेयं
चलणङ्गुलीए
अहमवि
पुत्ताऽऽलम्बो
नेच्छइ
सरणमहं
वाऽऽसन्ने
पुरोहियाऽमच्च - बन्धवा
ववसिएणऽज्जं
धरणियलोसित्तअंसुनि
वहाओ
एक्कमेक्कं
जणवयाइण्णा
विञ्झाडवी
दिवसवसाणे
मणभिरामं
कल्लोलुच्छलियसंघाया
सीह - ऽच्छ भल्लचित्तयघणपायवगिरिवराउले
असरणाणऽम्हं
=
=
11
11
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
67
=
70
75
=
97
98
99
= 115
100
102
109
113
115
पाठ 8 = रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं
जिणाययणे
115
119
120
1
11
15
भूयावगूहियं
परतीरावद्वियं
वयणमिणं
निक्कण्टयमणुकूलं
सिरञ्जलिं
तुझऽन्नं
तत्थेव
15
भयकारणमदट्ठूण
नरिंदमुहदंसणेच्छा
नरिंदसमीवमाणीओ
सासू
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
ससुराई
धम्मोवएसो
जीवाणमाहारु
3
=
||
=
=
=
दक्खिणदेसाभिमुहा
पाठ 9 = अमंगलियपुरिसस्स कहा
=
=
=
16
=
17
=
37
=
38
पैरा संख्या
46
47
53
किमेत्थ
वहाएसं
पाठ 10 = विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं
पैरा संख्या
55
2
2
2
2
3
2
2
3
3
(11)
Page #21
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कालंतरे
सालंकारा समणगुणगणालंकिओ
कन्नापाणिग्गहणत्थमन्नोन्नं - 5 असच्चमुत्तरं
केणावि
=5 सावमाणं
कुरुचंदाभिहाणेण ____ = 6 ससुराईण
पाठ 12 = किमेवं
ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा धम्माभिमुहो
पैरा संख्या नन्ना
परिणाविआओ समयधम्मोवएसपराए
समागया संसारासारदसणेण
गुडमीसिअमन्नं सव्वण्णुधम्माराहगो
पुणावि पाठ 11 = कस्सेसा भज्जा कस्सेसा
उयरग्गिदीवणेण = शीर्षक पैरा संख्या
आत्थरणाभावे गंगाभिहाणा
= 1
तुरंगमपिट्ठच्छाइआवर
णवत्थं सीलाइगुणालंकिया
गिहावासे तत्थेव एगमन्नपिंडं
पाठ 13 = कुम्मे कत्थवि
निरुव्विग्गाई
= 2 अणेगदेवयापूयादाणमंतजवाई
आमिसहारा अहमवि
चिरत्थमियंसि जीवावेमि
तस्सेव
___ = 4 (12) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
पैरा संख्या
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________________
धरसेणाइरियं
- 3
पादमूलमुवगया
जहाछंदाईणं संसार-भय-वद्धणमिदि
परिक्खा-काउमाढत्ता
आहारत्थी एगंतमवक्कमंति समणाउसो अगुत्तिंदिए दिसावलोयं पाठ 14 = चिट्ठी
पैरा संख्या तेणिंदभूदिणा बारहंगाणं गंथाणमेक्केण जादेत्ति दुविहमवि परिवाडिमस्सिदूण - सव्वेसिमंगपुव्वाणमेग्गदेसो दक्खिणावहाइरियाणं धरसेणाइरियवयणमवधारिय धवलामल-बहु-विहविणय-विहूसियंगा = तिक्खुत्ताबुच्छियाइरिया - कुंदेंदु-संखवण्णा
हियय-णिव्वुइकरेत्ति अहियक्खरा विहीणखरा छट्ठोववासेण हीणाहियक्खराणं छुहणावणयण-विहाणं तत्थेयस्स
अत्थ-वियत्थ-ट्ठिय-दंतपंतिमोसारिय
=
2
गुरु-वयणमलंघणिजं चिंतिऊणागदेहि - 5 पुष्फयंताइरियो पुप्फयंतआइरिएण पमाणाणुगममादिं 5 भूदबलि-पुप्फयंताइरिया = 5
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(13)
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________________
समास
"समास का अर्थ है संक्षेप याने थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ बताने वाली शैली का नाम समास है। बोलचाल की लोकभाषा में इस शैली का प्रचार बहुत कम दिखाई देता है। परन्तु जब लोकभाषा केवल साहित्य की भाषा बन जाती है तब उसमें इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में होता है।''
" 'न्याय का अधीश' कहना हो तो समास विहीन शैली में 'नायस्स अधीसो' कहा जाएगा। जब कि समासशैली में 'नायाधीसो' कहा जाएगा अर्थात् जिस अर्थ को बताने के लिए समास विहीन शैली में छः अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है उसी अर्थ को बताने के लिए समासशैली में केवल चार अक्षरों से ही काम चल जाता है।''
"इसी प्रकार 'जिस देश में बहुत से वीर हैं वह देश' कहना हो तो समास विहीन शैली में 'जम्मि देसे बहवो वीरा सन्ति सो देसो' इतना लम्बा वाक्य कहना पड़ता है जब कि उसी अर्थ को बताने के लिए समास शैली में बहुवीरो देसो' इतने कम अक्षरों से ही काम चल जाता है अर्थात् जिस अर्थ को बताने के लिए समास विहीन शैली में चौदह अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है, उसी अर्थ को संपूर्ण रूप से बताने वाली समास शैली में केवल छ: अक्षरों से ही सुन्दर रूपेण काम चल जाता है। समास शैली की यही सब से बड़ी विशेषता है।''
समास के चार भेद निम्नलिखित हैं : 1. दंद (द्वन्द्व) 2. तप्पुरिस (तत्पुरुष) 2.1 कम्मधारय ।
, ये तत्पुरुष समास के भेद हैं। 2.2 दिगु समास 3. बहुव्वीहि (बहुव्रीहि), 4. अव्वईभाव (अव्ययीभाव)।
1, 2, 3 - प्राकृतमार्गोपदेशिका द्वारा पं. बेचरदासजी, पृष्ठ 100 (14) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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जिन शब्दों का समास किया जाता है उन्हें अलग-अलग कर देने को विग्रह
कहते हैं ।
1. दंद समास ( द्वन्द्व समास )
दो या दो से अधिक संज्ञाएँ एक साथ रखी गई हों तो वह द्वन्द्व समास कहलाता है । जैसे- 'माता-पिता', 'सगा सम्बन्धी' । ये दोनों उदाहरण द्वन्द्व समास के हैं। उसी प्रकार 'पुण्णपावाई', 'जीवाजीवा', 'सुहदुक्खाई', 'सुरासुरा' आदि उदाहरण भी द्वन्द्व समास के है। दो या दो से अधिक संज्ञाओं को च (य) शब्द द्वारा जोड़ा गया हो, तो वह भी द्वन्द्व समास कहलाता है, जैसे
पुण्णं च पावं च पुण्णपावाई ।
जीवा य अजीवा य जीवाजीवा ।
सुहं च दुक्खं च सुहदुक्खाई।
रूवं य सोहग्गं य जोव्वणं य रूवसोहग्गजोव्वणाणि ।
द्वन्द्व समास द्वारा बने शब्द अधिकतर बहुवचन में रखे जाते हैं । द्वन्द्व समास के विग्रह में य, अ अथवा च प्रयुक्त होता है ।
2. तप्पुरिस समास ( तत्पुरुष समास )
जिस समास का पूर्व पद अपनी विभक्ति के सम्बन्ध से उत्तरपद के साथ मिला हुआ हो वह तत्पुरुष समास कहलाता है। इस समास का पूर्व पद द्वितीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक होता है। पूर्व पद जिस विभक्ति का हो, उसी नाम से तत्पुरुष समास कहा जायेगा ।
बिइआ विभत्ति तप्पुरिस ( द्वितीया तत्पुरुष), तइया विभत्ति तप्पुरिस (तृतीया तत्पुरुष), उत्थी विभत्ति तप्पुरिस (चतुर्थी तत्पुरुष), पंचमी विभत्ति तप्पुरिस (पंचमी तत्पुरुष), छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस (षष्ठी तप्पुरुष) और सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस ( सप्तमी तत्पुरुष ) ।
अतीत, पडिअ,
(i) बिइआ / बीओ विभत्ति तप्पुरिस (द्वितीया तत्पुरुष ) गअ, पत्त और आवण्ण शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति के आने पर द्वितीया - तत्पुरुष समास होता है । जैसे
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
(15)
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________________
इंदियं अतीतो ___ = इंदियातीतो (इंद्रियों से अतीत) अग्गिं पडिओ ___ = अग्गिपडिओ (अग्नि में पडा हुआ) सिवं गओ
सिवगओ (शिव को प्राप्त) सुहं पत्तो
सुहपत्तो (सुख को प्राप्त) पलयं गओ = पलयगओ (प्रलय को प्राप्त) दिवं गओ = दिवगओ (स्वर्ग को प्राप्त) कटुं आवण्णो = कट्ठावण्णो (कष्ट को प्राप्त) । तइआ विभत्ति तप्पुरिस (तृतीया तत्पुरुष) - जब तत्पुरुष समास का प्रथम शब्द तृतीया विभक्ति में हो, तब उसे तृतीया तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे -
साहूहिं वन्दिओ = साहुवंदिओ (साधुओं द्वारा वंदित) जिणेण सरिसो ___ = जिणसरिसो (जिन के समान) दयाए जुत्तो ____ = दयाजुत्तो (दया से युक्त) गुणेहिं संपनो = गुणसंपन्नो (गुणों से सम्पन्न)
पंकेन लित्तो = पंकलित्तो (कीचड़ से लिप्त) (iii) चउत्थी विभत्ति तप्पुरिस (चतुर्थी तत्पुरुष) - जब तत्पपुरुष समास का
प्रथम शब्द चतुर्थी विभक्ति में हो, तब उसे चतुर्थी तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे - मोक्खाय नाणं __= मोक्खनाणं (मोक्ष के लिए ज्ञान) लोयाय हिओ = लोयहिओ (लोक के लिए हित) लोगस्स सुहो = लोगसुहो (लोग के लिए सुख)
बहुजणस्स हिओ - बहुजणहिओ (बहुजनों के लिए हित) (iv) पंचमी विभत्ति तप्पुरिस (पञ्चमी तत्पुरुष) - जब तत्पुरुष समास का - पहला शब्द पञ्चमी विभक्ति में रहता है, तब उसे पञ्चमी तत्पुरुष समास कहते
हैं। जैसे
(16)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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संसाराओ भीओ - संसारभीओ (संसार से भयभीत) दंसणाओ भट्ठो - दंसणभट्ठो (दर्शन से भ्रष्ट) अन्नाणाओ भयं __= अन्नाणभय (अज्ञान से भय) रिणाओ मुत्तो रिणमुत्तो (ऋण से मुक्त)
चोराओ भयं = चोरभयं (चोर से भय) (v) छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस (षष्ठी तत्पुरुष) - जब तत्पुरुष समास का प्रथम
शब्द षष्ठी विभक्ति में रहता है, तब उसे षष्ठी तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसेदेवस्स मंदिरं देवमंदिरं (देव का मंदिर) विजाए ठाणं = विज्जाठाणं (विद्या का स्थान) धम्मस्स पुत्तो = धम्मपुत्तो (धर्म का पुत्र) देवस्स थुई
देवथुई (देव की स्तुति) बहूए मुहं = बहूमुहं (वधू का मुख)
समाहिणो ठाणं = समाहिठाणं (समाधि का स्थान) (vi) सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस (सप्तमी तत्पुरुष) - जब तत्पुरुष समास का
प्रथम शब्द सप्तमी विभक्ति में रहता है, तब उसे सप्तमी तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसेकलासु कुसलो = कलाकुसलो (कलाओं में कुशल) गिहे जाओ
गिहजाओ (घर में उत्पन्न) नरेसु सेट्ठो = नरसेट्ठो (नरों में श्रेष्ठ) कम्मे कुसलो ____ = कम्मकुसलो (कर्म में कुशल)
सभाए पंडिओ - सभापंडिओ (सभा में पण्डित) 2.1 कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) - विशेषण और विशेष्य का समास भी तत्पुरुष के भीतर समझा गया है, उसका दूसरा नाम है - कर्मधारय समास । जैसे
प्राकतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्वीप्रत्यय-अव्यय
(17)
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________________
रत्तो सो घडो
रत्तघडो (लाल घड़ा) वीरो सो जिणो = वीरजिणो (वीर जिन) सुद्धो सो पक्खो = सुद्धपक्खो (शुद्ध पक्ष) पीअं तं वत्थं = पीअवत्थं (पीला वस्त्र) सुंदरा सा पडिमा = सुंदरपडिमा (सुन्दर प्रतिमा) कभी समास में दोनों शब्द विशेषण भी होते है। जैसे - रत्तपीअं वत्थं (लाल-पीला वस्त्र) सीउण्हं जलं (शीत और ऊष्ण जल) कई बार पूर्व पद उपमा सूचक होता है। जैसे - चंदो इव मुहं = चन्दमुहं (चन्द्रमा के समान मुख) वज्जो इव देहो = वजदेहो (वज्र के समान शरीर) कई बार पूर्व पद केवल निश्चयबोधक होता है। जैसे - संजमो एव धणं = संजमधणं (संयम ही धन है)
विजा चिअ धणं = विजाधणं (विद्या ही धन है) 2.2 दिगु समास (द्विगु समास) - कर्मधारय समास का प्रथम शब्द यदि संख्या सूचक हो और दूसरा शब्द संज्ञा हो तब उसे द्विगु समास कहते है। (i) समूह अर्थ में द्विगु समास सदा नपुंसकलिंग एकवचन में होता है। जैसे -
नवण्हं तत्ताणं समूहो = नवतत्तं (नव तत्त्व)
चउण्हं कसायाणं समूहो = चउक्कसायं (चार कषाय)
तिण्हं लोगाणं समूहो = तिलोगं (तीन लोक) (ii) कभी-कभी समूह अर्थ में द्विगु समास पुल्लिंग एकवचन भी हो जाता है।
जैसे - तिण्हं वियप्पाणं समूहो = तिवियप्पो (तीन विकल्प) (iii) अनेक अर्थ में जो द्विगु समास होता है, उसमें वचन और लिंग का उपर्युक्त
प्रकार से नियम नहीं होता है।
(18)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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जैसे - तिण्णि लोया तिलोया,
=
3. बहुव्वीहि समास ( बहुब्रीहि समास )
जब समास में आये हुए दो या अधिक शब्द किसी अन्य शब्द के विशेषण बन जाते हैं तो उसे बहुब्रीहि समास कहा जाता है। इस समास में प्रयुक्त शब्द प्रधान नहीं होते हैं, परन्तु उनसे पृथक् अन्य कोई शब्द ही प्रधान होता है, इसलिए इस समास को 'अन्य पदार्थ प्रधान समास" भी कहते हैं ।
इस समास के दो भेद है :
(i) समान विभक्ति वाले शब्द (प्रथमान्त शब्द) - इसे समानाधिकरण बहुव्रीहि समास भी कहते है ।
(ii) भिन्न विभक्ति वाले शब्द ( एक शब्द प्रथमान्त और दूसरा षष्ठी या सप्तमी में हो) । इसे व्यधिकरण बहुव्रीहि समास भी कहते है
I
इस समास का विग्रह करते समय 'ज', 'जा' की विभिन्न विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है ( द्वितीया से सप्तमी तक ) किन्तु समास में आये हुए शब्द प्रथमान्त ही होते है ।
चउरो दिसाओ = चउदिसा
(i) समान विभक्तिवाले शब्दों (प्रथमान्त शब्दों) के उदाहरण क. आरुढो वाणरो जं (2/1) सो आरुढवाणरो (रुक्खो)
(जिस पर बन्दर चढ़ा हुआ है वह )
ख. जिआणि इंदियाणि जेण (3/1 ) सो
(जिसके द्वारा इन्द्रियाँ जीत ली गई है, वह)
1
=
=
जिअइंदियो जिइंदियो ( मुणी ) ।
ग. जिओ कामो जेण (3/1) सो= जिअकामो ( महादेवो) (जिसके द्वारा काम जीत लिया गया है, वह)
घ. चत्तारि मुहाणि जस्स (6/1 ) सो = चउम्मुहो (बंभो ) (जिसके चार मुख है, वह )
च. एगो दंतो जस्स (6/1) सो = एगदंतो (गणेसो) (जिसके एक दाँत है, वह)
प्राकृतमार्गोपदेशिका द्वारा पं. बेचरदासजी, पृष्ठ 106
>
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(19)
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छ. सुत्तो सीहो जाए (7/1 ) सा= सुत्तसीहो (गुहा) (जिसमें सिंह सोया हुआ है, वह )
(ii) भिन्न विभक्ति वाले शब्दों (एक शब्द प्रथमान्त और दूसरा षष्ठी या सप्तमी में हो) के उदाहरण
वह )
क. चक्कं पाणिम्मि जस्स सो चक्कपाणी (विष्णु) (जिसके हाथ में चक्र है, ख. चक्कं हत्थे जस्स सो = चक्कहत्थो (भरहो ) (जिसके हाथ में चक्र है, वह )
गंडीवं करे जस्स सो = गंडीवकरो (अज्जुणो ) (जिसके हाथ में गांडीव (धनुष) है, वह )
ग.
अव्वईभाव समास (अव्ययीभाव समास )
अव्वयीभाव समास में पहला पद बहुधा कोई अव्यय होता है और दूसरा पद संज्ञा होता है । पहला पद ही मुख्य होता है । अव्वयीभाव समास का पूरा पद क्रियाविशेषण अव्यय होता है । समास में आए हुए अन्तिम शब्द के रूप सदैव नपुंसकलिङ्ग प्रथमा विभक्ति, एक वचन में चलाए जाते है । वैसा ही रूप अव्ययीभाव समास का हो जाता है । अव्ययीभाव समास के रूप नहीं चलते है । उदाहरण
4.
(i) उवगुरुं
(ii) अणुभोयणं
(iii) पइनयरं
(iv) पइदिणं
(v)
पइघरं
(vi) जहासत्तिं
(vii) जहाविहिं
( 20 )
=
=
=
=
=
गुरुसमी (गुरु के समीप)
भोयणस्स पच्छा (भोजन के पश्चात् )
नयरं नयरं ति ( प्रतिनगर)
दिणं दिणं ति ( प्रतिदिन)
घरे घरे त्ति (प्रतिघर )
सत्तिं अणइक्कमिऊण (शक्ति की अवहेलना न करके) = ( शक्ति के अनुसार)
विहिं अणइक्कमिऊण (विधि की अवहेलना न करके) = ( विधि के अनुसार)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है। इसका कोई निश्चित नियम नहीं है ।
ह्रस्व स्वर का दीर्घ : (हेम - 1/4 )
अन्त + वेई
सत्त + वीस
=
पइ + हरं
वेणु + वणं
दीर्घ स्वर का ह्रस्व : (हेम - 1/4 )
जउँणा + यडं= जउँणयडं (यमुनातट) अथवा जउँणायडं
नई + सोत्तं
नइसोत्तं (नदि का स्रोत) अथवा नईसोत्तं
=
अन्तावेई (गंगा-यमुना के बीच का भूभाग) अथवा अन्तवेई
सत्तावीस (सत्ताईस) अथवा सत्तवीस
पईहरं (पति का घर) अथवा पइहरं
वेणूवणं (बाँसका जंगल) अथवा वेणुवणं
बहू + मुहं
द्वित्व भाव की प्राप्ति : (हेम - 2 / 97 )
समास में उत्तरपद के प्रथम वर्ण का विकल्प से द्वित्व हो जाता है।
देवत्थुई अथवा देव - थुई (देवता की स्तुति )
कुसुमप्पयरो अथवा कुसुम - पयरो ( फूलों का समूह )
बद्धप्फलो अथवा बद्ध- फलो (करंग का पेड़)
आणालक्खंभो अथवा आणाल-खंभो (हाथी बाँधने का खंभा )
बहुमुहं (वधू का मुख) अथवा बहूमुहं
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक -तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
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समास प्रयोग के उदाहरण
[प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ]
कम्मवसा
=
4
=
5
पाठ 1 = मंगलाचरण पंचणमोकारो केवलिपण्णत्तो लोगुत्तमा
पोखरिणीपलासं मुत्तिसुहं जीवदया
-
17
== 20
आराहणणायगे
सरणमुत्तमं
= 37
पाठ 3 = उत्तराध्ययन
अणुवमसोक्खा णिट्ठियकज्जा पणट्ठसंसारा दिट्ठसयलत्थसारा पंचमहव्वयतुंगा ववगयराया पंचक्खरनिप्पण्णो भत्तिजुत्तो
सुहोइयं मगहाहिवो पभूयधणसंचओ अच्छिवेयणा सत्थकुसला पाठ 4 = वज्जालग्ग में जीवन मूल्य
गाथा सुयणसहावो पाहाणरेहा
= 13 सरणागए दिणयरवासराण थिरारंभा
पवयणसारं
__ = 14
गाथा
- 14
पाठ 2 = समणसुत्तं इंदिअविसएसु मोहाउरा
= 1
24
=
2
= 46
(22)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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________________
घरंगणं
= 50
= 76
भोगकारणं सिरपणाम
= 101
चलणवन्दणं
= 104
कलुणपलावं
= 114
= 11
जणवयाइण्णा
= 115
=
17
जणयधूया
= 116 पाठ 8 = रामनिग्गमण-भरहरजविहाणं
= 21
जलसमिद्धा
= 11
पाठ 5 = अष्टपाहुड विणयसंजुत्तो दयाविसुद्धो
8 पढमलिंगं झाणज्झयणो झाणपईवो
= 19 करुणभावसंजुत्ता चरित्तखग्गेण विरत्तचित्तो पाठ 6 = कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा जल-भरिओ दुक्ख-सायरे
= 18 सुक्ख-दुक्खाणि पाठ 7 = दसरह पव्वजा भवारण्णे
= 21
=
30
आणागुणविसालं = 46 नमियसरीरो पाठ १ = अमंगलिय पुरिसस्स कहा
= 46
__= 5
पैरा
परचक्कभएण
गाथा
मुहपेक्खणेण वयणजुत्तीए मुहदंसणं पाठ 10 = विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं
%3 62
= 63
= 64
सव्वकलाकुसला दिक्खाहिलासिणो दुद्धरचरिया महासंगामे
___ = 68
= 73
अट्ठवासा पिउपेरणाए सव्वण्णधम्मसवणेण
=
1
चिन्तासमुद्दे
= 74
प्राकतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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________________
=
2
पाठ 12 = ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा
-- 2
ससुरगेहे धम्मोवएसो हिययगयभावं वीसवासेसु
बारसवासा
असच्चमुत्तरं
= 7
मरणसमयस्स
घयजुत्तो तिलतेल्लजुत्तं विविहकीलाओ भोयणरसलुद्धा पाठ 13 = कुम्मे पावसियालगा आयरियउवज्झायाणं पाठ 14 = चिट्ठी बारहंगाणं
पैरा
धम्महीणमणुसस्स
माणवभवो
= 11
धम्मपत्तीए
पंचवासा
पाठ 11 = कस्सेसा भज्जा
विज्जा-दाणं
=
4
जणय-जणणीभाया-माउलेहिं
सिद्धविजा विंसदि-सुत्ताणि
___3
अमयरसकुप्पयं गंगामज्झम्मि
=
6
(24)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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कारक
हम यह जानते हैं कि भाषा सम्प्रेषण का बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है। यह समझना जरूरी है कि भाषा में वाक्य एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। वाक्य के माध्यम से श्रोता तक अपनी बात को सार्थक ढंग से पहुँचाना अपेक्षित है। वाक्य में संज्ञा-सर्वनाम आदि शब्दों का प्रयोग होता ही है। सार्थक रूप से अपनी बात कहने के लिए संज्ञा शब्द को सदैव एक रूप में ही प्रयोग नहीं किया जा सकता है। संज्ञा शब्दों का रूप परिवर्तन करके ही उन्हें सार्थक बनाया जा सकता है। इस रूप परिवर्तन के लिए उनमें 'प्रत्यय' लगाये जाते हैं। इन प्रत्ययों के लगने से ही विभक्तियों का बोध होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि संज्ञा शब्द में आठ प्रकार की विभक्तियों के प्रत्यय लगाकर वाक्य में प्रयोग किया जा सकता है। इसी कारण प्राकृत व्याकरण में संज्ञा में आठ विभक्तियाँ बताई गई हैं। ये आठ विभक्तियां निम्रलिखित हैंविभक्ति प्रत्यय चिह्न प्रथमा ने
1 छात्र ने गुरु को प्रणाम किया। द्वितीया को
2 छात्र ने गुरु को प्रणाम किया। तृतीया से, (के द्वारा) 3 गोपाल पानी से मुँह धोता है। चतुर्थी के लिए 4 पुत्र सुख के लिए जीता है। पंचमी से (पृथक् अर्थ में) 5 पेड़ से पत्ता गिरता है। षष्ठी का, के, की 6 राज्य का शासन प्रजा को पालता है। सप्तमी में, पर
7 आकाश में बादल गरजते हैं। संबोधन हे, अरे
8 हे बालक! पुस्तक पढ़ो। इस तरह संज्ञा शब्दों को वाक्य में प्रयुक्त करने के उद्देश्य से विभिन्न प्रत्यय लगाकर संप्रेषण का कार्य किया जाता है।
अब हमें देखना यह है कि उपर्युक्त वाक्यों में संज्ञा शब्द का क्रिया से क्या संबंध है और उस संबंध को व्याकरण में क्या कहा गया है?
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(25)
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________________
1, 2. प्रणाम क्रिया को करने वाला 'छात्र' है और 'गुरु' क्रिया का कर्म है I अतः इसको क्रमशः कर्त्ता कारक और कर्म कारक कहा गया है।
3. 'धोना' क्रिया का सम्पादन पानी से होता है ।
अतः इसे करण कारक कहा गया है।
I
4.
5.
6.
7.
8.
'जीना' क्रिया 'सुख के लिए ' है । अतः इसे सम्प्रदान कारक कहा गया है।
'गिरना' क्रिया पेड़ से हुई है ।
अतः 'गिरना' क्रिया का होना पेड़ से है । अतः इसे अपादान कारक कहा गया है ।
इस वाक्य में 'राज्य' का संबंध क्रिया से नहीं है ।
अतः इसको कारक नहीं कहा गया है किन्तु यह विभक्ति राज्य का संबंध शासन से बताती है ।
इस वाक्य में 'गरजने' की क्रिया आकाश में हुई है । अतः इसको अधिकरण कारक कहा गया है।
'हे बालक' इसका 'पढ़ना' क्रिया से कोई संबंध नहीं है । अतः इसको (संबोधन को ) कारक नहीं माना गया है।
इससे यह अर्थ निकला कि कारक वही कहलाता है जिसका क्रिया के साथ सीधा संबंध हो ।
यदि हम कारक और विभक्ति प्रत्ययों को मिलाकर लिखें तो निम्नलिखित रूप हमारे सामने आता है ।
प्रथमा विभक्ति
द्वितीया विभक्ति
तृतीया विभक्ति
चतुर्थी विभक्ति
पंचमी विभक्ति
(26)
कर्त्ता कारक
कर्म कारक
करण कारक
सम्प्रदान कारक
अपादान कारक
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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षष्ठी विभक्ति सप्तमी विभक्ति
अधिकरण कारक संबोधन
अंतः कहा जा सकता है कि व्याकरण का सैद्धान्तिक पक्ष कारक है किन्तु विभक्ति व्यवहारिक पक्ष का द्योतक है। सम्प्रेषण के लिए विभक्तियों का प्रयोग ही किया जाता है।
प्राकृत में कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छ: कारक हैं। प्राकृत के वैयाकरणों ने सम्बन्ध को कारक नहीं माना है और न षष्ठी विभक्ति के रूपों को ही पृथक् स्थान दिया है। षष्ठी के रूप चतुर्थी के समान ही होते हैं।
. छह कारकों का बोध कराने वाली विभक्तियाँ हैं। इतना होने पर भी कारक और विभक्ति में भेद है। कर्त्ता में सर्वदा प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति नहीं होती है, परन्तु कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति भी होती है। जैसे - 'रावणो रामेण हओ' इस वाक्य में 'हनन' क्रिया का वास्तविक कर्ता 'राम' है, पर राम प्रथमा विभक्ति में नहीं है, तृतीया विभक्ति में रखा गया है। इसी प्रकार 'हनन' क्रिया का वास्तवकि कर्म रावण है, उसे द्वितीया विभक्ति में न रखकर प्रथमा विभक्ति में रखा गया है।
प्रथमा विभक्ति : कर्ता कारक 1. जिस व्यक्ति या वस्तु के विषय में कुछ कहा जाता है उसे वाक्य का कर्ता
कहते है और वह प्रथमा विभक्ति में रखा जाता है। जैसे - नरिंदो परमेसरं पणमइ (राजा परमेश्वर को प्रणाम करता है) इस वाक्य में 'पणमइ' क्रिया को करने वाला 'नरिंद' कर्ता है और प्रथमा विभक्ति में है। इस तरह से
कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। 2. कर्मवाच्य में वाक्य बनाते समय कर्तृवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती
है। मायाए/मायाइ/मायाअ कहा सुणिज्जइ/सुणीअइ/ आदि (माता के द्वारा कथा सुनी जाती है)। यहाँ कहा प्रथमा विभक्ति में है। इस वाक्य का कर्तृवाच्य हुआ माया कहं सुणइ/सुणए/सुणदि आदि।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(27)
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3.
4.
(i) प्रथमा विभक्ति का उपयोग शब्द का अर्थ और लिंग दोनों बतलाने के लिए किया जाता है। अतः जब किसी शब्द का कोई अर्थ निकालना हो तो उस शब्द में प्रथमा विभक्ति लगाते हैं । नरिंद शब्द का उच्चारण निरर्थक होगा, किन्तु यदि नरिंदो कहें तो 'राजा' उस शब्द का अर्थ होगा । यहाँ नरिंदो शब्द से ज्ञात होता है कि यह शब्द पुल्लिंग है और इसका अर्थ 'राजा' है। इसी प्रकार तडो, तडी, तडं शब्द प्रथमा विभक्ति में रखे गये हैं । तडो (पुल्लिंग), तडी (स्त्रीलिंग), तडं (नपुंसकलिंग) शब्दों के लिंग हैं और 'किनारा' इनका अर्थ है । इसलिए संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण में अर्थ निकालने के लिए प्रथमा विभक्ति के प्रत्यय जोड़े जाते हैं । सो (पु.), सा (स्त्री.), तं ( नंपु.), मोहरो (पु.), मोहरा (स्त्री.), मणोहरं ( नपुं. ) ।
(ii) वस्तु का परिमाण या नाप बताने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे- सेरो (पु.) गोहूमो ( एक सेर गेहूँ) । यहाँ प्रथमा विभक्ति से 'सेर' का नाप विदित होता है।
(iii) संख्या का ज्ञान कराने के लिए भी प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है । जैसे- एक्को (एक), तिण्णि ( तीन ), आदि ।
सम्बोधन में प्रायः प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे हे देवो, हे साहू । अन्य रूप भी मिलते हैं। जैसे - हे कमल, हे वारि, हे महु, हे गामणि, हे सयंभु, हे लच्छि बहु आदि ।
कर्त्ता और क्रिया का समन्वय
1. क्रिया का पुरुष तथा वचन कर्त्ता के अनुसार होता है।
क. यदि कर्त्ता अन्य पुरुष एकवचन / बहुवचन का हो तो क्रिया भी अन्यपुरुष एकवचन / बहुवचन की होगी ।
ख. यदि कर्त्ता मध्यम पुरुष एकवचन बहुवचन का हो तो क्रिया भी मध्यमपुरुष एकवचन / बहुवचन की होगी ।
ग. यदि कर्त्ता उत्तम पुरुष एकवचन / बहुवचन का हो तो क्रिया भी उत्तमपुरुष एकवचन बहुवचन की होगी।
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रामो झाअइ (राम ध्यान करता है।) यहाँ कर्ता अन्य पुरुष एकवचन का है तो क्रिया भी अन्य पुरुष एक वचन की प्रयुक्त हुई है। तुमं झाअसि (तुम ध्यान करते हो।) यहाँ कर्ता मध्यम पुरुष एकवचन का है तो क्रिया भी मध्यम पुरुष
एक वचन की प्रयुक्त हुई है। (iii) अहं झाआमि (मैं ध्यान करता हूँ।)
यहाँ कर्ता उत्तम पुरुष एकवचन का है तो क्रिया भी उत्तम पुरुष
एक वचन की प्रयुक्त हुई है। 2. वाक्यों में जब दो या दो से अधिक कर्ता संज्ञाएँ हो तो क्रिया बहुवचन की
होगी। जैसे -
रामो हरी य चिट्ठन्ति (राम और हरी बैठते हैं।) 3. जब अनेक संज्ञाएँ अलग-अलग समझी जाती है अथवा अनेक संज्ञाएँ एक
साथ मिलकर केवल एक विचार को प्रकट करती है तो क्रिया एकवचन की होगी। जैसे - कोहो माणो माया लोहो संतिं नासेइ (क्रोध मान माया लोभ शांति को नष्ट करते हैं।) जब वाक्य में एकवचन का (संज्ञा कर्त्ता) कर्ता अथवा से जुड़ा होता है तो एकवचन की क्रिया आती है। किन्तु जब कर्त्ता भिन्न वचनों का हो, तो क्रिया निकटतम कर्ता के अनुसार होगी। जैसे(i) राया मन्ती वा वियारइ (राजा अथवा मंत्री विचार करता है।) (ii) ससा वा भाई वा बालआ आगच्छन्ति (बहिन अथवा भाई अथवा बालक
आते हैं।) 5. जब उत्तम, मध्यम तथा अन्य पुरुष के कर्ता हो तो क्रिया उत्तम पुरुष
बहुवचन की होगी और जब मध्यम तथा अन्य पुरुष का कर्ता हो तो क्रिया मध्यम पुरुष बहुवचन की होगी। जैसे(i) सो, तुमं, अहं च उट्ठमो (वह, तुम और मैं उठते हैं।)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(29)
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1.
2.
सो, तुमं च उट्ठह ( वह और तुम उठते हो।)
तो
जब भिन्न-भिन्न पुरुषों के दो या दो से अधिक कर्त्ता अथवा से जुड़े हों, क्रिया का पुरुष और वचन निकटतम पद के अनुसार होगा। जैसे
(i)
(11)
द्वितीया विभक्ति: कर्मकारक
I
जिस व्यक्ति या वस्तु पर किसी क्रिया का प्रभाव पड़ता है, वह उस क्रिया का कर्म कहलाता है, जैसे- माया कहं सुणइ / सुणदि आदि (माता कथा को सुनती है।) यहाँ सुनना क्रिया का प्रभाव कथा पर समाप्त होता है । इसलिए 'कहा' कर्मकारक हुआ, उसमें द्वितीया विभक्ति रखी गई है। यहाँ यह समझना चाहिए कि कर्मवाच्य को छोड़कर सभी जगह कर्म द्वितीया विभक्ति में रखा जाता है, जैसे बताया गया है कि कर्मवाच्य में कर्म प्रथमा विभक्ति में रखा जाता है, जैसे- मायाए / मायाइ / मायाअ कहा सुणिज्जइ / सुणी अइ / आदि
(ii)
द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और गौण कर्म में अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, सम्बन्ध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है ।
(i)
(iii)
(iv)
सो, अम्हे वा कज्जं करमो ( वह अथवा हम कार्य करते हैं ।) अम्हे, सो वा कज्जं करइ (हम अथवा वह कार्य करता है ।)
( 30 )
(v)
—
वह गाय से दूध दुहता है - सो गाविं दुद्धं दुहइ/दुहए/आदि (अपादान 5/1 की विभक्ति के स्थान पर)
वह वृक्ष के फलों को इकट्ठा करता है सो रुक्खं फलाई/ फलाणि / आदि चुणइ / चुणए / आदि (सम्बन्ध 6 / 1 की विभक्ति के स्थान पर)
1
गुरु शिष्य के लिए धर्म का उपदेश देता है गुरु सिस्सं धम्मं उवदिसइ / उवदिसए/आदि (सम्प्रदान 4 / 1 के स्थान पर) वह राजा से धन माँगता है सो नरिंदं धणं मग्गइ / मग्गए / आदि ( अपादान 5/1 के स्थान पर)
वह अग्नि से धान पकाता है - सो अग्गिं धण्णं पचइ / पचए / आदि (करण 3 / 1 के स्थान पर)
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(ii)
(vi) वह पुत्र को गाँव में ले जाता है - सो पुत्तं गामं वहइ/वहए/आदि
अथवा णीणइ/णीणए/आदि (अधिकरण 7/1के स्थान पर) पुच्छ (पूछना), रुंध (रोकना), मह (मथना), मुस (चोरी करना) आदि द्विकर्मक क्रियाओं का प्रयोग भी कर लेना चाहिए।
उपर्युक्त क्रियाओं के पर्यायवाची अर्थ में भी प्रधान और गौण कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।
. इनके कर्मवाच्य बनाने में गौण कर्म में प्रथमा हो जाती है और प्रधान कर्म में द्वितीया ही रहती है, किन्तु 'वह' क्रिया के प्रधान कर्म को प्रथमा में रखा जाता है और गौण कर्म द्वितीया में रहता है। (i) सो मित्तं पहं पुच्छइ/पुच्छए/आदि (कर्तृवाच्य)
तेण मित्तो 1/1 पहं 2/1 पुच्छिज्जइ/पुच्छीअइ/आदि (कर्मवाच्य) सो गाविं दुद्धं दुहइ/दुहए/आदि (कर्तृवाच्य)
तेण गावी 1/1 दुद्धं 2/1 दुहिजइ/दुहीअइ/आदि (कर्मवाच्य) (iii) सो पुत्तं गामं वहइ/वहए/आदि (कर्तृवाच्य)
तेण पुत्तो 1/1 गाम 2/1 वहिज्जइ/वहीअइ/आदि (कर्मवाच्य) नोट - यहाँ पुत्त प्रधान कर्म है, अतः कर्मवाच्य में 'वह' क्रिया के
साथ प्रथमा विभक्ति में रखा गया है। इसी प्रकार अन्य वाक्य बना लेने चाहिए। यहाँ 'वह' क्रिया को छोड़कर अन्य क्रियाओं के योग में गौण कर्म में प्रथमा विभक्ति रखी गई है। यहाँ यह जानना चाहिए कि "क्रिया के अर्थ को पूर्ण करने के लिए जिस संज्ञा शब्द को अनिवार्यतः कर्म कारक में रखा जाए वह प्रधान कर्म होता है और जिसे वक्ता अपनी इच्छा से कर्मकारक में रखता है (वह चाहे तो उसे दूसरे कारक में भी रख सकता है) वह गौण कर्म होता है।" (संस्कृत रचना, आप्टे पेज 29) 3. सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे -
सो घरं गच्छइ/गच्छए/आदि (वह घर जाता है।)
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4. सप्तमी के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है जैसे -
सूरपयासो दिणं (2/1) पसरइ/पसरए/आदि (सूर्य का प्रकाश दिन में फैलता
है।) यहाँ दिणे (सप्तमी) के स्थान पर दिणं (द्वितीया) हुई है। 5. प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है,
जैसे - चउवीसं (2/1) जिणवरा (1/2)। यहाँ होना चाहिए - चउवीसा 1/1 जिणवरा 1/2 । नोट :- संख्यावाची शब्दों के रूपों के लिए देखें प्रौढ़ प्राकृत रचना सौरभ
पृ० 158, 161 । 6. यदि वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो
तो क्रिया के आधार में द्वितीया होती है। हरी सग्गं (2/1) उववसइ/अनुवसइ/अहिवसइ/आवसइ/आदि। (हरी स्वर्ग में वास करता है।) यदि हम वस का ही प्रयोग करेंगे तो 'हरी सग्गे वसइ' वाक्य बनेगा। यहाँ द्वितीया विभक्ति नहीं हुई है। उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि (धिक्कार), समया (समीप)इनके साथ द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे - परिजणो रायं (2/1) उभओ/ सव्वओ चिट्ठइ (परिजन राजा के दोनों ओर / चारों ओर बैठते है।) धि दुजणं (2/1) (दुर्जन को धिक्कार), गामं (2/1) समया एक्को तडागो
अत्थि (गाँव के समीप एक तालाब है।) 8. अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया होती
7.
(i) (ii)
णाणं अन्तरेण न सुहं (ज्ञान के बिना सुख नहीं है।) गंगं जउणं य अन्तरा पयागो अत्थि (गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है।)
(32)
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9. पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया होती है। जैसे -
मायं (2/1) पडि तुम सनेहं करसि/करसे/आदि (माता की ओर तुम स्नेह रखते
हो)। 10. समय एवं मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे - (i) सो पंच दिणाणि/दिणाइं/आदि (2/2) खेत्तं सिंची/सिंचिंसु
(वह पाँच दिन तक खेत सींचता रहा।) (ii) सो कोसं (2/1) चलइ (वह कोस भर चलता है।)
यहाँ पंच दिणाणि - द्वितीया विभक्ति में रखा गया है और कोसं भी द्वितीया विभक्ति में है। (यह प्रयोग उस समय होता है जब निरन्तरता हो,
समाप्ति नहीं)। 11. दूर (नपु.) व अंतिय (समीप) (नपु.) तथा इनके समानार्थक शब्द
द्वितीया विभक्ति में रखे जाते है। जैसे - (i) गामत्तो/गामाओ/आदि दूरं (2/1) णई अत्थि। (गाँव से दूर नदी है।) (ii) सरिआ/सरिआइ/सरिआए अंतियं (2/1)जई वसइ/वसए/वसदि।
आदि (नदी के समीप यति बसता है।) 12. विणा के योग में द्वितीया होती है। जैसे -
मायं विणा सिक्खा न होइ/होदि/आदि (माता के बिना शिक्षा नहीं होती है।) 13. कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एक वचन क्रियाविशेषण
के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे - सो सुहं विहरइ/विहरए विहरदि/आदि (वह सुखपूर्वक रमण करता है।)
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प्रयोग वाक्य
1. ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा
(समणसुत्तं 29) 2. विज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती पाहाणरेह व्व।।
(वज्जालग्ग में जीवन मूल्य 13)
वे (अंधा और लंगड़ा) जुड़े हुए (आग से बचकर) नगर में गए। (नियम 3) सज्जन के बहुत गुणों से क्या? ..... बिजली की तरह अस्थिर क्रोध (तथा) पत्थर की रेखा की तरह मित्रता। (नियम 5) जो बडी विपत्ति से अति पीडित भी दसरे से (धन की) याचना नहीं करते हैं।
3. जे गरुयवसणपडिपेल्लिया वि अन्नं न पत्थंति
(वज्जालग्ग में जीवन मूल्य 46)
(नियम 2) 4. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य
(अष्टपाहुड 31)
5. तच्चं विरलाण धारणा होदि
( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 24) 6. जाएण सुएण पहू ! चिन्तेयव्वं हियं
निययकालं (दसरह पव्वज्जा 77) 7. चंडालो तं पुच्छइ - जीवणं विणा तव
कावि इच्छा सिया तया मग्गियव्वं ।
(अमंगलिय पुरिसहो कहा - 2) 8. तीए हं वुत्तो - समयं विणा कहं
निग्गओ सि? (विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं - 6) 9. अह तइओ नरो महीयलं भमन्तो
जिमिउं उवविट्ठो। (कस्सेसा भज्जा - 3) 10. एत्थ सावमाणं ठाउं न उइउं
(ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा - 5) 11. सुहं विहरंति (कुम्मे - 2) 12. (ते) सिग्धं चवलं, तुरियं, चंडं,
जहणं, वेगिई जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति (कुम्मे - 10)
निंदा और प्रंशसा में, दुःखों और सुखों में ...... समभाव रखने से ही चारित्र होता है। (नियम 4) विरलों की तत्त्व में धारणा होती है। (नियम 4) हे प्रभु! प्रिय पुत्र के द्वारा हृदय में सदैव ऐसा सोचा जाना चाहिए (नियम 4) चांडाल उससे पूछता है - जीवन के अलावा तुम्हारी कोई भी इच्छा है तो माँगी जानी चाहिए। (नियम 12) उसके द्वारा मैं कहा गया - समय के बिना (तुम) कैसे निकले हो? (नियम 12) अब तीसरा मनुष्य पृथ्वी पर घूमता हुआ जीमने के लिए बैठा । (नियम 4) यहाँ अपमानपूर्वक ठहरने के लिए उचित नहीं है। (नियम 13) सुखपूर्वक रमण करते हैं (नियम 13) वे जल्दी से, स्फूर्तिपूर्वक, तेजी से, आवेशपूर्वक, वेगपूर्वक और शीघ्रतापूर्वक, जहाँ वह कछुवा था वहाँ समीप आते हैं। (नियम 13)
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13. जामेव दिसिं पाउभूआ तामेव दिहिं पडिगया। (कुम्मे 13)
निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए । जहाँ कहीं विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए ।
1. उसके द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है। 2. वह बालक से पथ पूछता है। 3. वह गाय से दूध दूहता है। 4. वह पेड़ से फूल इकट्ठा करता है। 5. मुनि बालक के लिए धर्म का उपदेश देता है। 6. वह उससे धन माँगता है। 7. तुम अग्नि से भोजन पकाओ । 8. राजा मंत्री को नगर में ले जाता है। 9. मैं देवालय जाता हूँ। 10. वह रात्रि में मित्र को याद करता है । 11. सज्जन के बिजली की तरह अस्थिर क्रोध होता है । 12. देव स्वर्ग में रहते हैं । 13. कृष्ण के चारों ओर बालक है । 14. नगर के समीप नदी है। 15. उसके बिना मैं जाता हूँ। 16. नदी और नगर के बीच में वन है । 17. बालक की ओर तुम स्नेह रखते हो । 18. वह बारह वर्ष तक रहता है। 19. मैं कोस भर चलता हूँ। 20. नदी नगर से दूर है। 21. समुद्र के निकट लंका है। 22. वह दु:खपूर्वक जीता है ।
2.
जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गये। (नियम 3-4 )
तृतीया विभक्ति - करण कारक
अपने कार्य की सिद्धि में जो कर्ता के लिए अत्यन्त सहायक होता है, वह करण कहा जाता है । उसे तृतीया विभक्ति में रखा जाता है । जैसे
(i)
(ii)
(ii)
रामो बाणेन रावणं मारइ/मारए/आदि (राम वाण से रावण को मारता हैं ।)
कर्मवाच्य और भाववाच्य के कर्ता में तृतीया होती है ।
(i)
पुत्तो जलेन वत्थं पच्छालइ / पच्छालए/ आदि ( पुत्र जल से वस्त्र धोता है ।)
-
नरिंदो कहं सुणइ / आदि ( कर्तृवाच्य ) - नरिंदेण/नरिदेणं कहा सुणिज्जइ/सुणी अइ /आदि (कर्मवाच्य )
रिंदो हस/ आदि (कर्तृवाच्य ) - नरिंदेण/नरिदेणं हसिज्जइ / आदि (भाववाच्य)
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3. कारण व्यक्त करने वाले शब्दों में तृतीया होती है, जैसे - (i) सो अवराहेण लुक्कइ (वह अपराध के कारण छिपता है।)
तुमं उजमेण धणं लभसि/आदि (तुम प्रयत्न के कारण धन प्राप्त करते
हो।)
विजाअ/विजाइ/विजाए पइट्ठा होइ (विद्या के कारण प्रतिष्ठा होती
है।)
(iv) सो अज्झयणेण वसइ/वसए/आदि (वह अध्ययन के कारण रहता है।
बसता है।) 4. फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में
तृतीया होती है। (i) सो दहहिं/दसहि दिणेहिं/दिणेहि गंथं पढीअ (उसने दस दिनों में
ग्रन्थ पढ़ा।) मित्तो तीहिं/तीहि/आदि दिणेहिं/दिणेहि णिरोगो होहीअ (मित्र तीन
दिनों में निरोग हुआ।) (iii) एकेण कोसेण कजं होहीअ (एक कोस पर कार्य हुआ।) सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थ वाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती
5.
है।
(i) सो मित्तेण सह गच्छइ/गच्छए/आदि (वह मित्र के साथ जाता है।) (ii) लक्खणो रामेण समं गच्छिंसु (लक्ष्मण राम के साथ गया था।)
(ii) हणुवंतो रामेण सद्धिं सोहइ (हनुमान राम के साथ शोभता है।) 6. "विणा' शब्द के साथ द्वितीया, तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है।
जलेण (3/1) / जलत्तो (5/1) जलं (2/1) विणा णरो न जीवइ/जीवए।
आदि (जल के बिना मनुष्य नहीं जीता है।) 7. तुल्य (समान, बराबर) का अर्थ बताने वाले शब्दों के साथ तृतीया अथवा
षष्ठी होती है।
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(i) सो देवेण (3/1)/ देवस्स (6/1) तुल्लो अत्थि (वह देव के तुल्य/
समान है।) (ii) धम्मेण (3/1/)/ धम्मस्स (6/1) समाणो मित्तो ण अत्थि (धर्म के
समान मित्र नहीं है।) 8. शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है।
(i) सो पाएण खंजो अत्थि (वह पैर से लंगडा है।) ' (ii) सो कण्णेण बहिरो अस्थि (वह कान से बहरा है।)
(ii) सो णेत्तेण काणो अत्थि (वह नेत्र से काणा है।) 9. क्रियाविशेषण शब्दों में भी तृतीया का प्रयोग होता है।
जैसे - नरिंदो सुहेण जीवइ/जीवए/आदि (राजा सुखपूर्वकजीता है।) 10. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है।
जैसे -- तेणं कालेणं, तेण समएणं (उस काल में) (उस समय में) 11. किं, कजं, अत्थो - इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में
आवश्यक वस्तु को तृतीया में रखा जाता है। जैसे - (i) मूढेण मित्तेण किं ? (मूर्ख मित्र से क्या लाभ है ?) (ii) ईसराणं तिणेण वि कजं हवइ (धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो
जाता है।) को अत्थो तेण पुत्तेण जो ण विउसो ण धम्मिओ (उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है और न धार्मिक है।)
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1. नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । (समणसुतं 24 )
2.
थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य सिक्खा न लब्भइ । (समणसुतं27 )
3. सूरो न दिणेण विणा दिणो विन हु सूरविरहम्मि । (बजालग्ग में जीवन मूल्य 24)
प्रयोग वाक्य
4. पडिवन्नं जेण समं पुव्वणिओएण होइ जीवस्स दूरट्ठिओ न दूरे जह चंदो कुमुयसंडाणं । ( वज्जालग्ग में जीवन मूल्य 30)
5. सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति । (अष्टपाहुड 33 )
6. जम्मं मरणेण समं संपज्जइ
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा 1)
7. तो दसरहेण सिग्धं, पउमो सोमित्तिणा समं वुत्तो । (दसरह पव्वज्जा - 72 )
8. बहुयदिवसेसु देसो, जो वोलीणो
I
कुमारसीहेहिं । सो भरहेण पवन्नो, दियहेहिं छहि अयत्तेणं ॥ (रामनिग्गमण - भरहरज्जविहाणं - 43)
9. सो पिउणा सह गेहे आगओ । (विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं - 6)
( 38 )
आलस्य के साथ सुख नहीं रहता है, निद्रा के साथ विद्या संभव नहीं होती है ।
(नियम 5 )
अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से तथा आलस्य से शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती। (नियम 3 और पंचमी विभक्ति नियम 2 )
दिन के बिना सूर्य नहीं होता है तथा दिन भी निश्चय ही सूर्य के अभाव में नहीं होता है । (नियम 6)
जैसे चन्द्रमा और (चन्द्र-विकासी) कमल-समूहों के (मध्य में) (किया हुआ) (स्नेह) (होता है), (वैसे ही) पूर्व संबंध से जीव का जिसके साथ किया हुआ (स्नेह) होता है, (वह जीव) दूरस्थित ( भी ) दूर नहीं (होता है ) ।
(नियम 5 )
शील (चरित्र) के बिना विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। (नियम 6)
जन्म मरण के साथ संलग्न है। (नियम 5 )
तब दशरथ के द्वारा लक्ष्मण के साथ राम शीघ्र ( बुलाए गये) । (नियम 5 )
कुमार सिंहों के द्वारा जो देश बहुत दिनों में पार किया (था) वह भरत के द्वारा आसानी से छः दिनों में पाया गया (पार किया गया)। (नियम 4 )
वह पिता के साथ घर में आया । (नियम 5 )
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10. सा सुमइ कन्ना सालंकारा जीवंती उट्ठिया । तया तीए समं एगो वरो वि जीविओ ।
(कस्सेसा भज्जा 5)
11. पुण्णे विवाहे जामायरेहिं विणा सव्वे संबंधिणो नियनियघरेसु गया । (ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा - 1 )
12. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरीं होत्था । (कुम्मे - 1)
13. दुवे कुम्मगा मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं विहरति । (कुम्पे - 4 )
14. ते कुम्मगा संजातभया हत्थे य पाए य गवाओ य सएहिं सएहिं काएहिं साहरंति ।
(कुम्मे 7 )
15. गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण कमेण रयणा
कदा | (चिट्ठी 1 )
16. बे वसहा सुमिणंतरेण धरसेण- भडारएण दिट्ठा | (चिट्टी - 3 )
वह सुमति कन्या अलंकारसहित जीती हुई उठी । तब उसके साथ एक वर भी जिया । (नियम 5)
विवाह के पूर्ण होने पर दामादों के अलावा सब सम्बन्धी अपने-अपने घर चले गए। (नियम 6)
इस काल में और इस समय में वाराणसी नामक नगरी थी । ( नियम 10)
दो कछुए मृतगंगातीरहृद की सीमा में गमन करते है ( ) | ( नियम 10 )
वे कछुए उत्पन्न हुए भय के कारण हाथों को और पैरों और गर्दन को अपने-अपने शरीरों में छिपाते थे । ( नियम 10)
ग्रन्थों की एक ही मुहुर्त में क्रम से रचना की गई। (नियम 4)
धरसेन भट्टारक द्वारा दो बैल स्वप्न के मध्य देखे गये । ( नियम 10)
निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए । जहाँ कही विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए ।
1. वह जल से हाथ धोता है । 2. उसके द्वारा सूर्य देखा जाता है। 3. कन्या के द्वारा शरमाया जाता है। 4. पुण्य के कारण हरि दिखे। 5. हरि पाँच दिनों में कोस भर गया। 6. वह बारह वर्षों में व्याकरण पढ़ता है। 7. पुत्र के साथ पिता जाता है। 8. पिता पुत्र के साथ खेलता है। 9. जल के बिना कमल नहीं खिलता । 10. वह राजा के समान है। 11. वह कान से बहरा है। 12. वह स्नेहपूर्वक घर आता है। 13. शील के विनष्ट होने पर उच्च कुल से क्या ? 14. धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो जाता है ।
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चतुर्थी विभक्ति - सम्प्रदान कारक 1. दान कार्य के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, उस व्यक्ति की
सम्प्रदान संज्ञा होती है। संप्रदान को बताने वाले संज्ञापद को चतुर्थी में रखते है। जैसे राया णिद्धणाय/णिद्धणस्स धणं दाइ/देइ (राजा निर्धन के लिए धन
देता है।) 2. जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य होता है, उस प्रयोजन में चतुर्थी होती है।
जैसे - (i) सो मुत्तीए/मुत्तीआ/आदि हरिं भजइ/भजए/आदि (वह मुक्ति के लिए
हरि को भजता है।) (ii) तुम धणस्स/धणाय चेट्ठसि/चेट्ठसे (तुम धन के लिए प्रयत्न करते हो।) 3. रोअ (अच्छा लगना) तथा रोअ के समान अर्थ वाली अन्य क्रियाओं के योग
में प्रसन्न होने वाला सम्प्रदान कहलाता है, उसमें चतुर्थी होती है। जैसे - बालअस्स/बालाय पुप्फाणि/पुप्फाई रोअन्ति/रोअन्ते/आदि (बालक को फूल
अच्छे लगते है/रुचते है।) 4. कुज्झ (क्रोध करना), दोह (द्रोह करना), ईस (ईर्ष्या करना), असूअ
(घृणा करना) क्रियाओं के योग में तथा इसके समानार्थक क्रियाओं के योग में, जिसके ऊपर क्रोध आदि किया जाए उसे चतुर्थी में रखा जाता है। जैसे -
(i)
लक्खणो रावणाय/रावणस्स कुज्झइ/कुज्झए/आदि (लक्ष्मण रावण पर क्रोध करता है।)
(ii) रावणो रामाय/रामस्स ईसइ/ईसए/आदि (रावण राम से ईर्ष्या करता
है।) (iii) महिला हिंसाए/हिंसाइ/हिंसाअ असूअइ/असूअए/आदि (महिला
हिंसा से घृणा करती है।) (iv) दुट्ठो मणुसो सज्जणाय/सज्जणस्स दोहइ/दोहए/आदि (दुष्ट मनुष्य
सज्जन से द्रोह करता है।)
(40)
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5. नमो (णमो) के योग में चतुर्थी होती है - महावीराय/महावीरस्स नमो
(णमो) (महावीर को नमस्कार)। 'णम' क्रिया के योग में द्वितीया और चतुर्थी
दोनों होती है। (प्रयोग वाक्य देखें)। 6. अलं (पर्याप्त के अर्थ में) चतुर्थी होती है। जैसे - झाणो मोक्खाय/
मोक्खस्स अलं अत्थि (ध्यान मोक्ष के लिए पर्याप्त है।) 7. सिह (चाहना) क्रिया के योग में चतुर्थी होती है। जैसे -- सो जसाय/
जसस्स सिहइ/सिहए/आदि (वह यश को चाहता है।) 8. कह (कहना), संस (कहना), चक्ख (कहना) क्रियाओं के योग में और
इसी अर्थ की अन्य क्रियाओं के योग में जिस व्यक्ति से कुछ कहा जाता है उसमें चतुर्थी होती है। जैसे - अहं तुज्झ सच्चं कहमि/कहामि/आदि संसमि/
संसामि/आदि चक्खमि/चक्खामि आदि (मैं तुम्हारे लिए सत्य कहता हूँ।) ____9. चतुर्थी के अर्थ में अत्थं (अव्यय) का प्रयोग भी होता है, जैसे - सो णाणत्थं चेट्ठइ/आदि (वह ज्ञान के लिए प्रयत्न करता है।)
प्रयोग वाक्य
1. पुत्तस्स मज्झ सामिय! देहि समत्थं इमं हे स्वामी! मेरे पुत्र को यह समस्त रजं । (दसरह पव्वजा 70)
राज्य दे दो। (नियम 1) 2. भरहस्स मही दिन्ना, ताएणं केगईवरनिमित्तं। कैकेयी के वर के कारण पिता के द्वारा (दसरह पवजा 98)
भरत को पृथ्वी दी गई। (नियम 1) 3. जणणीऍ सिरपणामं, काऊणं
राम (अपनी) माता व शेष मातृवर्ग को सेसमाइवम्गस्स । पुणरवि य नरवरिन्दं, सिर से प्रणाम करके जाने के लिए तैयार पणमइ रामो गमणसज्जो ॥ (दसरह पब्वज्जा 101) है। तथा पुनः राजा को प्रणाम करता है।
(नियम 5) 4. पुत्तस्स कहणत्थं हटें गच्छइ।
पुत्र को कहने के लिए दुकान पर गया। (विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं )
(नियम 8) 5. ससुरस्स पच्चूसे कहिऊण हं गमिस्सामि। ससुर को प्रभात में कहकर मैं जाऊंगा। (ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 3)
(नियम 8)
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निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए । जहाँ कही विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए ।
1. वह पुत्री के लिए धन देता है। 2. वह धन के लिए प्रयत्न करता है। 3. हरि को भक्ति अच्छी लगती है। 4. राजा मंत्री पर क्रोध करता है। 5. मंत्री राजा को नमस्कार करता है। 6. धान भोजन के लिए पर्याप्त है। 7. वह मुक्ति की चाह रखता है। 8. माता पुत्री के लिए कथा कहती है। 9. राजा भोजन के लिए बैठता है । 10. वह राजा से ईर्ष्या करता है । 11. राम असत्य से घृणा करते है ।
पंचमी विभक्ति
1.
अपादान कारक
जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है, उसे अपादान कहते है । जैसे - रुक्खत्तो / रुक्खाओ / आदि पुप्फं पडइ / पडए / आदि यहाँ फूल पेड़ से अलग हो रहा है । इसी प्रकार - गामत्तो/गामाओ/आदि मित्तो आगच्छइ/ आगच्छए / आदि - (यहाँ गाँव से वियोग पाया जाता है। अतः रुक्ख और गाम में पंचमी रखी जाती है ।)
2. गुणवाचक अस्त्रीलिंग संज्ञा शब्द (पुल्लिंग, नपुंसकलिंग संज्ञा शब्द) जो किसी क्रिया या घटना का कारण बताता है, उसे तृतीया या पंचमी विभक्ति में रखा जाता है। जैसे .
(1)
(ii)
क.
(42)
ख.
1
सो मुक्खत्तो / मुक्खाओ / आदि ण सोहइ / सोहए / आदि ( वह मूर्खता के कारण नहीं शोभता है ।)
सो मुक्खेण (3/1) ण सोहइ / सोहए / आदि ( वह मूर्खता के कारण नहीं शोभता है ।)
लेकिन अस्त्रीलिंग संज्ञा शब्द गुणवाचक न होने पर तृतीया विभक्ति में ही रहते हैं । जैसे
सो धणेण उल्लसइ ( वह धन के कारण खुश होता है ।)
स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द में तृतीया ही होती है। जैसे
सो बुद्धीए छड्डिओ (वह बुद्धि के कारण छोड़ दिया गया)
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3. भय अर्थवाली धातुओं के योग में भय का कारण पंचमी में रखा जाता है।
जैसे - बालओ सप्पत्तो/सप्पाओ/आदि बीहइ/बीहए/आदि (बालक सर्प से डरता है।)
4.
जब कोई अपने को छिपाता है, तो जिससे छिपना चाहता है वहाँ पंचमी विभक्ति होती है। जैसे -- सो गुरुणो/गुरुत्तो/गुरूओ/आदि लुक्कइ/लुक्कए/आदि (वह गुरु से छिपता है।) रोकना अर्थवाली क्रियाओं के योग में पंचमी विभक्ति रहती है। जैसे - गुरु सिस्सं पावत्तो/पावाओ/आदि रोक्कइ/रोक्कए/आदि (गुरु शिष्य को पाप से रोकता
है।)
6. जिससे विद्या, कला पढी/सीखी जाए, उसमें पंचमी होती है। जैसे - सो
गुरुत्तो/गुरूओ/आदि गायणकलं सिक्खइ/सिक्खए/आदि (वह गुरु से गाने
की कला सीखता है।) 7. दुगुच्छ (घृणा), विरम (हटना) और पमाय (भूल, असावधानी) तथा
इनके समानार्थक शब्दों या क्रियाओं के साथ पंचमी होती है। जैसे - (i) सज्जणो पावत्तो/पावाओ/आदि दुगच्छइ/दुगच्छए/आदि (सज्जन पाप
से घृणा करता है।) मुक्खो अज्झयणत्तो/अज्झयणाओ/आदि विरमइ/विरमए/आदि
(मूर्ख अध्ययन से हटता है।) (iii) तुमं सज्झायत्तो/सज्झायाओ/आदि पमायसि/पमायसे/आदि (तुम
स्वाध्याय से प्रमाद करते हो।) 8. उपज (उत्पन्न होना), पभव (उत्पन्न होना) क्रिया के योग में पंचमी
विभक्ति होती है। जैसे(i) खेत्ततो/खेत्ताओ/आदि धन्न उप्पज्जइ/उप्पज्जए/आदि (खेत से धान
उत्पन्न होता है।)
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(ii)
लोभत्तो/लोभाओ/आदि कोहो पभवइ/पभवए/आदि (लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है।)
9. जिससे किसी वस्तु या व्यक्ति की तुलना की जाए, उसमें पंचमी होती है।
जैसे -
(i) धणत्तो/धणाओ/आदि णाणं गुरुतरं अत्थि। (धन से ज्ञान अच्छा है।) (ii) राइणो/रण्णो मंत्ती कुसलतरो अत्थि। (राजा से मंत्री अधिक कुशल
है।) 10. पंचमी के स्थान में कभी कभी कहीं कहीं तृतीया और सप्तमी पाई जाती
है। जैसे - (i) सो चोरेण बीहइ (वह चोर से डरता है।)
(पंचमी के स्थान पर तृतीया)। (ii) तुम सज्झाये पमायसि/आदि (तुम स्वाध्याय में प्रमाद करते हो।)
(पंचमी के स्थान में सप्तमी)। 11. 'विणा' के योग में पंचमी भी होती है। (द्वितीया और तृतीया विभक्ति के
अतिरिक्त) जैसे(i) रामत्तो 5/1 विणा सीया ण सोहइ/आदि (राम के बिना सीता नहीं
शोभती है।) रामेण 3/1 रामं 2/1 विणा सीया ण सोहइ/आदि (राम के बिना सीता नहीं शोभती है।)
(44)
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प्रयोग वाक्य
1. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो
वस्तु-जगत से विरक्त मनुष्य दु:खरहित (समणसुत्तं 5)
(होता है)। (नियम 10) 2. णाणगुणेहि विहीणा ण लहंते ते जो (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित (हैं), सुइच्छियं लाहं । (अष्टपाहुड 2)
वे भली प्रकार से (भी) चाहे हुए लाभ
को प्राप्त नहीं करते हैं । (नियम 10) 3. जो देहे णिरवेक्खो णिबंदो णिम्ममो णिरारंभो। जो देह से उदासीन है, (जो)
आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं॥ (मानसिक) द्वन्द्व-रहित (हैं) ममतारहित (अष्टपाहुड 26)
(तथा) जीव-हिंसारहित (है), जो आत्म-स्वभाव में पूरी तरह संलग्न है, वह
योगी परम शांति प्राप्त करता है। (नियम 10) 4. तत्थ आत्थरणाभावे अईवसीयबाहिया वहाँ बिस्तर के अभाव में अत्यन्त ठंड से
तुरंगमपिट्ठच्छाइआवरणवत्थं गहिऊण रोगी होने के कारण (वे) घोड़े की पीठ भूमीए सुत्ता। (ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 5) पर ढकनेवाले आवरण वस्त्र को ग्रहण
करके भूमि पर सोए। (नियम 2)करके भूमि पर सोए। (नियम 2)
5. विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ।
(अष्टपाहुड 30)
(जिस योगी का) चित्त विषय से उदासीन है, (वह) योगी (ही) आत्मा को जानता है। (नियम 10)
निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए। जहाँ कही विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए।
1. पहाड़ से नदी निकलती है। 2. पत्ते से बूंदे गिरती है। 3. वह गम्भीरता के कारण प्रसिद्ध है। 4. चोर राजा से डरता है। 5. वह पिता से छिपता है। 6. वह पाप से बचता है। 7. तुम गुरु से पुस्तक पढ़ो। 8. राजा असत्य से घृणा करता है। 9. मूर्ख सज्जनों से हटता है। 10. वह स्वाध्याय में प्रमाद करता है। 11. क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। 12. हिंसा से अहिंसा श्रेष्ठ है। 13. वह ज्ञान-गुण से रहित है। 14. वह भाव से विरक्त होता है। 15. धर्म के बिना जीवन व्यर्थ है।
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षष्ठी विभक्ति - सम्बन्ध यह बताया जा चुका है कि सम्बन्ध या षष्ठी विभक्ति कारक नहीं है। संबंध में षष्ठी विभक्ति होती है। उसका क्रिया से सम्बन्ध नहीं होता है। प्रथमा, द्वितीया आदि विभक्तियों का क्रिया से संबंध होता है। 1. हेउ (प्रयोजन या कारण अर्थ में) शब्द के साथ षष्ठी होती है । हेउ शब्द तथा
कारण या प्रयोजनवाची शब्द दोनों को ही षष्ठी विभक्ति में रखा जाता है। जैसे - (i) सो अन्नस्स हेउस्स गामे वसइ (वह अन्न के प्रयोजन से गाँव में रहता है।)
(यहाँ रहने का हेतु या प्रयोजन अन्न है।)
अज्झयणस्स हेउस्स सिस्सो नयरे आगच्छइ (अध्ययन के प्रयोजन से शिष्य नगर में आता है।) (यहाँ नगर में आने का प्रयोजन अध्ययन
2. यदि हेउ शब्द के साथ सर्वनाम का प्रयोग किया गया हो तो हेउ शब्द और
सर्वनाम दोनों में विकल्प से तृतीया, पंचमी या षष्ठी विभक्ति होती है। जैसेसो केण हेउणा/कत्तो हेउत्तो/कस्स हेउस्स अत्थ वसइ (वह किस कारण से
यहाँ रहता है।) 3. एक समुदाय में से जब एक वस्तु विशिष्टता के आधार से छाँटी जाती है, तब
जिसमें से छाँटी जाती है उसमें षष्ठी या सप्तमी होती है। जैसे - पुष्फेसु, पुप्फाणं वा कमलं अईव सोहइ (फूलों में कमल का फूल अत्यन्त शोभता है।) आशीर्वाद देने की इच्छा होने पर आउस, भद्द, कुसल, सुख, हित तथा इनके पर्यायवाची शब्दों के साथ चतुर्थी या षष्ठी होती है। जैसे - रामाय, रामस्स वा आउसं, भदं, कुसलं, हितं, सुखं (राम चिरंजीवी हो, राम का कल्याण
हो, राम का कुशल हो, राम का हित हो, राम को सुख हो आदि ।) 5. द्वितीया-तृतीया आदि विभक्ति के स्थान पर षष्ठी होती है। जैसे - (i) अहं सीमंधरस्स वन्दामि (मैं सीमंधर को वन्दना करता हूँ।) (द्वितीया
के स्थान पर षष्ठी)।
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(ii)
धणस्स सो लद्धो (धन से वह प्राप्त किया गया।) (तृतीया के स्थान पर षष्ठी) सो चोरस्स बीहइ (वह चोर से डरता है।) (पंचमी के स्थान पर षष्ठी)
(iii)
(iv)
तास पिट्टीए केस-भारो (उसकी पीठ पर केशभार है।) (सप्तमी के स्थान पर षष्ठी)।
6. (खेदपूर्वक ) स्मरण करना, दया करना, अर्थ वाली क्रिया के साथ कर्म
में षष्ठी होती है। जैसे
(i)
सो मायाए/आदि सुमरइ (वह माता का स्मरण करता है।)
(ii) सो बालअस्स दयइ/आदि (वह बालक पर दया करता है।) साधारण अर्थ में स्मरण करने के कर्म में द्वितीया ही होती है।
प्रयोग वाक्य
1. णाणं पुरिसस्स हवदि।
ज्ञान आत्मा में होता है। (अष्टपाहुड 6)
(नियम 5) 2. मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बाणा सुअस्थि जिसके लिए स्थिर मति धनुष (है), श्रुत
रयणत्तं । परमत्थबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि । (ज्ञान) डोरी (है), तीन रत्नों का समूह मोक्खमग्गस्स ॥ (अष्टपाहुड 7)
श्रेष्ठ बाण (है) (तथा) परमार्थ की प्राप्ति का लक्ष्य दृढ़ (हैं), (वह) कभी मोक्ष के मार्ग से विचलित नहीं होता है। (नियम 5)
3. तिपयारो सो अप्पा .................. हु
हेऊण। (अष्टपाहुड 22) 4. जो इच्छइ णिस्सरितुं संसारमहण्णवाउ
रुद्दाओ। कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ ( अष्टपाहुड 27)
निश्चय ही (भिन्न-भिन्न ) कारणों से वह आत्मा तीन प्रकार का है। (नियम 1) जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है, वह कर्मरूपी ईधन को जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। (नियम 5)
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5. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य। निंदा और प्रशंसा में, दुःखों और सुखों में
सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो ॥ तथा शत्रुओं और मित्रों में समभाव (अष्टपाहुड 31)
(रखने) से (ही) चारित्र (होता है।)
(नियम 5) 6. से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं वह इस ही भव में बहुत साधुओं द्वारा
समणीणं सावगाणं साविगाणं होलणिज्जे, बहुत श्रमणियों द्वारा, श्रावकों द्वारा, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि श्राविकाओं द्वारा अवज्ञा करने योग्य जहां जाव अणुपरियट्टइ, कुम्मए अगुत्तिंदिए। होते है, परलोक में भी बहुत दंड पाते है (कुम्मे 11)
और वह (संसार में) परिभ्रमण करता है। जैसे इन्द्रियों का गोपन (संयम) नहीं करनेवाला कछुआ (मृत्यु को प्राप्त हुआ) (नियम 5)
निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए। जहाँ कही विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए।
1. राम अध्ययन के प्रयोजन से ग्रन्थ पढता है। 2. वह किस कारण से आया है। 3. पर्वतों में मेरु अत्यन्त ऊँचा है। 4. पुत्री का कल्याण हो। 5. मैं महावीर की वंदना करता हूँ। 6. वह धन से धनवान हुआ। 7. वह शेर से डरता है। 8. उसके मकान पर पत्थर है।
सप्तमी विभक्ति - अधिकरण कारण 1. 'कर्ता की क्रिया का आधार या कर्म का आधार अधिकरण कारक होता
है।' दूसरे अर्थ में 'जिस स्थान पर कोई होता है, उसे अधिकरण कहते है
और वह सप्तमी विभक्ति में रखा जाता है। जैसे - (i) सो आसणे चिट्ठइ/चिट्ठए/आदि (वह आसन पर बैठता है।) यहाँ कर्ता
'सो' (वह) की क्रिया चिट्ठइ (बैठना) का आधार आसन है अतः उसमें सप्तमी विभक्ति हुई। सो थालीए/थालीया/आदि ओदणं पचइ/पचए/आदि (वह थाली (हाँडी) में भात पकाता है।) यहाँ ओदण का आधार थाली (हाँडी) है अतः उसमें सप्तमी विभक्ति हुई।
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दूसरे शब्दों में बैठने का कार्य आसन पर और पकाने का कार्य थाली ( हाँडी) में होने के कारण इनमें अधिकरण कारक हुआ । अतः सप्तमी में रखा गया है।
2. जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है तो हो चुके कार्य में सप्तमी का प्रयोग होता है । हो चुके कार्य के वाक्य में सकर्मक क्रिया का प्रयोग होने पर वाक्य कर्मवाच्य में होगा और अकर्मक क्रिया का प्रयोग होने पर वाक्य कर्तृवाच्य में होगा । जैसे
1) सकर्मक क्रिया का प्रयोग
:
(i)
(ii)
तुम (3/1) भोयणे (7/1) खाए (भूकृ 7/1) सो हरिसइ (तुम्हारे भोजन खा लेने पर वह प्रसन्न होता है 1) (कर्मवाच्य ) ।
तेण (3/1) गंथे (7/1 ) पढिए (7/1) तुमं गाअसि ( उसके ग्रंथ पढ़ लेने पर तुम गाते हो) (कर्मवाच्य )
यहाँ कर्त्ता में तृतीया, कर्म और कृदन्त में सप्तमी का प्रयोग हुआ
है
(ii)
2)
अकर्मक क्रिया का प्रयोग :
सूरे (7/1) उग्गिए (771) कमलं विअसइ ( सूर्य के उगने पर कमल खिलता है।) (कर्तृवाच्य) ।
कर्तृवाच्य में कर्त्ता और कृदन्त में सप्तमी होती है और कर्मवाच्य में कर्त्ता में तृतीया और कर्म और कृदन्त में सप्तमी होती है ।
I
3)
जाना क्रिया दोनों प्रकार से प्रयुक्त हो सकती है । जैसा कि ऊपर उदाहरण में बताया गया है। जैसे -
(i)
रामे (7/1) वनं (2/1 ) गए (7/1 ) दसरहो पाणा चुअइ / चयइ (राम के वन को जाने पर दशरथ प्राणों को त्यागता है ) ( कर्तृवाच्य)
रामेण (3/1) वने (7/1) गए (7/1) दसरहो पाणा चुअइ / चयइ (राम के वन को जाने पर दशरथ प्राणों को त्यागता है ) ( कर्मवाच्य )
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अतः कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया और कर्म और कृदन्त में सप्तमी होती है।
कर्तृवाच्य में कर्ता और कृदन्त में सप्तमी होती है। 3. द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी भी हो जाती है। जैसे - (i) अहं नयरे न जामि (मैं नगर को > में नहीं जाता हूँ।) (द्वितीया के स्थान
पर सप्तमी) (ii) तेसु तीसु पुहई अलंकिआ। (उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई।)
(तृतीया के स्थान पर सप्तमी) पंचमी के स्थान पर कभी कभी सप्तमी पाई जाती है। जैसे - अन्तेउरे रमिउं राया आगओ (अन्तःपुर से रमण करके राजा आ गया।) (यहाँ
पंचमी के स्थान पर सप्तमी हुई।) 5. फेंकने अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी होती है। जैसे -
सो बालं जले/जलम्मि खिवइ (वह बालक को जल में फेंकता है।)
4
प्रयोग वाक्य
1. विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं
(अपपाहुड 30)
जिस योगी का चित्त विषयों से उदासीन है, वह योगी ही आत्मा को जानता है। (नियम 4)
आगमों को जानकर भी तुम्हारे लिए शील (चारित्र) ही उत्तम कहा गया है । (नियम 3)
2. वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं।
(अष्टपाहुड 34) 3. संभासिऊण भिच्चे, वज्जावत्तं च धणुवरं
घेत्तुं । घणपीइसंपउत्तो, पउमसयासं समल्लीणो ॥ (दशरहपव्वजा 111)
भृत्य के साथ बातचीत करके और वज्रावर्त धनुष को लेकर अत्यन्त प्रेमयुक्त व लीन राम के पास (गया)। (नियम 3) पिता, बंधुजन तथा सैंकड़ों सामन्तों से घिरे हुए रहे। (नियम 3)
4. पियरेण बन्धवेहि य, सामन्तसएसु
परिमिया सन्ता। (दशरहपब्वजा 112)
(50)
प्राकतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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5. तेसु कुमारेसु समं, सामन्तजणेण वच्चमाणेणं। उस समय उन कुमारों के साथ जाते हुए
सुन्ना साएयपुरी, जाया छणवज्जिया तइया ॥ सामन्तजनों के कारण साकेतपुरी शून्य (दशरहपव्वज्जा 118)
(तथा) उत्सवरहित हो गई। (नियम 3) 6. पुरोहिअस्स य पुत्तो समीवे ठिओ वट्टइ, तया पुरोहित का पुत्र समीप बैठा रहा तब पुरोहिओ समागओ पुत्ते पुच्छइ।
पुरोहित आया और पुत्र को पूछता है। (ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 6)
(नियम 3)
निम्नलिखित वाक्यों का प्राकृत में अनुवाद कीजिए । जहाँ कहीं विभक्तियों का अन्तर परिवर्तन नियम समान है, वहाँ दोनों प्रकार से अनुवाद कीजिए।
1. राजा आसन पर बैठा। 2. वह घर में रहता है। 3. क्रोध के शान्त होने पर दया होती है। 4. कुशील के नष्ट होने पर शील प्रकट होता है। 5. आगमों को जानकर तुम्हारे लिए सत्य कहा गया है। 6. अनुचरों के साथ बातचीत करके वह गया। 7. विषय से उदासीन चित्त योगी होता है।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(51)
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तद्धित क्रियाओं को छोड़कर संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि में जो प्रत्यय शब्द से जुड़कर विभिन्न अर्थों में प्रयोग किये जाते हैं, उन प्रत्ययों को तद्धित प्रत्यय कहते हैं। तद्धित प्रत्यय क्रिया में नहीं जोड़े जा सकते हैं। केर', 'एच्चय', 'इल्ल', 'उल्ल' आदि तद्धित प्रत्यय हैं, इन प्रत्ययों के लगाने से जो शब्द बनते हैं, उन्हें तद्धित कहते
1. 'केर' प्रत्यय : (हेम - 2/147)
संबंध को सूचित करने के लिए 'अम्ह', 'तुम्ह', 'पर', 'राय' में 'केर' प्रत्यय जोड़ा जाता है, जैसे - अम्ह + केर = अम्हकेर (वि.) अम्हकेरो पुत्तो (मेरा पुत्र), अम्हकेरं
वत्थं (मेरा वस्त्र), अम्हकेरी पुत्ती (मेरी पुत्री), अम्हकेरा
पुत्ता (हमारे पुत्र) आदि। तुम्ह + केर = तुम्हकेर (वि.) तुम्हकेरो पुत्तो (तेरा पुत्र), तुम्हकेरं
वत्थं (तेरा वस्त्र) तुम्हकेरी पुत्ती (तेरी पुत्री), तुम्हकेरा
पुत्ता (तुम्हारे पुत्र) आदि। पर + केर - परकेर अथवा पारकेर (वि.) परकेरो पुत्तो
(अन्य का पुत्र) आदि। राय + केर - रायकेर (वि.) रायकेरो पुत्तो (राजा का पुत्र) आदि। 2. 'क' तथा 'इक्क' प्रत्यय : (हेम - 2/148, 1/144)
पर + क = परक्क अथवा पारक (वि.) (पर का, अन्य का)
राअ + इक्क = राइक्क (वि.) (राजा का) 3. 'एच्चय' प्रत्यय : (हेम - 2/149)
तुम्ह + एच्चय = तुम्हेच्चय (वि.) अम्ह + एच्चय = अम्हे च्चय (वि.)
(52)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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4.
नोट : संबंध सूचक भाव को बताने के लिए प्राकृत में दो ढंग हैं
1. मेरा पुत्र सुख चाहता है ।
(क)
(ख)
2. तुम्हारा पोता घर जाता है।
मम 6/1 पुत्तो 1/1 सोक्खं इच्छइ /आदि ।
अम्हकेरो/अम्हेच्चयो 1/1 पुत्तो 1/1 सोक्खं इच्छइ आदि ।
(क)
(ख)
3. राजा का पुत्र राम को प्रणाम करता है ।
(क) राइणो 6 / 1 पुत्तो रामं 2/1 पणमइ / आदि । राइको 1 / 1 पुत्तो रामं 2 / 1 पणमइ / आदि ।
(ख)
(क)
ख)
तुह 6 / 1 पोत्तो 1/1 घरं गच्छइ / आदि ।
तुम्हकेरो/तुम्हेच्चयो 1/1 पोत्तो 1 / 1 घरं गच्छइ / आदि ।
4. पर का सुख
मेरा सुख है
I
परस्स 6/1 सुहं मम 6/1 सुहं अत्थि / आदि ।
पररं/पारं/परकं/पारक्कं 1/1 सुहं मम 6/1 सुहं अत्थि /
आदि ।
'व्व' प्रत्यय : (हेम. - 2 / 150 )
'की तरह' व्यक्त करने के लिए व्व (अ) प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है।
जैसे
महुराव्वमहुरव्व पाडलिपुत्ते पासाया संति (मथुरा की तरह पाटलीपुत्र
प्रसाद हैं)
5. 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्यय : (हेम - 2/163)
'अमुक में विद्यमान / स्थित' अर्थ में प्राकृत- संज्ञा शब्दों में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्यय प्रयोग में आते हैं । जैसे
(क) गाम + इल्ल
गामिल्ल (वि.) गामिल्लो (पु.) गामिल्लं (नपु.) गामिल्ली (स्त्री.) (गाँव में विद्यमान )
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित- स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
(53)
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पुर + इल्ल
हेट्ठ
+ इल्ल
उवरि + इल्ल
(ख) अप्प + उल्ल
तरु + उल्ल
नयर + उल्ल
(54)
है ।
(क) सोहा + इल्ल
=
(ख) वियार + उल्ल
=
छाया > छाआ + इल्ल
5.1 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्यय ('वाला' अर्थ में ) : (हेम - 2 / 159 )
'वाला' अर्थ बतलाने के लिए 'इल्ल' और 'उल्ल' का प्रयोग भी किया जाता
=
सोहिल्ल (वि.) ( शोभा युक्त)
छाइल्ल (वि.) ( छाया युक्त)
वियारुल्ल (वि.) (विचार वाला / विचारवान )
दप्प + उल्ल
दप्पुल्ल (वि.) (दर्प वाला / दर्पवान)
5.2 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्यय ( स्वार्थिक रूप में ) : (हेम 2/164)
इल्ल और उल्ल का स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
(क) पल्लव + इल्ल
पुर + इल्ल
=
पुरिल्ल (वि.) पुरिल्लो (पु.) पुरिल्लं (नपु.) पुरिल्ली (स्त्री.) ( नगर में विद्यमान )
=
ल्ल (वि.) हेल्लो (पु.) हेट्ठिल्लं (पु.) हेट्ठिल्ली (स्त्री.) (नीचे विद्यमान )
=
उवरिल्ल (वि.) उवरिल्लो (पु.) उवरिल्लं (नपु.) उवरिल्ली (स्त्री.) (ऊपर विद्यमान )
अप्पुल्ल (वि.) अप्पुल्लो (पु.) अप्पुल्लं (नपु.) अप्पुल्ली (स्त्री.) (आत्मा में विद्यमान )
तरुल्ल (वि.) तरुल्लो (पु.) तरुल्लं (नपु.) तरुल्ली (स्त्री.) ( पेड़ में विद्यमान )
नयरुल्ल (वि.) नयरुल्लो (पु.) नयरुल्लं (नपु.) नयरुल्ली (स्त्री.) ( नगर में विद्यमान )
पल्लविल्ल (पु.) अथवा पल्लव (पत्ता)
पुरिल्ल (नपु.) अथवा पुर (नगर)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक -तद्धित- स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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(ख) मुह + उल्ल = मुहुल्ल (नपु.) अथवा मुह (मुख)
हत्थ + उल्ल = हत्थुल्ल (पु., नपु.) अथवा हत्थ (हाथ) 6. 'हुत्तं' प्रत्यय : (हेम - 2/158)
किसी क्रिया की गणना करने के लिए हुत्तं (अ) का प्रयोग किया जाता है। जैसे - तिहुत्तं = तीन बार, सयहुत्तं = सौ बार अर्धमागधी में खुत्तो (क्खुत्तो) (अ) का प्रयोग होता है। जैसे -
तिखुत्तो/तिक्खुत्तो = तीन बार, सहसखुत्तो/सहसक्खुत्तो = हजार बार 7. 'इमा', 'त्तण', 'त्त' और 'ता' प्रत्यय : (हेम - 2/154)
भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘इमा' और 'त्तण' प्रत्यय जोड़े जाते हैं। विकल्प से ‘त्त' और 'ता' भी जोड़ा जाता है। जैसे -
पीण + इमा = पीणिमा (स्त्री.) पीण + त्तण = पीणत्तण (नपु.) पीण + त - पीणत्त (नपु.)
पुष्टता पीण + ता = पीणता (स्त्री.)
> पीणया पुप्फ + इमा = पुप्फिमा (स्त्री.) पुप्फ + त्तण = पुप्फत्तण (नपु.) पुप्फ + त्त - पुप्फत्त (नपु.) पुष्पता पुप्फ + ता = पुष्फता (स्त्री.)
> पुप्फया 8. 'इत्तिअ' प्रत्यय : (हेम - 2/156)
परिमाण अर्थ प्रकट करने के लिए इत्तिय प्रत्यय ज, त, एत में जोड़ा जाता है। जैसे -
+
+
+
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(55)
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ज + इत्तिअ = जित्तिअ (वि.) (जितना) त + इत्तिअ = तित्तिअ (वि.) (उतना)
एत + इत्तिअ = इत्तिअ (वि.) (इतना) (इसमें एत का लोप हुआ है।) 8.1 एत्तिअ, एत्तिल, एद्दह प्रत्यय : (हेम - 2/157)
क, ज, त, एत में परिमाणार्थक प्रत्यय एत्तिअ, एत्तिल, एद्दह जोड़े जाते हैं। जैसे -
+
+
+ 555
+ +
J7/84)
J1/84)
क + एत्तिअ = केत्तिअ (वि.) (कितना) केत्तिअ > कित्तिअन क + एत्तिल = केत्तिल (वि.) (कितना) केत्तिल > कित्तिल क + एग्रह = केद्दह (वि.) (कितना) केद्दह > किदह 47 ज + एत्तिअ = जेत्तिअ (वि.) (जितना) जेत्तिअ > जित्तिअ -
(हेमज + एत्तिल = जेत्तिल (वि.) (जितना) जेत्तिल > जित्तिल । ज + एद्दह - जेद्दह (वि.) (जितना) जेद्दह > जिद्दह त + एत्तिअ = तेत्तिअ (वि.) (उतना) तेत्तिअ > तित्तिअ 7 त + एत्तिल - तेत्तिल (वि.) (उतना) तेत्तिल > तित्तिल
(हेमत + एद्दह = तेद्दह (वि.) (उतना) तेद्दह > तिद्दह एतः + एत्तिअ = एत्तिअ (वि.) (इतना), एत + एत्तिल - एत्तिल (वि.) (इतना) | [एत का लोप हो जाता है।]
एत + एद्दह = एद्दह (वि.) (इतना) । 9. आल, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर, मण प्रत्यय :
(हेम-2/159)
वाला अर्थ बतलाने के लिए उपर्युक्त प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे - (क) दया + आलु = दयालु (वि.) (दयावाला, दयावान)
नेह + आलु - नेहालु (वि.) (स्नेहवाला, स्नेहवान) (ख) सोहा + इल्ल = सोहिल्ल (वि.) (शोभावाला, शोभावान)
छाआ + इल्ल = छाइल्ल (वि.) (छायावाला, छायावान)
(56)
प्राकतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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(ग) वियार + उल्ल
दप्प + उल्ल
(घ) रस + आल
सद्द + आल
(च) धण + वन्त भत्ति + वन्त
(छ) सिरि + मन्त पुण्य + मन्त
(ज) कव्व + इत्त
माण + इत्त
(ट) गव्व + इर
रेह
+ इर
=
1
अन्न +
=
क +
=
=
=
=
=
=
णाण + तो + दो
फल + तो + दो
=
वियारुल्ल (वि.) (विचारवाला, विचारवान )
दप्पुल्ल (वि.) (दर्पवाला, दर्पवान )
(ठ) धण + मण
सोहा + मण
10. त्तो, दो, ओ प्रत्यय : (हेम - 2 / 160 )
पंचमी अर्थक प्रत्यय तो, दो, ओ संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण शब्दों में जोड़े
जाते हैं । निर्मित शब्द अव्यय होते हैं। जैसे
रसाल (वि.) (रसवाला, रसवान) सद्दाल (वि.) (शब्दवाला, शब्दवान)
धणवन्त (वि.) ( धनवाला, धनवान )
भत्तिवन्त (वि.) (भक्तिवाला, भक्तिवान )
+
सिरिमन्त (वि.) (श्रीमान्)
पुण्यमन्त (वि.) (पुण्यवाला, पुण्यवान )
कव्वइत्त (वि.) (काव्यवाला, काव्यवान ) माणइत्त (वि.) (मानवाला, मानवान)
गव्विर (वि.) (गर्ववाला, गर्ववान ) रेहिर (वि.) (रेखावाला, रेखावान)
धणमण (वि.) ( धनवाला, धनवान )
सोहामण (वि.) (शोभावाला, शोभावान)
सव्व + तो दो
+
एक + त्तो + दो + ओ
तो दो + ओ
+
+ ओ णाणत्तो, णाणदो, णाणओ ( ज्ञानपूर्वक )
ओ
+ ओ
तो + दो + ओ
ज + त्तो दो ओ
+
+
=
=
=
=
=
कत्तो, कदो, कओ (कहाँ से)
जत्तो, जदो, जओ (जहाँ से)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
-
=
=
फलत्तो, फलदो, फलओ ( फलस्वरूप )
सव्वत्तो, सव्वदो, सव्वओ (सब ओर से )
एकत्तो, एकदो, एकओ (एक ओर से )
अन्नत्तो, अन्नदो, अन्नओ (दूसरे से / दूसरी तरफ से )
(57)
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________________
त + त्तो + दो + ओ = तत्तो, तदो, तओ (वहाँ से)
इ + तो + दो + ओ = इत्तो, इदो, इओ (यहाँ से) 11. हि, ह, और त्थ प्रत्यय : (हेम - 2/161)
सप्तमी अर्थक स्थानवाची प्रत्यय हि, ह और त्थ सर्वनामों में तथा विशेषणों में प्रयोग किये जाते हैं । निर्मित शब्द अव्यय होते हैं। जैसे -
ज + हि + ह + त्थ
= जहि, जह, जत्थ (जिस स्थान में/पर)
त + हि + ह + त्थ
= तहि, तह, तत्थ (उस स्थान में/पर)
क + हि + ह + त्थ
= कहि, कह, कत्थ (किस स्थान में/पर)
अन्न + हि + ह + त्थ
= अन्नहि, अन्नह, अन्नत्थ (अन्य स्थान में/पर)
सव्व + हि + ह + त्थ = सव्वहि, सव्वह, सव्वत्थ (सब स्थान में/पर) 12. सि, सिअं और इया प्रत्यय : (हेम - 2/162)
एक समय के अर्थ में सि, सिअं और इया प्रत्यय जोड़े जाते हैं। निर्मित शब्द अव्यय होते हैं। जैसे - एक्क + सि
एक्कसि । एक्क + सिअं - एक्कसि। [एक समय = एगया ]
एक्क + इया = एक्कइया । 13. स्वार्थिक प्रत्यय : (हेम - 2/170) (i) आलिअ प्रत्यय :
मीस + आलिअ = मीसालिअ (वि.) (संयुक्त) अथवा मीस (वि.) (ii) र प्रत्यय : (हेम - 2/171)
दीह + र = दीहर (वि.) (लम्बा ) अथवा दीह (वि.) (iii) ल प्रत्यय : (हेम - 2/173)
(58)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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यह प्रत्यय विज्जु (स्त्री.), पत्त (नपु.), पीअ (पु.), अन्ध (वि.) में विकल्प से जोड़ा जाता है। जैसे -
विज्जु + ल
पत्त
पीअ
+
अन्ध + ल
(v)
ल
नव + ल्ल
एक + ल्ल
क.
+ ल
ख.
ग.
(iv) ल्ल प्रत्यय : (हेम - 2/165)
यह प्रत्यय नव (वि.), एक (वि.) इन शब्दों में विकल्प से जोड़ा जाता है । जैसे -
-
=
• विज्जुल > विज्जुला (स्त्री.) अथवा विज्जु (स्त्री.) (बिजली)
=
5
=
=
पत्तल (नपु.) अथवा पत्त (नपु.) (पत्ता)
पीअल (पु.) अथवा पीअ (पु.) (पीला रंग )
पीअल (वि.) अथवा पीअ (वि.) (पीले वर्ण वाला)
अन्धल (वि.) अथवा अन्ध (वि.) (अन्धा)
=
यह प्रत्यय संज्ञा और विशेषण में विकल्प से जोड़ा जाता है। जैसे
नवल्ल (वि.) अथवा नव (वि.) (नूतन)
एकल्ल (वि.) अथवा एक (वि.) (अकेला )
अ, इल्ल और उल्ल प्रत्यय :
चन्द + अ
हिअय + अ
गयण + अ
बहुअ + अ
पल्लव + इल्ल
पुर इल्ल
मुह + उल्ल
हत्थ + उल्ल
= गयणअ (नपु.) अथवा गयण (नपु. ) ( गगन)
बहुअअ (वि.) अथवा बहुअ (वि.) (बहुत)
पल्लविल्ल (पु.) अथवा पल्लव (पु.) (पत्ता)
पुरिल्ल (नपु.) अथवा पुर (नपु.) (नगर)
मुहुल्ल (नपु.) अथवा मुह (नपु.) (मुख)
हत्थुल्ल (पु., नपु.) अथवा हत्थ (पु., नपु.) (हाथ)
113
चन्दअ (पु.) अथवा चन्द (पु.) ( चन्द्रमा)
हिअयअ (नपु.) अथवा हिअय (नपु.) (हृदय)
=
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित-स्त्रीप्रत्यय - अव्यय
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(vi) त्ता अथवा या प्रत्यय :
अर्धमागधी में त्ता अथवा या विकल्प से जोड़ा जाता है। जैसे - गवेसण + त्ता = गवेसणत्ता/गवेसणया (स्त्री.) (अन्वेषण)
अथवा गवेषण (पु., नपु.) अणुकंपण + त्ता = अणुकंपणता/अणुकंपणया (स्त्री.) (अनुकम्पा)
अथवा अणुकंपण (पु., नपु.) 14. तर (अर) और तम (अम) प्रत्यय अथवा ईयस और इट्ठ प्रत्यय
जब दो वस्तुओं की तुलना की जाती है तो विशेषण तुलनात्मक कहलाता है और विशेषण के आगे अर या ईयस प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जिससे विशेषता दिखाई जाती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे --
मंती नरिंदत्तो/नरिंदाओ आदि पडुअरो/पडीयसो अत्थि (मंत्री राजा से चतुर है।)
जब बहुत में से एक का अतिशय बताया जाता है तो वस्तुओं की तुलना करके एक की विशेषता बताई जाती है। यह अतिशयबोधक विशेषण कहलाता है
और विशेषण के आगे अम या इट्ठ प्रत्यय लगाया जाता है । जिनसे विशेषता बताई जाती है उनमें षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे -
छत्ताणं/छत्तेसु रामो पडुअमो/पडिट्ठो अत्थि (छात्रों में राम कुशलतम हैं।) नोट: अर और अम प्रत्यय सभी विशेषणों के साथ लगाए जा सकते हैं किन्तु
ईयस और इट्ठ प्रत्ययों को प्रयोगों के आधार पर समझा जाना चाहिए।
तिक्ख (तेज)
तिक्खअर
तिक्खअम
पिय (प्रिय)
पियअर
पियअम
अहिअ (अधिक)
अहिअअर
अहि अअम
गुरु (गुरु)
गरीयस
गरिट्ठ
धनी (धनी) धम्मी (धर्मात्मा)
धनीयस धम्मीअस
धनिट्ठ/धणि? धम्मिट्ठ
(60)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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पावीयस
पाविट्ठ
पावी (पापी) उज्जल (उज्ज्वल)
उज्जलअर
उज्जलअम
अप्प (थोड़ा )
अप्पअर
अप्पअम
15. मन्त प्रत्यय :
वण्ण + मन्त
वान या वाला अर्थ के लिए अर्धमागधी के लिए मन्त प्रत्यय जोड़ा जाता है। मन्त प्रत्यय जोड़ते समय म के स्थान पर विकल्प से व हो जाता है। जैसे -
वण्णमन्त/वण्णवन्त (पु.) (वर्ण वाला) भग + मन्त
भगमन्त/भगवन्त (पु.) (ऐश्वर्य वाला) अर्धमागधी में प्रथमा एक वचन में भगवन्तो के साथ भगवं भी बनता है। विकल्प से त का लोप और न् का अनुस्वार होने से भगवं रूप बना है। इसी प्रकार वण्णवन्तो में विकल्प से त का लोप और न् का अनुस्वार होने से वण्णवं रूप बनेगा।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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स्त्री-प्रत्यय प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग शब्द दो प्रकार के होते हैं : १. मूल स्त्रीलिंग शब्द :
२. प्रत्यय के योग से बने हुए स्त्रीलिंग शब्द : १). मूल स्त्रीलिंग शब्द -
जिन शब्दों का अर्थ ही स्त्रीवाचक हो और जिनके रूप पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में नहीं चलते हैं । उनको मूल स्त्रीवाचक शब्द कहते
हैं। जैसे - लता, माला, लच्छी, कहा, गंगा आदि। २). प्रत्यय के योग से बने हुए स्त्रीलिंग शब्द -
वे शब्द जो मूल से स्त्रीवाचक नहीं होते हैं, किन्तु उनमें स्त्री-प्रत्यय जोड़ देने से स्त्रीलिंग की तरह व्यवहार में लाये जा सकते हैं। ऐसे शब्दों के रूप पुल्लिंग व स्त्रीलिंग दोनों में चलते हैं।
अतः 'स्त्री-प्रत्यय वे प्रत्यय हैं जिनके लगने पर पुल्लिंग शब्द
स्त्रीलिंग शब्द हो जाते हैं।" प्राकृत में प्रमुखतया आ और ई स्त्री प्रत्यय के रूप में काम आते हैं। जैसे - (क) बाल (पु.) - बालक, बाल + आ = बाला (स्त्री.) - बालिका
कोइल (पु.) - कोयल, कोइल + आ = कोइला (स्त्री.) - कोकिला तणय (पु.) - पुत्र, तणय + आ = तणया (स्त्री.) - पुत्री । मूसिय (पु.) - चूहा, मूसिय + आ = मूसिया (स्त्री.) - चूही अय (पु.) - बकरा, अय + आ = अया (स्त्री.)- बकरी वच्छ (पु.) - बछड़ा, वच्छ + आ = वच्छा (स्त्री.) - बछड़ी
1 अभिनव प्राकृत व्याकरण द्वारा डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ 143 (62) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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धवल (पु.) - बैल, धवल + आ = धवला (स्त्री.) - गाय णत्तिअ (पु.) -पोता/दोहिता, णत्तिअ+ आ = णत्तिआ (स्त्री.) - पोती/दोहिती आयरिय (पु.) - आचार्य, आयरिय + आ = आयरिया (स्त्री.) – आचार्या उवज्झाय(पु.) - उपाध्याय, उवज्झाय + आ = उवज्झाया (स्त्री.) - उपाध्याया सिस्स (पु.) - शिष्य, सिस्स + आ = सिस्सा (स्त्री.)- शिष्या कुसल(वि.)(पु., नपु.)- कुशल, कुसल+आ =कुसला(वि.)(स्त्री.)-कुशल निउण (वि.)(पु., नपु.)-निपुण,निउण+आ- निउणा (वि.)(स्त्री.) - निपुण
चउर (वि.) (पु., नपु.) - चतुर, चउर + आ = चउरा (वि.)(स्त्री.)- चतुर (ख) हंस (पु.) - हंस, हंस + ई = हंसी (स्त्री.) – हंसिनी
हरिण (पु.) - हिरण, हरिण + ई = हरिणी (स्त्री.) - हिरणी कुंभआर (पु.) - कुम्हार, कुंभआर + ई = कुंभआरी (स्त्री.) - कुम्हारिन किसोर (पु.) - युवक, किसोर + ई = किसोरी (स्त्री.) - युवती कुमार (पु.) - कुमार, कुमार + ई = कुमारी (स्त्री.) - कुमारी णाग (पु.) - सर्प, णाग + ई = णागी (स्त्री.), - सर्पिणी सीह (पु.) - शेर, सिंह + ई = सीही (स्त्री.), - शेरनी तरुण (पु.) - युवक, तरुण + ई = तरुणी (स्त्री.) - युवती धीवर (पु.) - मछुआ, धीवर + ई = धीवरी (स्त्री.) – मछुआरिन माउल (पु.) - मामा, माउल + ई = माउली (स्त्री.) - मामी पिआमह (पु.) - दादा, पिआमह + ई = पिआमही (स्त्री.) - दादी तित्तिर (पु.) – तीतर, तित्तिर + ई = तित्तिरी (स्त्री.) – तीतरी मऊर (पु.) - मोर, मऊर + ई = मऊरी (स्त्री.) - मोरनी
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सियाल (पु.) - गीदड़, सियाल + ई = सियाली (स्त्री.) - गीदड़ी णड (पु.) - नट, णड + ई = णडी (स्त्री.) - नटी विउस (वि.)-(पु., नपु.) - विद्वान्, विउस + ई = विउसी(स्त्री.)- विदुषी सत्तम (वि.) - (पु., नपु.) – सातवां, सत्तम + ई = सत्तमी (स्त्री.)- सातवीं
दसम (वि.) - (पु., नपु.) - दसवां, दसम + ई = दसमी (स्त्री.) - दसवीं (ग) कुछ शब्दों में 'ई' प्रत्यय जोड़ने से पहले 'आण' प्रत्यय जोड़ा जाता है।
जैसेइदं (पु.) – इन्द्र, इंद + आण + ई = इंदाणी (इन्द्र की पत्नी) माउल (पु.) - मामा, माउल + आण + ई = माउलाणी (मामा की स्त्री) भव (.) - शिव, भव + आण + ई = भवाणी (शिव की पत्नी/पार्वती) रुद्द (पु.) - शिव, रुद्द + आण + ई = रुद्दाणी (दुर्गा) उवज्झाय (पु.) - उपाध्याय, उवज्झाय + आण + ई = उवज्झायाणी (उपाध्याया)
आयरिय (पु.) - आचार्य, आयरिय + आण + ई = आयरियाणी (आचार्या) (घ) कुछ शब्दों में 'आ' और 'ई' दोनों जोड़े जा सकते हैं। जैसे --
नील + आ = नीला, नील + ई = नीली
काल + आ = काला, काल + ई = काली
हस+माण+ आ = हसमाणा, हस+माण+ई = हसमाणी (हंसती हुई)
हस + न्त + आ = हसन्ता, हस + न्त + ई = हसन्ती (हंसती हुई) (च) 'आ' प्रत्यय जोड़ते समय यदि शब्द के अन्त में 'क' ( अ/ग) हो और
पूर्व में 'अ' हो तो अ के स्थान इ हो जाता है। जैसे - बालअ (पु.) बालक, बालअ + आ = बालिआ (बालिका)
गायअ (पु.) गायक, गायअ + आ = गायिआ (गायिका)
(64)
प्राकतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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णायअ (पु.) नायक, णायअ + आ = णायिआ (नायिका)
णाडग (पु.) नाटक, णाडग + आ = णाडिगा (नाटिका) गोवालय (पु.) ग्वाला, गोवालय + आ = गोवालिया (गोपालिका) पालय (पु.) पालने वाला, पालय + आ = पालिआ (पालने वाली) णट्टअ/पट्टग(पु.)नाचने वाला, णट्ट/पट्टग+आ णट्टिआ/पट्टिगा (नाचने वाली) कुछ अध्ययनीय शब्द : पुल्लिंग
स्त्रीलिंग जुव (जवान)
जुवई (युवती) जुवाण (तरुण)
जुवाणी (तरुणी) हत्थि (हाथी)
हत्थिणी (हथिणी) सामि (स्वामी)
सामिणी (स्वामिनी) सेट्ठि (सेठ)
सेट्ठिणी (सेठाणी) पइ (पति)
भज्जा (पत्नी) पिउ (पिता)
माया (माता) पुरिस (पुरुष)
इत्थि (स्त्री) भाउ (भाई)
बहिणी (बहिन)
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(65)
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अव्यय
अव्यय वे शब्द हैं जिनके रूप सभी लिङ्गों, सभी विभक्तियों और सभी वचनों में एक समान रहते हैं, अर्थात् लिङ्ग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिन शब्दों के रूपों में व्यय (घटती-बढ़ती) न हो, वे अव्यय हैं।
अव्यय पाँच प्रकार के होते हैं - 1. उपसर्ग, 2. क्रियाविशेषण, 3. समुच्चयबोधक 4. मनोविकार सूचक और 5. अतिरिक्त अव्यय।
उवसग्ग (उपसर्ग) जो अव्यय क्रिया, संज्ञा या विशेषण शब्दों के पूर्व जोड़े जाते हैं, वे उपसर्ग कहलाते हैं। इस तरह वे नाम और क्रिया दोनों से युक्त होते हैं।' उपसर्ग लगाने से शब्दों के अर्थ में विशेषता आ जाती है।
१. कभी उपसर्ग शब्द के मुख्यार्थ को समाप्त करके नवीन अर्थ का बोध कराता है, जैसे -
सरइ = याद करता है, विसरइ = भूल जाता है अथवा जय = जीत तथा पराजय = हार । हरइ = ले जाता है, अवहरइ = चुराता है, पहरइ = मारता है, विहरइ = विहार करता है आदि। २. कभी उपसर्ग संज्ञा और क्रिया में विशेषता ला देते हैं। जैसे - गमण = जाना तथा अणुगमण = पीछे जाना, दुस्स = द्वेष करना तथा पदूस = द्वेष करना। ३. कभी उपसर्ग संज्ञा और क्रिया का अनुसरण करता है। जैसे - वसइ = रहता है, अहिवसइ = रहता है, जय = जीत, विजय = जीत।
प्राकृत में निम्नलिखित उपसर्ग परिगणित हैं। उपसर्गों के विभिन्न प्रयोग प्राकृत कोष से जानना चाहिए। कुछ उपसर्गों के सामान्य प्रयोग निम्नलिखित हैं - (66) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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संज्ञा
विशेषण
१.
उपसर्ग क्रिया प पभासेइ
(प्रकाशित करता है) परा परामरिसइ
(विचार करता है)
पसिद्धि (ख्याति)
पसिद्ध (प्रसिद्ध)
पराजिय (हराया हुआ)
२.
पराहव (हार)
३.
अव
अवहरण (अपहरण)
अवसरिय (पीछे हटाया हुआ)
अवहरइ (छीन लेता है)
अवभासइ (चमकता है)
४.
अव
अवबोह (ज्ञान)
अवइण्ण (नीचे आया हुआ)
५.
सं
संगहइ (संग्रह करता है)
संगम (मेल)
संगहिय (संगृहीत)
अणुगामि (अनुसरण करने वाला)
६. अणु अणुगमइ
(अणुसरण करता है) ७. वि विआणइ
(जानता है) ८. सु सुरहइ
(सुगन्धि करता है)
अणुराग (स्नेह) विआण (विज्ञान)
विप्फुल्ल (विकसित)
सुगुरु (अच्छा गुरु)
सुअणु (सुन्दर शरीर वाला)
उच्छव (उत्सव)
उग्गम (उत्पन्न)
अइक्कम (उल्लंघन)
अइसय (बहुत)
९. उ उग्गहइ
(ग्रहण करता है) १०. अइ अइगमइ
(गमन करता है) ११. परि परिभावइ
(उन्नत करता है) १२. उव उवगाइ
___ (गुणगान करता है)
परिओस (संतोष)
परिकंपिर (विशेष काँपने वाला)
उवआर (उपकार)
उवहसिअ (उपहास किया गया)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(67)
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संज्ञा
आणा (आज्ञा)
उपसर्ग क्रिया १३. आ आरुहइ
(ऊपर चढ़ता है) १४. अहि अहिगमइ
(अधि) (जानता है) १५. अहि अहिसिंचइ
(अभि) (अभिषेक करता है) १६. दु
दुगच्छइ (घृणा करता है)
विशेषण आराहिय (सेवित)
अहिट्ठिय (अधीन किया हुआ)
अहिट्ठाण (आश्रय)
अहिमाण (अभिमान)
अहितप्त (तपाया हुआ)
दुक्कम (पाप)
दुग्गम (जो कठिनाई से जाना जाता है)
१७. णि
णिक्खेविय (स्थापित)
णिअच्छइ (नियंत्रण करता है) पडिहाइ (मालूम होता है)
णिग्गुण (निर्गुण) पडिपह (विपरीत रास्ता)
१८. पडि
पडिबुद्ध (जागृत)
क्रियाविशेषण क्रिया में किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न करने वाले शब्द क्रिया-विशेषण होते हैं । क्रियाविशेषणों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है। 1. स्थानवाचक क्रियाविशेषण अव्यय एत्थ/एत्थं
= यहाँ तत्थ
= वहाँ कत्थ
= कहाँ सव्वत्थ
= सब जगह में अण्णत्त ___ = दूसरी जगह में
(68)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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= यहाँ
कओ
इओ
= कहाँ से - यहाँ से __ कहाँ
कहिं
जत्थ
__ जहाँ
कत्थइ
= कहीं पर/किसी जगह - सब ओर से
सव्वओ
(ii)
उवरि/अवरिं/ अवरि/उवरि । अह/अहे/अहत्ता
ऊपर
= नीचे
पच्छा
अग्गओ
पिछला भाग/पीछे की ओर = आगे/सामने = आगे
पुरओ बहिया/बहि/ बहिं/बहित्ता ।
__ बाहर
अन्तो
भीतर
समया
पास
उप्पिं अभितो/अभिदो
= ऊपर = चारों ओर से
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(69)
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वाक्य-प्रयोग
(i) १. अहं एत्थ/एत्थं वसमि। - मैं यहाँ रहता हूँ। २. तुमं तत्थ वसहि।
-- तुम वहाँ रहो। ३. परमेसरो सव्वत्थ अस्थि। = परमेश्वर सब जगह में है। ४. सो अण्णत्त गओ।
वह दूसरी जगह में गया। ५. इह नरेण कोहो न करिअव्वो। - यहाँ (इस लोक में) मनुष्य के द्वारा
क्रोध नहीं किया जाना चाहिए। ६. तुम कओ मज्झ फलाणि
तुम कहाँ से मेरे लिए फलों को लहिहिसि।
प्राप्त करोगे? ७. विमाणं इओ उड्डिहिइ। = विमान यहाँ से उड़ेगा। ८. सो कहिं/कत्थ वसइ।
वह कहाँ रहता है? ९. अम्मि जत्थ वसामि तत्थ सो वि = मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ वह भी वसइ।
रहता है। १०. कत्थइ मेहा गज्जन्ति। = कहीं पर मेघ गरजते हैं। ११. सत्तूहिं सो सव्वओ पडिरुद्धो। - शत्रुओं के द्वारा वह सब ओर से रोक
लिया गया।
(ii) १. एसो पक्खी उवरि/उवरि/अवरि/ = यह पक्षी ऊपर उड़ता है।
अवरि उड्डेइ। २. पत्थरा अह/अहे/अहत्ता = पत्थर नीचे देखे गये।
देक्खिआ। ३. तुमं रहस्स पच्छा गच्छहि। - तुम रथ के पीछे जाओ। ४. सो रहस्स अग्गओ/पुरओ - वह रथ के आगे/सामने चलेगा।
चलिहिइ। ५. बालओ धावन्तो घराओ बहिया/ = बालक दौड़ता हुआ घर से बाहर गया।
बहि/बहिं/बहित्ता गओ। ६. सो धावन्तो ममं समया आवइ। - वह दौड़ता हुआ मेरे पास आता है। ७. तस्स घरो गामाओ दूरं अत्थि। उसका घर गाँव से दूर है। ८. तुम अन्तो किं गओ?
तुम भीतर क्यों गये? ९. बालओ उप्पिं कक्खाए गच्छइ। - बालक ऊपर कक्षा में जाता है। १०. णयरजणेहिं कुक्कुरा अभितो/ = लोगों के द्वारा कुत्ते चारों ओर से अभिदो बंधिआ।
बांध दिये गये।
(70)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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___2. कालवाचक क्रियाविशेषण अव्यय
इयाणिं/इयाणि = इस समय तयाणि/तयाणिं __= उस समय
जइया
=
जब
कइया
कब
= तब
जब तक
कब
= फिर
एक्कसि/एक्कसि] एगइया/एगया । कल्लिं
एक समय में = आने वाला कल/ गया हुआ कल = आगामी कल
पगे
= प्रातः काल
अज्ज/अज्ज
आज
पायं
प्रभात
सायं
पइदिणं णत्तं
संध्या समय = प्रतिदिन = रात के समय = रात में
दोसा
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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दिवा
अहुणा
= दिन में - अब/अभी/इस समय
पहले/पूर्व में = शीघ्र
शीघ्र/तुरन्त
लहुं एक्कसरियं
झत्ति/झडत्ति
शीघ्र
चिरं
दीर्घ काल तक
सज्ज/सज्ज
पुवि/पुव्विं
शीघ्र = पूर्व में/पहले = कभी नहीं
कयावि न
पच्छा
बाद में
अणंतरं
= बाद में = सदा/नित्य
णिच्चं
वाक्य-प्रयोग
इस समय तुम घर पर ही ठहरो।
जब वह विद्यालय जावे, तब तुम उसको वे पुस्तकें दे देना।
(i) १. इयाणिं/इयाणि तुमं गिहे एव =
चिट्ठ। २. जइया सो विज्जालयं गच्छउ, =
तइया तुमं तस्स ताणि पोत्थआणि
देहि। ३. जाव तुमं घरं पत्तो तयाणि/ __-
तयाणिं अहं घरे न आसि। ४. तुमं काहे घरं गच्छिहिसि। ५. जं मेहा गज्जन्ति ता मोरा
णच्चन्ति।
जब तुम घर पहुँचे, उस समय मैं घर पर नहीं था। तुम कब घर पर जाओगे। जब मेघ गरजते हैं, तब मोर नाचते हैं।
(72)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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६. एक्कसिअं / एक्कसि / एगइया / गया कम्मवसओ पुणो चउरो विवरा मिलिआ ।
(ii) १. तुमं कल्लिं कत्थ गच्छीअ । २. तुमं सुवे कम्मि ठाणे वसिहिसि ।
३. अहं पगे सया उज्जाणे भमामि ।
४. तुमं अज्ज तं उवयरहि, कल्लिं अहं तुमं उवयरिस्सं ।
५. अहं पायं परमेसरस्स भत्तिं करामि | =
६. सायं दारं मा उग्घाडहि, कीडगा अन्तरा आगमिस्सन्ति ।
७. पइदिणं तइ फलाई खाअव्वाई ।
८. णत्तं सो पहुं सुमरइ ।
९. बालओ दोसा लहुं सयणाय गओ ।
१०. दिवा सूरपयासो तिव्वो भवइ । ११. तेण झत्ति / झडत्ति / एकसरियं लुक्किअं ।
१२. चोरा चिरं दुक्खाणि पाविस्सन्ति ।
१३. तुमं सज्ज / सज्जं घरं गच्छ । १४. पुव्वि/पुव्विं तुमं भोयणं करहि पच्छा गायणं गाहि ।
१५. कयावि न हिंसावाई भव । १६. तुमं पुव्विं आगच्छहि, अनंतरं अहं आगमिस्सामि ।
१७. णिच्चं सच्चं वदहि ।
=
=
एक समय में कर्म के वश से फिर चारों ही वर मिल गये ।
तुम कल कहाँ गये थे ।
तुम (आगामी) कल किस स्थान में रहोगे ।
मैं प्रातः काल सदैव बगीचे में भ्रमण करता हूँ ।
तुम आज उसका उपकार करो, कल मैं तुम्हारा उपकार करूँगा । मैं प्रभात में परमेश्वर की भक्ति करता हूँ ।
संध्या समय द्वार मत खोलो, कीड़े अन्दर आ जायेंगे । प्रतिदिन तुम्हारे द्वारा फल खाये जाने चाहिए।
रात के समय वह प्रभु का स्मरण करता है ।
बालक रात में शीघ्र सोने के लिए
गया।
दिन में सूर्य का प्रकाश तेज होता है । उसके द्वारा शीघ्र छिपा गया।
चोर दीर्घकाल तक दुःखों को पायेंगे।
तुम शीघ्र घर जाओ ।
पहले तुम भोजन करो, बाद में गाना
गाना।
कभी भी हिंसावादी न बनो ।
तुम पहले आ जाओ, बाद में मैं
आ जाऊँगा ।
सदा सत्य बोलो।
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक -तद्धित- स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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3. प्रकारवाचक क्रियाविशेषण अव्यय
सम्म
भली प्रकार
इत्थं
इस प्रकार
एवं
इस प्रकार
जहा/जह
जिस प्रकार
तहा/तह
उस प्रकार
तहेव जहेव सणिअं
उसी प्रकार जिस प्रकार धीरे-धीरे
अण्णहा
अन्यथा
जह-तहा
-
जैसे-तैसे
=
किस प्रकार
कहं/कह बहुसो
बहुत प्रकार से
बहुहा
प्रायः
वाक्य-प्रयोग
१. कज्जकरणेण पुव्विं तुमं सम्मं चिंतहि। - कार्य करने से पहले तुम भली प्रकार
से चिन्तन करो। २. बालएण कहा इत्थं जाणिज्जइ। - बालक के द्वारा कथा इस प्रकार
समझी जाती है। ३. एवं मंतिणा विवायो भग्गो।
इस प्रकार मंत्री द्वारा विवाद नष्ट
किया गया। ४. जहा/जह सो सुहं इच्छइ तहा/तह - जिस प्रकार वह सुख चाहता है, उसी अहं वि सुहं इच्छामि।
प्रकार मैं भी सुख चाहता हूँ।
(74)
प्राकतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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५. जहेव माया पुतं पालइ तहेव नरिंदो - जिस प्रकार माता पुत्र को पालती है, रजं पालइ।
उसी प्रकार राजा राज्य को पालता है। ६. हे पुत्त ! सणियं चल अण्णहा
हे पुत्र ! धीरे चलो, अन्यथा गिर पडिहिसि।
जाओगे। ७. सो जह-तहा घरं गओ।
वह जैसे-तैसे घर गया। ८. मुणी कहं/कह झाअइ।
- मुनि किस प्रकार ध्यान करते हैं। ९. तुमं बहुसो अप्पपियजणं वद्धावसि। - तुम बहुत प्रकार से अपने प्रियजन
को बधाई देते हो। १०. बहुहा बालओ मायं पडि सनेहं करइ। - प्रायः बालक माता की तरफ स्नेह
करता है।
4. विविध क्रियाविशेषण अव्यय (i) उत्तरओ
=
उत्तर से
पुह/पिहं
= अलग
ईसी/ईसिं/ईसि
मणयं
थोड़ा थोड़ा थोड़ा अवश्य
किंचि
अवसं
अहवा
अथवा
= बस, पर्याप्त = स्वयं
अलं सयं अओ सह/सद्धिं/समं समय/समं
= इसलिए/इस कारण से
= साथ
= साथ
समया
= समीप
मुहा
= व्यर्थ
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(75)
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(76)
विणा
वरं / णवर
णवरि
सहसा /सहसत्ति
एव
जइ
णूण /णूणं
जओ
णाणा
तं जहा
खलु
जं
णो// वि
तओ/ततो/तत्तो
तए
तीअं
परं
परोप्परं / परुप्परं
पुरवि
जेण
अतीव
=
=
=
=
=
!!
1
1=3
=
1=3
बिना
केवल
बाद में
एकदम
ही
=
यदि
निश्चय
क्योंकि जिससे
अनेक
परन्तु
परस्पर में/ आपस में
फिर
जिससे
बहुत
प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक - तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
उदाहरणार्थ
निश्चयपूर्वक
क्योंकि
नहीं
इसके पश्चात्
तत्पश्चात्
अतीत
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किण्णं
- क्यों
किणो
क्यों, किसलिए
ल२
एकबार
सया
=
सदा
= फिर
असइ/असइं/] असई
=
बार-बार/अनेकबार
पुण-पुण
= बार-बार/फिर-फिर
मुहु/मुहं
बार-बार
एयहुत्तं
=
एक बार
(iii)
सुहं (2/1) = सुखपूर्वक दुहं (2/1) = दुखःपूर्वक णेहेण (3/1) __= स्नेहपूर्वक सव्वायरेण(3/1) = पूर्ण आदरपूर्वक
वाक्य-प्रयोग
(i) १. सो उत्तरओ आगओ। ___ - वह उत्तर से आया।
२. इमाणि फलाणि पुह/पिहं करहि। = इन फलों को अलग करो। ३. ईसी/ईसिं/ईसि धम्मं कुणेह, = (आप) थोड़ा-थोड़ा धर्म करें,
जओ परभवो सफलो भविस्सइ। जिससे परलोक सफल हो जायेगा। ४. तुमं मणयं कजं करहि, अहं सेसं - तुम थोड़ा कार्य करो, मैं शेष कजं करिस्सामि।
कार्य करूँगा। ५. मइ तस्स किंचि फलाणि दिण्णाइं। = मेरे द्वारा उसको थोड़े (कुछ) फल
दिये गये।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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६. अवसं अहं परमेसरसरणं
अवश्य ही मैं परमेश्वर की शरण गमिस्सामि।
में जाऊँगा। ७. तुम इमं पोत्थअं पढहि अहवा = तुम इस पुस्तक को पढ़ो अथवा मैं अहं तं पढिस्सं।
उसको पढूँगा। ८. झााणो मोक्खाय अलं अत्थि। = ध्यान मोक्ष के लिए पर्याप्त है। ९. अहं सयं दुहियजणाणं सेवं मैं स्वयं दुःखी मनुष्यों की सेवा करिस्सं।
करूँगा। १०. तुम्हारिसी बुद्धी मज्झ णत्थि, अओ = तुम्हारी जैसी बुद्धि मेरी नहीं है, अहं इमस्स कजकरणत्थं न समत्थो।। इसलिए मैं इस कार्य को करने के
लिए समर्थ नहीं हूँ। ११. सो मित्तेण सह/सद्धिं/समं = वह मित्र के साथ जाता है।
गच्छइ। १२. सीया रामेण समय/समयं वणं = सीता राम के साथ वन में जाती है।
गच्छइ। १३. गामं समया एक्को तडागो अत्थि। - गाँव के समीप एक तालाब है। १४. जलं विणा णरो न जीवइ। - जल के बिना मनुष्य नहीं जीता है। १५. सीयलजलेण एव णवरं/णवर - शीतल जल से ही केवल प्यास तिसा णासइ।
नष्ट होती है। १६. णवरि तुम एक्कं सन्देसं गिण्हहि। - बाद में तुम एक सन्देश ग्रहण करो। १७. सो सहसा/सहसत्ति गच्छिउं - वह सहसा जाने के लिए उठा।
उट्टिओ। १८. सो तत्थेव ठिओ।
= वह वहाँ ही ठहरा। १९. जइ तुमं कहिहिसि ता अहं भोयणं = यदि तुम कहोगे तो मैं खाना खाऊँगा।
खाहिमि। २०. तुमं उज्जमेण णूण/Yणं धणं - तुम प्रयत्न के कारण निश्चय ही धन लभिहिसि।
प्राप्त करोगे। २१. तुमं विजं गेण्हहि जओ विज्जाए = तुम विद्या को ग्रहण करो, क्योंकि पइट्ठा होइ।
विद्या से प्रतिष्ठा होती है। २२. तेण णाणा गंथा पढिआ। - उसके द्वारा अनेक ग्रन्थ पढ़े गये। २३. विवाहमहूसवे चउरो जामायरा - विवाह महोत्सव में चारों दामाद खलु आगच्छिस्सन्ति।
निश्चय ही आयेंगे। २४. बालओ पुष्पाणि तोडइ जं - बालक फूलों को तोड़ता हैं, क्योंकि
बालअस्स फुप्फाइं रोअन्ति। बालक को फूल अच्छे लगते हैं। २५. सज्झाये पमायो णो/ण/णवि __= स्वाध्याय में प्रमाद नहीं किया जाना कायव्वो।
चाहिए। (78) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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२६. तओ/ततो/तत्तो सो मितं कहेइ- = इसके पश्चात् (तब) वह मित्र से हे मित्त ! अम्हं सुहसज्जा का? कहता है - हे मित्र! हमारे लिए सुख
शय्या क्या है? २७. पच्छा पावसियाला कुम्मे पासंति। - बाद में पापी सियार कछुओं को
देखते हैं। २८. संपई थिरा ण होइ, परं धम्मो सया = संपति स्थिर नहीं होती, परन्तु धर्म थिरो होइ।
सदा स्थिर रहता है। २९. ते परोप्पंर/परुप्परं जुज्झन्ति। - वे आपस में लड़ते हैं। ३०. पुणरवि सो भज्जं कहेइ। - फिर वह पत्नी को कहता है। ३१. तुमं समित्तस्स पासं गच्छहि, - तुम अपने मित्र के पास जाओ, जिससे
जेण तस्स दुहियमणो उल्लसउ। उसका दुःखी मन प्रसन्न हो जावे। ३२. अम्हाणं बप्पस्स गुरू वणं किण्णं/= हमारे पिता के गुरू वन में क्यों किणो उववसइ।
रहते हैं। ३३. तेण तीअं जीवणं सुमरिअं। - उसके द्वारा बीता हुआ जीवन याद
किया गया।
(ii) १. अहो परउवयारा परमेसरा सइ = पर का उपकार करने वाले हे परमेश्वर ! तुब्भे ममं खमह।
एक बार आप मुझे क्षमा करें। २. बालओ मायं देक्खिऊणं असइ/ = बालक माता को देखकर बार-बार असइं/असई कुद्दइ।
कूदता है। ३. तेण पुण तीए जणयादिसमक्खं = उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के चिआमज्झे अमयरसो मुक्को। समक्ष चिता के मध्य में अमृतरस
छोड़ा गया। ४. तुम एयहुत्तं मज्झ एअं वत्थु देहि, = तुम एक बार मुझे यह वस्तु दे दो, मैं अहं पुण-पुण तं ण मग्गिस्सं। बार-बार उसकी याचना नहीं
करूगा। ५. मुहु/मुहं मुसं ण वदहि। बार-बार झूठ मत बोलो।
(iii) १. सो सुहं (2/1) रमइ। = वह सुखपूर्वक रमण करता है।
२. सो दुहं (2/1) जीवइ। = वह दुःखपूर्वक जीता है। ३. सो णेहेण (3/1) मित्तं कोक्कइ। = वह स्नेहपूर्वक अपने मित्र को
बुलाता है। ४. सिस्सेण सव्वायरेण (3/1) गुरू = शिष्य के द्वारा पूर्ण आदरपूर्वक गुरु पणमिओ।
प्रणाम किया गया।
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समुच्चयबोधक अव्यय दो या अधिक शब्दों या वाक्यों को जोड़ने वाले अव्यय समुच्चयबोधक अव्यय कहे जाते हैं। कुछ निम्नलिखत हैं
य, वा, किन्तु, जइ, तहवि, तेण, जेण, तेणेव, जेणेव किं, किण्णा, जाव, ताव, आम/आमं आदि।
वाक्य-प्रयोग
१. रामो हरी य चिट्ठन्ति। - राम और हरि बैठते हैं। २. राया मंती वा वियारइ। = राजा अथवा मंत्री विचार करते हैं। ३. मइ सो कोक्किओ, किन्तु सो ण - मेरे द्वारा वह बुलाया गया, लेकिन आगओ।
वह नहीं आया। ४. जइ तुम कहसि ता अहं गामं यदि तुम कहते हो, तो मैं गाँव गच्छिहिमि।
जाऊँगा। ५. जाव तुमं पढिहिसि ताव अहं तुमं = जब तक तुम पढ़ोगे तब तक मैं पालिहिमि।
तुमको पालूँगा। ६. तेण लवियं - आमं/आम इमो = उसके द्वारा कहा गया -- हाँ, यह गाड़ी सगडतित्तिरो विक्कायइ।
में रखा हुआ तीतर बेचा जायेगा। ७. तेहि इमो पुच्छिओ - किं लब्भइ। = उनके द्वारा यह पूछा गया - क्या प्राप्त
किया जाता है? ८. तुमए गंथा किण्णा लद्धा। तुम्हारे द्वारा ग्रंथ कैसे प्राप्त किये गये। ९. जेण अत्थ भमररुअं सुणिज्जइ तेण = चूँकि यहाँ भवरों की आवाज सुनी अत्थ कमलवनं जाणिज्जइ । जाती है, इसलिए कमलवन जाना
जाता है। १०. जइ काओ पंकयवणम्मि वसइ = यदि कौआ कमल-समूह में रहता है,
तहवि काओ काओ च्चिय वराओ। फिर भी बेचारा कौआ कौआ ही (है)। ११. अम्हाणं सासू विउसी अस्थि, - हमारी सासू विदूषी है, इसलिए वह
तेण सा भोयणे तेलं देइ, न घयं। । भोजन में तेल देती है, घी नहीं। १२. तुमं घरं आगच्छहि, जेण माया = तुम घर आ जाओ, जिससे माता उल्लसउ।
प्रसन्न हो।
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मनोविकारसूचक अव्यय हर्ष, खेद, दया, शोक, क्रोध आदि विभिन्न भावों की सूचना देने वाले कुछ निम्न अव्यय हैं -
हा (खेद), हाहा (शोक), अरे (विस्मय), धि (धिक्कार),
आ (खेद, दु:ख, क्रोध), अम्मो (आश्चर्य), खु (आश्चर्य), हंदि (विषाद या खेद)।
वाक्य-प्रयोग
१. धि दुजणं।
= दुर्जन को धिक्कार २. हा रावणो रामस्स ईसइ। - खेद है कि रावण राम से ईर्ष्या
करता है। ३. अरे दुट्ठो मणुसो सज्जणस्स वि दोहइ। - विस्मय है कि दुष्ट मनुष्य सज्जन से
भी द्रोह करता है। ४. हा हा माया पुत्तवियोगे अईव कंदिआ।= शोक है कि माता पुत्र वियोग में
अत्यन्त रोयो। आ तस्स आयारो पसुसरिसो अत्थि। - । खेद है कि उसका आचरण पशु के
समान है। ६. अम्मो/खु हरिस्स भत्ती न भावइ। - आश्चर्य है कि हरि को भक्ति अच्छी
नहीं लगती। ७. हंदि सो नरिंदस्स ईसइ।
विषाद या खेद है कि वह राजा से ईर्ष्या करता है।
अतिरिक्त अव्यय कृदन्तों में हेत्वर्थक कृदन्त और सम्बन्धक कृदन्त अव्यय होते हैं। जैसे - णच्चिउं/आदि (हेत्वर्थक कृदन्त), णच्चिऊण/णच्चित्ता/आदि (सम्बन्धक कृदन्त)।
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हुत्तं प्रत्यय और खुत्तो प्रत्यय से बने शब्द अव्यय होते हैं। जैसे - तिहुत्तं और तिक्खुत्तो। पंचमीअर्थक प्रत्यय अव्यय होते हैं। जैसे - सव्वत्तो, सव्वदो, सव्वओ (सब ओर से) एकत्तो, एकदो, एकओ (एक ओर से) अनत्तो, अन्नदो, अन्नाओ (दूसरों से) कत्तो, कदो, कओ (कहाँ से) जत्तो, जदो, जओ (जहाँ से) तत्तो, तदो, तओ (वहाँ से) इत्तो, इदो, इओ (यहाँ से) सप्तमीअर्थक स्थानवाची प्रत्यय अव्यय होते हैं। जैसे - जहि, जह, जत्थ (जिस स्थान में) तहि, तह, तत्थ (उस स्थान में) कहि, कह, कत्थ (किस स्थान में) अन्नहि, अन्नह, अन्नत्थ (अन्य स्थान में) सव्वहि, सव्वह, सव्वत्थ (सब स्थान में) एक समय के अर्थ में प्रयुक्त शब्द अव्यय होते हैं। जैसे एक्कसि/ एकसि/एक्कइया/एगया = एक समय अव्वईभाव समास अव्यय होते है। जैसे - (i) उवगुरुं = गुरुणो समीवं (गुरु के समीप) (ii) अणुभोयणं = भोयणस्स पच्छा ( भोजन के पश्चात्)
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१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
(iii)
(iv)
(v)
(vi)
११.
पइनयरं नयरं नयरं ति ( प्रतिनगर)
पइदिणं
पइघरं = घरे घरे त्ति (प्रतिघर )
जहासत्तिं = सत्तिं अणइक्कमिऊण (शक्ति की अवहेलना न करके)
(शक्ति के अनुसार)
=
=
दिणं दिणं ति ( प्रतिदिन)
(vii) जहाविहिं = विहिं अणइक्कमिऊण (विधि की अवहेलना न करके)
(विधि के अनुसार)
वाक्य-प्रयोग
सा णच्चिऊणं / णच्चित्ता आदि
थक्कीअ ।
सोच्चि उट्ठिओ ।
अहं तिहुत्तं / तिक्खुत्तो परमेसरं वंदामि ।
सत्तूहिं नरिंदो सव्वत्तो / सव्वदो / सव्वओ पडिरुद्धो ।
तुमं एकत्तो / एकदो / एकओ पोत्थाणि आणेहि ।
जो अन्नत्तो / अन्नदो / अन्नओ सुहं इच्छइ, सो संतिं न लहइ ।
विमा कत्तो / को/कओ उड्डिअं ।
तुमं जत्तो / जदो, जओ आगओ, तत्थ झत्ति गच्छहि ।
अहं इत्तो / इदो / इओ फलाई । कीणिऊण गमिस्सं ।
तुमं जहि /जह / जत्थ वससि, तहि / तह/ तत्थ गच्छहि ।
तुम कहि/कह/ कत्थ वससि ।
=
==
वह नाचकर थकी।
वह नाचने के लिए उठा ।
मैं तीन बार परमेश्वर की वन्दना करता हूँ ।
शत्रुओं द्वारा राजा सब ओर से रोक लिया गया ।
तुम एक ओर से पुस्तकों को लाओ।
जो दूसरों से सुख चाहता है, वह शांति प्राप्त नहीं करता है।
विमान कहाँ से उड़ा ।
तुम जहाँ से आये, वहाँ शीघ्र पहुँचो ।
मैं यहाँ से फल खरीदकर जाऊँगा ।
तुम जिस स्थान में रहते हो, वहाँ जाओ ।
तुम किस स्थान में रहते हो ?
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१२.
मम ससा अन्नहि/अन्नह/अन्नत्थ - मेरी बहिन अन्य स्थान में रहती है। उववसइ। परमेसरो सव्वहि/सव्वह/सव्वत्थ = परमेश्वर सब स्थान में रहता है। णिवसइ। एक्कसि/एक्कसिअं/एक्कइया/एगया = एक समय हस्तिनापुर नगर में नानाहत्थिणाउरे नयरे सूरनामा रायपुत्तो गुण रूपी रनों से युक्त शूर नामक राजपुत्र नाणागुणरयणसंजुत्तो वसीअ।
रहता था। सिस्सो उवगुरुं चिट्ठइ।
= शिष्य गुरु के समीप बैठता है। सो अणुभोयणं घरं गओ। __= वह भोजन के पश्चात् घर गया। अहं पइदिणं हरिं सुमरमि। = मैं प्रतिदिन हरि का स्मरण करता हूँ। साहू पइघरं भिक्खत्थं गच्छइ। -- साधू प्रतिघर भिक्षा के लिए जाता है। तुमं जहासत्तिं परोवयारं करहि । ___= तुम शक्ति के अनुसार परोपकार करो। तुमए जहाविहिं कजं करणीयं। तुम्हारे द्वारा विधि के अनुसार कार्य
किया जाना चाहिए।
१७.
१८.
१९. २०.
अभ्यास
१. एक बार उसका पिता कार्य के प्रसंग से विदेश गया। २. तब वह इंद्रदत्त भी अपने पुत्र के साथ वहाँ आया। ३. लेकिन वह सोमदत्त इसके पश्चात् उस प्रकार की सुन्दरतम शिल्पक्रिया करने में समर्थ नहीं हुआ। ४. तब लोगों के द्वारा पृथ्वी खोदी गई। ५. तुम जहाँ जाओगे, वहाँ सुख ही पाओगे । ६. यहाँ अनेक प्रकार के सुख-दुःख हैं। ७. उसका घर मेरे घर के सामने है। ८. इस प्रकार वह सुखपूर्वक समय बिताता है। ९. उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। १०. राजगृह नगर के बाहर सुन्दर उद्यान था। ११. जहाँ उसका घर था, वहाँ वह जाती है। १२. वे दोनों धीरे से नगर से बाहर निकले। १३. सीता राम के साथ जंगल में गई । १४. हे पुत्र! तुम भी दूर चले जाओगे तो मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगी। १५. स्वादिष्ट भोजन में लीन ये दामाद गधे के समान मानहीन हैं, इसलिये ये युक्तिपूर्वक निकाले जाने चाहिए। १६. सासू को ये दामाद अति प्रिय हैं, इसलिए ये पाँच-छ: दिन ठहरना चाहते हैं, बाद में चले जायेंगे। १७. एक बार (84) प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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बिना
ससुर के द्वारा भीत पर लिखी हुई सूक्ति पढ़कर विचार किया गया । १८. संसार में मूल्य के भोजन कहाँ है ? १९. जिनशासन में राम कथा किस प्रकार कही गयी है, बताओ । २०. यदि तुम्हारा मन चंचल है, तो उसे रोको । २१. तुम गुरु के पास शिक्षा ग्रहण करो । २२. मैं प्रतिदिन ध्यान करती हूँ । २३. तुम अपनी शक्ति के अनुसार परिश्रम करो । २४. इन्द्र ने तीन बार प्रदक्षिणा की । २५. बच्चा सोने के लिए रोता है । २६. दोनों भाई आपस में झगड़ते हैं । २७. मेरी बहिन माता के साथ जाकर पुस्तकें खरीदती है । २८. ज्ञान के बिना मनुष्य पशु के समान होता है । २९. मैं निश्चय ही तुम्हारे घर आऊँगा । ३०. सदा प्रसन्न रहो ।
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