________________
२६. तओ/ततो/तत्तो सो मितं कहेइ- = इसके पश्चात् (तब) वह मित्र से हे मित्त ! अम्हं सुहसज्जा का? कहता है - हे मित्र! हमारे लिए सुख
शय्या क्या है? २७. पच्छा पावसियाला कुम्मे पासंति। - बाद में पापी सियार कछुओं को
देखते हैं। २८. संपई थिरा ण होइ, परं धम्मो सया = संपति स्थिर नहीं होती, परन्तु धर्म थिरो होइ।
सदा स्थिर रहता है। २९. ते परोप्पंर/परुप्परं जुज्झन्ति। - वे आपस में लड़ते हैं। ३०. पुणरवि सो भज्जं कहेइ। - फिर वह पत्नी को कहता है। ३१. तुमं समित्तस्स पासं गच्छहि, - तुम अपने मित्र के पास जाओ, जिससे
जेण तस्स दुहियमणो उल्लसउ। उसका दुःखी मन प्रसन्न हो जावे। ३२. अम्हाणं बप्पस्स गुरू वणं किण्णं/= हमारे पिता के गुरू वन में क्यों किणो उववसइ।
रहते हैं। ३३. तेण तीअं जीवणं सुमरिअं। - उसके द्वारा बीता हुआ जीवन याद
किया गया।
(ii) १. अहो परउवयारा परमेसरा सइ = पर का उपकार करने वाले हे परमेश्वर ! तुब्भे ममं खमह।
एक बार आप मुझे क्षमा करें। २. बालओ मायं देक्खिऊणं असइ/ = बालक माता को देखकर बार-बार असइं/असई कुद्दइ।
कूदता है। ३. तेण पुण तीए जणयादिसमक्खं = उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के चिआमज्झे अमयरसो मुक्को। समक्ष चिता के मध्य में अमृतरस
छोड़ा गया। ४. तुम एयहुत्तं मज्झ एअं वत्थु देहि, = तुम एक बार मुझे यह वस्तु दे दो, मैं अहं पुण-पुण तं ण मग्गिस्सं। बार-बार उसकी याचना नहीं
करूगा। ५. मुहु/मुहं मुसं ण वदहि। बार-बार झूठ मत बोलो।
(iii) १. सो सुहं (2/1) रमइ। = वह सुखपूर्वक रमण करता है।
२. सो दुहं (2/1) जीवइ। = वह दुःखपूर्वक जीता है। ३. सो णेहेण (3/1) मित्तं कोक्कइ। = वह स्नेहपूर्वक अपने मित्र को
बुलाता है। ४. सिस्सेण सव्वायरेण (3/1) गुरू = शिष्य के द्वारा पूर्ण आदरपूर्वक गुरु पणमिओ।
प्रणाम किया गया।
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
(79)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org