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चतुर्थी विभक्ति - सम्प्रदान कारक 1. दान कार्य के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, उस व्यक्ति की
सम्प्रदान संज्ञा होती है। संप्रदान को बताने वाले संज्ञापद को चतुर्थी में रखते है। जैसे राया णिद्धणाय/णिद्धणस्स धणं दाइ/देइ (राजा निर्धन के लिए धन
देता है।) 2. जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य होता है, उस प्रयोजन में चतुर्थी होती है।
जैसे - (i) सो मुत्तीए/मुत्तीआ/आदि हरिं भजइ/भजए/आदि (वह मुक्ति के लिए
हरि को भजता है।) (ii) तुम धणस्स/धणाय चेट्ठसि/चेट्ठसे (तुम धन के लिए प्रयत्न करते हो।) 3. रोअ (अच्छा लगना) तथा रोअ के समान अर्थ वाली अन्य क्रियाओं के योग
में प्रसन्न होने वाला सम्प्रदान कहलाता है, उसमें चतुर्थी होती है। जैसे - बालअस्स/बालाय पुप्फाणि/पुप्फाई रोअन्ति/रोअन्ते/आदि (बालक को फूल
अच्छे लगते है/रुचते है।) 4. कुज्झ (क्रोध करना), दोह (द्रोह करना), ईस (ईर्ष्या करना), असूअ
(घृणा करना) क्रियाओं के योग में तथा इसके समानार्थक क्रियाओं के योग में, जिसके ऊपर क्रोध आदि किया जाए उसे चतुर्थी में रखा जाता है। जैसे -
(i)
लक्खणो रावणाय/रावणस्स कुज्झइ/कुज्झए/आदि (लक्ष्मण रावण पर क्रोध करता है।)
(ii) रावणो रामाय/रामस्स ईसइ/ईसए/आदि (रावण राम से ईर्ष्या करता
है।) (iii) महिला हिंसाए/हिंसाइ/हिंसाअ असूअइ/असूअए/आदि (महिला
हिंसा से घृणा करती है।) (iv) दुट्ठो मणुसो सज्जणाय/सज्जणस्स दोहइ/दोहए/आदि (दुष्ट मनुष्य
सज्जन से द्रोह करता है।)
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प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
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