________________
4. सप्तमी के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है जैसे -
सूरपयासो दिणं (2/1) पसरइ/पसरए/आदि (सूर्य का प्रकाश दिन में फैलता
है।) यहाँ दिणे (सप्तमी) के स्थान पर दिणं (द्वितीया) हुई है। 5. प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है,
जैसे - चउवीसं (2/1) जिणवरा (1/2)। यहाँ होना चाहिए - चउवीसा 1/1 जिणवरा 1/2 । नोट :- संख्यावाची शब्दों के रूपों के लिए देखें प्रौढ़ प्राकृत रचना सौरभ
पृ० 158, 161 । 6. यदि वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो
तो क्रिया के आधार में द्वितीया होती है। हरी सग्गं (2/1) उववसइ/अनुवसइ/अहिवसइ/आवसइ/आदि। (हरी स्वर्ग में वास करता है।) यदि हम वस का ही प्रयोग करेंगे तो 'हरी सग्गे वसइ' वाक्य बनेगा। यहाँ द्वितीया विभक्ति नहीं हुई है। उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि (धिक्कार), समया (समीप)इनके साथ द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे - परिजणो रायं (2/1) उभओ/ सव्वओ चिट्ठइ (परिजन राजा के दोनों ओर / चारों ओर बैठते है।) धि दुजणं (2/1) (दुर्जन को धिक्कार), गामं (2/1) समया एक्को तडागो
अत्थि (गाँव के समीप एक तालाब है।) 8. अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया होती
7.
(i) (ii)
णाणं अन्तरेण न सुहं (ज्ञान के बिना सुख नहीं है।) गंगं जउणं य अन्तरा पयागो अत्थि (गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है।)
(32)
प्राकृतव्याकरण : सन्धि-समास-कारक -तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org