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श्री जिन समस्त अर्ध्यावली संग्रह
जिनवाणी संग्रह
DIREON
long legals
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अहिंसा
परस्परोपडाहो जीवानाम्
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विषय -सूची
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श्री देव-शास्त्र -गुरु ............ श्री विद्यमान बीस तीर्थंकरों. ............. श्री कृत्रिम -अकृत्रिम चैत्यालयों ....... श्री सिद्धपरमेष्ठी (संस्कृत)..... श्री सिद्धपरमेष्ठी (भाषा)...........
श्री आदिनाथ-जिनेन्द्र......
..........
श्री अजितनाथ -जिनेन्द्र .........
श्री संभवनाथ -जिनेन्द्र......
......
श्री अभिनंदननाथ -जिनेन्द्र श्री सुमतिनाथ -जिनेन्द्र.. श्री पद्मप्रभ-जिनेन्द्र ... श्री सुपार्नाथ जिनेन्द्र. श्री चंद्रप्रभ -जिनेन्द्र ..... श्री पुष्पदंत-जिनेन्द्र ..... श्री शीतलनाथ -जिनेन्द्र .
श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्र.....
श्री वासुपूज्य -जिनेन्द्र .. श्री विमलनाथ जिनेन्द्र. श्री कुंथुनाथ -जिनेन्द्र..
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श्री अरहनाथ-जिनेन्द्र... श्री मल्लिनाथ -जिनेन्द्र.
............. श्री मुनिसुव्रत -जिनेन्द्र.. श्री नमिनाथ -जिनेन्द्र .. श्री नेमिनाथ -जिनेन्द्र .... श्री पार्श्वनाथ -जिनेन्द्र...
श्री महावीर -जिनेन्द्र.......
.....
समुच्चय महाय॑..........
महार्घ्य मंत्र (संस्कृत)...
संस्कृत मिश्रित हिन्दी मन्त्र....... रचयिता - श्री वृन्दावन
श्री आदिनाथ जिन......... श्री अजितनाथ जिन..... श्री संभवनाथ जिन . श्री अभिनंदन जिन......... श्री सुमतिना जिन ... श्री पद्मप्रभ जिन.. श्री सुपार्श्वनाथ जिन श्री चन्द्रप्रभ जिन .... ............. श्री पुष्पदंत जिन..... श्री शीतलनाथ जिन. ........... श्री श्रेयांसनाथ जिन..... श्री वासुपूज्य जिन.. श्री विमलनाथ जिन. श्री अनन्तनाथ जिन ........
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श्री धर्मनाथ जिन .. श्री शान्तिनाथ जिन . श्री कुंथुनाथ जिन ..... श्री अरहनाथ जिन ........ श्री मल्लिनाथ जिन श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन .. श्री नमिनाथ जिन ......... श्री नेमिनाथ जिन ..... श्रीपार्श्वनाथ जिन...
............ श्री महावीर जिन .... रचयिता - श्री रामचन्द्र जी ....
श्री आदिनाथ जिन ... श्री अजितनाथ जिन.. श्री सम्भवनाथ जिन.. श्री अभिनन्दन जिन ... श्री सुमतिनाथ जिन.. श्री पद्मप्रभ जिन .... श्री सुपार्श्वनाथ जिन ... श्री चन्द्रप्रभ जिन....... श्री पुष्पदन्त जिन.. श्री शीतलनाथ जिन... श्री श्रेयांसनाथ जिन .. श्री वासुपूज्य जिन .. श्री विमलनाथ जिन .... श्री अनन्तनाथ जिन. श्री धर्मनाथ जिन.
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श्री शान्तिनाथ जिन ...... श्री कुंथुनाथ जिन . श्री अरनाथ जिन ..... श्री मल्लिनाथ जिन .. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन. श्री नमिनाथ जिन ....... श्री नेमिनाथ जिन .. श्री पार्श्वनाथ जिन .
श्री महावीर जिन....... रचयिता - कविवर मनरंगलाल ...
श्री ऋषभदेव जिन ..... श्री अजितनाथ जिन ............... श्री सम्भवनाथ जिन. श्री अभिनन्दननाथ जिन.. श्री सुमतिनाथ जिन..... श्री.. श्री सुपार्श्वनाथ जिन . श्री चन्द्रप्रभ जिन..... श्री पुष्पदन्त जिन...... श्री शीतलनाथ जिन.. श्री श्रेयांसनाथ जिन ... श्री वासुपूज्य जिन... श्री विमलनाथ जिन श्री अनन्तनाथ जिन... श्री धर्मनाथ जिन .... श्री शान्तिनाथ जिन .
जन.................
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श्री कुन्थुनाथ जिन ... श्री अरहनाथ जिन.. श्री मल्लिनाथ जिन .. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन. श्री नमिनाथ जिन .. श्री नेमिनाथ जिन .... श्री पार्श्वनाथ जिन .. श्री वर्धमान जिन. PURNMATI MATI JI श्री आदिनाथ जिन...... ............. श्री अजित जिन . श्री संभवनाथ जिन.. श्री अभिनंदननाथ जिन.. श्री सुमतिनाथ जिन .. श्री पद्मप्रभ जिन .. श्री सुपार्श्वनाथ जिन..... श्री चन्द्रपभ जिन.... श्री सुपार्श्वनाथ जिन. श्री चन्द्रपभ जिन.... श्री सुविधिनाथ जिन . श्री शीतलनाथ जिन . श्री सुविधिनाथ जिन . श्री शीतलाथ जिन ... श्री श्रेयांसनाथ जिन. श्री वासुपूज्य जिन .. श्री विमलनाथ जिन...
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श्री अनंतनाथ जिन. श्री अनंतनाथ जिन.. श्री धर्मनाथ जिन...... श्री शांतिनाथ जिन.. श्री कुंथुनाथ जिन ... श्री अरनाथ जिन..... श्री मल्लिनाथ जिन ....... श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन. श्री नमिनाथ जिन .... श्री नेमिनाथ जिन ..... ................. श्री पार्श्वनाथ जिन..
श्री महावीर जिन.. श्री आदिनाथ जिन(रचयिता - जिनेश्वरदास) श्री आदिनाथजिन -पूजा, कुण्डलपुर (दमोह) (श्री उत्तम सागर जी महाराज)........ श्री आदिनाथजिन-पूजन, (बड़ेबाबा( )रचयिता - सुब्रत सागर (.........................62 श्री आदिनाथजिन-पूजन (चाँदखेड़ी) (रचयिता - रूपचन्द जैन ).................. श्री आदिनाथ जिन -पूजा (रानीला) (रचयिता - ताराचन्द प्रेमी).....................63 श्री आदिनाथ जिन -पूजा (साँगानेर) (रचयिता - लालचन्द जी राकेश)............64 श्री आदिनाथ जिन -पूजा (अयोध्या) (रचयिता - कल्याण कुमार शशि)............. श्री आदिनाथ जिन -पूजा (रचयिता - नंदन कवि)........ .............. श्री आदिनाथ जिन -पूजा (रचयिता - ब्र. रवीन्द्र जैन )............ श्री आदिनाथ जिन पूजा (रैवासा -राज.) रचयिता - श्री लालचन्द जैन राकेश)....65 श्री आदिनाथ जिन -पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)... ................66 श्री अजितनाथजिन .
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श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (वासा).
श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा ( बाड़ा) (रचयिता - छोटे लाल ).. श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा ( तिजारा जी ) ( रचयिता - श्री मुंशी )... श्री चन्द्रप्रभ जिन पूजा (सोनागिर ) ( रचयित्री आर्यिका स्वस्ति मति ).
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (महलका ) ( रचयिता - आर्यिका मुक्ति भूषण )...
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा ( चाँदखेड़ी ).
श्री शीतलनाथ जिन-पूजा ( रचयिता
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-
श्री वासुपूज्य जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी ).
श्री अनन्तनाथजिन -पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी ) ..
श्री शान्तिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता
श्री बख्तावरसिंह).
-
श्री राजमल जी ).
श्री राजमल जी ).
श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन पूजा (किशवराय पाटन ) ( रचयिता पं0 दीपचन्द).......70 श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन - पूजा (पैठण) ( रचयिता
श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (निमगिरी ) ( रचयिता - श्री 108 चिन्मयसागरजी ).
( गिरनारजी ) ( आर्यिका स्वस्ति माता जी ) .. ( रचयिता - श्री राजमल जी )..
श्री नेमिनाथ जिन-पूजा श्री नेमिनाथ जिन-पूजा श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा ( बडा गांव ) (रचयित्री - नीलम जैन ).. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कचनेर ) ( रचयिता
श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - पं. मोहनलाल ).
(श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (महुवा, सूरत ) ( रचयिता
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (निमगिरि )..
श्रीपार्श्वनाथजिन -पूजा अतिशय क्षेत्र (बिहारी, मु. नगर ).
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-
रतन लाल पहाडे ).
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क्षुल्लक सिद्धसागर जी )..
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भट्टारक विद्याभूषण )...
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श्रीपार्श्वनाथ जिन -पूजा (अहिच्छत्र ) (रचयिता - राजमल जी)... श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (जटवाड़ा) (रचयिता - आचार्य देवनन्दि मुनि )......... श्रीपार्श्वनाथ जिन -पूजा (कलिकुण्ड) (अडिल्ल छन्द )...... श्रीपार्श्वनाथ जिन -पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)....................... श्रीपार्श्वनाथ जिन -पूजा (आर्यिका ज्ञानमती माता जी)...................... श्री पार्श्वनाथ जिनपूजन-1 (रचयिता - बख्तावरलाल). श्री पार्श्वनाथ पूजन -2 (रचयिता - पुष्पेन्दु) .......... श्री अहिच्छत्र -पाश्वनाथ - जिन -पूजा (रचयिता - कल्याण कुमार "शशि")........76 श्रीमहावीर जिन -पूजा (पावागिरि, ऊन) (रचयिता - पं0 बाबूलाल फणीश)........77 श्रीमहावीर जिन -पूजा (चान्दन गांव - श्री महावीर जी) (रचयिता - श्री पूरनमल)..77 श्रीमहावीर जिन -पूजा (अहिंसा -स्थल, नई दिल्ली).... ............. श्रीमहावीर जिन -पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी).............
श्री पार्श्वनाथ-जिन ...
श्री पार्श्वनाथ -जिन पूजा ('पुष्पेन्दु') ............. श्री अहिच्छत्र-पार्श्वनाथ-जिन .. श्री महावीर -जिन ..
श्री आदिनाथ-जिन....
श्री चंद्रप्रभ जिन..... श्री शांतिनाथ जिन ....... श्री पार्श्वनाथ जिन . ...........
श्री महावीर-जिन.........
सिद्धक्षेत्रों की अावली.
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(१) श्री अष्टापद सिद्धक्षेत्र (हिमालय पर्वत, कैलास).. (२) सम्मेद -शिखर सिद्धक्षेत्र (झारखंड).... (३) गिरनार सिद्धक्षेत्र (गुजरात)...... (४) श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र (बिहार)......... (५) श्री पावापुरी सिद्धक्षेत्र (बिहार).............. (६) श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.).. (७) श्री नयनागिरि (रंशंदीगिरि) सिद्धक्षेत्र (म.प्र.).................... (८) श्री द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.).. (9) सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र (म.प्र.).... (१०) श्री शत्रुजय-सिद्धक्षेत्र (गुजरात)....... (११) श्री तुंगीगिरि सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र)....... (१२) श्री कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र)........... (१३) चूलगिरि (बावनगजा) सिद्धक्षेत्र (म.प्र.).. (१४) श्री गजपंथ -सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र)..................... (१५) श्री मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.)........... (१६) पावागढ़-सिद्धक्षेत्र (गुजरात).. (१७) रेवातट स्थित सिद्धोदय -सिद्धक्षेत्र निमावर -म.प्र.)................. (१८) (ऊन ) पावागिरि-सिद्धक्षेत्र म.प्र.. (१9) कोटिशिला -सिद्धक्षेत्र (उड़ीसा)...... (२०) तारंगागिरि -सिद्धक्षेत्र (गुजरात). (२१) श्री गौतम -गणधर निर्वाण -स्थली (गुणावा -बिहार ) ............... 87 (२२) जम्बू-स्वामी निर्वाण स्थली चौरासी -मथुरा सिद्धक्षेत्र (उ.प्र.)........... 88
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सोलहकारण -भाव
पंचमेरु - जिनालयों.
नंदीश्वरद्वीप - जिनालयों.
दशलक्षण धर्म.
श्री सम्यक् रत्नत्रय
सप्तर्षि - अर्घ्य
श्री चौबीस - तीर्थंकर निर्वाणक्षेत्र
पाँच बालयति
नवग्रह-अरिष्ट निवारक.
श्री ऋषि -मंडल..
सरस्वती - माता.
श्री बाहुबली स्वामी.
पंच कल्याणक
तीस चौबीसी
विद्यमान बीस तीर्थंकरों
गौतम स्वामी जी.
श्री अंतराय -नाशार्थ.
श्री पंच कल्याणक.
श्री पंचपरमेष्ठी
श्री जिनसहस्रनाम.
समुच्चय पूजा
श्री देव -शास्त्र-गुरु पूजा ( कविश्री युगलजी )..
विद्यमान बीस तीर्थंकरों.
देव - शास्त्र गुरु.
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सिद्ध -पूजा ... ...............
.100 विद्यमान बीस तीर्थंकरों ..... ............
.....101 श्री सरस्वती पूजा ....
102 श्री गौतम गणधर... ................ दशलक्षण-धर्म .........
.......
...102 सोलहकारण-भावना .......
......102 श्री पंचमेरु.
............... श्री नंदीश्वर द्वीप श्री रत्नत्रय . ...............
.....104 सम्यग्ज्ञान ....
.....104 सम्यक्चारित्र ...
.... 104 क्षमावणीपर्व.
.105 समुच्चय चौबीसी जिनपूजन............................................ .....105 देव शास्त्र गुरु समुच्चय पूजन (रचयिता - वृन्दावनदास) ...................... ... 105 देव शास्त्र -गुरु पूजन (कविवर द्यानतराय).
............
....106 श्री देव-शास्त्र -गुरु पूजा (श्री युगल जी)................... सोलहकारण पूजा (कविवर द्यानतराय)...
............. ........... .107 पंचमेरु -पूजा (कविवर द्यानतराय)......
.......... दशलक्षणधर्म -पूजा........................
........
.....106
...107
..... 107
...108
रत्नत्रय -पूजा ........ सम्यग्दर्शनपूजा ..... सम्यग्ज्ञानपूजा. सम्यक्चारित्रपूजा नन्दीश्वरद्वीप -पूजा (कविवर द्यानतरायजी कृत)......
108
........
108
..108
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....IIU
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नवदेवता पूजन .....
.. 109 विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा भाषा.
... 109 सिद्ध -पूजन (श्री युगल जी)..........
109 सिद्धपूजा. ............
110 श्री ऋषि मण्डल पूजा ..........................
......111 सरस्वती पूजा (कविवर द्यानतराय) ............
.....111 क्षमावणी -पूजा ................
112 सप्तर्षि पूजा.
112 पंच परमेष्ठी पूजन - कवि राजमल पवैया जी..................
..... 112 बाहुबली स्वामी पूजन.... निर्वाणकाण्ड (भाषा)....
..............114 श्री निर्वाण क्षेत्र बड़ी पूजा (श्री निर्वाण लड्डू पूजा ).................
.... 116 श्री रविव्रत.........
..............116
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श्री देव-शास्त्र-गुरु जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनम के पातक हरूँ || इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूँ |
अरिहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रंथ नित पूजा रयूँ || वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन |
जा सों पूजू परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन || ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री विद्यमान बीस तीर्थंकरों जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है |
गणधर इन्द्रन हू तें, थुति पूरी न करी है || 'द्यानत' सेवक जान के (हो) जग तें लेहु निकार | सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह-मँझार |
श्री जिनराज हो, भवतारण-तरण जहाज || ओं ह्रीं श्री विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
अथवा ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन अनंतवीर्य-सूर्यप्रभविशालकीर्ति-वज्रधर-चंद्रानन भद्रबाहु-भुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश
अजितवीर्येति विंशति विहरमान तीर्थंकरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान् | वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान् ||
सद्गंधाक्षत-पुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपैः फलैः |
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये || ओं ह्रीं श्री त्रिलोकसंबंधि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सिद्धपरमेष्ठी (संस्कृत) गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनम् | पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ||
धूपं गंधयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये |
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाँछितम् || ओं ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सिद्धपरमेष्ठी (भाषा) जल फल वसु वृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा |
मेटो भवफंदा सब दुःखदंदा, 'हीराचंदा' तुम वंदा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवन नामी, अंतरयामी अभिरामी |
शिवपुर विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी शिरनामी || ओं ह्रीं श्रीअनाहतपराक्रमाय सर्वकर्मविनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने
अनपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री समुच्चय-चौबीसी जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करूं | तुमको अरपूं भवतार, भव तरि मोक्ष वरूं ||
चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही |
पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष मही || ओं ह्रीं श्री वृषभादि-वीरांत-चतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्योऽनर्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री आदिनाथ - जिनेन्द्र
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय | धूप फल अर्घ सुकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ||
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन-वच - काय | हो करुणानिधि भव दुःख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु पाय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अजितनाथ - जिनेन्द्र
जल फल सब सज्जै बाजत बज्जै, गुन-ग रज्जै मन भज्जै | तुअ पद जुग मज्जै सज्जन जज्जै, ते भव-भज्जै निज कज्जै || श्री अजित-जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं | मनवाँछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजूं ख्याता जग्गेशं ||
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री संभवनाथ - जिनेन्द्र
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप फल अर्घ किया | तुमको अरपूं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ||
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे | निजि निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे || ओं ह्रीं श्री संभवनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री अभिनंदननाथ-जिनेन्द्र अष्ट-द्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही | नचत रचत जजू चरन जुग, नाय-नाय सुभाल ही ||
कलुष ताप निकंद श्रीअभिनंद, अनुपम चंद हैं |
पद वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद फंद निकंद हैं || ओं ह्रीं श्री अभिनंदनजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सुमतिनाथ-जिनेन्द्र जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल सकल मिलाय | नाचि राचि शिरनाय समयूँ, जय-जय जय-जय जय जिनराय ||
हरि-हर वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय | तुम पद पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय || ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पद्मप्रभ-जिनेन्द्र जल-फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति-भाव उमगाय | जजूं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय |
पूजू भाव सों, श्रीपदमनाथ-पद सार, पूजू भाव सों | ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री सुपार्नाथ जिनेन्द्र आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ||
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो || तुम पद पूजूं मन-वच-काय, देव सुपारस शिवपुर राय |
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो || ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चंद्रप्रभ-जिनेन्द्र सजि आठों द्रव्य पुनीत, आठों अंग नमूं | पूजूं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गनूं ||
श्री चंद्रनाथ दुतिचंद, चरनन चंद लसें |
मन-वच-तन जजत अमंद, आतम जोति जसे || ओं ह्रीं श्री चंद्रप्रभस्वामिने अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पुष्पदंत-जिनेन्द्र जल फल सकल मिलाय मनोहर, मन-वच-तन हुलसाय ||
तुम-पद पूजूं प्रीति लायके, जय जय त्रिभुवनराय || मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदंत जिनराय, मेरी अरज सुनीजे || ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्त-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री शीतलनाथ-जिनेन्द्र शुभ श्रीफलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे | नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे || रागादि-दोष मल मर्दन हेतु येवा,
च» पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा | ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्र जल मलय तंदुल सुमन चरु अरु दीप धूप फलावली | करि अरघ चरचूं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ||
श्रेयांसनाथ जिनंद त्रिभुवन वंद आनंदकंद हैं |
दुःखदंद-फंद निकंद पूरनचंद जोति-अमंद हैं || ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्र जल-फल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई | शिव पदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरूं यह लाई ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई |
बाल-ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धाई || ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री विमलनाथ - जिनेन्द्र
आठों दरब संवार, मन-सुखदायक
पावने |
जजूं अरघ भर-थार, विमल विमल शिवतिय रमण ||
ओं ह्रीं श्री विमलनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अनंतनाथ - जिनेन्द्र
शुचि नीर चंदन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरूं | अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर जोर - जुग विनति करूं | जग-पूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो |
शिव कंत वंत मंहत ध्याऊँ, भ्रंत वंत नशावनो ||
ओं ह्रीं श्री अनंतनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री धर्मनाथ - जिनेन्द्र
आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई | बाजत दृम-दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता - थेई थाई || परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी |
पूजूं पाय गाय गुन सुन्दर, नाचूं दे दे तारी | ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
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श्री शांतिनाथ - जिनेन्द्र
जल फलादि वसु द्रव्य संवारे, अर्घ चढ़ाये मंगल गाय | 'बखत - रतन' के तुम ही साहिब, दीज्यो शिवपुर राज कराय || शांतिनाथ पंचम चक्रेश्वर, द्वादश मदन तनो पद पाय |
तिन के चरण कमल के पूजे, रोग शोक दुःख दारिद जाय || ओं ह्रीं श्री शांतिनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री कुंथुनाथ - जिनेन्द्र
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी | फल-जुत जजन करूं मन - सुख धरि, हरो जगत् फेरी || कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी | भव- सिन्धु पर्यो हो नाथ, निकारो बाँह-पकर मेरी ||
ओं ह्रीं श्री कुंथुनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अरहनाथ - जिनेन्द्र
शुचि स्वच्छ पटीरं, गंध-गहीरं, तंदुल-शीरं पुष्प चरुँ | वर दीपं धूपं, आनंद रूपं, ले फल भूपं अर्घ करूँ | प्रभु दीनदयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालम् | हनि मम जंजालं, हे जगपालं, अर-गुनमालं वरभालम् | ओं ह्रीं श्री अरहनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री मल्लिनाथ - जिनेन्द्र
जल-फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजूं भगति बढ़ाई | शिवपद - राज हेत हे श्रीधर, शरन गही मैं आई | राग-दोष -: -मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा | या तें शरन गही जगपति जी, वेगि हरो भवपीरा |
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री मुनिसुव्रत- जिनेन्द्र
जल गंध आदि मिलाय आठों, दरब अरघ सजूं वरूं | पूजूं चरन रज भगति जुत, जा तें जगत् सागर तरूं || शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं |
तसु चरन आनंद भरन तारन, तरन विरद विशाल हैं ||
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रत- जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
श्री नमिनाथ - जिनेन्द्र
जल-फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं ॥ जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग - पदांबुज प्रीति लगाय के ॥
ओं ह्रीं श्री नमिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री नेमिनाथ-जिनेन्द्र जल-फल आदि साजि शुचि लीने, आठों दरब मिलाय |
अष्टम छिति के राज करन को, जजूं अंग-वसु नाय ||
दाता मोक्ष के, श्री नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्ष के || ओं ह्रीं श्री नेमिनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पार्श्वनाथ-जिनेन्द्र नीर गन्ध अक्षतान् पुष्प चारु लीजिये | दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजिये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |
दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा || ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री महावीर-जिनेन्द्र जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरूं |
गुण गाऊँ भव दधितार, पूजत पाप हरूं || श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो |
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो || ओं ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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समुच्चय महार्घ्य
(गीता छंद) मैं देव श्री अरिहन्त पूजूं सिद्ध पूजूं चाव सों | आचार्य श्री उवझाय पूर्जे साधु पूर्जे भाव सों ||१||
अरिहन्त-भाषित बैन पूजू द्वादशांग रचे गणी | पूजूं दिगम्बर-गुरुचरण शिव-हेतु सब आशा हनी ||२||
सर्वज्ञ-भाषित धर्म-दशविधि दया-मय पूजॅ सदा | जजु भावना-षोडश रत्नत्रय जा बिना शिव नहिं कदा ||३||
त्रैलोक्य के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय जनूँ | पण-मेरु नंदीश्वर-जिनालय खचर-सुर-पूजित भनूँ ||४||
कैलास श्री सम्मेद श्री गिरनार गिरि पूजूं सदा | चम्पापुरी पावापुरी पुनि और तीरथ सर्वदा ||५||
चौबीस श्री जिनराज पूजूं बीस क्षेत्र विदेह के | नामावली इक-सहस-वसु जपि होंय पति शिवगेह के ||६||
(दोहा) जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय | सर्व पूज्य-पद पूजहूँ, बहुविधि-भक्ति बढ़ाय ||७||
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महाऱ्या मंत्र (संस्कृत)
ओं ह्रीं अरिहंत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्यो द्वादशांगजिनागमेभ्यो उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय दर्शनविशुद्ध्यादि-षोडशकारणेभ्यो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रेभ्यो त्रिलोकस्थित जिनबिम्बेभ्यो पंचमेरु-सम्बन्धि-अशीति-जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नंदीश्वर-द्वीप-सम्बन्धि
द्विपंचाशत्-जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः सम्मेदाष्टापद- ऊर्जयन्तगिरि-चम्पापुर-पावापुर्यादि सिद्धक्षेत्रेभ्यः सातिशयक्षेत्रेभ्यो विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो अष्टाधिक-सहस्रजिननामेभ्यो
श्रीवृषभादि चतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्यो जलादि महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
अथवा
संस्कृत मिश्रित हिन्दी मन्त्र
ओं ह्रीं भावपूजा भाववंदना त्रिकालपूजा त्रिकालवंदना करें करावें भावना भावें श्रीअरिहंतजी सिद्धजी आचार्यजी उपाध्यायजी सर्वसाधुजी पंच-परमेष्ठिभ्यो नमः, प्रथमानुयोग-करणानुयोग
चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगेभ्यो नमः, दर्शनविशुद्ध्यादि-षोडशकारणेभ्यो नमः, उत्तमक्षमादिदशलाक्षणिकधर्माय नमः, सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रेभ्यो नमः, जल के विषै, थल के विषै, आकाश के विषै, गुफा के विषै, पहाड़ के विषै, नगर-नगरी विषै उर्ध्वलोक- मध्यलोकपाताललोक विषै विराजमान कृत्रिम-अकृत्रिम जिन-चैत्यालय-जिनबिम्बेभ्यो नमः, विदेहक्षेत्रे विहरमान बीस-तीर्थकरेभ्यो नमः, पाँच भरत पाँच ऐरावत दशक्षेत्र-सम्बन्धि तीस चौबीसी के सातसौ बीस जिनराजेभ्यो नमः, नन्दीश्वरद्वीप-सम्बन्धी बावन- जिनचैत्यालयस्थ- जिनबिम्बेभ्यो
नमः, पंचमेरुसम्बन्धि-अस्सी-जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नमः, सम्मेदशिखर कैलाश चंपापुर पावापुर गिरनार सोनागिर मथुरा तारंगा आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः, जैनबद्री मूडबिद्री देवगढ़
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चन्देरी पपौरा हस्तिनापुर अयोध्या राजगृही चमत्कारजी श्रीमहावीरजी पद्मपुरी तिजारा बड़ागांव आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो नमः, श्री चारणऋद्धिधारी सप्तपरमषिऋभ्यो नमः, ओं ह्रीं श्रीमंतं भगवन्तं कृपावन्तं श्रीवृषभादि महावीरपर्यन्तं चतुविंशति-तीर्थंकर-परमदेवं आद्यानां आये जम्बूद्वीपे
भरतक्षेत्रे आर्यखंडे ..... नाम्नि नगरे मासानामुत्तमे <......शुभे....> मासे शुभे <.....शुभे....> पक्षे शुभ <......शुभे....> तिथौ <......शुभे....> वासरे मुनि-आर्यिकानां श्रावक-श्राविकाणां स्वकीय सकल-कर्म क्षयार्थं अनर्घ्यपद-प्राप्तये जलधारा सहित महाऱ्या
सम्पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (मास, पक्ष, दिन की जानकारी ना होने पर “शुभे” का प्रयोग करें)
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रचयिता - श्री श्री वृन्दावन
श्री आदिनाथ जिन
जल-फलादि समस्त मिलायके, जजत हैं पद मंगल-गायके। भगत-वत्सल दीनदयाल जी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी॥॥॥ ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथ जिन
जल-फल सब सज्जे बाजत बज्जै, गुन-गन-रज्जे मन-मज्जे । तुअ पद-जुग-मज्जै सज्जन जज्जै, ते भव-भज्जै निजकज्जै।। श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं। मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं॥
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
श्री संभवनाथ जिन
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप 'धूप फल अर्घ किया। तुमको अरपों भाव भगतिधर, जै जै जै शिव- रमनि-पिया ।।
संभव-जिन के चरन-चरचतैं, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख - वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री अभिनंदन जिन अष्ट-द्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही। नचत रचत जजों चरनजुग, नाय नाय सुभाल ही ।। कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं।
पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समतिना जिन जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय। नाचि राचि सिरनाय समरचौं, जय-जय-जय-जय जिनराय।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय। तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री पद्मप्रभ जिन जल फल आदि मिलाय गाय गुण, भगति भाव उमगाय। जजौं तुम्हें शिव तिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय ।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन
आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।।
`सुपारस शिवपुरराय।
श्री चन्द्रप्रभ जिन
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंगों I पूजों अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमों ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै ॥
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पुष्पदंत जिन
जल फल सकल मिलाय, मनोहर, मन-वचन-तन हुलसाय।
तुमपद पूजों प्रीति लायकै, जय-जयत्रिभुवनराय।। मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त
जिनराय ॥
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री शीतलनाथ जिन
शुभ
श्रीफलादि वसुप्रासुक-द्रव्य साजे । नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे || रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा । चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री श्रेयांसनाथ जिन
जल मलय तंदुल सुमन चरु अरु दीप धूप फलावली।
करि अरघ चरचों चरनजुग प्रभु मोहि तार उतावली।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।। दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य जिन
जलफल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई। शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरों यह लाई ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री विमलनाथ जिन आठों दरब संवार, मन-सुखदायक पावने।
जजों अरघ भरथार, विमल विमल शिवतिय रमण।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनन्तनाथ जिन शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर-जोर-जुग विनति करों।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ जिन आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि-हरषि गुनगाई। बाजत दृम दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
__ पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री शान्तिनाथ जिन वसु द्रव्य सँवारी तुम ढिग धारी, आनन्दकारी दृगप्यारी । तुम हो भवतारी, करुनाधारी, यातै थारी, शरनारी ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री कुंथुनाथ जिन जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप ले री। फलजुत जजन करौं मन सुख धरि, हरो जगत-फेरी।।
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरहनाथ जिन सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरु।
वर दीपं धूपं, आनंदरूपं, ले फल-भूपं, अर्घ करूँ।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री मल्लिनाथ जिन
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई। शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई || राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा ।। ॥
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन
जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजों वरों । पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत-सागर तरों।। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन - तरन विरद विशाल हैं ॥॥॥
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमिनाथ जिन
जल-फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धरत ही भवभय-हरं।
जजतु हौं नमिके गुण गायके, जुग - पदांबुज प्रीति लगायके।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद - प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री नेमिनाथ जिन
जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय । अष्ठम छिति के राज करनको, जजौं अंग वसु नाय।। दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके ।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्रीपार्श्वनाथ जिन
जल आदि साजि सब द्रव्य लिया, कनथार धार नुतनृत्य किया। सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर जिन
जलफल वसु
सजि हिमथार, तन - मनमोद धरों । गुण गाऊँ भव-दधि तार, पूजत पाप-हरों ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
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रचयिता - श्री रामचन्द्र जी
श्री आदिनाथ जिन नीर गन्ध इत्यादि वसुविधि, अर्घ करि पद जिन तनै। जो पूजि ध्या₹ वन्दि सतवें, ठानि उत्सव अति घनै।।
सुर होय चक्री काम हलधर, तीर्थ पद की श्रेय ही।
सुख रामचन्द्र लहन्ति शिव के, आदि जिनवर धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री अजितनाथ जिन शुभ निरमल, नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दुल पहुप सु चरु ल्यावै। पुनि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अरघ राम करि गुण गावें।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पू→ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
श्री सम्भवनाथ जिन शुचि निर्मल नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दुल पुष्पं चरु लायो। मणि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अरध रामचन्द्र करि गायो।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री अभिनन्दन जिन
करि अर्घ महाजल, गन्ध सु लेकरि, तन्दुल पुष्प सु चरु मेवा । मणि दीप सु धूपं, फल जु अनूपं, रामचन्द फल शिवा सेवा ।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ। भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमतिनाथ जिन
नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। वर धूप फल लै अर्घ दीजै, रामचन्द्र अनूप ही।।
श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही । मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री पद्मप्रभ जिन
धू
मंगावैं।
जल गन्धाक्षत पुष्प सु चरुले, उत्तम फल ले अर्घ बनावैं, रामचन्द सुख पावैं।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा। ह्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा ||
ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन नीर गन्ध सुगन्ध-तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। शुभ धूप फल ले अधू कीजै, रामचन्द्र अनूप ही।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपापार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्रप्रभ जिन जल गन्ध तन्दुल पुष्प चरु ले, दीप धूप फलौघही। कनथाल अर्घ बनाय शिव-सुख, रामचन्द्र लहै सही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री पुष्पदन्त जिन अर्घ अनूप बनाय, रामचन्द्र वसु द्रव्यते।
होय मुकति को राय, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री शीतलनाथ जिन नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प अरु अति दीप ही। करि अर्घ धूप समेत फल ले, रामचन्द्र अनूप ही।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही।
आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री श्रेयांसनाथ जिन सलिल गन्ध सु तन्दुल पुष्पकं, चरु सु दीप सु धूप फलौघकं।
परम-मुक्ति सुथान-प्रदायकं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य जिन अति निर्मल नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दुल पुष्पं सु चरु लावें। पुनि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अर्घ रामकरि गुण गावें।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरचै, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री विमलनाथ जिन सलिल गन्ध सुतन्दुल पुष्पकं, चरु सुदीप सुधूप फलौघकं।
परम-मुक्ति-सुथान-विधायकं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री अनन्तनाथ जिन सलिल शीत अति स्वच्छ मिष्ट चंदन मलयागर। तन्दुल सोम-समान पुष्प सुरतरु के ला वर।। चरु-उत्तम अति मिष्ट पुष्ट रसना-मन-भावन।
मणि-दीपक तमहरण धूप कृष्णागर-पावन।। लहि फल उत्तम कनकथाल भरि, अरघ रामचन्द इम करे।
श्री अनन्तनाथ के चरण-जुग, वसुविधि अरचे शिव वरै।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ जिन जल गन्धाक्षत पुष्प दीप चरु धूप मिलावै। अर्घ रामचन्द करै नेमि फल शिव-सुख पावै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जर्जे चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री शान्तिनाथ जिन सरद-इन्दु-सम अंबु तीर्थ-उद्भव तृष-हारी। चंदन दाह-निकंद शालि शशि” द्युति भारी।। सुरतरु के वर कुसुम सद्य चरु पावन धारै।
दीप रतनमय जोति धूपतै मधु झंकारै।। फल उत्तम करि अरघ शुभ रामचन्द कनक-थाल भरि।
शांतिनाथ के चरण-जुग वसु-विधि अर. भव-धरि।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री कुंथुनाथ जिन जल गन्धाक्षत पुष्प दीप चरु, धूप फलोत्तम अर्घ करें।
श्रीजिन-गुण गावें तूर बजावें,रामचन्द्र शिवरमणि वरें।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री अरनाथ जिन वर नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। करि अर्घ धूप फलार्घ ले करि, रामचन्द्र अनूप ही।। अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै झै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जनँ पुलकित-अंग ये।।। ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री मल्लिनाथ जिन सलिल सुच्छ शुभ गन्ध मलय मधु झंकारै। तन्दुल शशितें श्वेत कुसुम-परिमल विस्तारै।।
क्षुधा-हरण नैवेद रतन-दीपक तम नासै। धूप दहै वसु-कर्म मोख-मग फल परकासै।।
इम अघ्र करें शुभ-द्रव्य ले, रामचन्द्र कनथाल भरि। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन जल चन्दन तन्दुल चरु दीपक, धूप कुसुम फल ल्यावै। अर्घ करें चन्द्र वसुविधि ऐसे, सो शिव के सुख पावे।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकारौ।। ।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमिनाथ जिन विमल नीर सुगन्ध चन्दन, अछित श्वेस उजास ही। वर कुसुम चरुः क्षुधा नासे, दीपतम नास ही।।
रामचन्द्र इम अर्घ कीजै, धूप फल शुभ लेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूजूं, अमल गुणगण धेय ही।। ।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री नेमिनाथ जिन सलिल स्वच्छ मलयागर चन्दन, अछित कुसुम चरु भरि थारी। मणिदीप दशांग धूप फल उत्तमं अर्घ राम करि सुखकारी।।
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्, राजमति-सी ततछिन छारी। पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।। ।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ जिन सलिल सुच्छ सु अगर चन्दन, अछित उज्ज्वल ल्याय ही।
वर कुसुम चरुतै क्षुधा नाश, दीप ध्वान्त नसाय ही।। करि अर्घ धूप मनोग्य फल लै, राम शिवसुख-दाय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।।।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर जिन नीर गन्ध इत्यादि द्रव्य ले, कमलपद सनमति तने। जो जजै ध्यानै बन्दि सत३, ठानि उत्सव अति घने।।
सुर होय चक्री काम हलधर, तीर्थ पद को श्रेय ही।
सुख रामचन्द लहन्त शिव के, अर्घ करि प्रभु ध्येय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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रचयिता - कविवर मनरंगलाल
श्री ऋषभदेव जिन करि सु ये इकठो दरब सवै, धरत भाजनमें अतिसोफवै ।
अरघ सुन्दर लेय सो हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अजितनाथ जिन जल चन्दन सुअक्षत, पुष्प नैवेद्य दीयो। वर धूप फलौघा, अध्य सौन्दर्य कीयो।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सम्भवनाथ जिन सम्वर भद्रम्वर, शाली सितसर, सारंगप्रिय अरू विंजन ले। वसु सारंग खासा, धूप सुवासा, फल इम अरघ सुहावन ले।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री अभिनन्दननाथ जिन जल गन्ध अक्षत फूल चरुवर, दीप धूप फलौघ ले। शुभ अरघसों पदकमल पूजत, करमगण जासों जले।।
अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सुमतिनाथ जिन सुवारि गन्ध अक्षतं, प्रसून के चरू-वरं। सुदीप धूप और फलं, बनाय अध्य सुन्दरीम्।।
पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पद्मप्रभ जिन तोय गन्ध अक्षतं, प्रसून सूप औ दिया। धूप ले फलातिसार, अध्य शुद्ध यों किया।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।। ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन पा च अ फू न, दी धू फ गनाऊँ, आठो मिला अध्य महा बनाऊँ।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चन्द्रप्रभ जिन ले जलगंध अक्षत वर कुसुमा, चरु दीपक मणि केरा।
धूप महाफल अरघ बनाऊँ, पदपूजन की बेरा।। चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रति लाजे।
दरवित भावित भाव शद्धकरि, जजों सप्तभय भाज।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पुष्पदन्त जिन हर्षि हर्षि जिस भूरि, सुतूर बजाय के। आठों अंग नवाय, बड़ा हित पाय के।। महा सुअरघ बनाय, भले गुण उच्चरों। तेरे शुभयुग-पदन, सरोजन पै धरों।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री शीतलनाथ जिन जल गंध अक्षत फूल चरु दीपक सुधप कही महा। फल ल्याय सुन्दर-अरघ कीन्हो दोष सो वर्जित कहा।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसनाथ जिन अब करियत अध्य, मेल्हि के द्रव्य आठो। मन वचन तन लीन्हें, हाथ उच्चारि पाठों।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य जिन ले आठों द्रव्य सुहाई, जल आदिक जे शुभ लाई।
___ पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री विमलनाथ जिन शुभ जिवन चंदन अक्षतं, सुमना प्रवर चरु ले दिया।। और धूप फल इकठे सुकरि के, अरघ सुन्दर मैं किया।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
___ श्री अनन्तनाथ जिन पय चन्दन वर तंदुल सुमना सूप ले, दीप धूप फल अध्य, महासुख कूप ले। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धर्मनाथ जिन धरि धरि चाव भाव दोऊ शुभ, अन्तर बाहर केरे। करि करि अध्य बनाय गाय नित, कहें सुगुण बहुतेरे।।
धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री शान्तिनाथ जिन आठों द्रव्यों कीजिये एक ठाहीं। लेके अध्य भाव के नाथ माँही।। कीजे पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासों नासे कालिमा काल केरी।। ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कुन्थुनाथ जिन जल चन्दन अक्षत पहुप, चरु वर दीपक आनि।
धूप और फल मेलि के, अध्य चढ़ाऊँ जानि।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरहनाथ जिन जल चन्दन वर अक्षत पुहुप सुधारिके, नानाविध चरु दीपक धूप प्रजारिके।। फल सु मिष्ट ले सुन्दर अध्य बनाइये, अरहनाथ पद ऊपर नित्य चढ़ाइये।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री मल्लिनाथ जिन पानी सुगन्ध वर अक्षत पुष्पमाला। नैवेद्य दीप अरु धूप फलौघ आला।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मुनिसुब्रतनाथ जिन नीर आदि वसु द्रव्य मिलाय। शुभ-भवन सों अध्य बनाय।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमिनाथ जिन जल गन्ध अक्षत सुमनमाला, चरु सु दीप जरायके। वर धूप नाना मधुर फल ले, अध्य शुद्ध बनायके।। पदअमल आकृति देखि दुखहर, पूजिये हरषाय के।
जो जजें भोगे अनुपम, इन्द पदवी पायके।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री नेमिनाथ जिन जल गन्ध अक्षत् चारु पुष्प, नैवेद्य दीप प्रभाकरम्, वर धूप फल करि अध्य सुन्दर, नाग आगे ले धरम्।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ जिन जल चन्दन शुभ अक्षत, पुष्प सुहावने। दीपक चरु वर धूप, फलौध सु पावने। ये वसु द्रव्य मिलाय, अध्य कीजे महा।
तुम पद जजत निहाल, होत औ हित कहा। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वर्धमान जिन अरघ ले शुभ भाव चढ़ाव के। धवल मंगल तूर जाय के।।
चरम देव जिनेश्वर वीर के। चरम पूजत नाशक पीर के। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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si Purnmati mati Ji
श्री आदिनाथ जिन मेरे पास नहीं कुछ स्वामी, कैसे अध्य बनाऊँगा। आतम धन से निर्धन हूँ मैं, अब तुम सम बन जाऊँगा।। आदीश्वर जिनराज आज यदि, अपना भक्त बनाओगे।
सच कहता हूँ शीघ्र मुझे भी, सिद्धालय में पाओगे।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजित जिन अबतक कई अर्घ्य चढ़ाये, प्रभु एक नहीं मन भाये। वसु द्रव्य चढ़ा प्रभु आगे, यह दास चरण सिर नाये।।।
श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा।
यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा । श्रीअजितनाथजिनेन्दाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री संभवनाथ जिन पर द्रव्यों की अभिलाषा, अब तक भायी है।
आतम अनर्घ्य की बात, नहीं सुहायी है।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी।
दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।।। ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री अभिनंदननाथ जिन प्रभो आपके दर्शन पाकर, जिन दर्शन ना पाया। सिद्धक्षेत्र का आसन पाने, अर्घ्य सजा के लाया ।
हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना।
दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमतिनाथ जिन प्रभु पद का जो ध्यान लगाय, शिव अनमोल रतन शुभ पाय।
सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन पूजा है जग में सार, किया न अब तक आत्म विचार।
___ सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार ॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पद्मप्रभ जिन जल से फल का वैभव सारा,आज चढ़ाने आया हूँ। थ्नज अनध्य पद देना स्वामी, भाव संजोकर लाया हूँ।।
श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया।
आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन
आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा भव से तारो मुझे मैं व्यथित हूँ यहाँ ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अर्चना से जिनेश्वर बनूँगा विभो ॥॥॥
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्रपभ जिन
आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा
हम दास तिहारे, आये द्वारे, सिद्धक्षेत्र में बस जायें। पद अर्घ्य चढ़ाये, शरणे आये, चन्द्रप्रभ सम बन जायें ।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई ।
मैं पूजूँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई ॥॥॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यनिर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्वनाथ जिन
आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा भव से तारो मुझे मैं व्यथित हूँ यहाँ ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो।
अर्चना से जिनेश्वर बनूँगा विभो।।।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री चन्द्रपभ जिन
आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा
हम दास तिहारे, आये द्वारे, सिद्धक्षेत्र में बस जायें। पद अर्घ्य चढ़ाये, शरणे आये, चन्द्रप्रभ सम बन जायें ।।
अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई । मैं पूजूँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई॥॥॥ ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुविधिनाथ जिन
जग में सबका मूल्य, आप अनमोल हैं। अनर्घ्य पद पाने को जिनवर ठोर हैं ।।
सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधुमन भा गया।।।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतलनाथ जिन
'अर्घ्य बनाकर ईश, चरणों में लाये।
शुभ भक्तों के भाव मुनीश, आप समझ जाये।।
शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी ।
अनंत की खान, भविजन हितकारी III
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री सुविधिनाथ जिन जग में सबका मूल्य, आप अनमोल हैं।
अनर्घ्य पद पाने को जिनवर ठोर हैं।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया।
करुणासागर दयासिंधुमन भा गया।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शीतलाथ जिन शुभ अर्घ्य बनाकर ईश, चरणों में लाये। भक्तों के भाव मुनीश, आप समझ जाये।।
शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी।
है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसनाथ जिन स्वानुभूति दिव्य अर्घ्य आपके समीप हैं। क्या चढ़ाऊँ नाथ अर्घ्य आपको विदित है।।
थ्सद्ध पद के हेतु प्रभु आ गया शरण।
हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।..॥ ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री
वासुपूज्य
जिन
हो आप सर्व समर्थ जिनवर, अर्घ्य क्या अर्पण करूँ।
प्रभु आप ही के नंत गुण का, राज दिन सुमिरण करूँ ।। श्री 'वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना।
संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।..॥
ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री विमलनाथ जिन
मैं पर का नहीं कर्ता होता, पर भी मेरा क्या करता । निमित्त भाव से कर सकता पर, उपादान से क्या करता ।।
पुण्योदय से आप कृपा से, भास रहा है आत्म स्वरूप।
पा जाऊँ अब निज प्रभुता को, छूट जाए यह भव दुःख कूप ॥..॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दायअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंतनाथ जिन
वसु द्रव्यलेय श्रेष्ठ आत्म द्रव्य मिलाऊँ। अनंतनाथ के चरण में शीघ्र चढ़ाऊँ । अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ।
सिद्ध पद के हेतु अर्चना करूँ।..॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री अनंतनाथ जिन वसु द्रव्य लेय श्रेष्ठ आत्म द्रव्य मिलाऊँ। अनंतनाथ के चरण में शीघ्र चढ़ाऊँ। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ।
सिद्ध पद के हेतु अर्चना करूँ।।।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
___ श्री धर्मनाथ जिन शुभ भावों का अर्घ्य बनाय, पद अनर्घ्य जिनवर दर्शाय। ___ परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय।
परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।।।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ जिन बिन श्रद्धा के नाथ हजारों, मैंने अर्घ्य चढ़ाये हैं। दिखा दिखाकर इस दुनिया को,धर्मी भी कहलाये हैं। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया।
शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, मुक्तिरमा वरने आया।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री कुंथुनाथ जिन पर द्रव्यों का भोग अभी तक, किया बहुत मैंने स्वामी। पर पद की अभिलाषा में ही, जीवन व्यर्थ किया स्वामी।।
जड़ वैभव को चढ़ा आज, चैतन्य विभव पाने आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, अर्घ्य बनाकर ले आये।।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरनाथ जिन पद मद में हो आसक्त, निज पद को भूला। जब हुआ दर्श अनुरक्त, मुक्तिद्वार खुला।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया।
हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मल्लिनाथ जिन अर्घ्य अर्पण कर निज गुण में लीन रहूँ। जिन समान ही शीघ्र नाथ अरिहंत बनँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ।
पूजन करके मुक्तिवध् को मैं वरूँ॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन निज आत्म वैभव का अतिशय, नाथ बतला दीजिये। मम अघ्ञ को स्वीकार लो प्रभु, ज्ञानधार बहाइये।।
हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये।
सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमिनाथ जिन सारे पद जग के झूठे हैं शाश्वत ना मिट जाते हैं। शिवपद ही मन को भाया प्रभु तुम सा कहीं न पाते हैं।। मद का काम नहीं शिवपथ में मम मद पूर्ण विनाश करो।
नमिनाथ प्रभ दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ जिन कर्म शक्ति को क्षय करने प्रभु, चरण शरण में आया। ध्रुव अनर्घपद पाने का अब, अपूर्व अवसर आया।।
नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। एक अकेला भटक रहा हूँ, शिवपथ मुझको दिखाना।।।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री पार्श्वनाथ जिन निज आत्म वैभव खो चुका हूँ, क्या चढ़ाऊँ अर्घ्य मैं। प्रभु आपका ही हो चुका हूँ, आ गया हूँ शर्ण में।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मुझको, लीजिए अपनाइये।
आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर जिन पर को देखा मैंने, निज को ही ना परखा। अब सुख अनंत पाने, संबंध तनँ पर का।। ज्ञायक पद पा जाऊँ, होशक्ति प्रगट स्वामी।
प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री आदिनाथ जिन (रचयिता - जिनेश्वरदास) शुचि निर्मल नीरं गन्ध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय
दीप धूप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दःख मेटो, याते मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री आदिनाथजिन-पूजा, कुण्डलपुर (दमोह) (श्री उत्तम सागर जी महाराज) ॐ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री आदिनाथजिन-पूजन, (बड़ेबाबा ( )रचयिता - सुब्रत सागर(
शुचि जल चन्दन अक्षत लाये, शुद्ध पुष्प नैवेद्य लिये। दीप धूप नाना फल मिश्रित, श्रेष्ठ अर्घ्य हम भेंट किये।। अर्घ्य चढ़ाने वाले भविजन, अनर्घ्य पद आतम पाये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, अर्घ्य चढ़ाने को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री आदिनाथजिन
न-पूजन (चाँदखेड़ी) ( रचयिता - रूपचन्द जैन )
बारह भावना भाता हूँ कि, मरण समाधि मैं पाऊँ। अर्पित करके रूप अर्घ, मम आत्मज्ञान को प्रगटाऊँ ।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ।
तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रानीला) ( रचयिता - ताराचन्द प्रेमी ) मन और वचन है वीतराग, प्रभु अष्ट द्रव्य से अर्घ्य बना। पावन तन-मन, है भाव शुद्ध, चरणों में अर्पित, नेह बढ़ा ||
अनन्त सुख प्राप्त मुझे विश्वास हृदय में लाया हूँ। तेरे चरणों की पूजा से मैं परम पदारथ पाने आया हूँ। हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो ।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो।।
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (साँगानेर) (रचयिता - लालचन्द जी राकेश)
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरु यह दीप धूप फल लाया हूँ। पद अनर्घ मिल जाय मुझे, यह अर्घ समर्पित करता हूँ।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदिनाथ जिन-पूजा (अयोध्या) (रचयिता - कल्याण कुमार शशि)
ये दुर्दमनीय कलुषताएँ, जो क्षमताएँ हर लेती हैं। मेरी अर्हन्त अवस्था को, जो प्रकट न होने देती हैं।। अपने चिन्तामणि-चेतन को, मैं बिखरा-बिखरा पाता हूँ।
आठों दुःख-कर्म नशाने को, आठों शुभ-द्रव्य चढ़ाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - नंदन कवि)
पावन जल चंदन अक्षत पुष्पन चरुवर दीपन धूप धरो। ___ वर अर्घ उतारों तुमपद धारों नंदन तारों पूज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिनं।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - ब्र. रवीन्द्र जैन) सम्यक् तत्त्व स्वरूप न जाना नहीं यथार्थतः पूज सका,
रागभाव को रहा पोषता, वीतरागता से चूका। काल लब्धि जागी अंतर में भास रहा है सत्य स्वरूप। पाऊँगा निज सम्यक् प्रभुता, भास रही निज माँहि अनूप।
सेवा सत्यस्वरूप की, ये ही प्रभु की सेव,
निज सेवा व्यवहार से, निश्चय आतमदेव। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रैवासा-राज.) (रचयिता - श्री लालचन्द जैन राकेश)
जल फलादि वसु द्रव्य मिलाकर, यह अर्घ्य चढ़ाया है स्वामिन्। हो अनर्घ पद प्राप्त सद्य ही, बस यही प्रार्थना है भगवन्।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ॐ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय!
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित। पाऊँ अनर्घ पद नाथ अविकल सुख गर्भित।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथजिन जल फल वसुद्रव्य मिलाय सुन्दर अर्घ करों। पद पूजत श्री जिनराय कर्म कलंक हरों।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रेवासा) जल चंदन अक्षत पुष्प मिला, नैवेद्य दीप मैं लाया हूँ। धूप फलादि अर्घ चढ़ाकर सुमतिनाथ गुण गाता हूँ।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ॐ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा ( बाड़ा) ( रचयिता - छोटे लाल)
जल चन्दन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला।
मैं अष्ट द्रव्य से पूज, पाऊं सिद्ध शिला।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही। का सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ॥
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा (तिजारा जी) ( रचयिता - श्री मुंशी ) जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू, दीपक घृत भर लाया हूँ। दस गंध धूप फल मिला अर्घ ले, स्वामी अति हरषाया हूँ।। हे नाथ अनर्घ्य पद पाने को, तेरे चरणों में आया हूँ।
भव-भव के बंध कटे प्रभुवर, यह अरज सुनाने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (सोनागिर ) ( रचयित्री - आर्यिका स्वस्ति मति) बाधाओं का पथ मिला मुझे, प्रभु तुम तक पहुँच न पाता हूँ।
जग की झंझट उलझाती है, हर पीड़ा को सह जाता हूँ ।।
पाऊँ अनर्घ्य पद हे प्रभुवर, अर्यों का थाल मैं ले आया।। सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।।
ॐ ह्रीं सोनागिर - विराजित - चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (महलका) (रचयिता - आर्यिका मुक्ति भूषण)
जल चन्दन, आदि द्रव्य, मिलकर अर्घ्य बना। प्रभु-चरणों अर्घ्य चढ़ाय, मुक्ति सुख सपना।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (चाँदखेड़ी) जल चंदन अक्षत आदिक से अर्घ्य बनाकर लाया हूँ। प्रभु तेरे चरणों में अन्तर मन से यह अर्घ्य चढ़ाता हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
आत्मानुभूति की प्रीति निज में है जागी। पाऊँ अनर्घ-पद नाथ मिथ्या-मति भागी।। हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जब तक अनर्घ-पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा। निज-पद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं आऊँगा।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनन्तनाथजिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
देह-भोग-संसार-राग में रहा, विराग नहीं आया। सिद्ध-शिला-सिंहासन पाने अर्घ-सुमन लेकर आया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री बख्तावरसिंह)
जल-फलादि वसु-द्रव्य संवारे अर्घ चढ़ाये मंगल गाय। बखत रतन के तुम ही साहिब दीजे शिवपुर राजकराय।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय। तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
अविनश्वर अनुपम अनर्घ-पद सिद्ध-स्वरूप महा-सुखकार। मोक्ष-भवन निर्माता निज-चैतन्य राग-नाशक अघ-हार।। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति-विधायक शान्तिनाथ भगवान।
शाश्वत-सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (केशवराय पाटन) (रचयिता - पं0 दीपचन्द)
जल गंधाक्षत पुष्प से पूजों प्रभु पद-कंजा
चरु सुदीप धूपादि फल अग्र धरूँ अघ-भंज।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (पैठण) (रचयिता - रतन लाल पहाडे)
जल फल वसु द्रव्य मिलाय, अर्घ चढ़ावत हूँ। शिवपद मिलने के काज, तुम गुण गावत हूँ।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो।
मन-वच-तन पूजूं आज, संकट दूर करो।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (नेमगिरी) (रचयिता - श्री 108 चिन्मयसागरजी)
हे जिन! निज को अध्य बनाकर, तुम्हे समर्पित करता हूँ। तब चरणन में अर्पण कर मैं, दारुण भव-दुःख हरता हूँ।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (गिरनारजी) (आर्यिका स्वस्ति माता जी)
जल फल आठों वसद्रव्य, पजन को लाया। मैं हरष-हरष गुण गाऊँ, मम हिय हर्षाया।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो। ॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी) जल-फलादि वसु द्रव्य अर्घ से लाभ न कुछ हो पाता है। जब तक निज-स्वभाव में चेतन मग्न नहीं हो जाता है।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। ।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा (बडा गांव) (रचयित्री - नीलम जैन)
जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद्य बनाकर लाया हूँ।
दीप धूप फल सजाकर प्रभुवर चरणों में आया हूँ। यह अष्ट द्रव्य से पूजा का शुभ थाल सजाकर लाया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।।।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कचनेर) (रचयिता - क्षुल्लक सिद्धसागर जी)
वसु-विधि सब द्रव्य मिलाय, अर्घ उतारत हूँ। निज पद मेरो मिल जाय, याते याचत हूँ।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। ।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - पं. मोहनलाल) अष्टद्रव्य शुभ अर्ध्य बनाय, पूजत मनवांछित फल पाय।
पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।।। ॐ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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(श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (महुवा, सूरत) (रचयिता - भट्टारक विद्याभूषण)
जल गंध सुअक्षत, कुसुम सुचरुवर, दीप धूप फल ले भरी। यह अर्घ स् कीजे, जिनपद दीजे, विद्याभूषण सुखकारी।। पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया। ॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (नेमगिरि) अष्टद्रव्य का अध्य बनाया, अष्टम वसुधा पाने को। अध्य समर्पण करता हूँ मैं, सिद्धालय में जाने को।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। । ॐ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथजिन-पूजा अतिशय क्षेत्र (बिहारी, मु. नगर)
उपसर्ग सहा कमठासुर का, उपसर्ग-विजेता कहलाये। सुर पद्मावति-धरणेन्द्र तभी, पूरब उपकार सुमिर आये।। ये अर्घ्य संजो करके प्रभुवर निज का वैभव निज पाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।।।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (अहिच्छत्र) (रचयिता - राजमल जी)
शुद्ध भाव के अर्घ बिना मैं पाप पुण्य में अटकाया। निज अनर्घ-पदवी पाने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। । ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (जटवाड़ा) (रचयिता - आचार्य देवनन्दि मुनि)
जलगंधाक्षत पुष्प चरूवर दीप धूप और फल। पार्श्वचरण में अध्य चढ़ाकर जीवन बने सफल।। ___ संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।।।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कलिकुण्ड) (अडिल्ल छन्द )
जल गंध सुधारा तंदुल प्यारा पुष्प चरू ले दीप भली। दश धूपसुरंगी फल ले अभंगी करो अर्घ उर हर्ष रली।।
कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्रं ध्यावत जे भविजन ज्ञानी।
सब विपति विनाश, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी।। ।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुलबलवीर्य-पराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हाल्व्यूं भल्यूं म्म्ल्यूं म्न॒यूं म्ल्यूं झम्ल्यूं
स्म्ल्यूं खम्ल्यूं अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी )
अष्ट कर्म क्षय-हेतु अष्ट द्रव्यों का अर्घ्य बनाऊँ मैं। अविनाशी अविकारी अष्टम - वसुधापति बन जाऊँ मैं।। चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं। संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।। ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (आर्यिका ज्ञानमती माता जी ) आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की ।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम - ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम्-4॥ जल गंधादिक अघ्य सजाकर, जिनवर चरण चढ़ा करके ।
रत्नत्रय अनमोल प्राप्त कर, बसूँ मोक्ष में जा करके।।
इसी हेतु त्रिभुवन जनता भी, भक्ति करे भगवान् की। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री पार्श्वनाथ जिनपूजन-1 (रचयिता - बख्तावरलाल)
नीर गंध अक्षतान् पुष्प चरु लीजिये ।
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये ॥ पार्शवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय अनर्घपद-प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पार्श्वनाथ पूजन-2 (रचयिता - पुष्पेन्दु) पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूं। जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ॥ मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को।
वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
श्री अहिच्छत्र-पाश्वनाथ- जिन-पूजा (रचयिता - कल्याण कुमार शशि)
संघर्षों में उपसर्गों में तुमने, समता का भाव धरा। आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा॥ मैं अष्टद्रव्य से पूजा का, शुभ-थाल सजा कर लाया हूँ।
जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (पावागिरि, ऊन) (रचयिता - पं0 बाबूलाल फणीश)
पय चंदन अक्षत पुष्प नैवेद्य का, थाल सजाकर मैं लाया हूँ। दीप धूप फल मिश्रित करके, अर्घ बनाकर मैं लाया हूँ।।
अब अनर्घपद प्राप्ति हेतु शाश्वत-सुख पाने आया हूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि चार मुनिवर को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।।। ऊँ ह्रीं ॐ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्तेभ्यः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं
शान्ति-कुन्थु-अर- महावीरजिनेन्द्रेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीमहावीर जिन-पूजा (चान्दन गांव- श्री महावीर जी) (रचयिता - श्री पूरनमल)
जल गंध सु अक्षत पुष्प चरुवर जोर करौं। ले दीप धूप फल मेलि आगे अर्घ करौं। चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
श्रीमहावीर जिन-पूजा (अहिंसा-स्थल, नई दिल्ली)
तुम हो चिरंतन नित्य ही प्रभु परमपद में वास है। है जन्म-मरण-जरा ने जिससे हृदय में उल्लास है।। उस परमपद की प्राप्ति को निज रूप मैं उर में धरूँ।
प्रभु अष्ट द्रव्यों से समन्वित अर्घ से पूजा करूँ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी) अपने स्वभाव के साधन का विश्वास नहीं आया अब तक। सिद्धत्व स्वयं से आता है आभास नहीं पाया अब तक।।
भावों का अर्घ चढ़ाकर मैं अनुपम पद पाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ-जिन नीर गंध अक्षतान् पुष्प चारु लीजियै |दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजियै || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा |दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ||
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री पार्श्वनाथ-जिन पूजा ( 'पुष्पेन्दु') । पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूँ | जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ ||
मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर! आतंक हटाने को |
वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ! चढ़ाने को || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री अहिच्छत्र- पार्श्वनाथ - जिन
संघर्षो में उपसर्गो में, तुमने समता का भाव धरा | आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा || मैं अष्ट-द्रव्य से पूजा का, शुभ कर लाया हूँ | जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
श्री महावीर - जिन
जल-फल वसु सजि हिम-थार, तन-मन मोद धरूं | गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरूं || श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो | जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति - दायक हो || ओं ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री आदिनाथ - जिन
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय | दीप धूप फल अर्घ सु लेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ||
श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच - काय |
हो करुणानिधि भव-दुःख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय ||
ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री चंद्रप्रभ जिन सजि आठों-दरब पुनीत, आठों-अंग नमूं | पूजू अष्टम-जिन मीत, अष्टम-अवनि गमूं || श्री चंद्रनाथ दुति-चंद, चरनन चंद लगे | मन-वच-तन जजत अमंद, आतम-जोति जगे ||
ओं ह्रीं श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री शांतिनाथ जिन जल-फलादि वसु द्रव्य संवारें, अर्घ चढ़ायें मंगल गाय 'बखत रतन' के तुम ही साहिब, दीज्यो शिवपुर-राज कराय ||
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर, द्वादश-मदन तनो पद पाय | तिनके चरण-कमल के पूजे, रोग-शोक-दुःख-दारिद जाय || ओं ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री पार्श्वनाथ जिन नीर गंध अक्षतान् पुष्प चारु लीजियै | दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजियै || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा | दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा || ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर-जिन जल-फल वसु सजि हिम-थार, तन-मन मोद धरूं | गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरूं || श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो | जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति-दायक हो ||
ओं ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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सिद्धक्षेत्रों की अावली (१) श्री अष्टापद सिद्धक्षेत्र (हिमालय पर्वत, कैलास)
जलादिक आठों द्रव्य लेय, भरि स्वर्णथार अर्घहि करेय |
जिन आदि मोक्ष कैलाश-थान, मुन्यादि-पाद जनुं जोरि पान || ओं ह्रीं श्री कैलाशपर्वत-सिद्धक्षेत्राय अनर्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(२) सम्मेद-शिखर सिद्धक्षेत्र (झारखंड)
जल गंधाक्षत पुष्प सु नेवज लीजिये | दीप धूप फल लेकर अर्घ सु दीजिये || पूजू शिखर-सम्मेद सु-मन-वच-काय जी |
नरकादिक-दुःख टरें अचल-पद पाय जी || ओं ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्राय अनर्य पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(३) गिरनार सिद्धक्षेत्र (गुजरात) अष्ट-द्रव्य को अर्थ संजोयो, घंटा-नाद बजाई | गीत-नृत्य कर जजू ‘जवाहर' आनंद-हर्ष बधाई ||
जम्बूद्वीप भरत-आरज में, सोरठ-देश सुहाई |
शेषावन के निकट अचल तहँ, नेमिनाथ शिव पाई || ओं ह्रीं श्री गिरनार- सिद्धक्षेत्राय अनर्ग्रपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(४) श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र (बिहार) जल-फल वसु-द्रव्य मिलाय, ले भर हिम-थारी | वसु-अंग धरा पर ल्याय, प्रमुदित चितधारी || श्री वासुपूज्य जिनराय, निर्वृति-थान प्रिया |
चंपापुर-थल सुखदाय, पूजू हर्ष हिया || ओं ह्रीं श्री चम्पापुर- सिद्धक्षेत्राय अनर्य पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा |
(५) श्री पावापुरी सिद्धक्षेत्र (बिहार) जल गंध आदि मिलाय वसुविध थार-स्वर्ण भराय के | मन प्रमुद-भाव उपाय कर ले आय अ बनाय के ||
वर पद्मवन भर पद्म-सरवर बहिर पावाग्राम ही |
शिवधाम सन्मति-स्वामी पायो, जजू सो सुखदा मही ।। ओं ह्रीं श्री पावापुरी- सिद्धक्षेत्राय अनर्पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(६) श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) वसु-द्रव्य ले भर थाल-कंचन अर्घ दे सब अरि हनूँ | 'छोटे' चरण जिनराज लय हो शुद्ध निज-आत्म बनूँ || नंगाऽनंगादि-मुनीन्द्र जहँ तें मुक्ति-लक्ष्मीपति भये |
सो परम-गिरवर जनँ वसु-विधि होत मंगल नित नये || ओं ह्रीं श्री सोनागिरि- सिद्धक्षेत्राय अनर्पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(७) श्री नयनागिरि (रेशंदीगिरि) सिद्धक्षेत्र (म.प्र.)
शुचि अमृत-आदि समग्र, सजि वसु-द्रव्य प्रिया |
धारूं त्रिजगत-पति-अग्र, धर वर-भक्त हिया || ओं ह्रीं श्री नयनागिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्य-पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(८) श्री द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) जल सु चंदन अक्षत लीजिये, पुष्प धर नैवेद्य गनीजिये |
दीप धूप सुफल बहु साजहीं, जिन चढ़ाय सुपातक भाजहीं || ओं ह्रीं श्री द्रोणगिरि- सिद्धक्षेत्राय अनर्य-पद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा |
(9) सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) जल चंदन अक्षत लेय, सुमन महा प्यारी | चरु दीप धूप फल सोय, अरघ करूं भारी || द्वय चक्री दस काम कुमार, भव तर मोक्ष गये |
ता तें पूजू पद-सार, मन में हरष ठये || ओं ह्रीं श्री सिद्धवरकूट-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(१०) श्री शत्रुजय-सिद्धक्षेत्र (गुजरात) वसु-द्रव्य मिलाई, थार भराई, सन्मुख आई नजर करूं | तुम शिव सुखदाई, धर्म बढ़ाई, हर दुःखादिक अर्घ करूं || पांडव शुभ तीनं, सिद्धि लहीनं, आठ कोड़ि मुनि मुक्ति गये |
श्री शत्रुजय पूजू, सन्मुख हूजो, शांतिनाथ शुभ मूल नये || ओं ह्रीं श्री शत्रुजय-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(११) श्री तुंगीगिरि सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र) जल-फलादि वसु दरव सजा के, हेम-पात्र भर लाऊँ | मन-वच-काय नमूं तुम चरना, बार-बार सिर नाऊँ || ___ राम हनू सुग्रीव आदि जे, तुंगीगिर थिर-थाई |
कोड़ी निन्यानवे मुक्ति गये मुनि, पूजूं मन-वच-काई || ओं ह्रीं श्री तंगीगिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(१२) श्री कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र) जल-फलादि वसु-दरव लेय थुति ठान के | अर्घ धरूँ तुम पाप हरो हिय आन के |
पूजू सिद्ध सु क्षेत्र, हिये हरषाय के |
कर मन-वच-तन शुद्ध, करम-वसु टार के || ओं ह्रीं श्री कुंथलगिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(१३) चूलगिरि (बावनगजा) सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) सजि सौंज आठों होय ठाड़ा, हरष बाढ़ा कथन-बिन |
हे नाथ! भक्तिवश मिले जो, पुर न छूटे एक दिन || दशग्रीव-अंगज अनुज आदि, ऋषीश जहँ तें शिव लह्यो |
सो शैल बड़वानी-निकट, गिरि-चूल की पूजा ठहो || ओं ह्रीं श्री चूलगिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(१४) श्री गजपंथ-सिद्धक्षेत्र (महाराष्ट्र) जल-फल आदि वसु-दरव अति-उत्तम, मणिमय-थाल भराई |
नाच-नाच गुण गाय-गायके, श्री जिन-चरण चढ़ाई || बलभद्र सात वसु-कोडि मुनीश्वर, यहाँ पर करम खिपाई |
केवल-लहि शिवधाम पधारे, जजू तिन्हें सिर-नाई || ओं ह्रीं श्री गजपंथ-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(१५) श्री मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) जल-गंध आदिक द्रव्य लेके, अर्घ कर ले आवने | लाय चरन चढ़ाओ भविजन, मोक्षफल को पावने || तीर्थ-मुक्तागिरि मनोहर, परम-पावन शुभ कह्यो |
कोटि साढ़े तीन मुनिवर, जहाँ तें शिवपुर लह्यो || ओं ह्रीं श्री मुक्तागिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(१६) पावागढ़-सिद्धक्षेत्र (गुजरात) वसु-द्रव्य मिलाई भविजन भाई, धर्म सुहाई अर्घ करूँ |
पूजा को गाऊँ हर्ष बढ़ाऊँ, खूब नचाऊँ प्रेम भरूँ ||
पावागिरि-वं, मन-आनंदूं, भवदुःख खंदू चितधारी | मुनि पाँच जु कोडं भवदुःख छोड़, शिवमग जोडं सुख भारी || ओं ह्रीं श्री पावागढ़-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(१७) रेवातट स्थित सिद्धोदय-सिद्धक्षेत्र (नेमावर-म.प्र.)
रेवानदी के तीर पर सिद्धोदय है क्षेत्र | इसके दर्शन-मात्र से है खुलता सम्यक् नेत्र || रावण-सुत अरु सिद्ध मुनि साढ़े पाँच करोड़ |
ऐसे अनुपम-क्षेत्र को पूर्जे सदा कर जोड़ || ओं ह्रीं श्री रेवातट-स्थित सिद्धोदय-सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा |
(१८) (ऊन) पावागिरि-सिद्धक्षेत्र म.प्र. जल-फल वसु-द्रव्य पुनीत, लेकर अर्घ करूँ | नाचूँ गाऊँ इह भाँति, भव तर मोक्ष वरूँ ||
श्री पावागिरि से मुक्ति, मुनिवर चारि लही |
तिन इक क्रम से गिन, चैत्य पूजत सौख्य लही || ओं ह्रीं श्री पावागिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(१9) कोटिशिला-सिद्धक्षेत्र (उड़ीसा) जल-फल वसु-दरव पुनीत, लेकर अर्घ करूँ | नाचूँ गाऊँ इह भाँति, भवतर मोक्ष वरूँ || श्री कोटिशिला के माँहि, जशरथ-तनय कहे |
मुनि पंच-शतक शिवलीन, देश-कलिंग दहे || ओं ह्रीं श्री कोटिशिला-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा |
(२०) तारंगागिरि-सिद्धक्षेत्र (गुजरात) शुचि आठों द्रव्य मिलाय तिनको अर्घ करूं | मन-वच-तन देहु चढ़ाय भव तर मोक्ष वरूं ||
श्री तारंगागिरि से जान, वरदत्तादि मुनी |
त्रय-अर्ध-कोटि परमान ध्याऊँ मोक्ष-धनी || ओं ह्रीं श्री तारंगागिरि-सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
(२१) श्री गौतम-गणधर निर्वाण-स्थली (गुणावा-बिहार)
जल-फल आदिक द्रव्य इकट्ठे लीजिये | कंचन-थारी माँहि अरघ शुभ कीजिये ||
ग्राम-गुणावा जाय सु मन हर्षाय के |
गौतम-स्वामी-चरण जजो मन-लायके || ओं ह्रीं श्री गौतम-गणधर निर्वाण-स्थली गुणावा-सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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(२२) जम्बू-स्वामी निर्वाण-स्थली चौरासी-मथुरा सिद्धक्षेत्र (उ.प्र.)
जल-फल आदिक द्रव्य आठ हू लीजिये, कर इकट्ठी भरि थाल अर्घ शुभ कीजिये | मथुरा जम्बू-स्वामि मुक्ति-थल जाय के,
पूजो भवि धरि ध्यान सुयोग लगाय के || ओं ह्रीं श्री जम्बूस्वामी-निर्वाण-स्थली चौरासी-मथुरा सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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सोलहकारण-भाव जल फल आठों दरब चढ़ाय, ‘द्यानत' वरत करूं मन लाय |
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो || दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
___परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो || ओं ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादि षोडशकारणेभ्योऽनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचमेरु-जिनालयों आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत' पूजू श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय || पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय || ओं ह्रीं श्री सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरु-सम्बन्धि अशीति जिन
चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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नंदीश्वरद्वीप - जिनालयों
यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अर्पतु हूँ | ‘द्यानत’ कीज्यो शिव-खेत, भूमि समर्पतु हूँ ||
नंदीश्वर श्रीजिनधाम बावन पूज करूं | वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं || नंदीश्वरद्वीप महान्, चारों दिश सोहें | बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें || ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थ
जिनप्रतिमाभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दशलक्षण-धर्म
आठों दरब सम्हार, ‘द्यानत' अधिक उछाह सों |
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजूं सदा ||
ओं ह्रीं श्री उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सम्यक् रत्नत्रय
आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये |
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूँ ||
ओं ह्रीं श्री सम्यक् रत्नत्रयाय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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सप्तर्षि-अर्घ्य जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना | फल ललित आठों द्रव्य-मिश्रित, अर्घ कीजे पावना || मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ |
ता किये पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ || ओं ह्रीं श्री श्रीमन्वादि सप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चौबीस-तीर्थंकर निर्वाणक्षेत्र जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरूं | 'द्यानत' करो निरभय जगत् सों, जोड़ि कर विनती करूं ||
सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलास को |
पूजूं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवास को || ओं ह्रीं श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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पाँच बालयति सजि वसु-विधि द्रव्य मनोज्ञ, अरघ बनावत हैं | वसु-कर्म अनादि-संयोग, ताहि नशावत हैं || श्री वासुपूज्य मल्लि नेमि, पारस वीर अती |
न[ मन-वच-तन धरि प्रेम, पाँचों बालयती || ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीरस्वामी पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
नव-ग्रह-अरिष्ट-निवारक जल गंध सुमन अखंड तंदुल, चरु सुदीप सुधूपकं | फल आदि प्रासुक द्रव्य मिश्रित, अर्घ देय अनूपकं || रवि सोम भूमिज सौम्य गुरु कवि, शनि तमोसुत केतवे |
पूजिये चौबीस जिन, ग्रहारिष्ट-नाशन हेतवे || ओं ह्रीं श्री सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री ऋषि-मंडल जल-फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया | संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया || जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा || ओं ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय, रोग-शोक-सर्वसंकट-हराय सर्वशान्ति-पुष्टि कराय श्रीवृषभादिचौबीस-तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अरहंतादि-पंचपद, दर्शन ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय-देव, चार प्रकार अवधिधारक-श्रमण, अष्ट-ऋद्धि-युक्त ऋषि, चौवीस देवी, तीन ह्रीं, अहँत-बिम्ब, दसदिग्पाल इति यन्त्र-सम्बन्धि-देव-देवी सेविताय परमदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सरस्वती-माता जल चंदन अक्षत, फूल चरू अरु, दीप धूप अति फल लावे | पूजा को ठानत, जो तुहि जानत, सो नर ‘द्यानत' सुख पावे || तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई | सो जिनवर-वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई || ओं ह्रीं श्री जिन-मुखोद्भूत-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री बाहुबली - स्वामी
आठ दरब कर से फैलायो, अर्घ बनाय तुम्हें हि चढ़ायो | मेरो आवागमन मिटाव, दाता मोक्ष के | श्री बाहुबली जिनराज दाता मोक्ष के ||
ओं ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंच कल्याणक
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे कल्याणकमहं यजे ||
अर्थ- जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ्य से, धवल-मंगल गीतों की ध्वनि से पूरित मंदिर जी में (भगवान के) कल्याणकों की पूजा करता हूँ | ओं ह्रीं श्री भगवतो गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकेभ्यो ऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |१|
तीस चौबीसी
द्रव्य आठों ज् लीना है, अर्घ्य कर में नवीना है। पूजतां पाप छीना है, 'भानुमल' जोर कीना है ।। द्वीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता- विषै छाजें। सात शत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजें।। ओं ह्रीं पंचभरत, पंचऐरावत, दशाक्षेत्रविषयेषु त्रिंशति चतुर्विंशतीनां विंशति अधिकसप्तशत तीर्थंकरेभ्यः नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा /
अथवा,
F
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ओं ह्रीं पाँचभरत, पाँचऐरावत, दस क्षेत्र संबंधी तीस चौबीसियों के सात सौ बीस तीर्थंकरेभ्यः नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
विद्यमान बीस तीर्थंकरों जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनि हू तें, थुति पूरी न करी है | ‘द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार ||
सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) ||
अथवा
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे // ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभविशालकीर्ति-ज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगम-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयशअजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
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गौतम स्वामी जी गौतमादिक सर्वे एकदश गणधरा | वीर जिन के मुनि सहस चौदह वरा ||
नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं | धूप फल अर्घ्य ले हम जजें महर्षिकं ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीर-जिनस्य गौतमायेकादश-गणधर-चतुर्दशसहस्र मुनिवरेभ्यो
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । (इस प्रकार अर्घ्य चढ़ाकर लाभ आदि में विघ्न करनेवाले अन्तराय कर्म को दूर करने के लिये
नीचे लिखा हुआ अर्घ्य चढ़ावें)
श्री अंतराय-नाशार्थ लाभ में अंतराय के वश जीव सुख ना लहे | जो करे कष्ट-उत्पात सगरे कर्मवश विरथा रहे || नहिं जोर वा को चले इक-छिन दीन सो जग में फिरे |
अरिहंत-सिद्ध सु अधर-धरिके लाभ यों कर्म को हरे || ओं ह्रीं श्री लाभांतरायकर्मरहिताभ्यां अरिहंत-सिद्धपरमेष्ठिभ्यां अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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अंतराय है कर्म प्रबल जो दान - लाभ का घातक है | वीर्य-भोग-उपभोग सभी में, विघ्न अनेक प्रदायक है || इसी कर्म के नाश-हेतु श्री, वीर- जिनेन्द्र और गणनाथ | सदा सहायक हों हम सबके, विनती करें जोड़कर हाथ ||
(यहाँ पर पुष्प-क्षेपण कर हाथ जोड़ें।)
(इसके बाद हर एक बही में केशर से साथिया माँडकर एक-एक कोरा पान रखें और निम्नप्रकार
लिखें
श्री पंच कल्याणक
उदक-चंदन- तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिनकल्याणकमहं यजे ||
ओं ह्रीं श्री भगवतो गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |१|
श्री पंचपरमेष्ठी
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ||
ॐ ह्रीं श्रीअरिहन्त-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |२|
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श्री जिनसहस्रनाम
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाममहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीभगवज्जिन अष्टाधिक सहस्रनामेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा / ३ /
समुच्चय पूजा अष्टम-वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये | सहज-शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज-गुण प्रगट किये || ये अर्घ समर्पण करके मैं, श्री देव - शास्त्र - गुरु को ध्याऊँ |
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः
श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
(जोगीरासा छन्द)
भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ | चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक
के मन लाऊँ ||
ओं ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत | कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जैं, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत |
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निज-शक्ति अनुसार जनूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत || ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (कविश्री युगलजी) क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है | काषायिक भाव विनष्ट किये, निज-आनंद अमृत पीता है || अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है | दर्शन-बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरिहन्त-अवस्था है || यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज-गुण का अर्घ्य बनाऊँगा |
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरिहन्त-अवस्था पाऊँगा || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
विद्यमान बीस तीर्थंकरों जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनि हू तें, थुति पूरी न करी है |
'द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार ||
सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) || ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभाननअनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-ज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
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देव - शास्त्र - - गुरु जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निरमल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ || इहि भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ | अरिहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ || (दोहा)
वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन | जा सों पूजौं परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध-पूजा
जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा | मेटो भवफंदा सब दुःखदंदा, 'हीराचंदा' तुम वंदा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर - विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ||
ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म - विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने
अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥
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विद्यमान बीस तीर्थंकरों
जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है,गणधर इन्द्रनि हू तें, थुति पूरी न करी है |
'द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार ||
सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) || ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभाननअनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-ज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
(जोगीरासा छन्द) भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ |
चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक के मन लाऊँ || ओं ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत | कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जज, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत |
निज-शक्ति अनुसार जनूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत || ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्री सरस्वती पूजा नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधरै। शुभगन्धसम्हारा, वसननिहारा, तुम अन धारा ज्ञान करै।।तीर्थः ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
श्री गौतम गणधर पानीय आदि वसु द्रव्य सुगन्धयुक्त, लाया प्रशांत मन से निज रूप पाने। संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता। ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
दशलक्षण-धर्म आठों दरब संवार, ‘द्यानत' अधिक उछाह सों | भव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजू सदा || ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि-दशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सोलहकारण-भावना जल-फल आठों दरब चढ़ाय,' द्यानत' वरत करौं मन-लाय |
परमगुरु हो जय-जय नाथ परमगुरु हो || दरशविशुद्धि-भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-दाय |
परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो || ओं ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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श्री पंचमेरु आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत' पूजू श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय || पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय || ओं ह्रीं श्रीपंचमेरुसम्बन्धिअस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः
अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।
श्री नंदीश्वर-द्वीप यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हूँ | 'द्यानत' कीज्यो शिव खेत भूमि समरपतु हूँ ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं | वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं || ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु
द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री रत्नत्रय
आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये | जनम - रोग निरवार, सम्यक्रत्न- त्रय भजूँ ||
ओं ह्रीं श्रीसम्यक्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सम्यग्दर्शन पूजा
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजूं सदा ||
ओं ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सम्यग्ज्ञान
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल-फूल चरु | सम्यग्ज्ञान विचार, आठ-भेद पूजूं सदा || ओं ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सम्यक्चारित्र
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजूं सदा || ओं ह्रीं श्री त्रयोदशविध - सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
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क्षमावणीपर्व
जल-फल आदि मिलायके, अरघ करो हरषाय | दु:ख-जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय || क्षमा गहो उरजी वड़ा, जिनवर-वचन गहाय | ओं ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रायोदशविध्-सम्यक्चारित्रोभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
समुच्चय चौबीसी जिनपूजन
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों । तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्षवरों ॥
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द
कन्द सही । पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
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देव शास्त्र गुरु समुच्चय पूजन ( रचयिता - वृन्दावनदास ) अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये । सहज शुद्धस्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ॥ ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
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देव-शास्त्र-गुरु पूजन (कविवर द्यानतराय) जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मयूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा
श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (श्री युगल जी) क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये निज आनन्द अमृत पीता है। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अहँत अवस्था है।। यह अध्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अध्य बनाऊंगा।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अहँत अवस्था पाऊंगा।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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सोलहकारण पूजा (कविवर द्यानतराय)
जल फल आठों दरब चढ़ाय, द्यानतवरत करों मन लाय। परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो 11
दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि षोडशकारणेभ्य: अनर्घ्यप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचमेरु-पूजा (कविवर द्यानतराय)
आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पञ्चमेरूसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दशलक्षण धर्म-पूजा
आठों दरब संवार, द्यनत अधिक उछाह सौं ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
रत्नत्रय - य-पूजा
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आठ दरब निरधार, उत्तम सौं उत्तम लिये।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भजूं ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यग्दर्शनपूजा जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यग्ज्ञानपूजा जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यक्चारित्रपूजा जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
नन्दीश्वरद्वीप-पूजा (कविवर द्यानतरायजी कृत)
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यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हों। द्यानत कीज्यो शिव-खेत, भूमि समरपतु हो ।
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्योअनर्घ्य-पदप्राप्तये
अर्घनिर्वपामिति स्वाहा।
नवदेवता पूजन जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक सुधूप फलार्घ्य ले। वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा भाषा जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनिहूं तें थुति पूरी न करी है ॥
द्यानत सेवक जानके जग तैं लेह निकार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सिद्ध-पूजन (श्री युगल जी)
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तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए।
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूत अनुभूति लिये।। हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर-वैभव की मस्ती।
है आज अध्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनध्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धपूजा गन्धाढ्यं सुपयो-मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वांछितम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपद-प्राप्तयेअर्घ
निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्म-स्वभाव-परमं यदनन्तवीर्यम् ।
कर्मोघ-कक्ष-दहनं सुख-सस्य-बीजं, वन्दे सदा निरुपमं वर-सिद्ध-चक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्री ऋषि मण्डल पूजा जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ्य सुन्दर कर लिया।
संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥॥
सरस्वती पूजा (कविवर द्यानतराय) नयनन सुखकारी, मृदु गुनधारी, उज्ज्वल भारी, मोलधरें । शुभ गंध सम्हारा, वसन निहारा, तुम तन धारा ज्ञान करें ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै वस्त्रं निर्वपामीति स्वाहा । जल चंदन अक्षत, फूल चरु अरु, दीप धूप अति, फल लावै । पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नरद्यानत सुख पावै ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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क्षमावणी-पूजा जल फल आदि मिलाय के, अरघ करो हरषाय । दुःख जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ॥
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय । ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनअष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तर्षि पूजा जल गन्ध अक्षत पुष्पचरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित आठौं द्रव्य-मिश्रित, अर्घ्य कीजे पावना ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्योअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
पंच परमेष्ठी पूजन - कवि राजमल पवैया जी जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ।
अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ। यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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बाहुबली स्वामी पूजन वसु-विधि के वश वसुधा सब ही, परवश अतिदुःख पावें। तिहि दुःख दूरकरन को भविजन, अर्घ्य जिनाग्र चढ़ावे॥
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी।। ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय अनर्घ्य-पद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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निर्वाणकाण्ड (भाषा)
दोहा
वीतराग वंदौं सदा, भाव सहित सिरनाय ।
कहूं काण्ड निर्वाण की, भाषा सुगम बनाय । 1 ।
चौपाई
अष्टापद आदीश्वर स्वामि, वासुपूज्य चंपापुरि नामि। नेमिनाथ स्वामी गिरनार, वंदौं भाव-भगति उर धार । 2 । चरम तीर्थंकर चरम - -शरीर, पावापुरी स्वामी महावीर । शिखर सम्मेदजिनेश्वर बीस, भाव सहित वंदौं निश-दीस | 3 | वरदत्तराय रु इंद्र मुनिंद्र, सायरदत्त आदि गुणवृंद। नगर तारवर मुनि उठकोडि, वंदौ भाव सहित कर जोडि | 4 | श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोड़ि बहत्तर अरु सौ सात। संबु-प्रद्युम्न कुमर द्वे भाय, अनिरुद्ध आदि नमूं तसु पाय।5।
रामचंद्र के सुत द्वै वीर, लाड-नरिंद आदि गुणधीर। पांच कोडि मुनि मुक्ति मंझार, पावागढ़ वंदौ निरधार।6। पांडव तीन, द्रविड़-राजान, आठ कोडि मुनि मुकति पयान । श्री शत्रुंजय-गिरि के सीस, भाव सहित वंदौं निश - दीस। 7 । जे बलभद्र मुकति में गये, आठ कोडि मुनि औरहु भये। श्री गजपंथ शिखर सुविशाल, तिनके चरण नमूं तिहूं काल। 8 । राम हनू सुग्रीव सुडील, गवय गवाख्य नील महानील। कोडि निन्याणवे मुक्ति पयान, तुंगीगिरि वंदौं धरि ध्यान।। नंग अनंग कुमार सुजान, पांच कोडि अरु अर्ध प्रमान।
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मुक्ति गये सोनागिरि-शीश, ते वंदौं त्रिभुवनपति ईश।10।
रावण के सुत आदिकुमार, मुक्ति गये रेवा-तट सार। कोटि पांच अरु लाख पचास, ते वंदौं धरि परम हुलास।11।
रेवानदी सिद्धवर-कूट, पश्चिम दिशा देह जहं छूट। द्वै चक्री दश कामकुमार, उठकोडि वंदौं भव पार।12। बड़वानी बड़नयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरि चूल उतंग। इंद्रजीत अरु कुंभ जु कर्ण, ते वंदौं भव-सायर तर्ण।13। सुवरण-भद्र आदि मुनि चार, पावागिरिवर शिखर मंझार। चेलना-नदी-तीरके पास, मुक्ति गये वंदौं नित तास।14। फलहोड़ी बड़गाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप। गुरुदत्तादि-मुनीश्वर जहां, मुक्ति गये वंदौं नित तहां।15। बाल महाबाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय। श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, ते वंदौं नित सुरत संभार।16।
अचलापुर की दिश ईसान, तहां मेंढ़गिरि नाम प्रधान। साढ़ तीन कोडि मुनिराय, तिनके चरण नमूं चित लाय।17।
वंसस्थल वनके ढिग होय, पच्छिम दिश कुंथुगिरि सोय। कुलभूषण देशभूषण नाम, तिनके चरणनि करूं प्रणाम।18।
जसरथ राजा के सुत कहे, देश कलिंग पांच सौ लहे। कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूं जोड़ जुग पान।1।
समवसरण श्री पाश्व-जिनंद, रेसिंदीगिरि नयनानंद। वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते वंदौं नित धरम-जिहाज।20।
मथुरा नगरी पवित्र उद्यान, जम्बूस्वामी जी निर्वाण। चरमकेवली पंचमकाल, ते वन्दौं निज दीनदयाल।21।
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________________ तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वंदन कीजे तहां। मन-वच-काय सहित सिरनाय वंदन करहिं भविक गुणगाय।221 संवत सतरहसौ इकताल, आश्विन सुदि दशमी सुविशाला भैया वंदन करहिं त्रिकाल, जय निर्वाणकांड गुणमाल।23। श्री निर्वाण क्षेत्र बड़ी पूजा (श्री निर्वाण लड्डू पूजा) अर्घ करौं निज माफिक शक्ति, पूजौं सिद्ध क्षेत्र करि भक्ति। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। ऊँ ह्रीं भरतक्षेत्र श्री भरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाण क्षेत्रेभ्यः अनध्य पद प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।। श्री रविव्रत जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, अर्घ बनावो भाई। नाचत गावत हर्षभाव सों, कंचन थार भराई // पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई / सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई // ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा / 116