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________________ श्री रत्नत्रय आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये | जनम - रोग निरवार, सम्यक्रत्न- त्रय भजूँ || ओं ह्रीं श्रीसम्यक्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ सम्यग्दर्शन पूजा जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजूं सदा || ओं ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ सम्यग्ज्ञान जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल-फूल चरु | सम्यग्ज्ञान विचार, आठ-भेद पूजूं सदा || ओं ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ सम्यक्चारित्र जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजूं सदा || ओं ह्रीं श्री त्रयोदशविध - सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ 104
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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