________________
(श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (महुवा, सूरत) (रचयिता - भट्टारक विद्याभूषण)
जल गंध सुअक्षत, कुसुम सुचरुवर, दीप धूप फल ले भरी। यह अर्घ स् कीजे, जिनपद दीजे, विद्याभूषण सुखकारी।। पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया। ॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (नेमगिरि) अष्टद्रव्य का अध्य बनाया, अष्टम वसुधा पाने को। अध्य समर्पण करता हूँ मैं, सिद्धालय में जाने को।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। । ॐ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपार्श्वनाथजिन-पूजा अतिशय क्षेत्र (बिहारी, मु. नगर)
उपसर्ग सहा कमठासुर का, उपसर्ग-विजेता कहलाये। सुर पद्मावति-धरणेन्द्र तभी, पूरब उपकार सुमिर आये।। ये अर्घ्य संजो करके प्रभुवर निज का वैभव निज पाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।।।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
73