SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गौतम स्वामी जी गौतमादिक सर्वे एकदश गणधरा | वीर जिन के मुनि सहस चौदह वरा || नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं | धूप फल अर्घ्य ले हम जजें महर्षिकं || ओं ह्रीं श्रीमहावीर-जिनस्य गौतमायेकादश-गणधर-चतुर्दशसहस्र मुनिवरेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । (इस प्रकार अर्घ्य चढ़ाकर लाभ आदि में विघ्न करनेवाले अन्तराय कर्म को दूर करने के लिये नीचे लिखा हुआ अर्घ्य चढ़ावें) श्री अंतराय-नाशार्थ लाभ में अंतराय के वश जीव सुख ना लहे | जो करे कष्ट-उत्पात सगरे कर्मवश विरथा रहे || नहिं जोर वा को चले इक-छिन दीन सो जग में फिरे | अरिहंत-सिद्ध सु अधर-धरिके लाभ यों कर्म को हरे || ओं ह्रीं श्री लाभांतरायकर्मरहिताभ्यां अरिहंत-सिद्धपरमेष्ठिभ्यां अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । 96
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy