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________________ अंतराय है कर्म प्रबल जो दान - लाभ का घातक है | वीर्य-भोग-उपभोग सभी में, विघ्न अनेक प्रदायक है || इसी कर्म के नाश-हेतु श्री, वीर- जिनेन्द्र और गणनाथ | सदा सहायक हों हम सबके, विनती करें जोड़कर हाथ || (यहाँ पर पुष्प-क्षेपण कर हाथ जोड़ें।) (इसके बाद हर एक बही में केशर से साथिया माँडकर एक-एक कोरा पान रखें और निम्नप्रकार लिखें श्री पंच कल्याणक उदक-चंदन- तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिनकल्याणकमहं यजे || ओं ह्रीं श्री भगवतो गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |१| श्री पंचपरमेष्ठी उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीअरिहन्त-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |२| 97
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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