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श्री देव-शास्त्र-गुरु जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनम के पातक हरूँ || इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूँ |
अरिहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रंथ नित पूजा रयूँ || वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन |
जा सों पूजू परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन || ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री विद्यमान बीस तीर्थंकरों जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है |
गणधर इन्द्रन हू तें, थुति पूरी न करी है || 'द्यानत' सेवक जान के (हो) जग तें लेहु निकार | सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह-मँझार |
श्री जिनराज हो, भवतारण-तरण जहाज || ओं ह्रीं श्री विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
अथवा ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन अनंतवीर्य-सूर्यप्रभविशालकीर्ति-वज्रधर-चंद्रानन भद्रबाहु-भुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश
अजितवीर्येति विंशति विहरमान तीर्थंकरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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