________________
रचयिता - कविवर मनरंगलाल
श्री ऋषभदेव जिन करि सु ये इकठो दरब सवै, धरत भाजनमें अतिसोफवै ।
अरघ सुन्दर लेय सो हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अजितनाथ जिन जल चन्दन सुअक्षत, पुष्प नैवेद्य दीयो। वर धूप फलौघा, अध्य सौन्दर्य कीयो।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री सम्भवनाथ जिन सम्वर भद्रम्वर, शाली सितसर, सारंगप्रिय अरू विंजन ले। वसु सारंग खासा, धूप सुवासा, फल इम अरघ सुहावन ले।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
44