________________
देव - शास्त्र - - गुरु जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निरमल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ || इहि भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ | अरिहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ || (दोहा)
वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन | जा सों पूजौं परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध-पूजा
जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा | मेटो भवफंदा सब दुःखदंदा, 'हीराचंदा' तुम वंदा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर - विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी ||
ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म - विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने
अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥
100