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विद्यमान बीस तीर्थंकरों
जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है,गणधर इन्द्रनि हू तें, थुति पूरी न करी है |
'द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार ||
सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) || ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभाननअनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-ज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
(जोगीरासा छन्द) भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ |
चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक के मन लाऊँ || ओं ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत | कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जज, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत |
निज-शक्ति अनुसार जनूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत || ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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