SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अभिनंदननाथ जिन प्रभो आपके दर्शन पाकर, जिन दर्शन ना पाया। सिद्धक्षेत्र का आसन पाने, अर्घ्य सजा के लाया । हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री सुमतिनाथ जिन प्रभु पद का जो ध्यान लगाय, शिव अनमोल रतन शुभ पाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन पूजा है जग में सार, किया न अब तक आत्म विचार। ___ सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार ॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री पद्मप्रभ जिन जल से फल का वैभव सारा,आज चढ़ाने आया हूँ। थ्नज अनध्य पद देना स्वामी, भाव संजोकर लाया हूँ।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 53
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy