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देव-शास्त्र-गुरु पूजन (कविवर द्यानतराय) जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मयूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा
श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (श्री युगल जी) क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये निज आनन्द अमृत पीता है। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अहँत अवस्था है।। यह अध्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अध्य बनाऊंगा।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अहँत अवस्था पाऊंगा।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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