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________________ यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हों। द्यानत कीज्यो शिव-खेत, भूमि समरपतु हो । नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें। बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्योअनर्घ्य-पदप्राप्तये अर्घनिर्वपामिति स्वाहा। नवदेवता पूजन जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक सुधूप फलार्घ्य ले। वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा भाषा जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनिहूं तें थुति पूरी न करी है ॥ द्यानत सेवक जानके जग तैं लेह निकार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । सिद्ध-पूजन (श्री युगल जी) 109
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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