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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जब तक अनर्घ-पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा। निज-पद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं आऊँगा।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनन्तनाथजिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
देह-भोग-संसार-राग में रहा, विराग नहीं आया। सिद्ध-शिला-सिंहासन पाने अर्घ-सुमन लेकर आया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री बख्तावरसिंह)
जल-फलादि वसु-द्रव्य संवारे अर्घ चढ़ाये मंगल गाय। बखत रतन के तुम ही साहिब दीजे शिवपुर राजकराय।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय। तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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