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________________ श्री विमलनाथ जिन शुभ जिवन चंदन अक्षतं, सुमना प्रवर चरु ले दिया।। और धूप फल इकठे सुकरि के, अरघ सुन्दर मैं किया।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने। पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। ___ श्री अनन्तनाथ जिन पय चन्दन वर तंदुल सुमना सूप ले, दीप धूप फल अध्य, महासुख कूप ले। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। श्री धर्मनाथ जिन धरि धरि चाव भाव दोऊ शुभ, अन्तर बाहर केरे। करि करि अध्य बनाय गाय नित, कहें सुगुण बहुतेरे।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 48
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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