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श्री हेमचन्द्राचार्य
मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान – ७३ प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
Taum
प्राचीन जिनचोवीसी, एक चित्र
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
2017
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य - विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
७३
सम्पादक :
विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२०१७
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अनुसन्धान - ७३ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क : Clo. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक:
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ श्रीविजयनेमिसूरि ज्ञानशाला शासनसम्राट् भवन, शेठ हठीभाईनी वाडी,
दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ (३) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : 250 मूल्य : ₹100-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
(२)
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निवेदन
संशोधन ए आजकाल एटली बधी लोकप्रिय अने लोकभोग्य जणस थई पड्यु छे के गमे ते व्यक्ति, पोताने आवडे के सूझी आवे तेवू काम आ क्षेत्रमा करीने पोतानी जातने संशोधक तरीके खपावी-ओळखावी शके छे. ए जोवा मळे त्यारे, चणा-ममरा वेचनारो दुकानदार पण जाणे सोनारूपानो के जवेरातनो धंधो शीखी गयो होय तेवू लागे छे. ___ 'संशोधन' ना केटलाक मजेदार प्रकारो विषे जाणी राखवा जेवू छे.
- केटलाक लोकोने हस्तप्रतो परथी लिप्यन्तर करतां आवडतुं होय छे. जो के अणीशुद्ध लिप्यन्तर करवा माटे ते ते ग्रन्थy, ते विषय, तेनी भाषानुं इत्यादि विविध बाबतो, ज्ञान जोईए. वळी, अक्षरोने ओळखतां-उकेलतां तथा नवा रूपमां ढाळतां-लखतां पण आवडवू जोईए. परन्तु हवेना लोको पासे आटली बधी(!) अपेक्षा राखवा- वधुपडतुं ज गणाय : नकल, ते पण जरा वांची शकीए तेवी, करी आपे तो पण ओर्छ न कहेवाय. ए तो करी आपे. पछी जो कहेवामां आवे तो क्वचित्, बीजी प्रतमांथी पाठान्तरो पण लई आपे.
परन्तु आ बधो ज श्रम करवा पाछळ तेमनो आशय एक ज होय के अमे संशोधन कर्यु, अने हवे ते अमारा नामे छपावू जोईए. .
आवा लोकोना आवा काम पर, पछीथी, जाणकार संशोधके घणो श्रम करवानो होय छे. अक्षरे अक्षर तपासवानो तथा सुधारवानो होय छे. क्यारेक तो थाय के आ लखाण तथा लिप्यन्तर रद्द करीने आपणे ज नवेसरथी लखी दईए तो ठीक पडे. आवां लिप्यन्तरोने सुधारवान काम केटलुं कष्टजनक होय छे ते तो करे तेने ज खबर होय. अने छतां, पेला लिप्यन्तरकार पोताने संशोधक गणावे अने ते रीते नाम पण छपावे !
लिप्यन्तरतुं काम ते लहियानुं काम. जेम कोई माणस कोईना पत्रनुं के लखाण- टाइप-राइटिंग करी आपे तेटलाथी ते तेनो लेखक नथी बनी जतो, ते ज रीते ग्रन्थोनुं के प्रतोतुं लिप्यन्तर करनार लेखक-लहियो पण संशोधनकार तो न ज बने. परन्तु आजे तो आवा लहिया-शोधकोनो युग प्रवर्ते छे. तेमनी भीडमां साचा संशोधनकारने शोधवा जरा कठिन काम छे.
- कोईक रचना होय, तेना कोई अंशनो अर्थ बेसतो के समजातो न होय, तो केटलाक लोको, आवा स्थान पर, पोतानी कल्पना वडे उपजावेला शब्दो बदली
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के गोठवी आपता होय छे. पछी एमनी ख्याति श्रेष्ठ संशोधनकार तरीके आपोआप थती होय छे. दा.त.
उदयरत्न कवितुं एक स्तवन छे : "राता जेवां फूलडां ने, शामळ जेवो रंग" - जैनोमां आ व्यापकपणे प्रचलित अने गवातुं स्तवन छे. हवे आ पंक्तिनो अर्थ पूछतां कोईक महानुभावने अर्थ जड्यो नहि. तरत तेमणे जाहेर कर्यु के अहीं "राधा जेवां फूलडां" - एम होवू जोईए; अथवा ए ज वधु योग्य छे. तेओए 'शामळ' शब्दनो अर्थ 'शामळियो श्रीकृष्ण' एवो कर्यो, अने कृष्ण राधा वगर न ज होय तेथी 'फूल' ने 'राधा' जेवां कल्पीने 'राधा' एवो पाठ प्रस्थापित करी दीधो. थयुं के आने कहेवाय संशोधक ! फलद्रूप मगजना धणी !
नहि कोईने पूछवा. नहि कोई हस्तप्रत जोवानी तस्दी लेवानी. अमने बधुं ज आवडे, ने अमे कहीए ते योग्य ज होय, एवी धारणानी आ नीपज !
पण आ पछी आनी हस्तप्रत सुधी पहोंचवानुं बन्यु. तेमां पाठ आवो जोवा मळ्यो : "रातां जासुल फूलडां, ने शामळ तारो रंग" केटलो मजानो - सटीक पाठ !
मूर्तिनो रंग श्याम छे, (शामळ तारो रंग), अने तेना पर लाल रंगनां जासुलनां फूल चडाव्यां छे. ए बे रंगर्नु संयोजन थवाथी केवो मजानो Contrast रचाय ! - एवं कवि दर्शाववा मागे छे. आमां 'राधा' बापडीने शुं लेवादेवा के एने ने एना शामळने पण आ संशोधक वडील घसडी लाव्या ?
तो, संशोधननो आ पण एक प्रकार आजकाल विकस्यो छे. एवा लोको द्वारा आवी अनेक रचनाओमां अगणित मनघडंत फेरफारो थया छे अने थतां रहे छे.
- शास्त्रोद्धारक तथा शास्त्रसंशोधक लखावी देवं सहेलुं छे. पैसाना जोरे थोडांक पुस्तको छपावी देवामात्रथी आवां विशेषणो माटेनी योग्यता मळी रहे - एवी समझण ज आq बधुं लखावे छे. कोई लिप्यन्तर करी आपे, कोई प्रूफवाचन करी दे, तो कोई पाठान्तरो लई आपे. परन्तु ए बधुं योग्य रीते थयुं छे के केम तेनो विचार कर्या विना के अवलोकन कर्या विना ज, पोताना नामथी ते बधुं छपावी देवानी प्रथा आजे व्यापक बनी रही छे.
___ आवा संशोधन अने संशोधनकारो थकी केटलुं नुकसान थाय छे तथा थशे, तेनो आजे भाग्ये ज कोईने अंदाज हशे. परन्तु भविष्यमां आनाथी थता अनर्थो जेवातेवा नहि होय, ए नक्की.
. - शी.
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अनुक्रम
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सम्पादन पंचकल्लाणं
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ३ स्तोत्रो
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीजयशेखरसूरि-शिष्यश्रीमाणिक्यसुन्दरसूरि
विहितः श्रीऋषभदेवसिंहावलोकस्तवः
सावचूरिकः . सं. पं. कल्याणकीर्तिविजय गणि जीरावला तीर्थनां केटलांक लेखो सं. उपा. भुवनचन्द्र विनयदेवसूरिकृत
दान-शील-तप-भाव भाषा सं. उपा. भुवनचन्द्र ब्रह्म-रचित हरियालीओ.
सं. उपा. भुवनचन्द्र चसिमा अर्थ महित स्वाध्याय सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय श्रीमुनिविजय-उपाध्याय रास सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय श्रीतिलकविजयजीकृत ११ गुर्जर रचनाओ
सं. मुनि धुरन्धरविजय रेंटियावर्णन भास
सं. उपा. भुवनचन्द्र केटलांक पदो
सं. प्रा. अनिला दलाल स्वाध्याय ढूंकनोंध
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
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६९
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सप्टेम्बर - २०१७
पंचकल्लाणं (सिरि उसहदेवसामिणो थोत्तं)
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
१३५ प्राकृत गाथाओमां विस्तरेला आ स्तोत्रमा भगवान ऋषभदेवनां पांच कल्याणकोनुं विशद-विस्तृत वर्णन छे. पहेला बे कल्याणकोना वर्णननी गाथा थोडी छे, पछीनां त्रणनी वर्णनगाथाओ क्रमशः अधिक अधिक छे.
___ कृतिनी छेल्लेथी बीजी कडीमां (१३४) 'धरणिंदनमियदेवाहिदेवनामेण' एवी रीते कर्ताए पोताना नामनुं सूचन कर्यु छे. ते परथी कर्ता- नाम 'पार्श्व' होई शके अथवा 'पार्श्व' शब्दथी शरु थतुं (पार्श्वदेव, पार्श्वचन्द्र इ.) होई शके एम जणाय
छे.
वर्णन सरस होवा छतां प्रमाणमां मध्यमसरनुं कही शकाय तेवं छे. थोडीक अशुद्धिओ पण छे. कदाच ते लेखक द्वारा थई होय. छेल्ली गाथामां पांच कल्याणकनां नामोमां "चवणं गब्भाहरणं" एवं लखायुं छे, एमां 'गब्भाहरणं' शब्द 'जन्मकल्याणक' माटे लख्यो जणाय छे.
आ कृतिने समावती एक ताडपत्र पोथी भावनगर जैन संघ हस्तकना शेठ डोसाभाई अभेचंदनी पेढीना ज्ञानभण्डारमा छे. ते पोथीमां पत्र १४७ थी १५९मां आ कृति छे. सम्भवतः आ पोथीमां आवी विविध कृतिओनो संग्रह होवो जोईओ. अमारी पासे तेनी झांखी झेरोक्स छे, ते परथी नकल तथा सम्पादन करवामां आवेल छे.
पंचकल्लाण तित्थं पवयण सुयदेवयं च नमिऊण सव्वभावेणं । कल्लाणपंचएणं आय(इ)जिणिदं नमसामि ॥१॥ चवण-जम्मण-निक्खमण-केवलं पंचमं च निव्वाणं । संखेव-वित्थरेणं अहकम्म(क्कम) कित्तइस्सामि ॥२॥ सिरिनाभिनरिंदसुओ मे(म)रुदेवीनंदणो उसभसामी । जयइ पढमो जि[णि]दो सव्वट्ठ-महाविमाणचुओ ॥३॥
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अनुसन्धान-७३
पेच्छइ चउदस सुमिणे मरुदेवी-सामिणी सुहपस(सु)त्ता । गब्भगए भगवंते पभायसमयंमि वसहाई ॥४॥ परितुट्ठा य भगवई नाभिनरिं[द]स्स ते निवेएइ । सो वि आणंदियंगो सुमिणाण फलं परिकहेइ ॥५॥ होही तो(ते) वरपुत्तो खायजसो तिहुयणस्स अब्भहिओ । अम्हं कुलप्पईवो नरनाहो कित्तिगुणनिलओ ॥६॥ अवितहवयणं सोउं देवी आणंदिया य सपणामा । भवणे सुहासणत्था सक्कागमणं महामहिमा ॥७॥ अमराहिवो पणामं काउं देवीए नाभिभत्तीए । संथुणइ हट्टतुट्ठो नमोत्थु ते रयणकुच्छीए ॥८॥ भुवणब्भहियाए नमो नमो नमो देवि भुवणलच्छीए । तिहुयण-लग्गण-खंभो जीसे राइम्मि अवयरिओ ॥९॥ धन्ना ते सुकयत्था सुजीवियं तुम्ह मणुयजम्मो य । जीए उयरेण धरिउ(ओ) तिहुयण-चूडामणी पढमो ॥१०॥ एवं बहुप्पयारं उववूहेडं गओ दिवं खिप्पं । सुरसहिओ विबुहवई सम्म(म)त्त कल्लाणगं पढमं ॥११॥
बीयस्स समारंभे मरुदेवी संथुया य सु(स)क्केणं । गब्भं वहइ सुहेणं, कमेण जाओ सुरिंदवई ॥१२॥ दस दिसि उज्जोवेंतो दिसाकुमारी-सुजम्म-कयकिच्चो । ण्हविओ य सुरवरेहिं वरकंचु(च)णसेलसिहरम्मि ॥१३॥ दिव्वविलो(ले)वण-आभरण-मउड-वरदामभूसियसरीरो । सुरवइ वंदियचलणो जणणीओ(ए) समप्पिओ सिग्धं ॥१४॥ पंचदिव्वाणि तत्थ उ गंधोदय-पुफ(प्फ)वुट्ठि-वसुहारा । दुंदुहि-चेलुक्खेवो जयजयरवहरिसियं भवणं ॥१५॥ सुरवइनटें सुरसुंदरीणा(ण) पो(पे)क्खवि विम्हिया देवी । पढमजिण-जम्मकाले णेगविहं परमभत्तीए ॥१६॥ सक्कवयणेण धणओ मणि-कंचण-रयण-पंचवन्नेहिं । नाहिनरनाहभवणं आऊरइ हट्ठतुट्ठो उ ॥१७॥
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सप्टेम्बर - २०१७
तुढेहिं मिहुणगेहिं कयजम्ममहूसवो सह सुरेहिं । इय बीयं कल्लाणयं पढम जिणिदस्स सम(म्म)त्तं ॥१८॥
कयजम्माईमहिमा देवा नंदीसरंमि गंतूणं । सासयजिणाण पूयं नर्से गीयं च कुव्वंति ॥१९॥ सुर-मिहुणगपरियरिउ कमेण संवद्धिओ तियसनाहो । सारय-ससि व्व भगवं पयडंतो देहकंतीए ॥२०॥ सुरवइ-आणाए सुरो जगप्पहाणस्स दिव्वनाहाणं । देवकुमारा हिट्ठा निवेइयं उसभसामिस्स ॥२१॥ (?) अह जोव्वर्णमि पत्ते सुरिंदमहिए जिणम्मि सुरनाहो । आगम्म विभइए विवाहकिच्चं कुणइ सव्वं ॥२२॥ सह देवेहिं परिगओ वंदित्ता तिहुयणच्चियं उसहं । पुच्छंति मिहुणयाणं भयवं परिकहइ कहणिज्जं ॥२३॥ रायाभिसेयकालो पुणरवि आगम(म्म) भत्तिराएण । सीहासणम्मि पवरे अहिसिंचइ कणयकलसेहिं ॥२४॥ सुगंधोदग-देवंग-वत्थ-आभरण-दि[व्व]मउडाइं । हरियंदण-गंधुक्कड-विलेवियं कुणइ जु(ज)यनाहं ॥२५॥ वरसुरहिमल्ल-सुरतरु-सुगंध-कुसुमच्चेयं(कुसुमोच्चयं) तियसनाहं । पवरपलंबियमालं गंधेणाऽऽसन्नभमरउलं ॥२६॥ पउमिणिपुडेहिं तोयं आणेउं मिहुणगेहिं दट्टणं । पयपंकयंमि खित्तं तुट्ठो सक्को य सुरराया ॥२७॥ कंचण-विणीयनयरि तेसिं काऊण पत्तसुरलोओ । उग्गा भोगा राइन्न खत्तिया [य] आणा पडिच्छंति ॥२८॥ सा(स)त्तीए पालियजणो संगहियतुरंग-हत्थि-गोरयणो । बहु-नगर-गाम-पट्टण-दंसियकमनायआयारो ॥२८(२९)॥ पढमरायाहिराया निप्पडिवक्खो अणंतविरिओ य । सयपुत्तनमियचलणो नरनाहसहस्सपणिवइओ ॥३०॥ परिदंसियसिप्पकलो पमुइयनिच्चूसवो व्व लोगम्मि । वित्थरियदाणविंदाण रयणरयणायरो जयइ ॥३१॥
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अनुसन्धान-७२
परिवालिऊण रज्जं भव्वाण हियट्ठयाए तो भयवं । भरहाई-दत्तपुहई-रज्जं रयणाणि सव्वाणि ॥३२॥ संवच्छरियं दाणं कणगाइ पयच्छिऊण उद्दामं । सहिओ पुरंदरेहिं सव्वेहिं सुरासुरेहिं च ॥३३॥ मणिकलस रयणसिंहासणंमि हविओ सुरेहिं जगसामी । कयकोउयमंगलगीव्व(य)-नट्ट-आउज्जसद्देणं ॥३४॥ वत्थो(त्था)हरण-विलेवण-कुसुमाइं जणवि गरुयमोल्लाइं । रेहंति विसेसेणं जयगुरुणो अंगलग्गाइं ॥३५॥ उच्छलइ नंदिसद्दो जय जय तेलोक्कभाणु ! सुरनाह ! । सु(भु)वणस्स मोहतिमिरं केवलकिरणेहिं अवणेहिं ॥३६।। जय जगपइ ! [जग]वच्छल ! जयबंधव ! जयहि तिहुयणमयंक ! । धम्मकहा-जोण्हाए पडिबोहसि भविय-कुसुमाई ॥३७॥ रयणदाणेण एवं जयं तं फो(फे)डेसि जम्मदालिदं । दुहियजीवाण सामिय ! चारित्तनिहिप्पयाणे[ण] ॥३८॥ सीया-सुदंसणाए मणिमयसीहासणम्मि उवविट्ठो । सक्कीसाणसुराहे(हि)व, उभओ चिय चमरहत्थेहिं ॥३९॥ चउव्विहदेवनिकाएहिं थुव्वमाणो नरिंदपरियरिओ । सुरभूगहि(ही)रजयजय-रवेण सिद्धत्थवणसंडे ॥४०॥ निक्खमणमहिमअक्खित्ततियणो नरवईसहस्सेहिं । चउहिं सहिओ महप्पा तिलोयपव्वो(पुज्जो) य निक्खंतो ॥४१॥ पकयचउमुट्ठियलोउ पंचममुट्ठीए विरायमाणो उ । इं[दे]ण देवराया अच्छउ सामिए विन्नवियो ॥४२॥ सावज्जजोगविरई गहिय पय(इ)न्ना महामुणिंदवई । विहरइ गामाइ तओ देवा वि गया उ सट्ठाणं ॥४३॥ तइयम्मि समत्तंमि चउत्थकल्लाणएण थोसामि । जं न मए इह भणियं, तं सव्वं आगमा नेयं ॥४४॥ तइयं सम्मत्तं ॥
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सप्टेम्बर
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२०१७
कप्प(य)णो(घो)रतवच्चरणो साहियइंदियअणंगसेन्नो य । जियरागदोसमोहो परीसहारीहिं अव्वहिउ ॥४५॥ निज्जिणियकसायबलो, पालियइरियाइपंचसमिओ य । भयवं तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरु (र) ओ य निस्सल्लो ॥४६॥ जत्थऽत्थमियनिवासी गिरिगुहकंदरतरुस्स वा मूले । कत्थइ सिलाइ(य)लगओ चिट्ठइ भगवं सुहज्झाणो ॥४७॥ सत्तू (त्तु) भयविप्पमुक्को, अट्ठमइ (य) द्वाणवज्जिओ भयवं । नवबंभचेरगुत्तो परिवालइ दसविहं धम्मं ॥४८॥ पुत्ताइचत्तनेहो परिहरियासेससयणसंबंधो । विहरइ ममत्तरहिओ पुरपट्टणगामनयराई ॥४९॥ अमुणियभिक्खाय(इ?)जणो से (म) णि-कंचण - रयण-धणसमिद्धे वि । परमेसरो अदीणो विहरइ वसुहं निराहारो ॥५०॥
ते चत्तारि सहस्सा भरहेण निवारिया य रायाणो । पढमपरीसह-वइया वणमज्झे तावसा जाया ॥५१॥ नमि विणमि (मी) राय (याणो) न समीवे आसि दाणकालंमि । तिहुयणनाहस्स तओ ओलग्गंती पयत्तेणं ॥५२॥ धरणिंदस्सागमणं पूया-सक्कार-भत्तिरायं च । ते दिट्ठा कुव्वंता दिन्नाउ ताण विज्जाओ ॥५३॥ मा एएसि सेवा उसभजिणिदस्स निफ ( फ्फ) ला होउ । वि(वे)यड्डुस्साहिवई जाया विज्जाहरा दो वि ॥५४॥ संवच्छरंमि पुन्नो ( पुन्ने) सेयंसनरिंदभवणसंपत्तो । दडुं तिलोगनाहं सहरिस अब्भुट्ठिओ इमं ॥५५॥ तिपयाहिणो वि वंदिया (य) जाइस्सरणो मुणेवि दाणविहिं । सेयंसो पल्हत्थइ इक्खुरसो कणयकलसेहिं ॥५६॥ करकमलअंजलीए दिज्जंतं संपडिच्छए भयवं । दव्वाइभावसुद्धं नाउं निरवज्जमाहारं ॥५७॥ नरनारीहिं महियलं गयणयलं च्छाइयं सुरगणेहिं । से (सि) यछत्त - चामरभूसिय घंटारवि मणि- विमाणेहिं ॥५८॥
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अनुसन्धान-७३
सेयंसं अदोणं धन्नो धन्नो तुमं जणा जमं (?) । पाराविओ जिणंदो पवत्तिया पढमभिक्खाओ ॥५९॥ गंधोदग-पुप्फाणि य वुट्ठा य महग्घ-रयण-वसुहारा । दुंदुहि-चेलुक्खेवो जय-जय-रव-हरिसियं भवणं ॥६०॥ वर-तूर-संख-काहल-निग्घोसपणच्चियाओ देवीउ । एवं नरिंददइया महामो(म)हो चेव मणुयाणं ॥६१॥ विहाणा पारेवि तओ आहिंडइ वसुमई गुणसमुद्दो । मेरुव्व निप्पकंपो सीयाइ-परीसहे सहइ ॥६२॥ आरामुज्जाणेसुं गोउर-सुत्त(न्न)हइ(य?)-जाणसालासु । वसु सो(वसिइ स?) वि य उस्सग्गे धम्मज्झाणेण सुरनमिओ ॥६३॥ बहली अडव(वि)इत्तो जोणगविसयाइ परियडंतस्स । भद्दगमणुया जाया वयणाणुट्ठाणहयहियया ॥[६४]॥ लंघेवि पव्वया तह नईओ विहरे अणारियं खेत्तं । उवसामिया य मेच्छा दुट्ठा वि महाणुभावेण ॥६५॥ कयकिच्चो वि हु भयवं पव्वज्जाए भवविणासाय । एवंविह दंसेंतो छउमत्थाणं परिब्भ[म]इ ॥६६॥ सपरक्कमो य वीरो भीसणरन्ने वि ट्ठाइ उवस(उस्स)ग्गे । ज्झाणग्गि धगं(ग)धगेंतेण डहइ कम्भिधणं पउरा(रं) ॥६७॥ पुन्ने वाससहस्से पत्तो उज्जाणं-पुरिमतालंमि । नग्गोहदुमसमीवे उप्पन्नं केवलं नाणं ॥६८॥ सव्वं लोगं निस्संदिद्धं परिएफुड(परिप्फुड) चेव भगवं । जाणइ पासइ करयलगयसच्छरयणमिणमिव?) ॥६९॥ चलियासणो य सक्को पडिहारं आणवेइ सो वि सुरा(रे) । मेलेइ तक्खणेणं घंटारवगहिरतो(घो)सेण ॥७०॥ वरमउड-कुंडलधरा भूसिय केऊरहारकडएहिं । तुरिय विमाणारूढा सिग्धं च समागया विबुहा ॥७१॥ पजलंतविविहरयणा उज्जोइयभुवण नट्ठतमतिमिरा । गरुयाणंदपहट्ठा मुक्का य कयंतदुद्वेण ॥७२॥
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सप्टेम्बर - २०१७
मिलिया सुरासुरगणो(णा) बत्तीससुराहिवा तओ तुरियं । केवलिमहिमं काउं विणीयनयरीए ओइन्ना ॥[७३]॥ रइयं च समोसरणं मणिमयसिं(सी)हासणं असोगतरुं । तत्थ उ पढमजिणिंदो विहिए सिंहासणे ट्ठाइ ॥[७४]॥ भरहो य चक्कवट्टी केवलिमहिमं जिणस्स नाऊणं । सव्विद्धीए सहिओ सिस(य)च्छत्तो गयवरारूढो ॥७५॥ पुत्तविओगसदुक्खं पुरओ मरुदेविसामिणि काउं । दट्टण जिणवरिद्धि विमाणसुरछाइयं गयणं ॥७६।। पागारतिगं सतोरणाई दुंदुहिनिनाय जयसदं । सोउं जिणजणणीए उप्पन्नं केवलन्नाणं ॥७७॥ आउं च परिसमत्तं सुरेहिं सक्कारिया पढमसिद्धा । भभ(र)हो य सोगसहरिसं(सोगहरिसं) अणुहवई थेवकालं तु ॥७८॥ ओयरिय मयगलाओ नवरं मोत्तूण पंच ककुहाई । छत्तं वाहण खग्गं मउडं तह चामराइं च ॥७९॥ दारुत्तरेण पविसइ सद्भूण(दट्टणं) जिण तिलोयपरिवारं । दुंदुहि-सियछत्तत्तय-चामर-सिंहासणारूढं ॥८०॥ हरिसरोमंचजुत्तो तिपयाहिण-वंदिओ सपरिवारो । उवविट्ठो भरहवई सक्काइ ट्ठियाउ सट्ठाणे ॥८१॥ भयवं कहेइ धम्मं नारय-तिरियाण मणुय-देवाणं । जह हुंति सुह-दुहाई उप्पत्ती जेण कम्मेण ॥८२।। तह सव्व-देसविरई पयासई वित्थरेण सुरमहिओ । भरहस्स सुया सोउं बहवे तत्थेव पव्वइया ॥८३।। बंभीपमुहा अज्जा सावय तह साविया अणेगाउ । इय पढमसमणसंघो उप्पन्नो उसभसामिस्स ॥८४॥ एवं मु(खु) अणेगाणं पडिबोहं काउमुट्ठई भयवं । देवा वि सभवणगया समत्त कल्लाणग चउत्थं ॥८५॥
चउत्थं कल्लाणयं सम्मत्तं ॥
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अनुसन्धान-७३
कम्मकलंकवि[मु]क्को जिणचंदो पंचमंमि पारद्धे । समणसीहेहि सहि(ओ) परिवज्जिय विसयपंकेहिं ॥८६॥ धम्मवरचक्कवट्टी सुसत्थवाहो य मोक्खनयरस्स । चउगइवाहिसुवेज्जो सरणं भवघोरभीयाणं ॥८७॥ दिप्पंतरयणसुरकय-पउमेसु निहित्तचवल(चलण)सयवत्तो । संचल्लइ मणिनिम्मल पुरओट्ठि[य]धम्मचक्केण ॥८८॥ सुर-विज्जाहर-किन्नर-नरवइ-गंधव्व-जक्खपरियरिओ । रक्खंतो जमदंडाओ तिहुयणं जीयहरणाउ ॥८९॥ न[य]रारी(ई?)-पट्टण-वेलाउलाई आगर-मडंब-खेडाई(इं) । परिसक्कइ जयजेट्ठो छज्जीवहियं करेंतो य ॥१०॥ सुररइयसमोसरणे अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्तो । निरुवमरूवसिरीओ चउतीसाइसयगुणकलिओ ॥११॥ नासइ अन्नाणतमं जीवाण विवेयरयणं(ण)दाणेण । दस-बारसभेएणं धमे(म्मे)ण जगं समुद्धरइ ॥९२॥ तित्थस्स [महिमा?] होउ पुंडरियं गणहरं सपरिवारं । पेसइ सिरिसेत्तुंजे पियामहो उसभसामित्ति ॥९३॥ उग्गतवच्चरणरुई गुरुआणाचरणकरणमुज्जुत्तो । गंतूण विमलसेले भवियाण करेइ उवयारं ॥१४॥ विरइयचउदसपुव्वे(व्वो) संसयघणतिमिरसूरपज्जलिओ । भवसयसहस्सलक्खाइ-साहणं कुणइ जीवाणं ॥९५।। निद्दनि(लि)यघाइकम्मो अ प्पत्तअणंतको(के)वलि(लु)ज्जोओ । पंचकोडीहिं सहिओ नेव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥९६॥ भरहो वि नरिंदवई कंचणभवणाई जिणवरिंदाणं । सेत्तुंजे कारावइ पुंडरिय-सुए गए सिद्धिं ॥९७|| पच्छा विहरेवि महिं सुरमहिओ तं गिरि(रिं) समारुहइ । नाहिसुओ तित्थयरो सुरागमो-सरण-धम्मकहा ॥९८॥ एवं ते(?) सेसजिणाणं काले जे सिद्ध तह जिणंतरे चेव । सेत्तुंजे ताण संखा अइसयनाणी परिकहेइ ॥१९॥
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सप्टेम्बर - २०१७
न हु एत्थ समोसरिओ नेमिजिणिदो भवारिनिद्दलणो । बारवईनयरीओ उवहरि(यारी) भव्वसत्ताणं ॥१०॥ पडिबोहं काऊणं सक्काइ-दसार-कण्ह-राम-सु(जु?)ओ । नरवइ-मउडधराई विहिएण उ चरणकालम्मि(?) ॥१०१॥ उज्जितमहिहरम्मी सहिओ अणगारपंचहिं सएहिं । छत्तीसब्भहिएहिं पत्तो परमेसरो मोक्खं ॥१०२।। पुवि पच्छा य तहा बहवे सिद्धा य लोगनाहस्स । बहुपावसंचयहरं नमामि उज्जित वरतित्थं ॥१०३॥ तित्थयर-केवलीहिं य गणहर-पुव्वहर-साहुमाईहिं । जो कोई सुहपएसो अक्कंतो सो महातित्थं ॥१०४॥ पुणरवि भगवं विहरेवि भारहं वच्छराण लक्खाई । नाऊण चरमकालं अट्ठावयनगवरारूढो ॥१०५॥ दसहिं सहस्सेहिं समं मुणिवर-तव-चित्त-चरणदेहाणं । काऊणमणसणविहिं सव्वेहि समं गओ मोक्खं ॥१०६॥ गोसीसचंदणागरु-चियाए सक्कादिसुरवरे(रिंदे)हिं । भरहागम-जिणभवणं कणगमयं रयणमालाहि ॥१०७॥ जयघंढा(टा)गहिररवं सव्वेसि जिणाण तित्थपडिमाओ । जो जह पमाणवंतो तह निम्मविओ य जिणकहिओ ॥१०८।। चउवीसं तित्थयरा फुरंतरयणेहिं पंचवन्नेहिं । एवं विहीए भाउय-सयस्स थूभाणि कारवइ ॥१०९॥ परि(डि)माओ तत्थ तेसिं पइट्ठिया ण्हवणमाइसक्कारं । पूयाईकयविहाणो सपरियणो परमभत्तीए ॥११०॥ भरहो थुणइ पसंतो जय जय देवाहिदेव ! जगतिलय ! । [जय]गुरु ! तिहुयणपालय ! ससुरासुर-नमिय-पयकमल ! ॥१११॥ जि(ज)यचिंतामणि ! जि(ज)यकप्परुक्ख! जय पढमपयडियसुधम्म !। इक्खागुवंसभूसण ! पढमजिणेसर ! नमो तुब्भ ॥११२॥ जय तियलोयपियामह ! बत्तीस-पुरंदरेहिं थुयचलण ! ।. भवजलहिनिबुड्डाणं जीवाण विसालदढपोय ! ॥११३॥
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अनुसन्धान-७३
जय तित्थनाह ! सामिय ! दाउं नाणाइयं महामंतं । भीमभवरक्खसाओ लोगतियं रक्खियं सव्वं ॥११४॥ जय रागग्गहफेडण ! जय दोसभुयंगदुट्ठनिट्ठवण ! । मोहपिसायवियारण ! ताडण ! कहोइय(कोहाइय)भयाणं ॥११५।। असमंजसकलिघायग ! पमाणभिन्नाण निग्गहसमत्थ ! । रोद्द[गय]घड विनट्ठा तुह दंसणसीहनाएण ॥११६॥ जय पुरिसोत्तम ! को तुम्ह संथवं अविगलं जमे(गे) कुणइ । उद्धरियं जेण जगं निवडतं भीमनरएसु ॥११७॥ मिच्छत्ततिमिरनासण ! पडिबोहि(ह)य भवियपउमकोडीणं । भवणुज्जोयण ! सयलस्स जिणसूर ! पणमामि ॥११८॥ जय जीवाइपयासय ! जय जय पंचत्थिकायमइयस्स । लोगस्स सुहुम तसेग(दंसग?) खयकारग ! जम्ममरणाण ॥११९॥ एगंतहियं पत्थं अतित्तिजणगं च तुम्ह वररयणं । को पावेइ महायस ! गुरुयरपुन्नेहिं परिहीणो ॥१२०॥ मूलुत्तरपयडीओ कम्मस्स कहेवि भव्वजीवाणं । तेण समं दुटेणं कओ विवेगो महामुणिणा ॥१२१॥ जय कुगइपहनिवारण ! जय सोग्गइमोक्खपयडियावास ! । जय सयलसोक्खदायग ! जय सामिय ! तिहुयणुद्धरण ! ॥१२२॥ सेसा वि जयंति जिणा अजियाई वद्धमाणपज्जंता । लोगस्सुज्जोयकरा अणंतचरिया पुरिससीहा ॥१२३॥ तीयाणागयतित्थंकरा य वंदामि तिहुयणवरिट्ठा । विहरंति जे वि पुज्जा अढाइज्जेसु दीवेसु ॥१२४॥ सिद्धाणि सव्वकज्जाणि जेसि निरुवमसुहं च संपत्ता । ते सिद्धा पणमामी पारगया भवसमुदस्स ॥१२५॥ आयरिया वि हु सव्वे उवज्झाया साहु सीलगुणजुत्ता । आयारत्था लोगुत्तमा य मणवयणकाएहि ॥१२६।। वंदइ भरहाहिवई देवा वंदित्तु गया नियावासं । एयपि महातित्थं समत्तकल्लाणयं पंचमं ॥१२७॥
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सप्टेम्बर
२०१७
आसाढचउत्थीए चुओ[ जाओ ] चेत्तस्स बहुलअट्ठमी (मि) । भगवं एयाए तिहीए निक्खता ॥ १२८॥ फग्गुणबहुलेक्कारसि, जिणि [द]उसभस्स केवलुप्पत्ती । माहे य बहुलतेरसि संपत्तो सासयं द्वाणं ॥ १२९॥ तत्तो भरहनरिंदो रज्जं काऊण जुंजिउं लोए । आयंसघरे नाणं पव्वज्ज कमेण नेव्वाणं ॥१३०॥ एयं जो पढइ नरो पढमजिणिदस्स पंचकल्लाणं । निसुणइ जो भावेण य सो वि सुहं सासयं लहइ ॥ १३१ ॥ वाहि- वेयालमाई नासह दारिद्द - दुक्ख - दोहग्गं ।
ए (से?) यं पि पावइ लहुं पडिहणिउं सव्वघायं (घाईणं) ॥१३२॥ पवयणदेवीए नमो जीए पसाएण पंचकल्लाणं । मंदमइणा विरइयं कल्लाणपरंपराहो ( है ) उ ॥ १३३॥ ध[र]णिंदनमियदेवाहिदेवनामेण पंचकल्लाणं । रइयं भवमह[ण ? ]त्थं भवियाणं हरउ दुरियाई ॥१३४॥ चवणं गब्भाहरणं निक्खमणं केवलं च नेव्वाणं । कल्लाणपंचएणं जिणिंद इंदेहिं निम्मवियं ॥१३४ (१३५) ॥
॥ छ ॥ छ ॥
११
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अनुसन्धान-७३
३ स्तोत्रो
. - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
केटलांक प्रकीर्ण पत्रोनी झेरोक्ष नकल प्राप्त थतां तेमांथी आ स्तोत्रो ऊतार्यां छे. अप्रगट जणायाथी अहीं प्रगट कर्यां छे. .
. एक पानांमां २ स्तोत्रो छे. तेमां बीजा क्रमे लखायेखें वीतरागस्तोत्र संस्कृतमां ९ पद्यप्रमाण छे. वसन्ततिलका छन्दमां रचायेल आ पद्योनुं चोथु चरण समान-एक ज छे. प्रास सुन्दर मेळवाया छे. छेल्ला पद्यमां 'जैत्रसूरि' एवो नामोल्लेख छे, तेथी ते नामना सूरिनी आ रचना होई शके.
ए ज पानामां प्रथम क्रमे लखायेल स्तोत्र 'अम्बिकास्तव' छे. ते सरस रीते गाई शकाय तेवा-गेय छन्दमां छे. अम्बिका ते नेमिनाथजिननी शासनयक्षी अने रेवंतगिरि (गिरनार) तीर्थनी रक्षक देवी. तेमनुं भावसभर, मन्त्राक्षर-मण्डित अने संस्कृत काव्यकृतिना उत्तम नमूनारूप आ स्तोत्र, अन्यत्र प्रकाशित होय तो ते ध्यानमां नथी. कर्ता- नाम अज्ञात छे. पार्नु १५मा शतकनुं होय तेम जणाय छे.
त्री स्तोत्र थोडंक अशुद्ध तो छे, परन्तु तेनी लखावट, अक्षरो जोतां ते उपाध्याय यशोविजयजीना हाथे लखायुं होय तेवू जणायुं छे. प्रथमना अढी श्लोक स्पष्टतः तेमना हस्ताक्षरमां छे. पछीनो अंश बीजा कोईए लखेलो छे. सम्भवतः तेमना गुरु नयविजयजीना ए अक्षर होय ! ऎथी शरु नथी थतुं तेथी यशो-रचना नहि होय; कदाच तेमना गुरुनी रचना होय !
___ युष्मद् अने अस्मद् शब्दना, साते विभक्तिनां एकवचन-द्विवचन-बहुवचनोने वणी लेतां पद्यो ते स्तोत्रनी विशेषता छे. छेल्ला पद्यमां 'अनुवि नयात्' शब्द कर्तापरक होवानुं अनुमान छे. आ स्तोत्र ऋषभदेवपरक छे.
उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजीए खम्भातना जैनशाळा-भण्डारमाथी आ पानां मेळवेलां, तेना परथी आ सम्पादन थयुं छे. तेओनो आभारी छु.
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सप्टेम्बर - २०१७
श्रीजैत्रसूरिकृतं श्रीवीतरागस्तवनम् ॥ शान्तं शिवं शिवपदस्य परं निदानं सर्वज्ञमीशममलं जितमोहमानम् । संसारमारवपथाद्भुतनिर्जरागं
पश्यन्ति पुण्यरहिता नहि वीतरागम् ॥१॥ अव्यक्तमुक्तिपदपङ्कजराजहंसं विश्वावतंसमनधैर्विहितप्रशंसम् । कन्दर्पभूमिरुहभञ्जनमत्तनागं पश्यन्ति० ॥२॥ दुःकर्मभीतजनताशरणं सुरेन्द्रैः निःशेषदोषरहितं महितं नरेन्द्रैः । तीर्थङ्करं भविकदापितमुक्तिभागं पश्यन्ति० ॥३॥ दान्तं नितान्तमतिकान्तमनन्तरूपं योगीश्वरैः किमपि संविदितस्वरूपम् । संसारनीरनिधिमन्थनमन्दरागं पश्यन्ति० ॥४॥ संसारनीरनिधितारणयानपात्रं ज्ञातैकपात्रमतिमात्रमनोन्यगात्रम् । दुर्वारमारघनवातनिशातनागं पश्यन्ति० ॥५॥ दारिद्रदुःखतरदावदुरन्तनीरं मायामहीस्फुटविदारणसारसीरम् । वाणीतरङ्गनवरङ्गमहातडागं पश्यन्ति० ॥६॥ कल्याणवल्लिवनपल्लवनाम्बुवाहं त्रैलोक्यलोकनयनैकसुधाप्रवाहम् । सिद्ध्यङ्गनावरविलासनिबद्धरागं पश्यन्ति० ॥७॥ कल्याणकीरविहिताश्रयकल्पवृक्षं ध्यानानलज्वलितमानमदातिकक्षम् । नित्यं क्षमाभरधुरन्धरशेषनागं पश्यन्ति० ॥८॥ श्रीजैत्रसूरिविनतक्रमयुग्मने(मे?)नं लीलाविनिर्दलितमोहनरेन्द्रसेनम् । [लीला] विलचितभवाम्बुधिमध्यभागं पश्यन्ति० ॥९॥
श्रीवीतरागस्तवनम् ॥
श्रीअम्बिकास्तवः ॥ ॐ महातीर्थरेवंतगिरिमण्डने जैनमार्गस्थिते विघ्नभीखण्डने । नेमिनाथांहिराजीवसेवापरे त्वं जयाऽम्बे ! जगज्जन्तुरक्षाकरे ॥१॥
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अनुसन्धान-७३
का महामन्त्ररूपे शिवे शङ्करे देवि वाचालसत्किङ्किणीनूपुरे । तारहारावलीराजितोरु(रः)स्थले कर्णताडङ्करुचिरम्यगण्डस्थले ॥२॥ अम्बिके हा स्फुरद्बीजविद्ये स्वयं ा समागच्छ मे देहि दुःखक्षयम् । द्रां द्रुतं द्रावय द्रावयोपद्रवान् द्रीं द्रुहि क्षुद्रसर्पेभकण्ठीरवान् ॥३॥ क्लीं प्रचण्डे प्रसीद प्रसीद क्षणं ब्लू सदा सुप्रसन्ने विधेहि क्षणम् । सः सतां दत्तकल्याणमालोदये हस्क्लँही नमस्तेऽम्बिकेङ्कस्थपुत्रद्वये ॥४॥ इत्थमुद्भूतमाहात्म्यमन्त्रस्तुत क्रौं समालीढ षट्कोणयन्त्रस्थिते । हा युतेऽम्बे मरुन्मण्डलालङ्कृते देहि मे दर्शनं हा त्रिरेखावृते ॥५॥ नाशिताशेषमिथ्यादृशां दुर्मदे शान्तिकीर्तिद्युतिस्वस्तिसिद्धिप्रदे । दुष्टविद्याबलोच्छेदने प्रत्यले नन्दनन्दाङ्किबे(ते) निश्चले निर्मले ॥६॥ देवि कूष्माण्डि दिव्ये शुभे भैरवे नाममन्त्रेण नि शितोपद्रवे । पाहि मामंहिपीठस्थकण्ठीरवे दुस्सहे दुर्जये तप्तहेमच्छवे ॥७॥ देवदेवीगणैः सेवितांहिद्वये जागरूकप्रभावैकलक्ष्मीमये । पालिताशेषजैनेन्द्रचैत्यालये रक्ष मां रक्ष मां देवि अम्बालये ॥८॥
श्रीअम्बिकास्तवः ॥
पं. श्रीनयविजयकृतं (?)
श्रीऋषभदेवस्तोत्रम् श्रेयः श्रीविहिताश्रयं श्रितजनाभीष्टार्थसम्पादकं नम्रानेकनरेन्द्रमौलिमुकुटालङ्कारचूडामणिम् । श्रीमन्नाभिनरेशवंशतिलकं कष्टेभकण्ठीरवं स्तोष्ये कोविदकोटिसंस्तुतगुणं देवं युगादिप्रभुम् ॥१॥ जीयास्त्वं भगवन् ! सुरेन्द्रनिवहस्त्वां सेवतेऽहनिशं त्रैलोक्यं सकलं त्वया जिनपते ! पूतं च तुभ्यं नमः । त्वद् दोषाः प्रगतास्तवैव शुभदं गोत्रं स्मरामि त्वयि ज्ञानं स्फूर्तिकरं विभाति दुरितध्वान्तप्रमाथोष्णरुक् ॥२॥ हस्तौ पूजयतं जिनं [वरयतु] श्रेयः सुखश्रीयुवां प्राप्ता पुण्यपरम्परा कुशलता भूयाद् युवाभ्यां सदा ।
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सप्टेम्बर - २०१७
दुःखानि प्रलयं गतान्यविकलान्येवं युवाभ्यां द्रुतं जातं जन्म फलेग्रहीह युवयोर्वासं श्रिते धी-श्रियौ ॥३॥ यूयं जातकठोरकर्मनिकरा युष्मान् हनिष्यत्यसौ युष्माभिविदितं नवा जिनपती रुष्टोऽस्ति युष्मभ्यकम् । युष्मत् सर्वगुणावलिविंगलिता युष्माकमल्पा मतिर्युष्मासु प्रथिता प्रवृत्तिरतुला सर्वापि य(ज)ज्ञे मुधा ॥४॥ अहं स्तुवे मां जिन ! तारयस्व, मया श्रितस्त्वं सुखमाशु मह्यम् । प्रदेहि, मद् दोषगणो विलीनो, ममाऽधिपस्त्वं मयि सद्दयावान् ॥५॥ आवामत्र नि[र]र्थको तुदति च प्रीतिश्च ता पूर्वजा(?)त्वावाभ्यां नितरां प्रकुप्यति फलं प्राप्तं सुकष्टावहम् । तुष्टिः पुष्टिमतीह नो बत बलं मोघीभवत्यावयोः संचिन्त्येति विभो ! गतौ गतमदौ त्वत् क्रोध-मानाविमौ ॥६॥ भक्त्या संविनुमो वयं प्रभुमथाऽस्माँस्तारयाशु प्रभो !ऽस्माभिस्त्वत्क्रमसेविता विरचिताऽस्मभ्यं स्वकां देहि गाम् । अस्मत् संहर कल्मषं जिनवराऽस्माकं त्वमेव प्रभुभक्तेषु प्रकुरुष्व देव ! करुणामस्मासु विश्वोत्तम ! ॥७॥ इत्थं तारितमां जिनेश ! विनुवे त्वामाश्रितत्वां मुदा पाया मां भवतस्त्वमीश ! विनुतत्वां संता(सेविता?)हं जवात् । भूयात्ते भविकावलिर्वरतरा सद्भक्तमह्यं प्रभो ! भक्ताराधिततुभ्यमश्नुवि नयात् सौम्यं शिवं देहि मे ॥८॥
इति युष्मदस्मच्छब्दसप्तविभक्तिवचनत्रयरूपगर्भितं
श्रीऋषभनाथस्तोत्रम् ॥
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अनुसन्धान-७३
श्रीजयशेखरसूरि-शिष्यश्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिविहितः श्रीऋषभदेवसिंहावलोकस्तवः (सावचूरिकः)
- सं. पं. कल्याणकीर्तिविजयगणिः
मध्यकालना साधु-कविओए असंख्य रचनाओ करेली छे. विविध कल्पनो, छन्दो, अलङ्कारो, भाषाओ, आ बधां ज वानांने माध्यम बनावीने आ कविओए कविकल्पनाना आकाशमां मुक्त उड्डयन कर्यु छे. भारतना कोई पण युगना अने कोई पण क्षेत्रना तथा धर्म-सम्प्रदायना कविओ तथा विद्वानोनी प्रसिद्ध अने प्रशंसाप्राप्त रचनाओनी होडमां तथा हरोळमां ऊभुं रही शके तेवं आ साहित्य ते गुजरातनी अक आगवी संपत्ति छे. जो के जैन साहित्य तरफनी भारोभार विमुखता तथा घणीवार तेजोद्वेष वगेरेने कारणे सांप्रत कविओ, विद्वानो, साहित्यिक, ते तरफ ध्यान जतुं नथी. परन्तु तेथी आ कविओनी काव्य-साहित्यसृष्टिने कोई आंच-ओछप आवे तेम नथी. मूल्यवान झवेरात हाथमां आव्या पछीये तेनी उपेक्षा करे तेने ज नुकसान थतुं होय छे.
प्रस्तुत 'सिंहावलोकस्तव' ए यमक अलङ्कारमय एक विद्वत्तापूर्ण सुन्दर स्तोत्रकाव्य छे. तेनी कविए ज रचेली अवचूरि पण साथे ज होवाथी काव्यने समजवामां सुगमता थाय छे.
___ आ कवि १५मा सैकामां थया छे. अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुङ्गसूरिना शिष्य हता; जयशेखरसूरि तेमना विद्यागुरु हता. तेओए चतुःपर्वीचम्पू, श्रीधरचरित्र, धर्मदत्तकथानक, गुणवर्मचरित वगेरे ग्रन्थोनी रचना करेली छे. पृथ्वीचन्द्रचरित्र नामे प्रसिद्ध गुजराती गद्य कृति पण तेमनी ज रचना छे. (सन्दर्भ : जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, मो. द. देसाई). कृतिनी प्रतिनी जेरोक्स नकल अमने क्यांकथी मळेली छे, ते उपरथी आ सम्पादन यथामति कर्यु छे.
मनो हरन्तं जगतो निरन्तरं, निरन्तरङ्गारिभयं स्वभावतः ।
स्वभावतः स्वर्गसदानतं सदा-ऽतं सदाभं वृषभं स्तुते न कः ? ॥१॥ अवचूरिः मनो० कः पुमान् वृषभं न स्तुते ? किं कुर्वन्तं ? निरन्तरं जगतो
मनो हरन्तं, स्वभावतः निर्गतः अन्तरङ्गारिभयं; स्वकीयभावत; स्वर्गसदो देवास्तैरानतं-नमस्कृतं, सदा अनतं-अगञ्जितं, सदाभंसत्प्रभम् ॥१॥
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सप्टेम्बर - २०१७
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स्तुतेन कः सर्वविदा सुधी-रतः, सुधीर तत्त्वे रमते न सादरम् ।
न सादरकुः कुरुते कलङ्किन, कलङ्किनं तस्य मनोनिशाकरम् ॥२॥ अवचूरिः हे सुधीर ! कः सुधीः सर्वविदा-सर्वज्ञेन स्तुतेन सदा सादरं तत्त्वे
न रमते ? किंविशिष्टः सुधीः ? रतः-आस्थावान्, सादः-खेदः, स एव रङ्कः-मृगः, तस्य मनोनिशाकरं कलङ्किनं न कुरुते किंविशिष्टं ? - कलं-मनोज्ञं, किनं-प्रकाशवन्तं, कः प्रकाश उच्यते
॥२॥
निशा करण्डस्तमसां न वासरो, नवा सरोजे कमला मला यतः ।
मलाय तत् किं रमते परे मते, परे मतेरीश ! मनो निशायिते ॥३॥ अवचूरिः निशा तमसां करण्डः वर्तते, वासरो-दिवसो न, यतः वासरान्(त)
सरोजे नवाऽमला कमला भवति; हे ईश ! तस्मात् कारणात् मनः परमते-शासने, मलाय-पापाय, कि रमते ? किविशिष्टे ? मतः
बुद्धितः, परे-दूरतरे, रात्रिवदाचरिते-निशायिते ॥३॥ निशायिते मोहभटे स्मरेहते, स्मरे हते कश्चतुरो भवानलम् ।
भवानलं यच्छतु तं शिवालयं, शिवा लयं यत्र सुखावली गता ॥४॥ अवचूरिः हे नाथ ! स्मर-चिन्तय, मोहभटे निशायिते-नितरां शायिते-स्थापिते
सति, स्मरे-कामे हते सति, कश्चतुरो भवानलं-भववह्नि, ईहते ? अलम्-अत्यर्थं, भवान्-त्वं, तं शिवालयं-मोक्षस्थानं, यच्छतु, यत्र
मोक्षे, शिवा-निरुपद्रवा, सुखावली, लयं-निश्चलं गता ||४|| वलीगतायद्विलसन्महा भवान्, महाभवान्मामव वारणादिव । रणादिव प्रेष्यमिमं विना त्वया-विना त्वयादाप्त स केन वार्यताम् ?॥५॥ अवचूरिः हे नाथ ! भवान् वलीगतायद्विलसन्महा वर्तते, हे नाथ ! वारणात्
-गजात्, इव रणात्-संग्रामात् इव, महाभवान्, इमं प्रेष्यं-मां, अवरक्षतु, पुनःअयात्-अनुकूलदैवतात्, हे आप्त-प्राप्त !, त्वया विना स-महाभवः, केन वार्यताम् ? कथंभूतेन त्वया? आविना-रक्षण
॥५॥
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अनुसन्धान-७३
नवार्यतां भक्तिरमा मनोरमा, मनो रमाऽऽदौ कुरु मित्र ! पावनम् । त्रपावनं ह्येनमकम्प ! नायकं, पनाय कण्ठे विलुठन्महास्तवः ॥६॥ अवचूरिः हे मित्र ! नवा-नव्या, मनोरमा-मनोज्ञा, भक्तिरमा अर्यतां-प्राप्यताम्,
आदौ मनः अत्यर्थं पावनं-पवित्रं कुरु, कथम्भूतं मनः ? त्रपया अवनं-रक्षणं, हि-निश्चितं, हे अकम्प !-निश्चल !, एनं नायकं
पनाय - बुहि(?), कथम्भूतः त्वं ? कण्ठे विलुठन्महास्तवः ॥६॥ महास्तव स्युश्चिरकम्प्रसादतः, प्रसादतस्त्रस्तपराभवा नवाः ।
भवानवाप्तो यदनेन साम्प्रतं, न साम्प्रतं दुःखकथादि शङ्कर! ॥७॥ अवचूरिः हे नाथ ! तव प्रसादतः नवा महाः - उत्सवाः स्युः, कथम्भूतात्
प्रसादतः ? चिरं कम्प्रः कम्पनशीलः सादः खेदो यस्मात्, कथम्भूता महाः ? त्रस्ताः पराभवा येभ्यः, ते हे शङ्कर ! - सुखकर !, दुःखकथादि न साम्प्रतं - न युक्तं, यत्-यस्मात् अनेन-मया,
साम्प्रतं भवान् वर्तते ॥७॥ दिशं करश्रीकलितां दिवाकरो, दिवा करोत्येकत एव शावकः ।
वशावक ! त्वं कलयन् स केवलं, सकेवलं भासयसे जगत्त्रयम् ॥८॥ अवचूरिः शावको-बालो, दिवाकरो दिवसे एकत एव - एकस्मिन्नेव विभागे,
दिशं प्राचीलक्षणां, करश्री:-तेजोलक्ष्मीः, [तया] कलितां करोति; हे वशावक ! - वशानां वशवतिनाम्, अवक-रक्षक!, स - त्वं, केवलं - सम्पूर्ण जगत्त्रयं भासयसे, किंविशिष्टः कलयन् ? स्वम्
- आत्मानं, सकेवलं - केवलज्ञानसहितं कलयन् ॥८॥ जगत्र ! यं पश्यसि भूरिभावना-रिभावनाशकविलास ! वत्सलः । स वत्स-लक्ष्मीकुशलैः समं ततः, समन्ततः स्वं समयं नयत्यलम् ॥९॥ अवचूरिः हे जगत्त्र !-जगत्पालक !, हे भूरिभावनारिभावनाशैकविलास ! -
भूरिर्घना भावना येषां तेषां अरिभावनाशाय एको विलासो यस्य, तस्य सम्बोधने; हे नाथ ! वत्सलः सन् त्वं यं पुरुषं पश्यसि सपुमान्, वत्स-पुत्र-लक्ष्मीकुशलैः समं, समन्ततः ततः-विस्तीर्णः सन् स्वं समयं नयत्यलम् ॥९॥
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न यत्यलङ्कारकलाविभूषितं विभूषितं किन्तु वचोऽममाऽनिशम् । ममाऽनिशं तेन महामहोदयं, महोदयं संभवतान्मनोहरम् ॥१०॥ अवचूरिः हे अमम ! मम वचः यति- अलङ्कार - कलाविभूषितं न वर्तते, किन्तु विभुना - स्वामिना, उषितं कृतवासं वर्तते, स्वामी स्तुतोऽस्तीति भावः; अनिशं-निरन्तरं, मम तेन कारणेन शं-सुखं सम्भवतात्, कथम्भूतं शम् ? अनि: -इ :- कामस्तेन रहितं निःकामं सुखमिति भावः, किंविशिष्टं शम् ? महामहोदयं, महान् महस्य - उत्सवस्य उदयो यस्मात्; तत्पुनः किंविशिष्टः ? महः - तेजो, दयते-ददातीति महोदयं, मनोहरं - मनोज्ञम् ॥१०॥
"
१९
पूज्य श्रीजयशेखरस्य सुगुरोः प्रौढप्रसादान्मया माणिक्योत्तरसुन्दरेण विहितः सिंहावलोकस्तवः । देवश्री ऋषभस्य तस्य पठने प्रीतिं परां तन्वतां भव्यानां भवतु प्रसन्नमनसां माङ्गल्यलक्ष्मीः सदा ॥११॥ इति वृषभस्तुतिः॥ अवचूरि : माणिक्योत्तरसुन्दरेण माणिक्यसुन्दरसूरिणा ॥ ११ ॥
इति श्रीवृषभस्य सिंहावलोकनस्य स्तवस्य व्याख्या सम्पूर्णा ||श्रीः ||
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अनुसन्धान-७३
जीरावला तीर्थना केटलाक लेखो
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
कोई मुनिवरे जीरावला तीर्थना मन्दिरमांना लेखो जेमां ऊतारी राखेला एवो एक कागळ अमारा हस्तकना संग्रहमां मळी आव्यो छे. लेखो जाते वांचीने ऊतार्या होय एम जणाय छे. जूना मन्दिरनी देवकुलिकाओ, चोकीयारा अने स्तम्भ ऊपरना लेखो छे. एक लेख वावनो छे. ११मा सैकाथी १९मा सैका सुधीना आ लेखो छे. जेवा मळ्या एवा लेखो अहीं कालक्रमे संकलित करीने मूक्या छे. आ लेखो क्यांय प्रगट थया छे के केम - तेनी जाणकारी नथी. कोईना ध्यानमां होय तो जणाववा विनन्ति.
संघो के समूहो यात्रा करवा आवता त्यारे देरासरना स्तम्भ ऊपर तेनो लेख कोतरवानी प्रणालिका हती. राणकपुर, मीरपुर वगेरे स्थाने आजे पण आवा लेख जोवा मळे छे. आजकाल जूनां मन्दिरोना स्थाने नवां मन्दिरो निर्माण करवानुं चलण वध्यु छे. जूना स्थापत्यना नाश साथे आवां ऐतिहासिक साधनो पण नष्ट थाय छे. प्राचीन जिनालयनी पवित्रता अने विशेषताओ पण नष्ट थाय छे, परन्तु तेनी चर्चा करवानुं आ स्थान नथी. आवां साधनो / प्रमाणो साचवी लेवा जेटली काळजी रखाय तो पण सारूं. जीरावलाना जूना मन्दिरमांना आवा लेखो साचवी रखाया छे के केम तेनी समज नथी. कोई महात्माए ऊतारी राखेला आ लेखो अहीं संगृहीत थई शक्या तेनो आनन्द छे.
शिलालेखो १. सं. १०३३ वर्षे पोस सुदि १४ सोमे श्रेष्ठि गुणसौभाग्य पुत्र प्रवास (?)
भाई हरभं पुत्र धरमसी... २. संवत् १३५१ वर्षे श्रीब्रह्माणगच्छ चैत्य मडाहडीय श्रीपुनसीह भार्या पद्मल
पुत्र पद्मसिंहेन जैनयुवेता (?) स्व (?) प्रतिष्ठितम्. ३. संवत् १३५१ वर्षे महा वदि १ सोमे प्राग्वंशे प्राग्वाड्गोत्रीय श्रेष्ठी साजन
सा.(भा.)राहल पुत्र पुवसी ढला सालहा लज्जालु (भा.जालु) (भा. पद्मल?) पुत्र पद्मसिंहेन श्रीभट्टारकनेमिसिंहेन प्रवरविजयसिंहसूरि ब्रह्माणगच्छे
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प्रतिष्ठा कारितम् । ४. संवत् १४२१ वर्षे उपकेशगच्छीय आचार्य श्रीकक्कसूरिपट्टालंकार
श्रीदेवगुप्तसूरिणा उपदेशेन. ५. संवत् १४८१ वैशाख सुदि १३ गुरौ श्रीअंचलगच्छे श्रीमेरुतुंगसूरिणां पट्टे
श्रीगच्छाधीश्वरजयकीर्तिसूरीश्वर... संवत् १४८२ खडतरगच्छ भट्टारक जिनराजसूरिपट्टे जिनवर्धनसूरि शा. ईश्वर सुत शा. अनन्थराज श्रेय... संवत् १४८१ वैशाख सुदि ३ बृहत्तपापक्षे भट्टारक श्रीरत्नाकरसूरिणामनुक्रमेण श्रीअभंग(?)सिंहसूरिणां पट्टे श्रीजयतिलकसूरीश्वर पट्टावन (?)भट्टारक श्रीरत्नसिंहसूरिणां उपदेशेन... सं. १४४६ वर्षे वैशाख वदि ११ बुधे ब्रह्माणीयगच्छे भट्टारक श्रीसोभद्र(?)सूरि पण्डितभद्रेश्वरसूरिपट्टे श्रीविजयसेनसूरिपट्टे श्रीरत्नाकरसूरिपट्टे हेमतिलकसूरि उपदेशेन... येषां प्रयत्नेन करापितम् । चतुष्किका (चौकीयारा) संवत् १४८३ वर्षे भादरवा वदी ७ गुरुदिने श्रीकृष्णर्षिगच्छे तपापक्षे श्रीपुण्यप्रभसूरि गच्छनायक श्रीजयसिंहसूरि उपदेशेन कलवग्रा[म] वास्तव्य गांधिगोत्रे ऊकेशवंशे शा. ढालू पुत्र शा. लोहग पुत्र शा. आमीज पांचाई (?) पुत्र शा. अजेसी बांधठ(व) सं. आसु श्रीजीराउलाभुवने चतुष्किका
शिखरं करापितं. शुभं भवतु. १०. (स्थान ?)
संवत् १४८३ वर्षे भादरवा वदि ७ गुरु श्रीमल्लधारिगच्छे श्रीमतिसागरसूरि पट्टे श्रीविद्यासागरसूरि उपदेशे कलवग्रा[म] वास्तव्य गां. गोत्रे शा. दलह पुत्र शा. पोमा करावितम्. चतुष्किका (चोकीयारा) सं. १४८३ वर्षे भादरवा वदि ७ गुरुदिने श्रीधर्मघोषगच्छे श्रीमलयचंद्रसूरिपट्टे श्रीविजयचंद्रसूरि नाहरगोत्रे उपकेशवंशे शा. आल्हा पुत्र साल्हा भार्या
११.
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अनुसन्धान-७३
मणीमद(दे) पुत्र संघवी रत्नसिंह पुत्र पासराज कलवग्रा. वास्तव्य श्रीजीराउलाभुवने चतुष्किका शिखरं कारापितं. शुभं भवतु. श्रीपार्श्वनाथ
प्रसादात्. १२. चतुष्किका (चोकीयारा)
तपागच्छे संवत् १४८३ वर्षे भादरवा वदि ७ गुरु श्रीतपागच्छनायक देवसुन्दरसूरिपट्टे श्रीसोमसुन्दरसूरि श्रीमुनिसुन्दरसूरि श्रीजयचंद्रसूरि श्रीभुवनसुन्दरसूरि उपदेशेन करापितं सौत्रानगरे श्रीमालज्ञातीय रंगरत्न चंपाई पुत्र
पृथ्वीरत्न श्रीजीराउलाभुवने चतुष्किका कारापितं. १३. (स्तम्भ)
सं. १४९२ पोस वदि १० बुधे श्रीवडगच्छे तपाभट्टारक श्रीजयशेखरसूरि तत्पट्टे श्रीवेरसेनसूरि तत्पट्टे श्रीहेमतिलकसूरिपट्टे श्रीरत्नशेखरसूरिपट्टे श्रीप्रश्नचंद्रसूरिपट्टे प्रताट(?) मुगटाः श्रीहेमहंससूरयः श्रीपार्वं प्रणेमुः
भक्त्या यनीतं (?) १४. (स्तम्भ)
श्रीरत्नसागरसूरि प्रभृति परिकरयुताः प्रणमन्ति पुन्यप्रभगणि-वज्रमेरुगणिलक्ष्मीसागरमुनि-यतिप्र. रत्नसुन्दरगणि आदियतिभिः म. बालूसा पुत्र मि.
ठाकोरसिंह सर्वे समायाताः शुभम्. १५. सं. १९८८ फागुण सुदि १३ वार रवि. सीरोही नरेश सरूपसिंहजी
(जीरावल) ठा. भोपालसिंहजी नीवक (?) गोत्रना अवेसा (?) चहुआण शा. जेठा ओपाजी (रामपुरा) वाला वाव बंधावी छे. जैन यात्रालुओने वो गायांने होद पर वाव बंधावेल छे. कोई घणी गायांने वा माणसांने पाणी पीवारी रोकटोक करे नही. करे तो छीपना- पाप. चमनजीना प्रयासथी शा. जेगजी ओवाजीए परब बंधावेल छे.
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विनयदेवसूरिकृत दान-शील-तप-भाव भाषा
- सं. उपा. भुवनचन्द्र श्रीविनयदेवसूरि नागोरी वड तपगच्छना युगप्रधान दादासाहेबश्री पार्श्वचन्द्रसूरिजीना शिष्य छे अने ब्रह्म, ब्रह्मो के ब्रह्मर्षि एवा उपनामथी प्रसिद्ध छे. सुधर्मगच्छना प्रवर्तक तरीके तथा कवि तरीके विद्वज्जगतमां तेओ जाणीता छे. 'जैन गूर्जर कविओ' तथा 'ऐतिहासिक रास संग्रह'मां आ कविना जीवन-कवन विषे घणी विगतो नोंधाई छे.
आ कविनी चार अप्रगट लघु रचनाओ एक प्रकीर्ण पत्रमा मळी आवी ते सम्पादित करीने अहीं आपी छे. लोकभाषामां रचना होय तेने 'भाषा' कहेता, पछी 'भाषा' एटले 'ढाळ' एवो अर्थ पण थवा मांड्यो. आम, आ चार ढाळ - चोढाळिया प्रकारनी कृति छे. विषय जाणीतो छ पण प्रस्तुति काव्यात्मक अने लोकभोग्य छे.
श्री जिन धर्म भाखइ चिंहु परइ रे, दान सील तप भाव रे, दान वडउं छइ धुरि तेहनइ रे, जेहनउ महाप्रभाव रे....... दान दीजइ रे अवसर आदरइ रे, जस हुइ दान अनंत रे, सालिभद्र जिम लीला लहइ रे, जोउ कुमर सुबाहु वृतांत रे... उंचा नइ गाजइ जलधर दानथी रे, समुद्र गया रसाताल रे, नीर न (ज?) खारुं केइ नइ उपगरइ रे, ए परि कृपण निहाल रे..... मेह विणू वूठा दीसइ सामला रे, वूठा ते भजइ उजास रे, जोउ नइ एहवो दान पटंतरउ रे, दानइं ते बइरी हुइ दास रे..... दातार हुइ जगि वाहलउ रे, जिम सहू आव्यउ वंछइ मेह रे, समुद्र न वंछइ कोइ आवतउ रे, जोउ विचारी एह रे..... दान न देस्यइ संपति जे लही रे, ते पछतास्यइ नरनारि रे, श्रीविनयदेवसूरि इम कहइ रे, दानइं ते पुहचइ भवपारि रे.....
इति दानभाषा ।
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अनुसन्धान-७३
मन-शुद्धि शील पालउ निरमलूं रे, सदा सीता जिम जाण रे, वाहर कीधी रामइं जिणि समइ रे, समुद्र तणा पासाण रे..... एह असंभव दीसइ वातडी रे, जोउ जोउ जाण विमास रे, सानधि करस्यइ सुरवर तेहनु रे, जे करइ सील अभ्यास रे. अगनि थइ रे सीलइ सीयली रे, सील सिणगार सरीर रे, बांधीनइ काचइ तातणि चालणी रे, काढ्यउ सुभद्रा नीर रे. सेठ सुदरसण गुणवंत जाणज्यो रे, लागा अंगि प्रहार रे, सील प्रभावई सघला ते थया रे, रतन जडित सिणगार रे..... सील प्रभावइं जोउ श्रीमती रे, थइ माला कुसुम भुजंग रे, पामइ ते कर कमलावती रे, नवपल्लव नवरंग रे..... भवियण जाणि मनि एहवउ रे, सूधउ सदा धरउ सील रे, श्रीविनयदेवसूरि इम कहइ रे, जिम लहउ सिवसुख नील रे.....
___ इति शीलभाषा
सोवन मल संगति तजइ रे, तेहनउ बहुलउ व्याप रे, इम इंधण घणा परजलइ रे, अगनि तणउ लही ताप रे..... तिम तप पाप करम खपइ रे, जीवडउ निरमल थाइ रे, बार प्रकार छइ तप तणा रे, मुगतिइं जेहथी जाइ रे..... सरवर मोटउ जलि भर्यउ रे, शोषइ आतप योग रे, प्राणी पाप घणा खपइ रे, तिम तपनइ संयोग रे..... हरिकेशी बल साधुनी रे, तपि सेवा करइ देव रे, च्यार हत्या शुद्धि जिणइ लही रे, दढप्रहार तिणि खेव रे..... अरजुन धन अणगारना रे, पगि लागू निसि दीस रे, जिम मनवंछित सवि लहूं रे, भणइ श्रीविनयदेवसूरीस रे.....
इति तपभाषा
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सप्टेम्बर - २०१७
दान शील तप जप क्रिया रे, भावई सफलां होइ, भाव विना करणी भला, फलदायक रे किमइ न होइ..... भावइ भवियण राचीइ, केवल लहइ रे भावई सार
जिम जोउ रे श्री भरत सिणगार..... पुत्रइ चिलाती तिणि खिणइ रे, उपशम संवर वाणि, वलिय विवेक वचन थकी, सुर पदवी रे लहइ निरवाण..... श्री आषाढमुनीसरु रे, पुत्र इलाती जाण, भावप्रभावि केवल लहइ, वलि हरणलउ रे अमर विमाण..... इम जाणी भावई करी रे, पालउ सयल आचार, श्रीविनयदेवसूरि इम भणइ, भावइ लहियइ रे भवसागरपार.....
इति भावभाषा
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ब्रह्म रचित हरियालीओ
उपा. भुवनचन्द्र
हस्तप्रतोना भण्डारोमां 'प्रकीर्ण पत्रो' के 'फुटकर पानां' अथवा 'स्फुट पत्र' तरीके नोंधातां लखेलां छूटां पत्रोमां विविध प्रकारनी कृतिओ संगृहीत होय छे. विविध माहिती, दूहा, छन्द, पद, गीत, सुभाषित, समस्या, गूढा अने प्रहेलिका जेवी सामग्री आवां छूटां पानाओमां ज प्रायः मळती होय छे. उच्च कोटिनां स्तोत्र के काव्य आवा पत्रोमा जोवा मळे ! क्यारेक मोटी प्रतनां पत्रो विखूटां पडीने आवा प्रकीर्ण पत्रोनां ढगलामां दटायेलां पड्यां होय छे. आम, प्रकीर्ण- फुटकर पत्रोनां बण्डलो हस्तलिखित साहित्यना एक महत्त्वना स्रोतनुं स्थान धरावे छे. एक नानकड हस्तलिखित कागळना टूकडाने पण साचवी राखवानी पूर्वजोनी आ परम्परा / परिपाटीना कारणे ज्ञाननो वारसो सचवाई रह्यो छे.
अनुसन्धान-७३
E
*
नागोरी वड तपगच्छना श्रीपार्श्वचन्द्रसूरिजीना शिष्य विनयदेवसूरिए 'ब्रह्म' उपनाम धारण करेलुं; ब्रह्मर्षि, ब्रह्म, ब्रह्मो एवा नामे तेमणे संख्याबन्ध कृतिओ रची छे. आ विद्वान कविए धर्मचर्चा उपरान्त हरियाली जेवी रचनाओ पण करी छे ए जाणीने आश्चर्य थाय ! आ कविनी हरियालीओ प्रकीर्ण पत्रोमांथी मळी आवी, अहीं संकलित करीने, सम्भावित उकेल साथै प्रस्तुत करी छे.
परिहरी पाप पोता तणूं, पूजउ प्रहसमइ पाय रे, वीस नयण दस वयणडां, दीसइ जासु बे पाय रे...... देव ते परखउ पंडिता, जे द्यइ मुगतिनूं राज रे, भगतनी भीड भंजइ सदा, सारइ वंछित काज रे...... दोइ कर उगणीस जीभडी, दोइ जीवना नाम रे, एक सेवक इक राजीयउ, वसइ एकणि ठामि रे...... अंग बे अंजन पुंजला, गुणि ऊजला दोइ रे, देव ते सेवतां ब्रह्म कहइ, सुख अविचल होइ रे...... ४
उत्तर : नव फणा युक्त धरणेन्द्र अने पार्श्वनाथ भगवान
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एक पुरुष छइ सहिजई सुंदर, वर्णइ श्वेत कहाइ, नारि मनोहर साथइ लीधी, कहयइ विरहउ न थाइ..... १ विदुर विचारज्यो हो, एहनउ अरथ कहउ लहि भाव, अठसठि छोरु तेहना हुआ, अधि न भेटी भाव..... २ नरि नारी सउं छेहडा बंध्या, कहियइ बालकुआरि, तिणि नारी ते पुरुष न दीठउ, पुरुषि न दीठी नारि..... ३ ए बेवइ ब्रह्मा नीपाया, जोवउ जगनी रीत, तेहनइ बेटइ ब्रह्मा जायउ, बेटि मधि गावइ गीत..... ४ जे नरनारी एहनइ वंचइ, ते पामइ शिवराज,
वरस पंचकी अवधि कही, अथवा कहिज्यो आज..... ५ उत्तर : कागल, शाही, नवकारना ६८ अक्षर, चूलिकाना ३३ अक्षर. कागल-शाहीनो बेटो अक्षर, तेणे ब्रह्माने-अर्थने जन्म आप्यो, बेटी सरस्वती।
03
مر
به
नारि नवरंगी एक छइ, पूरी न्यानि विन्यानि रे, कला चउसठि भरी पदमिनी, नहीं एकणि मानि रे. पंडित ! पदमिनी कवण ते, जोउ निरखीय नेत्रि रे, देशि-विदेशिइं जाणीइ, वसइ भल भलइ खेत्रि रे... सीखइ तेहथी सवि कला, न जाणइ कांइ आप रे, नवि जणी परणीय पुण नही, न लागइ पुण्य पाप रे..... २ अंखि आंजी रही गोरडी, देखइ नहीय लगार रे, पुण नवि आंधी सो कहइ, पहिरइ वस्त्र शृंगार रे..... ३ पूठि पूरी बिहुं पखी भली, पुण पे...[?][पंखी] न कहाइ रे, नीर न पीअइ नवि त्रिसी, कइयइं अन्न न खाइ रे.... ४ टीली टबके चांदलो, सोहइ अति घण अंगि रे, नारी रुडी परखी करी, ब्रह्म कहइ जोओ रंगि रे..... ५ उत्तर : पोथी
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अनुसन्धान-७३
देवना देव जे नयणि न देखइ, देवता नवि लहइ जेय, अवर प्राणी सुखिइ ते घणूं पामइ, दुखि पुण नवि तजइ तेय जिनराया तेहनउ संग मूंकावि, जिम तुझ नमूं अविहड भावि... १ आवती जाती जेय जणाइ, आवती ते न जणाइ, दुख वीसारणी बहु दुख कारिणी, आवती सहूनई सुहाइ..... कामणगारी नारि ए निरगुणी, जगमाहइं जसु घणउ व्याप, अति घणी तेहनी केडि लेस्यइ सही, जेहनइ पोतइ पाप..... ब्रह्म कहइ जि को एहनी, संगति टालस्यइ साधु, मुगति सुख अविचल ते नर पामस्सइ, परिहरी सयल आबाध.... ४ उत्तर : निद्रा
वर्ण-गंध-रस-फास विवर्जित, या सम अवर न दूजउ, वर्णादिक विणु कहयउ न जाइ, ताहि निरति करि बूजउ हो संतन अहनिसि हो मन प्रीति, हमि तु, वासे तीहइ लाइ, भाईओ, लहउ खट मास विचारी, देहु भांति सुमझाइ.... १ बहु जन कहते सोइ हमि पायउ, किनही न देखि दिखायउ तास नाम परिणाम अउर परि, जग भीतरि हरमा [खा]यउ... २ एक नर एक नारी मिली, विणु पाय चलावइ रे, ब्रह्मचारी धर्मवंत नइं, घणूं तेय सुहावई रे..... पांच मोटे रहइ परिवरी, नाचइं संचरइ साथि रे, ब्रह्म कहइ जिको ते धरइ, ते न लहइ अणाथि रे..... ४ उत्तर : आत्मा
जेहथी उपनी तेहनइं, लेइ रही सर्व काल रे, जेणि उपायी तेहसूं, रमइ रंगि रसाल रे.....
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सप्टेम्बर - २०१७
पंडित! नारि ए कुण कहउ, न बोलइ न आहारइ रे, नव नव रंगि रमइ सदा, पाप संगति वारइ रे.... २ सकल गुणइं पूरी गोरडी, नरनारि नइ संगि रे, विलसती सील खंडइ नंही, न दीसइ दोस अंगि रे.... ३ जिनरागी जिन नामि लहइ सुइ, चिति भीतरि अति रीझइ,
कहति ब्रह्म ए भाउ हृदय धरि, एह विना नहु सीझइ.... ४ उत्तर : जिनवाणी
पीत वर्ण परि होइ न कंचन, वर्ण रहित अब सोइ, नाम विना कोइ ताहि न लखही, नाम विना ते होइ.... १ विदुर विचार करि हो, याकउ भाउ कहउ समझाइ, अवधि आथि इह पंच वरसकी, पंडिति शीघ्र कहाइ..... २ आथि सुगंध सहजि ते सुंदर, चंदन नाहि कपूर, हरति ताप फुनि होइ न ससिहर, करति प्रकास [न] सूर... ३ ताहि नमइ कवि ब्रह्म निरंतर, आनी त्रिकरण सुद्धि,
स्वामि भगत सो सहजई पावइ, जिहकी निरती बुद्धि..... ४ उत्तर : शीतलनाथ भगवान ?
सकल शास्त्र आगम धुरि सोहइ, जग जन मोहइ रूडी, अरथ न जाणइ पढीया पंडित, पुण को न कहइ कूडी जी.. ए० १ ए हियाली रिदिय विचारी, अवधि छह मासह आपी, जोइ ग्रंथ अरथ सवि सुंदर, अरथ दीउ तसु थापी जी..... ए० २ तेहनी आण नफर दोइ पालइ, एक भंडारह कोठी, जाण हूंता ते तेणइ लुबधा, मूरिख नाठा उठी जी..... ए० ३ तास पूंठि दोइ सेवक पूरइ, एतली तसु चतुराइ, श्री ब्रह्म कहइ ए कुण ठकुराणी, घउ पंडित समझाइ जी... ए० ४ उत्तर : लहियाओ ग्रंथना प्रारम्भे 'भले मींडु'- चिह्न लखे छे ते : ॥॥
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अनुसन्धान-७३
"चसिमा अर्थ महित स्वाध्याय"
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय __मुनि सुजसचन्द्रविजय
हमणां थोडा समय पूर्वे कवि सर्वविजयजी कृत 'पुण्डरीकशब्दगर्भित जिनस्तोत्र' नामनी संस्कृत भाषानी लघुकृतिनुं सम्पादन करवानुं बनेलं. 'पुण्डरीक' शब्दनो जुदा जुदा प्रयोगो द्वारा १०० वार उपयोग करी कविए पोतानी तीव्र मेधानो एमां परिचय करावेलो. कदाच ते कृतिनी टिप्पणवाळी प्रत न मळी होत तो तेना वगर मूळ कृतिनुं सम्पादन करवू अशक्य थात.
ते कृतिनुं सम्पादन करती वखते एक विचार आव्यो हतो के आवी कृतिओ शुं फक्त संस्कृत भाषामां ज मळती हशे ? के गुजराती वगेरे भाषामां पण आवी कृति रचाई हशे खरी ? थोडा समय बाद उपरोक्त प्रश्नना उत्तररूपे अमने 'चसिमा अर्थ महित स्वाध्याय' नामनी प्रस्तुत कृति जोवा मळी. 'पुण्डरीक' शब्दनी माफक अहिं कविए 'चसिमा' शब्दना प्रयोग द्वारा पोतानी विद्वत्ता प्रगट करी छे. कृति मध्यकालीन गुर्जर भाषानी होवाथी तेमां देश्य शब्दोनी छांट पण जोवा मळे छे. कृतिना कर्ता पोते ज प्रतिना लेखक होवा छतां तेमणे करेली अनुस्वारादिकनी बहुलता, के पाठलेखननी अशुद्धिने कारणे कृतिनुं सम्पूर्णपणे संमार्जन करवू अशक्य हतुं. तेथी बनता प्रयत्ने पद्योना अर्थो बेसाडी कृति समजवा प्रयत्न कर्यो छे. कृतिसम्पादनमा सहाय करवा बदल प.पू. उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजी म.सा.नो खूब खूब आभार. साथे कृतिनी हस्तप्रतनी झेरोक्ष सम्पादनार्थे आपवा बदल श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरना व्यवस्थापक श्रीयतिनभाईनो पण आभार. कृतिपरिचय :
आम जुओ तो सम्पूर्ण कृति उपदेशात्मक छे. पण कविनी विद्वत्ताए कृतिने फक्त उपदेशात्मक न राखता विद्वत्तासभर बनावी दीधी छे. प्रथम ढाळमां कविए 'चसिमा' शब्दनी आगळ मा, सं, टां, सां जेवा विभिन्न अक्षरसंयोजनो प्रयोगी जीवे शुं शुं न करवू जोईए तेनो उपदेश आप्यो छे. दा.त. [हे जीव!] तूं आठ मदमां राचीश नहीं, [हे जीव!] धन पामी तेनो संचय न करीश वगेरे वगेरे. ज्यारे बीजी ढाळमां कविए नीच व्यक्ति कोणे कहेवाय ? तेनी वात रजू करी छे. दा.त. - जे राजसन्मान पामी मान करे ते नीच, जे चारित्र अने ज्ञान पामी माया करे ते नीच वगेरे वगेरे. जो के पहेली तेमज बीजी ढाळमांनां जे केटलांक पद्यो अमने अस्पष्ट रह्या छे
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ते पद्योनी पछी अमे प्रश्नचिह्न कर्यु छे. विद्वानो तेना अर्थ तरफ अमारुं ध्यान दोरशे तेवी आशा छे. कृतिसम्पादनमां वाचकोनी सरळता माटे अमे व्यर्थ अनुस्वारोने काढी नाख्या छे. साथे साथे क्लिष्ट शब्दनो कोश पण अहीं साथे ज रजू को छे. कृतिकार परिचय :
श्रीसोमविमलसूरिजी मूळ खम्भातना कंसारी गाममां पोरवाळ शाह रूपवंत - अमरादेवीना पुत्र हता. तेमनुं गृहस्थपणा, नाम हतुं जसवंत. सं. १५७४मां तेमणे श्रीहेमविमलसूरिजीना हाथे मुनिसौभाग्यहर्षसूरि पासे दीक्षा ग्रहण करी, 'मुनि सोमविमल' एवा नामथी गुरुनिश्रामां रही घणा ग्रन्थोनो अभ्यास कर्यो. गुरुभगवन्ते पद-योग्य जाणी तेमने सं. १५९० मां गणिपद, १५९४ मां पंन्यासपद, १९९५ मां उपाध्यायपद तथा सूरिपद आप्यु, तेम ज सं. १६०५मां तेमने गच्छनायकपद प्राप्त थयु. तेमने आनन्दसोमसूरि, हंससोमसूरि, देवसोम गणि वगेरे २०० शिष्योनो परिवार हतो. गौतमपृच्छा (टब्बो), श्रेणिकरास, नवतत्त्वालोक वगेरे घणा ग्रन्थोनी तेमणे रचना पण करी छे. प्रस्तुत कृति पण तेमनी ज रचना छे जे तेमणे गच्छनायकपदे बिराज्या बाद रची छे.
१
२
॥ ६०॥ श्रीसोमविमलसूरिगुरुभ्यो नमः ॥ प्रणमु परम पुरुष परभावि, मनोरथ सीझइ जास प्रभावि, अवइरल वाणि सदा वरसती, व, सरसति मा[त] वर सती मोटुं भारतिनुं भंडार, शब्दरयणर्नु जिहां नहीं पार, जेहथी लहीइ अरथ अनेक, चसिमां शब्द हुं लेइ एक शब्द अमूलिक अर्थ अनंत, ते भाखि जाणइ भगवंत, मझ मूरखनइ करवा अर्थ, इच्छा छइ पणि छठं असमर्थ करिया अर्थ संगय गमे केतले, ति(ते) कविजननइं हुं पगतले, श्रीजिन सहिगुरु सरसति माय, पामो तेह तणु सू(सु)पसाय कहिसु अर्थ हुं एकसू(१००) एक, लोकभाषाई तास विवेक, बोल कया केता भाखना, सू(सु)णज्यो सज्जन एक मना चसिमां मंत्र जीवे तुझ भणउ, चसमा धरीनइ वांचे घणउ, माचसि मा आठइ मद साथि, संचसि मा पांमी धन हाथि राचसि मा जीव किस्यइ कुकर्मि, ठेचसि मा तुं कहिनइ मर्मि, टांचसि मा मदिरादिक दक्ष, सांचसि मा जे भुंडउ वृक्ष
५
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अनुसन्धान-७३
वींचसि मा पर केरु लेख, मचिसि मा स-जिहां भुडु लेख, खंचसि मा दान देता हाथ, मींचसि मा आं(आ)ख्यि देखी नौ(ना)थ ८ -चसि मा अणहुंत लाभि, रेचसि मा स्त्री हुंतइ गाभि, "ठेचसि मा आहार निज पेट, गूंचसि मा सुग्रंथि नेटि९ ९ घोचसि मा जो लोचन किसिइं, ही[चसि मा] डाली रमा(म)वा मिसिइं, मोचसि मा रे सुभाषित लही, ईंचसि मा धन रमता सही. १० सूचसि मा कहि केरुं छिद्र, कपट रचसि मा वंछी भद्र, सोचसि मा जे वस्तु ज गई, लांचसि मा रे कुमाणस जई पाँचसि मा मूरख ईटवाह, घरवासि लोचसि मा साह, कृपण प्रति याचसि मा जीव !, दुखि लोक [क]रत रीव १२ अरचसि मा तुं कुगुरु कुदेव, कुचसि माठा यौवन हेव, कैचसि मा मइ जु डाहु होइ, कुंचसि माठउ न समारिउ जोइ(?) १३ खीचसि मा जुखामइ खीर, क्रोंचसि मारइ विष सूचक वीर, पाप कर्मि खूचसि मा सही, फीचसि मा मूरख ग्रास लही १४ जी[व!] तु न जोइ घांचसि मागि, पांचसि मांनइं नहीं आविइ लागि(?), संचसि मांडइ जु नहीं कूड, डूंचसि मा मोटुं भाड-भंड १५ टांचसि मा जु नही अपराध, लींचसि मारगि जाता लाध, ऊंचसि मांठउ करतु संग, वंचसि मा निज वर्ग सुरंग १६ चरचसि मा मंत्राक्षर लही, वीचसि माणसनई स्युं सही, वांचसि मांठी जु बोलि पलइ, मीचसि मोढुं [दि?]जु धन मिलइ१७
॥ माइ ! धन सपुत्र - ए ढाल ॥ नीच सि मांन आणइ पामी रज सन्मान, . नीच सि माया करइ लही चारित्रनइ ज्ञान, नीच सि ५६मांनि नाणइ परिग्रह जु विवेक, नीचसि मार्दव नहीं जु यतिव्रतधारक. १८ तुं नीच सि ५७मास्युं कलह करइ सत्पुत्र, नीच सि ५८मांदल तुं न सीखइ जु साद अपवित्र
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नीच सि मांहि ५९न्हाणुं न करइ जु मिच्छत्त, नीच सि माहरु करइ जु जाणइ सवि तत्त. १९ जु द्रव्यि पूरुं नीच सि ६°माल न पहिरइ, नीच सि माहोमाहि "वढइ जु नितु नितु वुहरइ, नीच सिमागमू कीउ वढि जाइ जु संत, नीच सि मांगतनइ दांन न दि जु धनवंत. २० नीच सि माणस रेतउ(?) लखइ६५ जु सुसमर्थ, नीच सि माथइ भार लि जुडीलि६ असमर्थ, नीच सि माम मूंकइ जु तु अछेइ ६ सलज्ज, नीच सि मामा-घरि रहई जु पितृपक्ष "सकज्ज. २१ नीच सि मानव भव न समारइ जु °सधर्म, नीच सि मांसी-तप न करइ जु तुं सकर्म, नीच सि ३माल मेलइ जु तुं दान [न] दीइ, नीच सि मालिणिस्युं मिलइ जु सांन हुइ हईइ. २२ नीच सि मात्राधिक जिमइ जु डीलि सरोगी, नीच सि माटी खाइ जु पंछि नीरोगी, नीच सि ५माटीपणुं करि जु किंपि न चालइ, नीच सि मांरूपई (?) अपवीत्र नीर न झालिइ. २३ जु वैद्य ! तु न भणइ नीच सि माधवनिदान, नीच सि मा डाहु थाइ जु नहीं ज्ञान (?), तुं नीच सि माणिक मूंकीनइ लि काच, नीच सि माछीस्यु चु(वु)हरइ जु धर्म साच. २४ नीच सि मांहि बाहरि जूउ प्रीति ठांम, नीच सि मांकड परि चपल जु ध्यानि काम, नीच सि मां मासी सरिखा गणइ जु जाति, नीच सि मान्यु जे न करइ जु वंछइ ख्याति. २५ नीच सि मा बली(?) करइ जु साहमु बलवंत, नीच सि माखिक खाइ जु विरतीनुं मंत,
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अनुसन्धान-७३
नीच सि रमाश वावरइ जु श्रावककुलि जम्म, नीच सि माखण जिमइ जु जाणिइ जिण-धम्म. २६ नीच सि माखी न जोइ जु अन्न ८३नाखइ, नीच सि "माल खाइ जु ५सालि पोतइ राखइ, तुं नीच सि ८६मांडा गोहुं छतइ न खाइ, नीच सि "मांणि “मांडइ जु कोडिउं न घडाइ. २७ नीच सि ९°मातु(?) देखी खीजइ जु रे अधर्मी, तुं नीच सि मांगलिक न बोलइ बोल ९सकर्मी, नीच सि मांदु थइ न करइ धर्मनुं काम, तं नीच सि ९२मावे(चे) कलह कुगतिनुं ठाम. २८ नीच सि ९३मातुलिंग तुं कर जु डीलि छइ सीत, ९"वि(वं) चसि मा शुभ कर्म करतु माहरा मीत्त, ९५विचसि मा कहिस्युं लाई (?) कूड चरीत्र, "विहचसि मा भाईस्युं जु सुसमर्थ पवित्र. २९ ९८आलोचसि मा तुं जिहां जाणइ अन्याय, ९९विगुचसि मा जीव तुं धन छतइ करी उपाय, १० संकोचसि मा मित्रधामि मन मेलंतु,
कुठामि प(ख)रचसि मा निज धन हर्ष धरंतु. ३० १० पुहचसि मा कुगति पाप करीनइ प्राणी,
सूखकर साचइ मनि धर्म करे हित आणी, १०वोचसिमा बोलना अर्थ एकसु एक, श्रीसोमविमलसूरि जंपइ करी विवेक. ३१ श्रीविक्रमनृपथी संवत्सर सत सोल, बत्रीसइ श्रावणि शुदि सातमि रंगरोल, नक्षत्र शुभ स्वाति अहमदावादि अर्थ रचिया ए भणतां सीझई सघला अर्थ. ३२ इति श्रीचसिमा अर्थ महित स्वाध्याय ॥
परमगुरु गच्छाधिराज-श्री५सोमविमलसूरीश्वरैः कृतः ॥
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सप्टेम्बर
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तेषां णाय (तेषामान्माय) श्रीआणंद सोमसूरिश (शि) ष्य लक्ष्मीसोममुनि लिखितं ॥
संघवी लखमण भार्या अजाई पुत्री हंसाई पठनार्थं ॥ श्रीरस्तू ॥
१. अवइरल अविरल, सतत
=
२. संगय संगत, अनुरूप
३.
चसिमा
?
४.
चसमा =
५.
माचसि
६. संचसि
=
२४. सूचसि २४b. सोचस
=
=
=
=
=
—
चश्मा
माचवुं, आनंदित थवुं २८. याचसि = याच
भेगं कर
पोकार
७. राचसि
राचवुं
८. ठेचसि = मार मारवो
९. टांसि आकंठ पान करवुं
१०. सांचसि
साचव
११. भुडउ = खराब, भूंडुं
१२. वांचसि
वांचन करवुं
-
१३. माचसि १४. खंचसि
? ( माचवुं ? ) अटकवुं (खंचकावुं) १५. मींचसि बंध करवी (मींचj) १६. रेचसि = जुलाब आपवो (रेच) १७. ठेचसि = वधु पडतुं भरवुं (ठांसवुं)
=
= एकदम वधु गाढ
१८. गूचि गुंथ (गुंचवj) १९. नेटि २०. घोचसि २१. हीं सि
? (घोंचवूं ?)
२२. मोचसि
२३. ईचसि
=
=
=
=
=
कल्याणमस्तू ॥ छ ॥ छ ॥ छ ॥
=
=
शब्दकोश
हींको खावो (हींचj) छोडवुं, भूलवुं (मूकवुं) मुंकवुं (जुगार रमवा )
२५. लांचसि
२६. पाचसि = पकव २७. लोचसि (आलोचना)
=
=
३६. जुखामइ ३७. क्रौंच
=
अर्चन कर
२९. रीव ३०. अरसि ३१. कुचसि ३२. कसि = ? (कच कच ? )
? ( कूचा करवा ? )
३८. खूचसि ३९. फींचसि ४०. घांचसि
३३. डाहु ३४. कुंचसि = ३५. खीचसि
=
४१. मागि =
४२. पांचसि
४३. संचसि
४४.
मांडइ
४५.
डूचसि
=
=
बताडवुं (सूचववुं)
शोक करवो (शोचवुं) ४६. भाडभूंड
=
=
=
=
=
=
लांच लेवी
=
टीका, निंदा करवी
?
=
३५
आवुं (खेंच)
तावमां ? ( जुकाम)
= ?
= ? (संचित करवुं ?)
? (मांडे)
?
डूबवुं (खूची जवुं)
तिरस्कार करवों
मार्गमां
खूंची जवुं (घांचमां
पडवुं)
ठांसी ठांसी भरवुं
(डूचा भरवा )
नकी
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अनुसन्धान-७३
४७. टांचसि = जप्ति राखवी (टांचमां ७६. माछी = हलको माणस लेवू)
७७. वुहरइ = ? ४८. लींचसि = ?
७८. मांहि-बाहरि = अंदर-बार ४९. ऊंचसि = ?
७९. जूउ = जूओ = जूदो ५०. वंचसि = छेतरवू (वंचना) ८०. मांकड = वानर ५१. चरचसि = चर्चा करवी ८१. मांखिक = मध ५२. वीचसि = वहेचवो (?) ८२. माश = मांस ५३. वांचसि = (वांचवू)
८३. नाखइ = वापरे ५४. मीचसि = बंध राखवू, मौन रहेवू ८४. माल = एक प्रकारचें घांस (मींचवू)
८५. सालि = चोखा ५५. नीच सि = ते नीच छे ८६. मांडा = घउंना रोटली-रोटला ५६. मानि = माप
८७. मांणि = घडो/पाणी भरवानी गोळी ५७. मांस्यु = माता साथे
(माण) ५८. मांदल = एक प्रकारचें वाद्य ८८. मांडइ = बनावे ५९. न्हांणु = स्नान
८९. कोडिङ = छीबु । ढाकणुं ६०. माल = माळाविशेष (अलंकार) ९०. मातु = रच्यो-पच्यो (?) ६१. वढइ = झगडवू (वढवू) ९१. सकभी = सारा कार्यमां ६२. वुहरइ = व्यवहार करे (वहोरे) ९२. मांचे = खुश थाय ६३. सिमागमू = समागम
९३. मातुलिंग = एक औषधनुं नाम ६४. वढि = ? (वढ-ठपको)
___ (बीजोरु) ६५. लखइ = ? (लखवू?) ९४. वि(व)चसि = चूकीश ६६. डीलि = शरीरे
९५. विचसि = ? ६७. माम = मोटाइ
९६. लाई = ? ६८. सलज्ज = शरम वाळो ९७. विहचसि = छूटा थर्बु (वहेंचवें) ६९. सकज्ज = समर्थ ?
९८. आलोचसि = निंदा करवी ७०. सधर्म = सद्धर्म ? वाळो
(आलोचवू) ७१. मासी तप = महिनानो तप ९९. विगुचसि = ? ७२. सकर्म = सारा कर्म (पुण्य)वाळो १००. संकोचसि = मुंझावं (संकोचावू) ७३. माल = धन दौलतादि मेळवे १०१. पुहचसि = पहोचवू ७४. मालिणि = हलकी स्त्री १०२. वोचसि = ? ७५. माटीपणुं = धणीपणुं [नोंध : ( )मां लखेला अर्थो अनुसन्धानना सम्पादकना छे.]
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श्रीमुनिविजय उपाध्याय रास
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय
हीरविजयसूरिजीनां कार्योथी तथा तेमना प्रभावथी प्रायः दरेक विद्वानो परिचित हशे. तेओ पोते समर्थ विद्वान तो हता साथे प्रचण्ड पुण्यशाळी हता. तेमणे पोताना शिष्योने पण पोताना जेवा ज बनाव्या. सवाईहीर विजयसेनसूरि, मान्त्रिक श्रीशान्तिचन्द्रजी उपाध्याय, कवि सिद्धिचन्द्र, भानुचन्द्रजी, विशिष्ट चारित्रसम्पन्न मुनि प्रेमविजय, ते सिवाय पण रत्नविजय, हेमविजय वगेरे तेमना प्रतिभासम्पन्न शिष्यप्रशिष्यो हता. माटे ज तेमनो काळ 'हीरयुग' तरीके ओळखायो. आ ज युगमां हीरविजयसूरिजीना गुरु विजयदानसूरिजीनी बीजी शिष्यपरम्परामां उपा. श्रीराजविमलजीना 'उपा० मुनिविजयजी' नामे प्रभावक शिष्य थया हता. अहीं आपणे तेमना चरित्रनी केटलीक वातो काव्यना माध्यमे जोईशु. कृतिपरिचय :
__पांच जिनेश्वरोने तथा सरस्वती देवीने नमस्कार द्वारा कविए सौ प्रथम रासनुं मंगलाचरण कर्यु छे. त्यार पछीनी ढाळमां कविए अनुक्रमे चरित्रनायकना जन्मस्थान वीसलनगरनी, पिता केसव तथा माता सोमाइना गुणोनी वर्णना करी छे. देवलोकथी कोई दैवी जीव गर्भमां अवतरता माताने आवेला सिंहना स्वप्ननी, पुण्यशाली पुत्रने कारणे थयेला शुभ दोहदोनी तथा नव मास पूर्ण थतां कराता पुत्रजन्म ओच्छवनी वात आ ज ढाळमां जोवा मळे छे. ढाळना अन्त्य पद्यमां आलेखायेल 'मेघनी जेम पुत्र पण जगतने कल्याणकारी थाय' तेवी सद्भावनाथी पुत्र, मेघजी नाम पाड्यानी वात रजू करवा द्वारा कविए पिता केशवना हृदयनी विशाळता पर प्रकाश पाथर्यो छे.
सामेरी रागमां रचायेली त्रीजी ढाळमां कविए मेघजीना देहलावण्यनुं तो सुन्दर वर्णन कर्यु ज छे, साथे साथे तेमना आन्तरिक गुणोनी पण वर्णना करी छे. विहार दरम्यान वीसलनगर पधारेला राजविमलसूरिजीना उपदेशथी वैराग्यवासित थयेला मेघजीना भावोनी रजूआत तथा माता-पितानी पासे चारित्रग्रहण करवानी अनुमति मांगता थयेला संवादनी संवेदना कविए चोथी ढाळमां गूंथी छे. पांचमी ढाळनी शरुआतमां कविए मुनिविजयजीना सुन्दर चारित्रपालननी, पछीनां थोडां पद्यो द्वारा मुनिश्रीना अध्ययननी तथा पदप्रदाननी तेमज शेष पद्यो द्वारा भाई लखराजने प्रतिबोधी 'लब्धिविजय' नामे संयम प्रदान कर्यानी, वळी तेमनी साथे सिद्धगिरिनी यात्रा कर्यानी
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अनुसन्धान-७३
ऐतिहासिक हकीकत आलेखी छे. आ ज ढाळमां रजू करायेल लब्धिविजयजीनी गुणस्तवना पण काव्यनी महत्त्वपूर्ण सामग्री छे.
केदार गोडी रागनी त्यारपछीनी ढाळमां कविए सर्व प्रथम ज्यां हीरविजयसूरि चातुर्मासार्थे बिराज्या ते ऊना नगरनुं ऐतिहासिक वर्णन कर्यु छे. पछीना पद्योमां सूरिजीना उपदेशथी भावित थई सा. लखराजे करावेल बिम्बप्रतिष्ठामहोत्सव, प्रासादिक वर्णन छे. आ गाथाओमां पण खास गाथा ७८मां अंजनविधानसमये सूरिजी द्वारा वेदिका पर बेसवानी वात ते समये अंजनशलाकामां कराती विशिष्ट विधिनी नोंध छे. आ ज प्रतिष्ठा महोत्सवमां दीव संघनी विनन्तिथी पण्डित मुनिविजयजीने उपाध्याय पद आप्यानी ऐतिहासिक विगत पण कवि द्वारा ढाळना अन्त्य पद्योमा आलेखाई छे. छेल्ली ढाळमां कविए उपाध्यायजीनी गुणस्तवना करी, तेना फळरूपे इच्छित कार्यो सफळ थवानी तेमज गुरुजीना चिरजयीपणानी मनोकामना व्यक्त करी छे. अहीं 'भविक कुटुम्ब सवि ताहरूं, अनुक्रमि चारित्र लीधजी रे' पदथी उपाध्यायजीना सम्पूर्ण परिवारनी दीक्षानो कविए स्पष्ट निर्देश कर्यो छे तेने पण काव्यनी महत्त्वपूर्ण नोंध कहेवाशे. कृति रचना अंगे थोडं -
प्रस्तुत कृतिनुं प्रतालेखन उपा. राजविमलजीना शिष्य उपा. मुनिविजयजीना शिष्य पण्डित नेमिविजयजीना शिष्य मुनि दर्शनविजयजी द्वारा संवत्-१६५२मां थयुं छे. आज लेखन संवत्मां हीरविजयसूरिजीए मुनिविजयजीने उपाध्याय पद आप्युं हतुं जेनी विगत काव्यमां आलेखाइ छे. तेथी अनुमान करी शकाय के प्रस्तुत कृतिनी रचना मुनि नेमविजयजीए मुनिविजयजीने पद अपायाना तुरंतना काळमां करी हशे. जो के लेखकनी असावधानीने कारणे केटलाक ठेकाणे कृति जरूर अशुद्ध लखाई छे तो पण एक अलभ्य-ऐतिहासिक कृति आपवा बदल लेखकश्रीने आपणा शत शत नमन.
प्रान्ते कृतिनी हस्तप्रत Xerox आपवा बदल साहित्यमन्दिर ट्रस्ट (पालीताणा)ना व्यवस्थापकश्रीनो तथा पू. मु. जयभद्रविजयजीनो खूब खूब आभार.
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श्रीमुनिविजयजी उपाध्यायनो रास वाचकचक्रचूडामणि-महोपाध्याय-श्रीमुनिविजयगणिगुरुभ्यो नमः ।
॥ राग-देशाख ॥ दुआ(दूहा) वंछितदायक सुरतरु, श्रीआदि जिणेसर द(दे)व, मरुदेवी-उअरि धर(री)ओ, सुर नर कर(रे) जस सेव. १ शांतिकरण श्रीशांति जिण, सुख-संपतिदातार, संयमकमला अणुसरी, पाम्यु भवनु पार. २ यदुकुलकमलदिवाकरू(रु), नेमिनाथ भगवंत, राज राजि(जी)मति परहरी, कीधु भवनु अंत. ३ कमठ-मांन जेणि मोडीओ, पन्नग कीउ धरणिंद, जस प्रताप जगि दीपतो, पार्श्वनाथ जिनचंद. ४ भविक जीवनइ तारवा, कलियुग कओ अवतार, वीर जिणेसर वंदीइ, जस गोयम गणधार. ५ कविजन जन-हितकारणी, दुर्मति वारइ जेह, वीणा-पुस्तक-धार(रि)णी, समरूं सर[स]ति तेह. ६ पंचम-गति-सुखदायकु, प्रणमी पंच जिणंद, वली समरूं चित(त्त) सरसति, जस सेवइ सुरवृंद. ७ तपगच्छ(च्छि) महिमा जेहनु, सेवइ सुर नर कोडि, श्रीमुनिविजय उवझायनु, रास रचुं कर जोडि. ८
॥ ढाल ॥ मही(हि)मंडलमांहिं अभिराम, जंबूदीप सेहि सुखधाम, दक्षिण भरत तिहां अति सोहइ, गुज्जर देस दीठइ मन मोहइ. ९ वीसलनगर तिहां अति चंग, गढ मढ मंदी(दि)र पोलि उत्तंग, वाडी वावि सरोवर कूप, राज करि(रइ) तिहां न्याइ भूप. १० चउरासी चहुटा सुविशाल, धर्मवंत तिहां बाल गोपाल, सोहइ सुंदर जिनप्रासाद, देवलोक सम मांडइ वाद. ११ व्यवहारी निवसइ धन-पूरा, दान गुणे करी दीसइ सूरा, तिहां मुख्य सा. केसव कहीइ, सी(शी)ल गुणे जगि जस लहीइ. १२
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अनुसन्धान-७३
तस घरणी सोहइ सोमाइ, सी (शी) ल गुणे सीता सम गाइ, तेह संघाति विलसइ भोग, इणी परि दिन जाइ सु (शु)भ योगि (ग). १३ एक दिवस सुरलोकथी चवीओ, पुण्यवंत सुर तिहां अवतरीओ, तसु अनुभावि माता पेखइ, सीह सुपन सुती सुखि देखइ. १४ प्रहि(ह) ऊठी कहि (हइ) निज भरथार, स्वामी ! सुपन कहु सुविचार, वात सुणी सा. केसव बोलइ, पुत्ररतन हुसि सुर - तोलइ. १५ हर्खी वात सुणी सोमाइ, पोषइ गर्भ सुखि (खइ) सज (ज्ज) थाइ, दान पुण्य देवपूजा केरां, उप[ज]इ दिन दिन डो (दो) हला भलेरा. १६ इम अनुक्रमं पुहता नव मास, जनमि (मी) ओ कुंअर पुहुती आस, धवता मंगल गाइ वर नारि, उत्सव हुइ घर घरबार १७
सा. केसव सहु सुजनह साखि, भक्ती (क्ति) करीनई इण परी (रि) दा (भा) खि, मेघ तणी परि जग-हितकारी, मेघजी नाम ठविउ सुखकारी. १८ वडु बंधव वली लखराज, जिणइ नामि सि (सी) झइ सवि काज, बिहुं बंधव केरी जोडि (ड), दीठइ पुहुचइ सहुनी कोड. १९
॥ ढाल ॥ राग-सामेरी ।
सकल कला परिपूरीओ, जाणे पुण्यम चंद,
रूपं जगजन मोहतो, प्रत्यख्य जाणे इंद्र. २०
इम वाधि (इ) कुमर सुजाण, तेजइ करी जीत्यु भाण,
हीरइ जडी टोपि(पी) ओपि (पइ), मस्तकि(कइ) सोहि (हइ) आरोपि (पी). २१ काने तुंगल (कुंडल) तेज - झमाल, अष्टमी सशि (शी) सोहइ भाल, कमलदल - कोमल नयण, नाशा दीपश (शि) खा सोहइ वयण. २२ हीरासम दंत विराजइ, अधरोपम विद्रुम छाजइ,
सुख - गंध सुगंध कपूर, बाजुबंध सोहइ भूज - भूर. २३ कटी सोहइ कनक कंदोरो, पगि धमकइ घूघरा घोर, अंगि लक्षण बत्रीस सोहइ, देखी भविजननां मन मोहइ. २४ मुखि बोलइ वचन विलास, सहु सजननी पूरइ आस, आठ वरस थया इम करतां, माय ताय मनोरथ धरतां . २५
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सुदिवसि नी(नि)सा(शा)लइ पढावइ, दिन थोडि भणी घरी(रि) आवइ, पंडितनइ दीइ बहु दान, वली आपइ फोफल पान. २६
बहुमान देइ बोलावइ, इम विनय करी समझावइ. २७ सहजि(जई) पुण्यवंत दयाल, देवपूजा दान विशाल, मनि भाव धरी चित चोखइ, साधु सामी(धर्मी)नइ पोषइ. २८ कला बोहत्यरि करइ अभ्यास, माय ताय धरइ उल्लास, मनि जाणइ जो परणउ पुत्र, तो राखइ घरनुं सुत्र. २९
॥ ढाल ॥ राग-गोडी ॥ श्रीविजयदानसूरीस, तस सीस सुंदरु, श्रीराजवि[म]ल उवझाय-वरू ए. ३० सकलसाधुशिनगार, मोहन मूरति, रूपि रतिपति जीतीओ ए. ३१ महियल करइ विहार, भविजन तारवा, वि(वी)सलनयर पद्धारीआ ए. ३२ श्रीसंघ हरख अपार, आणी उलट, करइ उत्सव ते अति घणा ए. ३३ आव्या सुणी उवझाय, सा. केसव तिहां, सुत सहित वंदण(न) गया ए. ३४ नव-रस सु(स)रखी वखाल, चिंतइ मेघजी, अथिर सरूप सहु भव तणूं ए. ३५ आणी मनि वैराग, घरि आवि(वइ) करीइ, माय-तायनइ वीनती(ति) ए. ३६ दि(दी)ओ अम अनमति तात, मात मया करी, यम भवसायर हुँ तरुं ए. ३७ निसुणी पुत्र वचन, दुख मनमां धरइ, मात पिता ते अति घणूं ए. ३८
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४२
तुं वत्स अम्ह आधार, प्राणवालेसरू (रु), तुझ विण खिण एक नवि सरइ ए. ३९ तुं छइ अति सुक (कु)माल, बालपणइ वली, चारित्र छइ वछ दोहिलं ए. ४० जिम दोहिलुं खडगधार, उपरि चालवु
तिम दोहिलुं व्रत पालतां इ (ए). ४१ टाढि अनि (न)इ वली ताप, भूख तृषादिक, परिसह छइ अति आंकरा ए. ४२
परणीनइ एक वार, संसार तणा सुख,
विलसी संयम आदरुं ए. ४३
तव कहि (हइ) मेघजी कुमार, अम्म तात सांभलुं, संयम दोहिलुं मुझ नही ए. ४४
अनंत अनंतीवार, दोहिलां दुख घणा,
भमता भवमां मि सहा ए. ४५
हवइ ते खम्यां न जाइ, ते भणी परी (रि) हरुं,
संसार तणा सुख सामटां ए. ४५ प्रतिबोधि (इ) इम गात, तात सहित वली, उत्सवसुं संयम लीये ए. ४६
दु (दू) हो
श्रीराजविमल उवज्झायनइ, हा (ह) त्थि चारित्र लिद्ध, सा. केसव मेघजी तणां, मनह मनोरथ सिद्ध. ४८
अनुसन्धान-७३
॥ ढाल ॥ राग रामगिरी ॥
दीक्षा लेइ करइ विहार, सकल साधु तणा सि (शि) णगार, सुमति गुपति पालइ अतिखरी, दीसइ पूर्व साधु अनुचा (च) री. ४९ निर्मल पंच महाव्रत भार, वृषभ तणी परि वहि (इ) अणगार, असु (सू) र (झ) तो नवि लेइ आहार, षट् काया केरुं आधार. ५० भक्ति-विनयकरुं अति घणुं, चित रंजिउ श्रीवाचक तणूं (पुं) जाणी योग्य सहु सा (शा) स्त्र विचार, सहगुरु दीधा बहु विस्तार. ५१
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प्रकरण व्याकरण सहित छंद, जाणइ सूत्र सिद्धांत अमंद,
विद्या चउद भणी थयु जाण, वादि (दइ) जीत्युं सुरु (र) गुरु- माण. ५२ श्रीराजविमल विमलगुण - लीह, चारित्र पाली अकल अबीह, सयल भलवण निज शिष्य करी, ३ ( त्रीजे) स्वर्ग पुहुता शम धरी. ५३ एक दिन मुनिविजय मुनिराय, श्रीहीरविजयसूरि वंदण पाय, जाणी योग्य जगगुरु हित धरी, पंडित पद दीधुं हित करी. ५४ जगगुरु केरुं लही आदेस, वीसलनयर करि (री) ओ प्रवेश, देखी संघ वंदइ गुरुराज, कल्पवृक्ष फलीओ अहम आज ५५ वडो बंधव तिहा सा. लखराज, घरथी धर्म तणा करि (री) काज, आव्या जाणी सुहगुरुराय, भक्ति [ इं] वंदइ तेहना पाय. ५६ सुणी देशना मनि धरी वैराग, इणि संसारि नही मुड लाग, घरि आवि(वी) प्रतिबोधी मात, संयम लीधुं जगविख्यात ५७ लब्धिविजय ठविओ जस नाम, मही (हि) मंडलमां राख्यं नाम, पंच विगय तणुं परिहार, अंत-प्रांत लेइ ते आहार. ५८ बंधव साथि कंरइ विहार, प्रत्यख्य जाणे धनो (न्नो) अणगार, क्रोध मान माया करी दुरि (दूर), दीसइ अभिनव उपशम-पूर. ५९ देस सहुमांहि सोरठ भलु, जिहा छइ विमलाचल गुणनिलु, तेह तणी यात्रानइ काजि (जइ), एइ दिन पुहुता पंडित - राज. ६० श्रीयुगादिदेवनी यात्रा करी, मनह मनोरथ पूगा रली, अनुक्रम उनानयर मझारि ( रइ), जइ वंद्या श्रीजगगुरु गणधार. ६१ ॥ ढाल ॥ राग-केदार गोडी ॥
४३
उनानगर सोहाभलु (मणुं), जिहां जगगुरु चुमास,
दुरित दुकाल दु(दू)री गया, भवियण पुहती आस. ६२ नवपल्लव नालीएरी, केतकी कदली कल्हार, मोगर मरु [ओ] मालती, जाय जु (जू ) ई सहकार. ६३ नागरवेलि बीजोरडी, चंपक लाल ग (गु)लाल (ब), वनसपति सोहि(हइ) घणी, कोइल बोलइ रसाल. ६४ कूआ वावि खडोखली, अति भली नदी य निवाण, दढ गढ पोलि पाखलि, वली फिरति खान अमान. ६५
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४४
हट्टश्रेणि सोहइ तिहां, चउरासी पोसाल, जिनप्रासाद तिहां भला, सुंदर पो ( पौ) षधसा (शा) ल. ६६ राज्य करइ तिहां राजि (जी) ओ, न्यायवंत भूपाल,
जस प्रताप जगि दीपतो, सयल ज (जी) व - दयाल. ६७
अनुसन्धान- ७३
चमासु हीरजी रहा, गहगया श्रावक-लोक,
हरखी वित क ( ख ) रचि (चइ) घणुं, आपणुं आणि (इ) अशोक. ६८ संघ - मुख्य तिहां जाणीइ, श्रावक सा. लखराज,
नरभव पामी दोहिलुं, करइ ति (ते) धर्मना काज. ६९ अवसर लही य स (सु) गुरु तणो, अति घणुं आणी भाव, बिंब प्रतिष्ठा कराविइ, भवसायर भवनाव. ७० इम करीय विचार उपास्यरइ, आव्या सा. लखराज, वंदी चरण-कमल कहइ, मुहुरत जु (जू) ओ गुरुराज. ७१ श्रीहीरविजयसूरि सुंदर, मुहुरत करीय विचार, वैशाख सुदि दिन बारसि, तुमे करु ते निरधार. ७२ इम सुणी सा. लखराजनइ, मनि थयुं हरख अपार, संघ तेडी ठाम ठामना, भक्ति करि ( रइ ) सुविचार. ७३ साधु श्रावकनइ पोषीइ, घोषीइ जीव अमारि, रथयात्रादिक मोत्सव, उत्सव घर- घरि (र) बारि. ७४ वार्जित्र वाजई अति भलां, पंच शब्द निसाण, मर्द(द्द)न(ल) ताल नफेरी भेरी, बीजा नाद सुमांन. ७५ दान दिये तिहां नव नवा, याचकनइ बहुमांन,
कणय कभाय वांछोडा, घोडा फोफल पान. ७६
इम करता तिहां आवि (वी) ओ, संवत सोलबावन (न्न) (१६५२), वैशाख सुदि दिन बारसि, प्रतिष्ठा दिन धन (न्न). ७७ शुभवेला गुरु हीरजी, बइठा वेदिकामांहि,
विधिसुं प्रतिमानइ करइ, अंजनसि (शि) लाका त्यांह. ७८
इण इ (अ) वसरि संघ दीवनो, वीनती (ति) करइ कर जोडि (ड), उवज्झाय पद दीओ मुनिविजय, जगगुरु अम्ह ए कोड. ७९
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संघ तणी सुणी वीनती(ति), यती(ति)पती(ति) मनि अवधारि(र), चिंतन करइ निज चित्तसुं, ए मोटो अणगार. ८० ब्रह्मचारीसि(शि)रशेखरुं, मुनिवर एह महंत, तप जप वली संयम क्रिया, आशम प्रमुख सोहंत. ८१ इत्यादिक गुण-आगर(रु), जाणी जगगुरुराय, उवज्झाय पद निज हाथसुं, थापि(पइ) मनि उत्साय. ८२ जय जयकार तिहां थओ, हरखि(खी)ओ संघ अपार.. धन खरचि(चइ) वली आपणुं, पामी अव[स]र सार. ८३ जगगुरु चरणकमल नमी, वंदीय पास जिणंद, उवझाय तिहाथि(थी) पांगरा, मुनिविजय मुर्णिद. ८४ भविक न(जी)वने तारवा, प्रवहण सम जगि एह, श्रीमुनिविजय उवज्झाय वरू, वंदओ ए गुणगेह. ८५
॥ राग-धन्यासी ॥ वंदओ वंदओ भवियण भावसुं, श्रीमुनिविजय उवज्झाय जी रे, साधुसि(शि)रोमणि गुणनिलु, नामि नवनिधि थाय जी रे. ८६
वंदओ वंदओ... वंछितदायक सुरतरु, बुद्धिं वयरकुमार जी रे, सी(शी)लह थूलिभद्र जाणीइ, तपिं धनो(न्नो) अणगार जी रे. ८७
वंदओ वंदओ... लबधि गोयम गणधरु, उपशमरसभंगार जी रे, वादिगजघटकेसरी, परिहरि(री) माया-जाल जी रे. ८८
वंदओ वंदओ... तपगछगगनदिवाकरु, श्रीराजविमल उवज्झाय जी रे, तस पट्ट-धुरंधर चिरंज(जी)ओ, श्रीमुनिविजय उपज्झाय जी रे. ८९
वंदओ वंदओ... सुरगवि सुरमणि सुरतरु, कामकुंभ समु एह [जी] रे, जे भवियण आराधसि, पामइ वंछित तेह जी रे. ९०
वंदओ वंदओ...
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अनुसन्धान-७३
भविक कुटुंब सहु ताहरु, अनुक्रमि चारित्र लीध जी रे, मनुष्य तणु भव दोहिलु, सामी सफलओ कीध जी रे. ९१
वंदओ वंदओ... तुझ नामि संकट टलइ, दूरगति ह(दूरि(रइ) जाय जी रे, मनह मनोरथ माहो(ह)रा, सघला सफला थाय जी रे. ९२
वंदओ वंदओ... जिहां लगइं सायर शशि रवि, जिहां लगइ मेरु महीस जी रे, चिर प्रतपो गुरु तिहां लगई, नेमिविजय कह[इ] सीस जी रे. ९३
वंदओ वंदओ...
॥ इति श्रीमुनिविजय उपाध्यायनो रास संपूर्ण समाप्तं ॥ महोपाध्याय-श्रीराजविमलगणिशिष्य-महोपाध्याय-श्रीमुनिविजयगणिशिष्य
पंडित-श्रीनेमिविजयजी कृतम् । मुनि दर्शनविजयलिखितम् । संवत १६५२ वर्षे आसाढ सुदि १२ दिने । शुभं भवतु ॥
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श्रीतिलकविजयजीकृत ११ गुर्जर रचनाओ
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- सं. मुनि धुरन्धरविजय
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[१८मा सैकाना तपगच्छपति विजयप्रभसूरिजीना राज्यमां, गच्छपति श्रीहीरविजयसूरि आनन्दविजय मेरुविजय उ. लावण्यविजयना शिष्य वाचक लखमी (लक्ष्मी) विजयजीना शिष्य श्रीतिलकविजयजीनी ११ गुजराती काव्यात्मक स्तवन-रचनाओ अत्रे प्रगट थाय छे. तेमणे १२ व्रतनी सज्झाय रच्यानी नोंध 'जैनगुर्जर कविओ (५) 'मां जोवा मळे छे.
आ बधी रचनाओ वर्षो पूर्वे मुनिराज श्री धुरन्धरविजयजीए हस्तप्रतिओमांथी ऊतारी राखी हती, ते तेमनी नोटनी नकलना आधारे अत्रे आपवामां आवी छे. कविए दीव, ऊना आदि क्षेत्रोमां विहार विशेष कर्यो हशे तेम ते ते गामना भगवानना गुणगान करतां स्तवनो जोतां लागे छे. कविने गच्छपति प्रत्ये अपार आदर - बहुमाननी लागणी हशे तेनो ख्याल गच्छपति विषे कविए रचेली रचनाओ जोतां आवी शके छे. आमां क्र. ८ तथा ९ रचनाओ हंसविजयजीना शिष्य तिलकविजयजीनी छे. तथा ७ अने ११मी रचनामां गुरुनाम वगर मात्र 'तिलक' एम कर्तानुं ज नाम जोवा मळे छे. ते आ बे पैकी कोण होय ते नक्की करवानुं मुश्केल लागे छे.
आ रचनाओ प्रकाशनार्थे आपवा बदल मुनिश्रीनो आभारी छु - शी.]
*
श्रीनेमिजिन द्वादशमास
॥ राग
सारंग ॥
वाणी पदपंकज नमी, वली प्रणमी हो श्री गुरुना पाय कि, मन-वय-काया थिर करी, नेहइ थुणस्युं हो यादव कुलराय कि. ॥१॥ राजुल बोलइ पिउ सूणो ॥ अह्मे अबला सबला तुम्हो, प्रेमइ पुरो हो स्वामी महिला आस कि, योवनजल तटिनी तटि, कामक्रीडा हो कीजइ बारई मास कि ॥२॥ आसाढी घन गाजीओ, जल वरसई हो वलि वीज अपार कि, दादुररव श्रवणे सुणी, किम रहीइ हो कंत विण किरतार कि ॥३॥ श्रावण भूमि सुहामणी, गयणि छाया हो काला वादल वृंद कि, जलधर वरसइ सरवडें, रंग रमता हो थाइ मनि आणंद कि ||४||
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अनुसन्धान-७३
भाद्रवडो सरोवर भरइ, न समावइ हो नीर नदियां तीर कि, स्त्री सह शिखि-बक खेलता, देखी वालिंभ हो न रहइ मन- हीर कि ॥५॥ गीत गाई गोरी मिली, नाचइ फीरती हो घमकई घूघर पाय कि, आसो नवदिन रातडी, तुम्ह विरहे हो किम मुझ सुख थाय कि ॥६॥ कार्तिक करुणा कीजीई, कामी लोका हो नवलइ नेह रमंत कि, दह दिशि दीवा झलमलई, पेखी दुखडई हो नयणे नीर झरंत कि ॥७॥ भामिनी लोग संयोगीया, मागशिरराति हो सूता सेज बिछाय कि, ईणि अवसर महाराजजी, शेजई आवो हो शीतइ शरीर-काय कि ॥८॥ पोसइ पूर नेहलो, संभारी हो मोरा जीवनप्राण कि, मदभरि माती मानिनी, साथइ लीजई हो, चतुर सुजाण कि ॥९॥ माहिं मनमथ माचतो, विरहि नरइ हो हियडइ दुखदातार कि, रमणविहूणी एकली, रामा राति हो रहइ किम किम भरतार कि ॥१०॥ तेल अबीर गुलाल स्युं, चंग धमकई हो ख्यालिं खेलई फाग कि, । फागुण रमवा मन वहइ, स्युं कीजई हो नही पीउ तो राग कि ॥११॥ चैत्रइ चंद्रोदय घणो, गोखि गोखि हो रसिया रसभरि जोय कि, निसिदिन झूलं तजी, तुम पाखि हों न गमइ मुझ कोय कि ॥१२॥ आंगणि आंबा बहु फल्या, मधुरइ नादइ हो, बोलइ कोयलि कंत कि, मंदिर सूना सज थइ, वैशाखइ हों वशि आवो एकांत कि ॥१३॥ ज्येठ आतपथी दिन तपई, तिम विरहइ हो दाधु मुझ तनु नाथ कि, कर जोडी करुं विनति, मांनी दीजे हो हाथ उपरि हाथ कि ॥१४॥ ईणि परि राणी राजीमती, वीनवती हो, छोडी मलिया नेम कि, पिउ पगले पाछळ जइ, गिरूई रैवत हो मिलिया कुशलई खेम कि ॥१५॥ पंच-महाव्रत वर लीइ, वामा मस्तकि हो हस्त ठविओ हेज कि, कामिनी महोदय मोकली, पुण्यइ पाम्या हो जिनजी शिवसुखते(से?)ज कि॥१६॥ वादी घूक नभ रवि परिं, दीपइ पाठक हो लखिमी दीनदयाल कि, तस क्रम कमल अलिसमइ, शीश तिलकइ हो स्तवीया नेम मयाल कि ॥१७॥
॥ इति श्री नेमिजिनद्वादस मास संपूर्ण ॥
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(२)
श्रीबलहेज (बडेजा) पार्श्वनाथ स्तवन
बलवंत बलहेज पासजी, आस पूरो ओक आज हो साहिब, तुझ दरिसण मुझ वालहुं, देखाडो महाराज हो साहिब . १ तुं उपगारी सांभळी, हुं आव्यो तुझ पास रे सा०, मुझे आश्या पूरी करो, नवि वाळो निरास रे सा० २ आस निरास न कीजइ, तुं छइ दीनदयाळ रे सा०, सोमनजर निहालीइ, सेवक कीजइ संभाल रे सा० ३ ठाकुर गिरुआ जे हुई, दास पूरइ मन हाम रे सा० तुझ विण मुझ कुण सुख दीई, ओ मोटानी माम रे सा० ४ स्यो हुं ताहरइ आसिर, मुझ सरिखा तुझ कोडि रे सा०, अहोनिशि सुरनर सहु मिली, सेव करई करजोडि रे सा० ५ तुझ पद शरण हुं पामीओ, भवि भवि होज्यो अहि रे सा०, गुण ओसीगल ताहरा, हुं नवि थाउं जेह रे सा० ६ पासजिणंद तुम्हारडी, मूरति महिमावंत रे सा०, दरसण देखण अतिघणा, आवइ मोटा महंत रे सा० ७ सहिर सवि टोळी मिली, करती तुझ गुणगान रे सा०
परि जे जिन गुण स्तवई, ते पामइ बहुमांन रे सा० ८ ध्यान धरो अ जिनतणुं, जिम लहीइ भवछेह रे सा० वाचक लखिमीविजयतणो, तिलक कहिइं बहुनेह रे सा० ९ ॥ इति श्रीबलहेज पार्श्वस्तोत्रं संपूर्णं ॥ यात्रावसरे कृतं श्री ॥
(३)
दीवबंदरस्थित श्रीनवलखा पार्श्वनाथ स्तवन
परमसनेहि हो नेहिं वंदिई रे, चंचल चित्त करि चोख, दोष दूरिं हुइ सघला देहथी रे, लहीइ बहु संतोष. प. १
४९
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५०
अनुसन्धान-७३
सींगू माणस महीयलमां जूओ रे, न मिलइ इणि संसार, पुण्य पसाइ पाम्युं इह भवइ रे, नवलख मुखदीदार. प. २ नवलख किंकर तुझ ओलग करइ रे, मुझ उभा नहीं ठाम, तोहइ पणि तुझ शरणइ हुं आविओ रे, राखीजई जगस्वामि. ३ तुझ अमूलक रूप निहाळतां रे, नयणे वाध्यो नेह, ते विसार्यो किमही न वीसरइ रे, जिहां लगि आछइ देह. प. ४ जे गुणवंता माणस प्रीतडी रे, छटकी न आपइ छेह जिम पोया नर प्रेम पाछो पइडइ रे, सी मूकइ तेह. प. ५ करुणाकर हो कर जोडी कहुं रे, विनती मानो देव, जो तुं साहब मुझ सेवक करइ रे, तो द्यो तुम्ह पद सेव. ६ संगति कीधी साची तेहनी रे, जेहथी सिवसुख सिद्धि, वाचक लखमीविजय पसायथी रे, तिलक लहो बहुरिद्धि. ७
॥ इति श्रीनवलखपार्श्वस्तवन संपूर्ण ॥ ॥ गणि श्री तिलकविजयेन लिखितं ।
(४) श्रीअजारा पार्श्वनाथ स्तवन श्रीअज्झाहर पासजी, साचो तुं इक स्वामी रे,
साहिब ससनेहा !... नवनिधि हुइ नवरंग स्युं, निरुपम ताहरइ नाभि रे... सा. १ देव सवे मांहीं दीपतो, सुर सरिखा करइ सेव रे... सा., त्रिभुवनतिलक तुहि अछइ, तिणि तुं अमूलक देव रे... सा. २ चतुरशिरोमणि चिंतव्यो, पेख्यो पहुढई पुण्य रे... सा., निरमल नेह नयणां करी, धुरि राखइ ते धन्य रे... सा. ३ मन मेलू मेलावडो, खिण मूंक्यो न खमाय रे... सा., छयलपणइ नवि छोडीई, थिर किधई सुख थाय रे... सा. ४ करुणाकर कृपा करी, सेवक सारसंभालि रे...सा., मोटा माणस महियलिं, उदयकरण ऊजमाल रे... सा. ५
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सप्टेम्बर २०१७
सा.,
मुझ मन मधुकर मोहीओ, प्रभु पदपंकज पास रे... राखे ज्यो बहु रंगस्युं, अहम तणी अ अरदास रे... सा. ६ मन वच काया मई नम्यो, अज्जाहर जिन आज रे... सा., लखमीविजय उवझायनो, तिलक वधारण लाज रे... सा. ७
॥ इति श्री अज्जाहर पार्श्व स्तवनं ॥
(4)
श्रीनेमिनाथ जिन स्तवन
राग मारुणी नणदलनी देशी
-
५१
प्रीतमस्युं मुझ प्रीतडी, रीतडी रुअडी राखि, नणदल आंकणी, अवर नरनी आखडी, ससिसूरिज होय साखि... नण. (१) वालिं भडई रथ वालीओ, तोरणथी ततकाल... नण. सामलीओ मिलीओ नहीं, रसीओ रंग रसाल... नण. (२) मई जाण्युं रे पीउ माहरो, नवलो धरस्यई नेह... नण. परबत वाहुलीया परिं छटकि दाख्यो छेह... नण. (३) सासू सिवादेवी सांभलो, वहुयर केरी वात... नण. बाईजी. उभा रई बेटडई, धीठी कीधी वात... नण. (४) सगपणुं हाडनुं स्युं करई, जो नेह सगाई न होई... नण. मात रहई महिला छलई, जगि अ अंतर जोय... नण. (५) छयलि अबला छेतरी, नव भव नेह निवारि... न मुगति धूतारी मानिनी, चितमां तेह चितारि... नण. (६) निठुर हुआ जो नेमजी, तोहि न छोडुं नेह... नण. मन वचनस्युं मई माहरी, दीधी एहनिं देह... नण. (७) गिरूई गढि गिरनारि गई, चतुर ग्रह्यं चारीत्र.... प्रभु पदपंकज पामीया, पदमीनी हुई पवीत्र...नण. (८) शिवपुर पंथ सिधारीया, निरमल पांमी नांण... नण.
.नण.
नण.
वाचक लखिमीविजय तणो, तिलक नमई सुविहांण... नण (९) इतिश्री नेमिजिन स्तवनं ... नींदलडीनी देशी.
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५२
(६)
श्रीविजयप्रभसूरि स्वाध्याय ( १ ) श्रीविजयप्रभसूरि वंदीई, आनंदीई हो नेहिं हियडई आज कि, जगत जोतां प्रभु तुं मिल्या, कृपाकरणे मुझ सीधलां काज कि... (१) श्री० श्रीविजयदेवसूरीसरई, तपगच्छनी हो ठकुराई दीध कि,
सकलगुणि गुहिरो जांणी, निज पार्टि हो तुझ धोरी कीध कि... (२) श्री० कुंदनीवरणी काय छइ, सोहंती हो बाहु सुरवेलि कि,
खंजन लोचनिं खेसव्यो, दंतपंती हो जांणे रूपारेलि कि... (३) श्री० मुखमटकि लटकि मोही, मृगनयणी हो निरखिं एक मन्न कि,
खिण खिण दीठइ खोभती, नव अंकुर हो पालवीयां तन्न कि... (४) श्री० सुंदर रूप सोहामणें हरायो हो हसी रतिपति हेज कि
प्रबल प्रतापिं पूरीओ, तपंतो हो जांणे दिनपति तेज कि... (५) श्री०
तुझ दरसण मुझ वालहुं, जिम वाहलो हो रोहिणि चित चंद कि,
ज़गि जन जिम लीला जपइ, मधुकर मनि हो वसीउं मुचकुंद कि... (६) श्री० मुनि जन मानस सरोवरिं, खेलंतो हो गेलिं कलहंस कि,
दिन दिन दोलति दीपती, अजूआल्यो हो सेठ सिंवगण वंश कि... (७) श्री० कुमत मतिंडग ताडिके, तेहुं तिं हो दीओ थिर थोल कि,
वरषाकु तु घन वरषतिं, महिल गिरतां हो राखई जिम मोभ कि... (८) श्री० तुझ गुणगणना नवि लहुं, तूं तूठइ हो सेवक सुखवास कि, लखिमीविजय उवझायनो, ईम बोलई हो तिलक अरदास कि... (९) श्री०
इति श्रीविजयप्रभसूरि स्वाध्याय: संपूर्णः ॥
(७)
अनुसन्धान-७३
श्रीविजयप्रभसूरि स्वाध्याय ( २ ) नागरिना नंदन से देशी
चित्त चकोर चाहई चिर्ति,
सिवगणना सुत जी. आंकणी.
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चंचल तुह्म मुख चंद रे... सि..
चारु चातुरी चंद्रिका... सि. छाजई नव नव छंद रे... सि. (१) चपल लोचन चोकस थयो... सि.
हरिणलो छई मनुहारि रे... सि. झाझू वचन अमृत झरई... सि.
हिंसई भविक ज हारि रे... सि. (२) छवि छटा पसरी गई... सि.
___ छयल थई जगि ज्योति रे... सि. तारा ग्रह दंत ताहरा... सि.
... झलकि अनुपम ज्योति रे... सि. (३) सकल कला संपूरीओ...सि.
उदयो अवल उद्योत रे... सि. तपगण अंबर भासि... सि.
दुरित तिमिर गयां रोत रे... सि. (४) दिन उग्यई तुं दीपतो... सि.
बीजो खाखर पांन रे... सि. तेहनि अस्तई तुं तपई... सि.
वाध्यो अह ज वान रे... सि. (५) ईणि गुणि चतुर चकोर जे... सि.
निरखि रहई निसदीस रे... सि. तिलक कहई तुं चिरंज्यो... सि.
जिहां लगि मेरुगिरीस रे... सि. (६)
इति स्वाध्यायः
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अनुसन्धान-७३
(८)
श्रीविजयप्रभसूरि स्वाध्याय (३) टुंग अनि टोडा विचिं रे, मईंदीरा दो रुख ओ देशी. सरस साकर सम मीठडी रे,
सरसति वरसति वांणि, दीजई हेजि भरी,
गास्युं शिवगण कुलतिलउ रे.
चातुरमां चतुर सुजाण सुणयो भाव धारी... आंकणी बालपणई बलिया थईरे,
चतुर ग्रह्यं चारीत्र...सु. विकट तपिं संकट खपइ रे
__भणीयां सूत्र पवीत्र... (२) सु. परम वयरागी प्रेमस्युं रे
- धर्मध्यान धरई धीर... सु. निज गुरुइं निज पद दीउं रे,
जांणी गुणह गंभीर... (३) सु. तपगण उदयाचल सिरई रे ।
उदयो अभिनव सूर... सु. कच्छ देश अजुआलीउ रे ।
___वाल्युं महियलि नूर... (४) सु. विजयदेव गुरु पट गुरुरे
सुर तरु सम च्छई आज... सु. सुर किन्नर नरवर तणां रे,
वंछित पूरई काज... (५) सु. दिनकर उग्यइ दिन प्रति रे
गहुलि ठवइ गुरु गेलि... सु. मंगल तूर रणझणझणई रे
गावति गीत सहेलि... (६) सु.
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गुरुमुख चंद निहालिनई रे.
मोह्या चतुर चकोर... सु. वादी वदन विकल थयां रे,
जे जिनशासन चोर... (७) सु. मुखि सिद्धांत वांणी वदइ रे
सुणि सवि जन मन रंग... सु. प्रभु समता मंत्रइ करीरे
ढलीया ढूंढ लुछंग... (८) सु. ईणि परि सकल गुणे करी रे
सभा सुहावइ सांमि... सु. पंडित हंसविजय तणोरे
तिलक नमई सिर नांमि... (९) सु. इति श्रीविजयप्रभसूरी स्वाध्यायः ॥छ।।
श्रीनेमिजिन स्तवन राजुल रमणी रंगस्युं रे,
जाय करई कर जोडि रे, सुणि सांमि. एकवार मुझ एकवी रे,
केलि करो मन कोडि रे... (१) रस भरीया आस पूरो रे, ओ आंकणी
___हठस्युं म करो होडि रे... सु. योवन वय छई जागतूं रे
छटकिं छयलम छोडि रे,... रस... (२) लघु वय ते लाखइ लद्यु रे, .
अहनो अरथ एकांत रे... सु. जिम तिम नांख्युं न जाइस्यइ रे ।
कांम विना एकांत रे... रस... (३)
काल र... सु.
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हेज हियानो स्युं कहुं रे, आज लगि अछेह रे... सु.
आदर अवलो आपणो रे,
पण किम कहीई तेह रे... (४).. रस.
नारी मुखि ननो हुई रे
हो करीई हाथि रे... सु.
पहिली रीति से प्रीतिनी रे,
अनुसन्धान- ७३
नहीं अणबोल्यइ नाथ रे... (५)... रस.
विरह व्यथा वारू नथी रे,
साचो सरस संयोग रे... सु. लाह लेई ईहलोकनो रे
जातई सिर धरो योग रे... (६)... रस. हुं दासी धुं ताहरी रे,
आपुं तन मन वित्त रे... सु. राणी ईम कहई राजिका रे,
चातुर न धरई चित्त रे... (७)... रस.
वनिता वयण न वेधीओ रे,
साहमी दाखी सीख रे... सु. नेम निरुपम नाहलई रे,
दीधी रांमा दीष रे... (८)... रस. दंपति मिलि दोडी गयां रे,
सु.
गिरुई शिवपुर गेह रे.... हंसविजय कविरायनो रे,
तिलक कहई बहु तेह रे... (९)... रस.
॥ इति श्रीनेमिजिन स्तोत्र संपूर्णं ॥
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(१०) . ___श्रीघृतकल्लोल पार्श्वनाथ स्तवन
धनि धनि धन्ना सालिभद्र मुनिवरू जी - ओ देशी वामा सुत रे साहिब सांभलो जी, वीनतडतृ(डी) मुझ वारो वारि, हुं अलगाथी उभो ओलगुं जी, तोई पणि तूं कहीइं नवि तारि... वामा... (१) साजन साचो मई तुं जांणीओ रे, तेणि तुझ आगलि जिनराज, मनवच काया तिण्ये माहरों जी, दीधां सेव करणनि काजि... वाम... (२) दरिसण देखी हियडु हिंसीउं जी, राख्युं न रहइ सास उसास, जो तुं चाहइ रे चितडइ चाकरी जी, तो नवि कीजई घडीय विमास... वाम...(३) सज्जन जन जे जांणी आवीया जी, नवलि प्रीति करेवा जांम, तव ते हुवी हियडई चांपनई जी, सांही लीई सामो सांमि... वाम... (४) तिमउं ठाकुर छई त्रिहुं लोकनो जी, सघला संतमांहि सुलतांन, तुझ दरबारिं आवी जे चढई जी, ते नहिं किमई बहु मांन... वाम... (५)
सुणि बहिनी पीउडो परदेशी - ओ देशी सुणि वाले सरस रस प्रीतडली, होवई मन मान्यास्युं रे, जेहस्यं हृदय न राचई रंगिं, ते दीठई कुमला स्युं रे... सु... (६) नयणे ओक जोया नवि खटकिं, कोईक नामथी सालई रे, सुहणई हेजस्युं तेह ज साथि, रस भरि रंगि मालई रे...सु... (७! उत्तम रीति जे राखई रुखडी, ओकणस्युं बोल बोलई रे, तन मन देई सुख दुःख साचुं, तेह आगलि सवि खोलई रे...सु... (८) आपणपुं दिल तोहि ज दीजई, जो कसि पहुचई आछई रे, अधम माणसनि लहई जो कहीजई, निरवहतां तनुता छइ रे...सु... (९) सकल गुणाकर महियलि मांहिं, तुझ सम अवर न पाउं रे चरणकमल स्वामी सेव्या विहुणो, किम ओसींगल थाउं रे... सु... (१०)
लाछलदे मात मल्हार - ओ देशी धनि धनि मुझ अवतार, दीढू देव दीदार, आज हो छूटां रे भवदुःख बंधन आकरां जी... (११)
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अनुसन्धान-७३
जिनकी रति अशेश, पसरी देश विदेश,
आज हों आवई रे सुर सरिखा सवि भेटवा जी... (१२) पूजई मनि रंगरोल, पासही घृतघोल,
आज हो पामई रे कोडि गमे सुखसंपदा जी... (१३) ईम जे जिनगुण गाई, नवलि निधि ऋद्धि घरि थाई, आज हो वेगि रे शिव रमणी तस आदरई जी. (१४) मुनिवर वंदित पाय, श्रीलखिमीविजय उवझाय, आज हो तास पसाइ तिलक लहइ रमा जी... (१५) . इतिश्री घृतघोल पार्श्वजिन स्तवन (११) श्रीविजयप्रभसूरि स्वाध्याय सुणि बहिनी पीऊडो परदेशी
ओ देशी सुनि जीउरा ओक बात हमारी, तोहि दुनियां दिलमें प्यारी बे काल अनादि अनंत गमाया, तो भी छेहरा नाया बे... सु... (१)
दुनियां दार दुकांन बनाई, नहु जांनी भलीय बुराई बे,
तस बेदन सहनी जब आवई, तब फिरि पिछतावा पावइ बे... सु... (२)
घेरमेंर कछु करनी न कीनी, यौंही फेरी दीनी बे,
काहि जमवारा षौंनां याही, आगिं ठरनां नांहिं बे... सु... (३)
मात पिता सब सांईसनी जे, आप सवारथ भीजे बे,
अपने दुख परि कोहु न ज्योवई, काहि दिवाना होवइ बे... सु... (४) यो षिन ज यावइ सो फिरि नावइ, धरम करम मनहु थावइ बे, किस भांति भांते जिन चलनां, या षरमरनां पानां बे... पीछइ छाया आइउ जांनी, यमकि ओ सहि नांनी बे ताथें उपाया ज्युं त्युं करनां, जाथें भव जल तरनां बे... सु... (६) यांन सारी में सदगुरु पाया, श्रीविजयप्रभसूरीराया बे
सु... (५)
तिलक कहई याथें सुभ ध्यानिं सुख संपति बहु मानिं बे... सु... (७)
इति श्रीविजयप्रभसूरी स्वाध्यायः ॥
लिखितं गणि तिलकविजयेन विरचितं च ॥ शुभं भवतु ॥ छ ॥
C/o. अरिहंत, समृद्धि पासे, हाईवे, डीसा
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रेटियावर्णन भास
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
दुर्गापुर-नवावास(कच्छ)ना संघहस्तक हस्तलिखित ज्ञानभण्डारनी प्रत क्र. २८/२२६ना अंते 'रेंटियावर्णनभास' नामे एक रचना जोवा मळी, ते नोंधपात्र जणायाथी अहीं प्रस्तुत करी छे. रतनबाई नामे श्राविकाए सं. १६३५मां मेडतानगरीमा आनी रचना करी छे एवो उल्लेख आमां छे, पण ते शंकास्पद छे. भाषा ते समयनी नथी; गुजरातनी छे अने ते पण दोढ-सो बसो वर्ष पहेलानी छे.
जो के, रेंटिया विशे आमां जे कहेवायुं छे ते वास्तविक छे. रेंटियो गरीब परिवारोनो आधार बनतो ज हतो. घरे घरे रेंटिया-चरखा रहेता, गामेगाम वणकरोनी शाळो हती. गांधीजीए गामडाना अर्थतन्त्रमा रेंटियाने केन्द्रमा राख्यो हतो. प्रस्तुत रचनामां आ वात सुपेरे चित्रित थई छे - गांधीजीथी घणा समय पहेलां.
__ ग्रामस्वराज, स्वदेशी अने महिलाओना आर्थिक स्वावलम्बन क्षेत्रे कार्य करनारा समाजसेवकोने पण रस पडे एवी आ कृति छे. एक नारीना साहस, सूझ अने संस्कार, पण सुन्दर चित्रण आमां थयुं छे.
बाई रे अमनें रेंटीयो वालो, रेटीयो घरनो मंडाण जो, परणी त्रीया छोडीने चाल्यो, गयो परदेशे कंत जो... बाई० १ बारे बरसे परण्यो आव्यो, दोढ त्रांबीयो लायो रे, गंगा माहें नावा पेंठो, देढ त्रांबीयो पाड्यो रे... बाई० २ माय ताय ने ससरे सासु, अमने कीधां अलगां रे, दुख वीसारण रेंटीओ धार्यो, जेहने जइनें वलगां रे... बाई० ३ देणु उतार्यु सारु पिउनु, व्याजे रुपिया वाधे रे, सुण चितारण [?] रुपीयो रुडो, पुन्ये कंत ए लाधो रे... बाई० ४ देरांणी-जेठाणी आवे, बोले मीठी वाणी रे, रेंटीया ना प्रसादथी तो, बीजी आंणे पाणी रे... बाई० ५ रेंटीया ना परसादथी तो, कोडी काम में कीधा रे, दान दीधो अमे अती घणो तें, महीयलमां जस लीधो रे... बाई०६
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अनुसन्धान-७३
आबू तीरथी उपनो, रुडी ताहरी जात रे, दीवसे रातें रेंटीयो कांतं, चढीयो माहरे हाथ रे... बाई० ७ रेंटीयाथी आभूषण भारे, पेहेर्या चीर ने सालु रे, मुंघा कमखानी कांचली पहिरी, भोजन कीधां सार रे... बाई०८ सासरीया-पीहरीयां आवे, बाइ घरे तुमे आवो रे, छोकरडांने ताढि वाई छे, झूलडियो सीवरावो रे... बाई० ९ सेत्रुजानी जात्रा थकि [?] कीधी साथे पीअरीया सासरीया रे, गोत्र कुटुंब ने नर ने नारी संघवीण नाम धरीयो रे... बाई० १० त्रिणसें एकावन माफाली वेहेलुं, गाडां ग्यारसें पंच्यासी रे, बिसे घोडा उपर पंचागुं, ऊंट त्रणस्य वली छयांसी रे... बाई० ११ हीरविजयसूरी पांत्रीस उपाध्या, ठाणु त्रिणसें त्र्यासी रे, नव अंगे पूजा पारणां कराव्यां, गुरु भगती करी बारे मासौ रे... बाई० १२ वीस ओली पांचम इग्यारस, तप सघलो में कीधो रे, ठवणी चाबखी सिधांत लखावी, साधु साध्वीनें दीधां रे... बाई० १३ उजमणां घरहाट कराव्या, सासु ससरानो खरच कीधो रे, दीकरा दीकरी भाणेज परणाव्यां, रतन रेटीडे जस लीधो रे... बाई० १४ घेबर जलेबीए गोरणी कीधी, लेणी थालीनी कीधी रे, सवासेर खांड ने एक रुपीयो, चोरासी नातें दीधी रे... बाई० १५ बाप बाइ ने ससरो प्रीतम, दामे सगपण तेह रे, रतन रेंटीयो जीव जिहां लगे, कदी न आवे छेह रे... बाई० १६ धरी त्राग ने माल-चमरखां, तेल लोट वली पूणी रे, अल्प मागे ने घणु दिइं रेंटीयो, नारी कमाइ घणी पुंजी रे...बाई० १७ सायर ति(नि) वनस्पति डुंगर, धूतारा सूरज चंदा रे, कोडि जुग्ग लगे रहो रेटीयो, स्त्री घर सदा आणंदा रे... बाई० १८ सोल पांत्रीसें मेडता नगरे, सुदि तेरस माह मासें रे, रतनबाइई रेंटीयो गायो, सवी फली मननी आस रे... बाई० १९
C/o. जैन देरासर, नानी खाखर (कच्छ)
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सप्टेम्बर - २०१७
मुंघा झूलडियो संघविण धरी चाबखी चमरखां चितारण
थोडा शब्दो मोंघा
ताढि झबलां, खमीस माफाली
उपाध्या रेंटियानी धरी
संघवण
टाढ माफावाळी उपाध्याय त्राक, त्रागडो
त्राग
माल
जुग्ग
युग, जुग
चितारनी पत्नी
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६२
अनुसन्धान-७३
केटलांक पदो
- सं. प्रा. अनिला दलाल
ला. द. विद्यामन्दिरमा ह.लि. ग्रन्थसंग्रहमां प्र.क्र. ८२२१९ पर त्रण पानांनी, सम्भवतः १९मा शतकमां लखायेली, एक प्रति छे. तेमां लखेलां पदो अत्रे सम्पादित करवापूर्वक आपवामां आव्यां छे.
प्रथम पद नेमिनाथ-सम्बन्धित छे. पांच कडीना आ लघु पदमां, तेना कर्ता शिवरतन साधुए, राजीमतीना हृदयनी, नेमि-विरहजन्य शोकाकुलतानुं भावुकतासभर वर्णन कर्यु छे.
बीजा क्रमे थंभण पार्श्वनाथ- स्तवन छे. थंभण प्रभुनी प्रतिमा, पुराणकालमां, विविध देवो अने इन्द्रोए तथा राजाओए पूजी छे तेनुं क्रमिक वर्णन कर्या पछी सिद्धयोगी नागार्जुन अने ते पछी अभयदेवसूरि तेमज थंभणपुर (थामणा) साथे तेनो ऐतिहासिक सम्बन्ध कविए निर्देश्यो छे.
त्रीजी कडीमां 'वासग' ते वासुकी नाग समजवानो छे. कर्ता, नाम स्पष्ट जोवामां नथी आवतुं. छेल्ली कडीमां आवतो 'अमरविशाल' शब्द कर्तापरक हशे ?
त्रीजुं स्तवन पार्श्वजिनना १० भवोनुं स्तवन छे. आमां नव भवोनी ज वात छे. पहेलो भव विश्वभूति विप्रना पुत्र मरुभूतिनो गणाय छे, अहीं तेनुं वर्णन 'भव पहलें अमरविभूत' एम आपीने 'मरुभूत' नाम संकेतायुं छे. आठमी कडीमां 'वरकाणे हो थांन पयठा' - ए पंक्ति वरकाणा तीर्थनो निर्देश करी जती जणाय छे. नवमी कडीमां 'सब धरती कागज करूं, कलम करुं बनराय
सप्त समुंदर की मसि करूं, पर प्रभुगुन लिख्यो न जाय'ए प्रख्यात पंक्तिनो भाव ठालव्यो छे. त्यां 'मिसह' एटले मषी-साही अर्थ करवानो छे. १०मी कडीमां 'दे अपूतां पूंतडा' - अपुत्रीआने पुत्र आपे - एवो भाव छे. आमां पण कर्ता, नाम जणातुं नथी.
चोथु पद अध्यात्म-पद छे. तेना प्रणेता प्रख्यात साधक साधुपुरुष 'ज्ञानसार' छे. पदनुं कथ्य ए छे के मृत्यु आव्युं छतां जीव हजु बुझतो नथी. वैरागी-वीतरागीनो देखाव करतां आवडी गयो एटले ते देखाव-दम्भना सहारे, स्थूल सघळु छोड्युं, पण हजी मननी माया नथी छूटी.
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सप्टेम्बर - २०१७
आ प्रतिनी नकल आपवा माटे ला.द. विद्यामन्दिरना कार्यवाहकोनी आभारी
रहीश.
नेमिजिन पद नेम न जांणी मेरी पीर पीर
वारी वारी वारी... नेम ने(न)० बावीस सुभटनें जीतवा रे उपशम आण्यौ मन धीर धीर
धीग रे धिग धिग... नेम० रथडो वालीने नेम चल्या रे, दाख्यो हिवडा केरो हीर हीर
अरररर..... नेम० चंदवदन मृगलोयणी रे प्रेमनो मार्यो मोनें तीर तीर
तरररर..... नेम० आंसुडा झरती में धरणी ढळी रे जाणे आसाढडो नीर नीर
झरररर..... नेम० शिवरतन कहे नेम राजुल प्यारे करमरुपी या फाड्या चीर चीर
फरररर.... नेम० इति पदम्
थम्भण पार्श्वजिन स्तवन थंभणपुर श्री पास जिणंदो अश्वसेन कुल कमल दिणंदो
आमोले भवि कंदो...
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मोहराय सिर पाडै दंडो त्रिभुवन जास प्रताप अखंडो भवियण मन आणंदो...
भव भय-भीड भली परि चूरै मनवंछित सुखसंपति पूरै प्रभु कर मोरी सारो
वरुण ज कहीयै पच्छिम स्वामी तिण आराध्यो तुं सिर नामी वच्छर लक्ष ईग्यारो... २
असीय सहस संवछर भुयतल सेव्यो हियडै निरमल
वासग-विसहर स्वामी
पछै पूज्यो तूं परमेसर
सात मास नव दिवस निरंतर दसरथनंदण रामो....
३
ता काल प्रथम हरि ध्यायो द्वारिका नगरी पछै आयो पूज्यो देव मुरारो
द्वारिका दाह जलांतर रहियो सागरदत्त सेठ संग्रहीयो
कूं (कं) तीनगर मझारो... ४
नागार्जुन जोगी तिहा लीधो
सेढी तेहनो नवरस सीधो तुझ विण अवर न वीरो
उलट नदी वहै वरसालै
तास ऊंपर घण वेलू वालै गाय झरै तिहां खीरो...
५
अनुसन्धान- ७३
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सप्टेम्बर - २०१७
अभयदेवसूरी तिहां जांण्या भुई भीतरथी उपर आंण्या
तें तसु दीधी देहो थंभणपुर प्रासाद पयठा __नयणानंदण जग सहु दिठा
नील वरण जिम मेहो... ६ गुज्जरा धरणी धरणि धसक्कै थंभनयर प्रभु पास अलंकै
पुहवी प्रगट प्रमाणौ आदि तुमारी जग कुण जाणे __मति विण माणस किसुं वखांणै
हुं पिण सहज अय(या)णौ... ७ कामधेनु पुहती घर-अंगण कलियर चढीयौ कर चिंतामण
फलियौ अमर विशालौ देव दयाळु भावठ भंजण तुं तूठो थंभणपुर मंडण
श्री पारसनाथ सुविशालौ... ८ इति श्रीथम्भणा पार्श्वजिन स्तवनानि सम्पूरणानि याता ।
श्रीपार्श्वजिन भवस्तवन श्री सारद हो पाय प्रणमेवा
करुं स्तवन रलियामणो गुण गाविस हो पासकुमार
जिम घर होय वधामणो... पोतनपुर हो श्रीनयर मझार
अरवृंद भूपति राजियो
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६६
अनुसन्धान-७३
तस प्रोहित हो विश्वभूत
बेऊं पुत्रं करि गाजियो... भव पहलें अमरविभूत
बीजै भव गज ऊपना भव त्रीजै हो देव विमान
किरणवेग चोथै भवै... भव पांचमें हो सुरह विमान
वज्रनाभ छठे भवै सूर ऊपना हो सातमें जाण
चक्रवर्त्त भव आठमें... अपराजित हो देवविमान
नवमें भव सुर सुख लह्या स्वामि अवतर्या हो पोसह मास
पोसह वदि दशमी दिने... वाणारसी हो अस्वसेन राय
वामा कूखें अवतर्या मधरयणी हो छपनकुमार
चोसठ सुरपति नवराविया पिया मायें हो पासकुमार
नाम दियो पूगी रली... जिन परणी हो राजकुमार
परभावती रूपें भली तुं सांभल हो पासकुमार
दशावतारें अवतर्या... वरक्रांणे हो थांन पयठा
पायतल सुर नर संपजै थारै आवें हो जग सहु जात .
सहुना भाजै आमला...
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सप्टेम्बर - २०१७
ज्यु कागद हो गयण करेस
सहु वनराया लेखणी तलधरती हो मिसह भरेस
तो ही तुम गुण कुण लिखी सकै... ९ तुज आगे हो अपछरवंद
रंगें नाटिक सहु करें तुम पेखें हो पासकुमार
दुख दुरगति दूरे हरें... तुं दुखियां हो दुख गमाड
दो अपूतां पूंतडा तुं रोगियां हो रोग गमाड
एक-मना जे ध्यावसी... ११ गुण गावीस हो नित्य प्रकार
कर जोडी जिन आगलें तेंवीसमा हो जिनवर पास
सेवकनें सुखिया करो... १२ इतिश्री पार्श्वजिन भव स्तवन संपूर्णम् ॥
सोरठ मरणा तो आया माया
___ अजुन बुजाया म० बाह्य अभ्यंतर बगखग ज्यु
मानुं जोग कमाया... १ म० . निपट निकामी निपट निरागी
नीरमोही निरमाया ध्यांनी आतमग्यांनी जानी
ऐसा रूप दिखाया... २ म०
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मान छोड मद छिकता छोडी छोडी घरकी माया
कायासु सरुखा सब छोडी
अजहुं न छोडी माया... ३ म० सवतें अक स्वेतांबर इधकी ? सब सास्त्रमें गाया ग्यानसारकें सबसें वधती
माया पोंती आया... ५ म०
मरणा तो आया । अजु न बुजाया इति पदम् ॥ पां शंभूविजय लिखतम् सुग्यानार्थेऽभूतम् ॥
अनुसन्धान-७३
C/o प्रोफेसर कोलोनी, नवरंगपुरा, अमदावाद - ९
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सप्टेम्बर - २०१७
ट्रंक नोंध
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १. उपमितिभवप्रपञ्चा कथाना नाम अंगे विचारणा
श्रीसिद्धर्षिगणि विरचित उपमितिभवप्रपञ्चा कथा सुविख्यात छे. आ कथाना नाम अंगे थोडोक सन्देह रहेतो हतो. तेथी ते अंगे तपास करतां खम्भातना श्रीशान्तिनाथ जैन ताडपत्रीय ज्ञानभण्डार-गत १८५ क्रमांकनी अनुमानतः १३मा सैकानी आ कथानी ताडप्रतमां नीचे मुजब पुष्पिका वांचवा मळी -
'समाप्ता चेयमुपमितभवप्रपञ्चकथेति ।' आठमा प्रस्तावना अन्ते पण नीचे मुजब लखाण छे -
'इत्युपमितभवप्रपञ्चकथायां पूर्वसूचितमीलकवर्णनोऽष्टमः प्रस्तावः समाप्तः ॥'
__ भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट - पूना स्थित आ कथानी प्राचीन ताडपत्रनी फोटोकोपी पूज्य गणिवर्य श्रीवैराग्यरतिविजयजी म.ना सहकारथी प्राप्त थई छे. आ प्रतमां पण पहेला प्रस्तावना अन्तभागमां स्वयं श्रीसिद्धर्षिगणिजे जणाव्युं छे के -
'तदिदमवधार्याऽनेन जीवेनेयमुपमितभवप्रपञ्चा नाम कथा यथार्थाभिधाना।'
वळी कथानुं आ नाम स्वीकारीओ तो 'उपमितो भवप्रपञ्चो यस्यां सा उपमितभवप्रपञ्चा कथा' अम साक्षात् समानाधिकरण बहुव्रीहि समास समजी शकाय छे ते पण ध्यानपात्र मुद्दो छे. स्वयं श्रीसिद्धर्षिगणिजे 'कथाशरीरमेतस्या नाम्नेव प्रतिपादितम् । भवप्रपञ्चो व्याजेन यतोऽस्यामुपमीयते ॥' अम कहीने आवा प्रकारना समासविग्रहनु ज सूचन कयुं छे.
___ वळी, 'श्रीसिद्धर्षि' ओ पुस्तकमां श्रीमोतीचंद गिरधरलाल कापडिया उपमितिभवप्रपञ्चाकथा ना नामकरण सन्दर्भे नीचे मुजब जणाव्युं छे -
"उपमिति शब्द लईओ तो समास वधारे सारी रीते छूटी शके छे... उपमित कृदन्त छे अने उपमिति नाम छे. आ कारणे अने क्वचित् अवो पाठ
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असल प्रतिओमां लभ्य छे तेथी आ सवाल ऊभो थयो छे. छतां जैनग्रन्थोमां, सूचिओमां अने सम्प्रदायमां 'उपमिति' शब्दथी ज आ ग्रन्थनी ओळख ओटली बधी जाणीती थयेली छे के अमां फेरफार करवानी जरा पण जरूर नथी. जूनी प्रतोमां पण 'उपमिति' अभिधानपूर्वक ज आ ग्रन्थनो निर्देश थयो छे." आम, तेओ फक्त परम्पराना अनुसरण खातर ज - उपमितिभवप्रपञ्चाकथा ओ नाम स्वीकारवानुं जणावे छे.
आ सन्दर्भे ते ज पुस्तकना १९मा पृष्ठ पर, प्रो. पिटर्सन द्वारा सम्पादित अने बंगाळनी रोयल एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित उपमितिभवप्रपञ्चाकथा ना उपोद्घातमां डॉ. हर्मन जेकोबी ओ आ सम्बन्धे जे लख्युं छे ते जणावायुं छे
"Upamitibhavaprapanchā kathā. The proper form of the title is doubtful. The first part of the compound is usually given as Upamiti, but at the end of the 2nd & 3rd prastvas and in the Prabhāvakacharitra as Upamita. I should have preferred the latter; but the title chosen by Prof. Peterson is not altogether wrong and may therefore be retained.”
__हमणां उपाध्याय श्रीयशोविजयजीरचित धर्मपरीक्षा ग्रन्थमां पण बे ठेकाणे उपमितभवप्रपञ्चाकथा नाम ज वांचवा मळ्यु. आ ग्रन्थमा उपमितिनी लघु अने बृहत् - ओम बे आवृत्ति विशे पण जाणवा मळे छे.
__ आ बधा परथी जणाय छे के आ कथानुं साचुं नाम तो 'उपमितभवप्रपञ्चा' कथा होवू जोइओ. पण पाछळथी कोईक कारणसर 'उपमितिभवप्रपञ्चा' नाम रुढ थई गयुं हशे.
२. अचित्तमहास्कन्धमां पराघातत्व अंगे विभिन्न मन्तव्यो
__अचित्तमहास्कन्ध पुद्गलास्तिकायनो ओक अनन्तानन्तप्रदेशी सूक्ष्मपरिणामी स्कंध छे. वर्गणानी प्ररूपणामां सौथी छेल्ले अनी प्ररूपणा थती होय छे. आ अचित्तमहास्कन्धनी समुदघात-प्रक्रिया अंगे हमणां अक नवी जात जाणवा मळी.
अचित्तमहास्कन्ध समुद्धातनी प्रक्रिया द्वारा लोकव्यापी बनतो होय छे ए जाणीती वात छे. आ प्रक्रिया केवलिसमुद्धातनी जेम आठ समयनी ज होय छे
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- पहेले समये दण्ड, बीजे समये कपाट, त्रीजे समये मन्थान अने चोथे समये आंतरा पूरीने लोकव्यापिता. पछीना चार समयमां ते प्रतिलोम (ऊलटा) क्रमे संकोचाईने आठमा समयमा स्वभावस्थ थाय छे. आनाथी जुदी रीते भाषाद्रव्यो त्रीजा ज समये सकल लोकमां व्याप्त थई जाय छे - पहेले समये दण्ड, बीजे समये मंथान अने त्रीजे समये आंतरा पूरीने लोकव्यापिता. (जुओ विशेषावश्यकमहाभाष्य - गाथा ३८४-३८५).
प्रश्न ओ थाय के अचित्तमहास्कन्ध केम त्रीजे समये लोकव्यापी नथी बनी जतो? अने अने लोकव्यापी बनवामां जो चार समय लागता होय तो भाषाद्रव्योने त्रण ज केम? आनो उत्तर विशेषावश्यक-महाभाष्य-गाथा ३९४ अने तेनी मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी विरचित वृत्तिमां आ रीते अपायो छे -
"खंधो वि वीससाए न पराघाओ य तेण चउसमओ । अह होज्ज पराघाओ हविज्ज तो सो वि तिसमइओ ॥"
- "स्कन्धोऽचित्तमहास्कन्धः सोऽपि विस्रसया केवलेन विस्रसापरिणामेन भवति, न तु जीवप्रयोगेण । विस्रसापरिणामश्च विचित्रत्वाद् न पर्यनुयोगमर्हति । किञ्च, न तत्र पराघातोऽस्ति, नाऽन्यद्रव्याणामात्मपरिणाममसौ जनयतीत्यर्थः, किन्तु स निजपुद्गलैरेव लोकं पूरयति । ततोऽसौ चतुःसमयो भवति । अथ तत्राऽपि पराघातो भवेत्, ततः सोऽपि त्रिसामयिको भवेत्-त्रिभिरेव समयैर्लोकमापूरयेदित्यर्थः । न चैवं, सिद्धान्ते चतुःसमयत्वेन तस्योक्तत्वात् । तस्माद् नाऽस्ति तत्र पराघातः । अत्र त्वस्त्यसौ इति वैषम्यम् ।
आनुं तात्पर्य ओम समजाय छे के अचित्तमहास्कंध मात्र विस्रसा प्रयोगथी ज थाय छे, जीवनो प्रयोग अमां बिलकुल होतो नथी. ज्यारे भाषाद्रव्यो साथे तो जीवप्रयोग जोडायेलो छे. ज्यां प्रयोग छे त्यां प्रश्न थई शके. विस्रसा परिणाम तो विचित्र होवाथी अपर्यनुयोज्य(-प्रश्नातीत) ज होय छे. माटे अचित्तमहास्कन्धमां चोथा समये लोकव्यापिता केम तेवो प्रश्न ज न करी शकाय, अने करीओ तो विस्त्रसा परिणाम ओ ओक ज तेनो जवाब होय.
____ अथवा बीजी रीते पण आनुं समाधान शक्य छे. प्रबळ प्रयत्ने मुकायेलां भाषाद्रव्यो प्रथम समये छ दिशामां लोकान्त सुधी पहोंचनारा जे छ दण्ड रचे,
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ते दण्ड गति करतां करतां चारे दिशामां एक सरखी रीते भाषाप्रायोग्य द्रव्योने पराघात पाडे छे. मतलब के अन्य अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धोने शब्दात्मक परिणामवाळा बनावे छे. तेथी बीजा समये शब्दात्मक भावनाथी वासित अनन्तगुण द्रव्यो साथे चारे दिशामां प्रसरतां भाषाद्रव्यो छ मन्थान रचे छे. त्रीजा समये आ मन्थानोनां आंतरां पूरातां सर्वलोक भाषाद्रव्योथी व्याप्त बने छे. आमां चावीरूप बाबत 'पराघात' छे. अचित्तमहास्कन्ध जो पराघात करी शकतो होत ओटले के अन्य द्रव्योमां स्वपरिणाम उत्पन्न करी शकतो होत तो चोक्कस ते पण त्रण समयमां लोकव्यापी बनी शकत. परन्तु ते पराघात करी शकतो नथी, तेणे पोतानां पुद्गलो द्वारा ज व्याप्त थवानुं होय छे. तेथी ते प्रक्रिया अनिवार्यपणे दण्डमांथी मन्थान बनवामां वच्चे कपाट अवस्थानो एक समय वधारे ले छे. अने चार समय वीती जाय छे.
आ समाधान परथी समजाय छे के श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अने तेमने अनुसरीने मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी अचित्तमहास्कन्धने अपराघाती अन्य स्कन्धोने स्वपरिणाम नहीं पमाडनारो गणे छे.
-
हमणां आनाथी जुदी ज वात वांचवा मळी. श्रीदशवैकालिकसूत्रनी श्रीअगस्त्यसिंहसूरिजीओ रचेली चूर्णिमां त्रीजा अध्ययनना प्रारम्भे ‘महत्’ना निक्षेपाना विवरणमां जणावायुं छे के
—
दव्वमहंतं अचितमहाखंधो, सो सुहुमपरिणताणं अणंताणं अणंतपदेसियाणं खंधाणं तब्भावपरिणामेणं लोगं पूरेति । जहा केवलिसमुग्घातो डंडं कवाडं मंथुं अंतराणि चउत्थे समये पूरेति, एवं सो वि चउत्थे समये सव्वं लोगं पूरेत्ता पडिणियत्तति, एतं दव्वमहंतकं ॥
श्रीदशवैकालिकसूत्रनी अन्य चूर्णि जे 'वृद्धविवरण'ना नामे ओळखाय छे तेमां पण आवो ज पाठ मळे छे
तत्थ दव्वमहंतं अचित्तमहाखंधो भण्णइ, सो किर सुहुमपरिणामपरिणओ अणंताणंतपदेसिया खंधा तं तहाभावं परिणमंति जेण सव्वं लोगं पूरेति । जहा केवलिसमुग्घायादओ डंडकवाडमंथंतराणि य चउत्थे समये पूरेति, एवं सोवि चउत्थे समये सव्वं लोगं पूरेत्ता पडिणियत्तति, एतं दव्वमहंतं ॥
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आनो मतलब अम समजाय छे के श्रीदशवैकालिकसूत्रना चूर्णिकार भगवन्तोना मते अचित्तमहास्कन्ध पराघाती छे, अपराघाती नहि. तेथी ते अनन्ता अनन्तप्रदेशिक सूक्ष्मपरिणामी स्कन्धोने पोताना रूपे परिणमावीने लोकमां व्याप्त थाय छे, केवल स्वपुद्गलोथी नहि. अने तेम छतां लोकमां व्याप्त थवामां तेने त्रणने बदले चार समय लागे तो तेमां तथाप्रकारनो विस्रसा परिणाम ज कारणभूत गणी शकाय.
आ समग्र चर्चा- तात्पर्य ओ छे के विशेषावश्यक-महाभाष्यकार श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अने मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी सामे अचित्तमहास्कंधना समुद्धातनी प्रक्रिया अंगे जे परम्परा हती, तेना करतां कोई जुदी ज परम्परा श्रीदशवैकालिकसूत्रना चूर्णिकार भगवन्तो सामे होवी जोईओ, अने तेओए तेने अनुसरीने प्रतिपादन कर्यु हशे.
परन्तु, अनुयोगद्वारसूत्रना टीकाकार भगवन्तो आ सन्दर्भे अक नवी ज वात जणावे छे. तेओना कहेवा प्रमाणे अचित्तमहास्कन्ध मूळभूत रीते कोई ओक द्रव्य नथी, पण सकल लोकमां व्याप्त सूक्ष्मपरिणामे परिणत सघळु पुद्गलद्रव्य ज, तथाप्रकारना विस्रसा परिणामथी, पोताना स्वरूपने छोड्या वगर, (स्फटिकमां कृष्णवर्णना उपरंजन वगेरेनी जेम) अचित्त-महास्कन्धरूपे परिणत थाय छे, अने केवलि-समुद्घात जेवी प्रक्रिया द्वारा सकल लोकमां व्याप्त थाय छे. आ समुद्घातनी प्रक्रियानी समाप्ति साथे ते स्कन्धनो पण विनाश थाय छे. दरियामां आवती भरतीना दृष्टान्ते आ आखी प्रक्रिया समजवानी छे.
टीकानो मूळ पाठ - "बायरपरिणामेसु आणुपुब्विदव्वपरिणामो भवति, णो अणणुपुव्विअवत्तव्वगदव्वत्तणेण, जतो बायरपरिणामो खंधभावे चेव भवति । जे पुण सुहुमा ते विविधा वि अत्थि । किं च, जदा अचित्तमहाखंधपरिणामो भवति तदा सव्वे ते सुहुमा आयभावपरिणामं अमुंचमाणा तप्परिणता भवंति, तस्स सुहुमत्तणतो सव्वगतत्तणतो य । कहमेवं ? उच्यते, छायाऽऽतपोद्योतबादरपुद्गलपरिणामवद् (अग्निशोध्यवस्त्राग्निपरिणामवत् - चूर्णि) अणियत्तकालट्ठाई वट्टो उड्ड-अध चोद्दसरज्जुप्पमाणो सुहुमपोग्गलपरिणामपरिणतो पढमसमए दंडो भवति, बितिए कवाडं, ततिए मंथकरणं, चउत्थे लोगपूरणं, पंचमादिसमएसु पडिलोमसंघारेण अट्ठमसमयंते सव्वहा तस्स खंधत्तविणासो । एस जलणिधिवेला इव लोगापूरण
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रेयकरणट्ठितो लोगपुग्गलाणुभावो सव्वण्णुवयणतो सद्धेतो इति ।" (श्रीजिनदास महत्तरकृत चूर्णि तथा श्रीहरिभद्रसूरिकृत वृत्ति) ___आ वातने पण नयान्तरना आदेशथी उद्भवेली परम्परारूपे समजी
शकाय.
३. षोडशक प्रकरणनी अक गाथाना तात्पर्य विशे विचारणा
पूज्यपाद श्रीहरिभद्रसूरिजी विरचित षोडशक प्रकरण जैन श्रीसंघमां अति प्रसिद्ध छे. पदार्थबोध माटे ओ ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण गणायो छे. आ प्रकरण उपर श्रीयशोभद्रसूरिजी अने उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्ते वृत्ति रची छे. हमणां आ ग्रन्थनो स्वाध्याय करतां ओक गाथाना तात्पर्य विशे थोडीक विचारणा करवान बन्युं, ते अत्रे नोंधुं छु.
षोडशक प्रकरण अन्तर्गत त्रीजो अधिकार सद्धर्मलक्षणाधिकार छे. तेमां सद्धर्मनुं लक्षण जणावनारी आ गाथा छ -
धर्मश्चित्तप्रभवो यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम् ।
मलविगमेनैतत् खलु पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः ॥ ३.२ आ गाथानी श्रीयशोभद्रसूरिजी कृत वृत्ति आम छे -
"प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः, चित्तरूपत्वाच्चित्तहेतुकत्वाच्च चित्तं, स चाऽसौ प्रभवश्च चित्तप्रभवः स धर्मो विज्ञेयः, विशेषणसमासाङ्गीकरणाद् यच्छब्देन चित्तमेव परामृश्यते । यतः- चित्तात् क्रिया प्रवर्तते विधिप्रतिषेधविषया, सा च क्रिया कार्य, चित्तनिष्पाद्यत्वात् । तच्च स्वरूपेण क्रियालक्षणं कार्यं कीदृशं यच्चित्तात् प्रवर्तते ? इत्याह - अधिकरणाश्रयम् । इह यद्यप्यधिकरणशब्द: सामान्येनाऽऽधारवचनस्तथाऽपि प्रक्रमाच्चित्तस्याऽधिकरणम्- आश्रयः शरीरं, चित्तस्य शरीराधारत्वात् । क्रियालक्षणं कार्यमधिकरणाश्रयं- शरीराश्रयं यतः प्रवर्तते चित्तात् तच्चित्तं धर्म इत्युक्तम् । ... एतदेव- चित्तं मलविगमेन- रागादिमलापगमेन पुष्ट्यादिमत्- पुष्टि-शुद्धिद्वयसमन्वितम्, एष धर्मो विज्ञेय इति ॥" ।
ज्यारे उपाध्याय श्रीयशोविजयजीओ आनुं विवरण आम कयुं छे - "धर्मश्चित्तप्रभवो- मानसाकूतजो, न तु सम्मूर्छनजतुल्यक्रियामात्रम् ।
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यतो- धर्मात्, क्रियाया- विहित-निषिद्धाचरण-त्यागरूपाया, अधिकरणम्अधिकारस्त-दाश्रयं कार्यं भवनिर्वेदादि भवति । एष मार्गानुसारी धर्मो लक्ष्यो, न त्वभव्यादिगतोऽपि। स च मलविगमेन पुष्ट्यादिमदेषः चित्तं विज्ञेयः । लक्षणनिर्देशोऽयम् ॥"
आ बन्ने विवरणोमां आ गाथाना उत्तरार्धना अर्थघटननी बाबतमां ओकवाक्यता छे के "रागादिमलना अपगमथी पुष्टि अने शुद्धिवाळु बनेलुं चित्त ज धर्म छे." ओ ज रीते मनना परिणामविशेषोने ज धर्म कहेवाय अq सूचवनारी 'धर्मश्चित्तप्रभवो' ओ पंक्तिना अर्थघटनमा शाब्दिक तफावत होवा छतां, बन्ने जग्याओ तात्पर्य तो ओक ज छे. भिन्नता फक्त 'यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम्' ओ बीजी पंक्तिना अर्थघटनमां ज छे.
श्रीयशोभद्रसूरिजी महाराज 'चित्तप्रभवः' शब्दनो थोडोक अटपटो समासविग्रह करीने 'यतः'थी 'चित्त'ने पकडे छे. अने जणावे छे के जे चित्तथी विधि-प्रतिषेधविषयक क्रिया प्रवर्ते छे ते चित्त ज धर्म छे. आ क्रिया चित्तनुं कार्य छे. आ कार्य केतुं छे ? 'अधिकरणाश्रयम्'- चित्तना अधिकरणरूप जे शरीर, ते शरीर कार्य, आश्रयस्थान छे. मतलब के जे चित्तथी पोताना अधिकरणभूत शरीरमा आश्रित विधि-प्रतिषेधविषयक क्रिया प्रवर्ते ते चित्त ज धर्म छे. अन्वय आम थशे - 'यतः- चित्तात्, क्रिया- विधिप्रतिषेधविषया (प्रवर्तते) । सा च क्रिया कार्यम् । कीदृशम् ? अधिकरणाश्रयम् ।'
___ उपाध्यायजी भगवन्त 'यतः'थी 'धर्म'नुं ग्रहण करे छे. आ धर्मथी 'क्रिया'- विधि-प्रतिषेधविषयक क्रियाना 'अधिकरणाश्रयम्'- अधिकारने आश्रित (अधिकारथी जन्य) 'कार्य'- भवनिर्वेदादि थाय छे. अर्थात् धर्म चित्तना परिणामथी जन्य छे, अने ते धर्मथी क्रियाना अधिकारने आश्रित भवनिर्वेदादि थाय छे.
आ बन्ने अर्थ परस्परथी जुदा पडे छे. अत्रे श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज वास्तवमां 'यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम्'थी कंईक जुदु ज सूचवता होय ओम जणाय छे. केम के श्रीयशोभद्रसूरिजी महाराजना विवरणगत आ पंक्तिनो अर्थ क्लिष्ट तो लागे ज छे, पण 'जे चित्तथी क्रिया प्रवर्ते' अटलं जणाववा माटे 'यतः क्रिया' सिवायना शब्दो पण वधाराना पडे छे. केम के आ क्रिया चित्तनुं कार्य
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छे अने चित्तना अधिकरणरूप शरीरमा आश्रित छे ओवी क्रिया- सामान्य स्वरूप देखाडनारी बाबतोने 'सद्धर्म'ना लक्षण साथे शी निस्बत ? वळी, 'यतः'थी 'चित्त'- ग्रहण करवा माटे 'चित्तप्रभवः'नो विग्रह पण केवो अटपटो करवो पडे
छे?
उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्तना विवरण प्रमाणे जोईओ तो, जे 'अधिकार' अने 'अधिकरण' शब्द बहु जुदी अर्थच्छायाओ धरावे छे, ओ बन्नेने तेमणे पर्यायवाची बनाव्या छे, जे विचारणीय लागे छे. वळी, 'क्रियाना अधिकारथी जन्य' आवो अर्थ जणाववा माटे मान्य परिपाटी प्रमाणे 'क्रियाधिकरणाश्रितं' कहेवाय, 'क्रियाधिकरणाश्रयं' नहि. बीजी वात, 'क्रिया' अने 'कार्य' जेवा सामान्य शब्दोना आवा विशिष्ट अर्थो करवाना छे ते सूचवनारी कोई कडी आखा सन्दर्भमां जडती नथी.
वास्तवमां आ गाथा पछीनी त्रीजी गाथामां ज अत्रे 'क्रिया' अने 'कार्य' थी | लेवानुं छे ते स्पष्ट सूचवायुं ज छे -
रागादयो मलाः खल्वागमसद्योगतो विगम एषाम् ।
तदयं क्रियाऽत एव हि पुष्टिः शुद्धिश्च चित्तस्य ।
आनुं तात्पर्य ओम समजाय छे के "रागादि मलोनो, आगमने अनुसरीने थता सद्योगथी, अपगम थाय छे. तेथी आ मलविगम ‘क्रिया' छे अने तेनाथी चित्तनी पुष्टि-शुद्धि थाय छे."
बीजी गाथामां जणावाया प्रमाणे पुष्टि-शुद्धिवाळं चित्त ज धर्म छे. तेथी अत्रे ओवं तात्पर्य नीकळशे के 'मलविगम' ओ ‘क्रिया' छे अने तेनाथी प्रादुर्भाव पामतो 'धर्म' ओ तेनुं 'कार्य' छे. हवे आ सन्दर्भने पकडीने 'यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम्' ओ पंक्तिनो अर्थ विचारीओ तो -
'धर्म' चित्तमां जन्मे छे (चित्तात् प्रभवो यस्य सः) आवा आचार्यना विधान सामे प्रश्न थई शके के 'आQ केम ?' आना जवाबमां आचार्य न्यायशास्त्रनो बहु जाणीतो नियम देखाडे छे. न्यायशास्त्रमा कारण अने कार्यसामानाधिकरण्य संमत छे. आनो अर्थ ओ थाय के कारण (कारणात्मक क्रिया) जे अधिकरणमा प्रवर्ते ते अधिकरणमां ज कार्य जन्मे. जेम के अग्निसंसर्गरूप क्रिया ज्यां प्रवर्ते त्यां ज पाक थाय, बीजे नहि. आ ज नियम अत्रे लागु पाडवानो
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छे. मलविगमरूप क्रिया चित्तस्वरूप अधिकरणमां प्रवर्ते छे तो तेनाथी जन्य पुष्टि- शुद्ध्यात्मक धर्म पण चित्तमां ज ऊगे, अने तेथी धर्म 'चित्तप्रभव' ज गणाय. आ भाव अत्रे आम सूचवायो छे - यत:- जे कारणथी, कार्यं - कोईपण कार्य, क्रियाधिकरणाश्रयं- क्रियाना अधिकरणमां आश्रित (क्रियाया अधिकरणं क्रियाधिकरणं, तद् आश्रयो यस्य तत् क्रियाधिकरणाश्रयं) होय छे माटे धर्मश्चित्तप्रभवः - कार्यस्वरूप धर्म पण मलविगमात्मक क्रियाना अधिकरणरूप चित्तमां जन्मनारो होय छे. आ सन्दर्भे हवे पछीनी पंक्तिओ बहु ज योग्य रीते संगत थई शक ओम जणाय छे.
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विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान-७२ना सम्पादकीय निवेदनमा जैन इतिहासना पुनर्लेखन विशे केटलीक मुद्दानी वातो थई छे. आ वातो कोईके करवा जेवी हती ने योग्य रीते ज ते थई छे. संशोधन/इतिहास जेवा क्षेत्रे श्रमणसंघ हजी कदाच 'मुग्ध तरुण'नी मानसिकतामांथी बहार आव्यो नथी. (जो के आ वात विज्ञान, संगीत जेवा क्षेत्रे पण एटली ज लागू पड़े अने श्रावकवर्गने पण लागू पडे.) इतिहासलेखके इतिहास शोधवानो होय छे, रचवानो नहि. मुग्ध किशोर हवाई किल्ला चणे एम अतिउत्साही मुग्ध भाविक जनो दन्तकथा के मान्यतानी आसपास काचा-पाका साक्ष्यो- पूराण करी तेने इतिहासनो आकार आपता होय छे. इतिहासकारे कया प्रकारनी सज्जता केळववी पडे अने सज्जता केळव्या पछी केवा प्रकारचं काम करवू पडे - तेनो ख्याल, जरा मर्माळी रीते, पण शब्दो चोर्या विना, सम्पादक आचार्यश्रीए सम्पादकीयमा आप्यो छे.
स्तोत्रसाहित्यनी एक अधूरी रचना 'विज्ञप्तिका' 'भेजानुं दहीं' करावे एवी छे. एक ज श्लोकमांथी चोवीश तीर्थंकरोनी स्तुतिनो भिन्न भिन्न रीते अर्थ करवामां आव्यो छे. ११मा तीर्थंकर सुधीनी ज व्याख्या उपलब्ध छे. आवी कृति सम्पादित करवी ए पण मानसिक श्रम मागी ले एवं काम छे.
महामन्त्री वस्तुपालना सुकृत्योनी दस्तावेजी नोंध समावती बे प्रशस्तिओ आ अंकमां सर्वप्रथम वार प्रगट थाय छे, जे आ महान नरवीरना कर्तृत्वना आलेखमां घणो बधो उमेरो करे छे. मन्त्रीश्वरे मात्र जैनधर्मनां ज कार्यो कर्यां - एवं नथी; अन्य धर्मनां तथा प्रजाकीय सुखाकारीनां कार्यो पण ढगलामोढे कर्यां छे. आ प्रशस्ति कोई जिनालयमां उत्कीर्ण हती, ते मूळ शिलालेख मळतो नथी, तेनी प्रतिलिपि कोईके करी राखी हती, ते मळे छे. आ प्रशस्तिनो पाठ शुद्ध करवामां सम्पादक मुनियुगले खासी महेनत उठावी छे. थोडा शंकित । त्रुटित स्थानोमां संमार्जन सूझ्यां छे, ते नोंg छु :
प्रथम प्रशस्ति. श्लो. ११मां ल्वा(?) छे त्यां छायादायाद° पाठ संगत
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बने. श्लो. २४मां "रालक्ष्य'ने स्थाने 'रालिख्य' पाठ बेसे छे. श्लो. ९४ना त्रीजा चरणनो खुटतो शब्द 'कलितः' ज छे; यमकना सन्दर्भे पण ए ज आवी शके छे अने अर्थना सन्दर्भे पण गोठवाय छे. एक 'कलितः'नो अर्थ 'कलिकालथी', बीजानो अर्थ युक्त / शोभित (-परमया रमया कलितः). श्लो. ९६मां 'खेदोद' छपायुं छे त्यां 'स्वेदोद' जोईए. श्लो. १३५नुं प्रथम चरण आम विचारी शकाय :
"साहित्याम्बुनिधिः सुबुद्धिजलधिः सत्तर्कलीलावधिः" (हरिभद्रसूरि साहित्यना अम्बुनिधि, सुबुद्धिना जलधि अने सुन्दर तर्कनी लीलाना अवधि-पराकाष्ठा समान हता.)
बीजी प्रशस्ति महदंशे शुद्ध छे. स्थलनामो, व्यक्तिनामो तथा कार्यसूचि ठांसी-ठांसीने भरेलां होवा छतां काव्यरस जळवायो छे.
पृ. ८३ पर 'कहो कहो रे पंडित...' ए हरियालीनो उकेल पाछळथी सूझ्यो छे : मंदिर अने धजा.
'अषाढाभूति सतढालियु' रसाळ रासकृति छे. व्याख्यानमां आवा रासो गवाय अने तेनां विवरण थाय त्यारे श्रोताओने रसल्हाण थई रहेती; ए दृश्य आ लेखके बालपणमां जोयुं छे. रासनी वाचना प्रायः शुद्ध छे.
'वेदों का अपौरुषेयत्व' अने 'एक भ्रष्ट पाठे...' बने लेख अभ्यासीओने आनन्ददायक बनशे.
जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५
जि. कच्छ, गुजरात
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________________ प्राचीन जिनचोवीसी- एक चित्र