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________________ अनुसन्धान-७३ श्रीजयशेखरसूरि-शिष्यश्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिविहितः श्रीऋषभदेवसिंहावलोकस्तवः (सावचूरिकः) - सं. पं. कल्याणकीर्तिविजयगणिः मध्यकालना साधु-कविओए असंख्य रचनाओ करेली छे. विविध कल्पनो, छन्दो, अलङ्कारो, भाषाओ, आ बधां ज वानांने माध्यम बनावीने आ कविओए कविकल्पनाना आकाशमां मुक्त उड्डयन कर्यु छे. भारतना कोई पण युगना अने कोई पण क्षेत्रना तथा धर्म-सम्प्रदायना कविओ तथा विद्वानोनी प्रसिद्ध अने प्रशंसाप्राप्त रचनाओनी होडमां तथा हरोळमां ऊभुं रही शके तेवं आ साहित्य ते गुजरातनी अक आगवी संपत्ति छे. जो के जैन साहित्य तरफनी भारोभार विमुखता तथा घणीवार तेजोद्वेष वगेरेने कारणे सांप्रत कविओ, विद्वानो, साहित्यिक, ते तरफ ध्यान जतुं नथी. परन्तु तेथी आ कविओनी काव्य-साहित्यसृष्टिने कोई आंच-ओछप आवे तेम नथी. मूल्यवान झवेरात हाथमां आव्या पछीये तेनी उपेक्षा करे तेने ज नुकसान थतुं होय छे. प्रस्तुत 'सिंहावलोकस्तव' ए यमक अलङ्कारमय एक विद्वत्तापूर्ण सुन्दर स्तोत्रकाव्य छे. तेनी कविए ज रचेली अवचूरि पण साथे ज होवाथी काव्यने समजवामां सुगमता थाय छे. ___ आ कवि १५मा सैकामां थया छे. अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुङ्गसूरिना शिष्य हता; जयशेखरसूरि तेमना विद्यागुरु हता. तेओए चतुःपर्वीचम्पू, श्रीधरचरित्र, धर्मदत्तकथानक, गुणवर्मचरित वगेरे ग्रन्थोनी रचना करेली छे. पृथ्वीचन्द्रचरित्र नामे प्रसिद्ध गुजराती गद्य कृति पण तेमनी ज रचना छे. (सन्दर्भ : जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, मो. द. देसाई). कृतिनी प्रतिनी जेरोक्स नकल अमने क्यांकथी मळेली छे, ते उपरथी आ सम्पादन यथामति कर्यु छे. मनो हरन्तं जगतो निरन्तरं, निरन्तरङ्गारिभयं स्वभावतः । स्वभावतः स्वर्गसदानतं सदा-ऽतं सदाभं वृषभं स्तुते न कः ? ॥१॥ अवचूरिः मनो० कः पुमान् वृषभं न स्तुते ? किं कुर्वन्तं ? निरन्तरं जगतो मनो हरन्तं, स्वभावतः निर्गतः अन्तरङ्गारिभयं; स्वकीयभावत; स्वर्गसदो देवास्तैरानतं-नमस्कृतं, सदा अनतं-अगञ्जितं, सदाभंसत्प्रभम् ॥१॥
SR No.520574
Book TitleAnusandhan 2017 11 SrNo 73
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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