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सप्टेम्बर - २०१७
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यतो- धर्मात्, क्रियाया- विहित-निषिद्धाचरण-त्यागरूपाया, अधिकरणम्अधिकारस्त-दाश्रयं कार्यं भवनिर्वेदादि भवति । एष मार्गानुसारी धर्मो लक्ष्यो, न त्वभव्यादिगतोऽपि। स च मलविगमेन पुष्ट्यादिमदेषः चित्तं विज्ञेयः । लक्षणनिर्देशोऽयम् ॥"
आ बन्ने विवरणोमां आ गाथाना उत्तरार्धना अर्थघटननी बाबतमां ओकवाक्यता छे के "रागादिमलना अपगमथी पुष्टि अने शुद्धिवाळु बनेलुं चित्त ज धर्म छे." ओ ज रीते मनना परिणामविशेषोने ज धर्म कहेवाय अq सूचवनारी 'धर्मश्चित्तप्रभवो' ओ पंक्तिना अर्थघटनमा शाब्दिक तफावत होवा छतां, बन्ने जग्याओ तात्पर्य तो ओक ज छे. भिन्नता फक्त 'यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम्' ओ बीजी पंक्तिना अर्थघटनमां ज छे.
श्रीयशोभद्रसूरिजी महाराज 'चित्तप्रभवः' शब्दनो थोडोक अटपटो समासविग्रह करीने 'यतः'थी 'चित्त'ने पकडे छे. अने जणावे छे के जे चित्तथी विधि-प्रतिषेधविषयक क्रिया प्रवर्ते छे ते चित्त ज धर्म छे. आ क्रिया चित्तनुं कार्य छे. आ कार्य केतुं छे ? 'अधिकरणाश्रयम्'- चित्तना अधिकरणरूप जे शरीर, ते शरीर कार्य, आश्रयस्थान छे. मतलब के जे चित्तथी पोताना अधिकरणभूत शरीरमा आश्रित विधि-प्रतिषेधविषयक क्रिया प्रवर्ते ते चित्त ज धर्म छे. अन्वय आम थशे - 'यतः- चित्तात्, क्रिया- विधिप्रतिषेधविषया (प्रवर्तते) । सा च क्रिया कार्यम् । कीदृशम् ? अधिकरणाश्रयम् ।'
___ उपाध्यायजी भगवन्त 'यतः'थी 'धर्म'नुं ग्रहण करे छे. आ धर्मथी 'क्रिया'- विधि-प्रतिषेधविषयक क्रियाना 'अधिकरणाश्रयम्'- अधिकारने आश्रित (अधिकारथी जन्य) 'कार्य'- भवनिर्वेदादि थाय छे. अर्थात् धर्म चित्तना परिणामथी जन्य छे, अने ते धर्मथी क्रियाना अधिकारने आश्रित भवनिर्वेदादि थाय छे.
आ बन्ने अर्थ परस्परथी जुदा पडे छे. अत्रे श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज वास्तवमां 'यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यम्'थी कंईक जुदु ज सूचवता होय ओम जणाय छे. केम के श्रीयशोभद्रसूरिजी महाराजना विवरणगत आ पंक्तिनो अर्थ क्लिष्ट तो लागे ज छे, पण 'जे चित्तथी क्रिया प्रवर्ते' अटलं जणाववा माटे 'यतः क्रिया' सिवायना शब्दो पण वधाराना पडे छे. केम के आ क्रिया चित्तनुं कार्य