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________________ २८ अनुसन्धान-७३ देवना देव जे नयणि न देखइ, देवता नवि लहइ जेय, अवर प्राणी सुखिइ ते घणूं पामइ, दुखि पुण नवि तजइ तेय जिनराया तेहनउ संग मूंकावि, जिम तुझ नमूं अविहड भावि... १ आवती जाती जेय जणाइ, आवती ते न जणाइ, दुख वीसारणी बहु दुख कारिणी, आवती सहूनई सुहाइ..... कामणगारी नारि ए निरगुणी, जगमाहइं जसु घणउ व्याप, अति घणी तेहनी केडि लेस्यइ सही, जेहनइ पोतइ पाप..... ब्रह्म कहइ जि को एहनी, संगति टालस्यइ साधु, मुगति सुख अविचल ते नर पामस्सइ, परिहरी सयल आबाध.... ४ उत्तर : निद्रा वर्ण-गंध-रस-फास विवर्जित, या सम अवर न दूजउ, वर्णादिक विणु कहयउ न जाइ, ताहि निरति करि बूजउ हो संतन अहनिसि हो मन प्रीति, हमि तु, वासे तीहइ लाइ, भाईओ, लहउ खट मास विचारी, देहु भांति सुमझाइ.... १ बहु जन कहते सोइ हमि पायउ, किनही न देखि दिखायउ तास नाम परिणाम अउर परि, जग भीतरि हरमा [खा]यउ... २ एक नर एक नारी मिली, विणु पाय चलावइ रे, ब्रह्मचारी धर्मवंत नइं, घणूं तेय सुहावई रे..... पांच मोटे रहइ परिवरी, नाचइं संचरइ साथि रे, ब्रह्म कहइ जिको ते धरइ, ते न लहइ अणाथि रे..... ४ उत्तर : आत्मा जेहथी उपनी तेहनइं, लेइ रही सर्व काल रे, जेणि उपायी तेहसूं, रमइ रंगि रसाल रे.....
SR No.520574
Book TitleAnusandhan 2017 11 SrNo 73
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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