Book Title: Anusandhan 2011 12 SrNo 57
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू( ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि HTTHUNTELLITITIM -0-0-- श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद डिसेम्बर, २०११ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ५७ आद्य सम्पादकः डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्कः C/. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ प्रकाशकः कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ प्रतिः २५० मूल्य: Rs. 150-00 मुद्रकः क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 निवेदन 'संशोधन'नो आधार अथवा पायो 'स्वाध्याय' छे, अने तेनी फलश्रुति 'स्वीकार' छे. स्वाध्याय एटले अध्ययन तेम ज अध्ययन करेल बाबतो विषे चिन्तन-परिशीलन. जेम जेम अध्ययन अने परिशीलन वधतां जाय तेम तेम ते तेजस्वी बनतां जाय. तेजस्वी अध्ययनना परिपाकरूपे थतुं संशोधन पण एटलुं ज तेजस्वी-मूल्यवान बनी रहे छे. वस्तुतः संशोधन ए करवानी चीज नथी; करवा जेवी चीज तो छे अध्ययन. अध्ययन जो सशक्त - सघन हशे तो संशोधन करवुं नहि पडे, ए सहजपणे थतुं जशे; संशोधन माटे मथवुं नहि पडे, ए आपोआप स्फुरवा मांडशे. फलतः संशोधन स्वयं एक स्वाध्याय बनी रहेशे. एक मजानुं उदाहरण टांकुं : अमदावादमां "आर्य भद्रबाहु अने मनुं निर्युक्तिसाहित्य'' विषे एक सेमिनार योजायेलो. डॉ. मधुसूदन ढांकी तेमां उपस्थित हता. वातवातमां तेमणे लुप्त के अज्ञात आगमग्रन्थो विषे कथन करतां कह्युं : “आजे जेने ध्यानशतकना नामे आपणे जाणीए छीए, ते 'झाणविभत्ती' नामे आजे लुप्त मनातुं आगम होय तो सम्भवित छे." आ विधान त्यां उपस्थित आचार्यादि सहुना मनमां एवुं तो वसी गयेलुं ! तो सतत स्वाध्याय करनारा अने निरन्तर खोजी मानस माटे आवा झबकारा थवा ए तद्दन सहज गणाय; आने आपणे 'संशोधन' सिवाय कया नामे ओळखी शकीए ? संशोधननो अर्थ अत्यारे जराक एकाङ्गी थतो जतो होवानुं अनुभवाय छे. कोई अप्रगट कृति लेवी, तेनी २-४ नकलो पण मेळवी लेवी; पछी तेनी प्रतिलिपि करीने, महदंशे कोई पासे करावीने, तेनां पाठान्तरो मेळव्या के एक ग्रन्थ तैयार ! एनुं ज नाम संशोधन ! अत्यारे आ प्रकारनी संशोधन - प्रवृत्ति व्यापक बनी रही होवानुं जोवा मळे छे. प्राकृत भाषाओनी जाणकारी, पदच्छेद के वाक्यरचनानी समज, कठिन / नवा शब्दो विषे ऊहापोह, छन्दोनो अभ्यास, आ बधुं तो क्यांक ज जरातरा जोवा मळे. सघन अभ्यास कर्या विना प्रतो मेळवीने संशोधक तरीके सिद्धप्रसिद्ध थवानो आथी वधु टूंको मार्ग कयो होय? अने पछी आवा संशोधको पूर्व सूरिओनां संशोधनो तथा मन्तव्यो/ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरीक्षणो/निष्कर्षो विषे यद्वातद्वा के आडेधड पोताना अभिप्राय लखी वाळे ! एम मानीने के अमे आवा धुरन्धरोनी पण भूल काढी बताडी ! स्वाध्यायनी ऊणप होय त्यां 'स्वीकार'नी भूमिका क्यारेय न रचाय. परम्परागत मान्यता तथा वातोने बदलती ने उथलावती वात, कोई शोधक, प्रमाणो साथे रजू करे; क्यारेक विमर्शरूपे तो घणीवार निष्कर्षरूपे; त्यारे आवा अधकचरा संशोधक बन्धुओ, प्रमाणो के तर्कसंगति विना ज, पोताना प्रतिभावो व्यक्त करीने पेला संशोधननो निषेध/अस्वीकार करी बेसे छे. 'स्वीकार' माटे होवो जोईतो मध्यस्थभाव ए लोको पासे नथी होतो. परिणामे उत्तम, उपयुक्त अने महत्त्वपूर्ण संशोधनोथी पण एवा लोको वेगळा ज रही जाय छे. संशोधन जेटलुं अगत्यनुं छे, ते करतां वधु अगत्यनुं छे शोधक मानस. शोधक मानस एटले खुल्लू मानस, मध्यस्थ मानस; कोई पण बाबतनो, संकुचित अने आग्रही/पक्षपाती दृष्टिथी, स्वीकार के इन्कार नहि करी देनारुं मानस. विपुल मात्रामां वांचन-स्वाध्याय, सातत्यपूर्ण परिशीलन-अनुप्रेक्षा अने तेना फलरूपे जागती उदार दृष्टि - ए ज आवा मानसर्नु उपादान बनी शके छे. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका श्रीवीतरागस्तवनं आदिनाथनमस्कारश्च ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १ उम्बरवाडिपार्श्वनाथ प्रशस्ति मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ ६ विद्वानोनो काव्यविनोद उपा. भुवनचन्द्र एक अनुकरणात्मक स्तुति-रचना मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ १६ पं. देवप्रभ विरचित कुमारपाळ रास मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ १८ ओसवाल गोत्र कवित्त मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ २६ श्रीज्ञानविजयकृत श्रीनेमिनाथस्तवन मुनि प्रशमचन्द्रविजय ३१ केटलीक फुटकळ कृतिओ रसीला कडीआ ३६ पं. देवचन्द्र रचित नवतत्त्व-चोपाई साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री ४३ आणंदवर्धन-रचित नवतत्त्व-चउपई साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री ६७ ट्रॅकनोंध : उत्तराध्ययन-नियुक्तिनी ओक गाथाना अर्थ विशे अर्हत्ना ३४ अतिशयो विशे आदिनाथस्तव (ते धन्ना...) विशे मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय स्वाध्यायः विशेषावश्यक महाभाष्यनो स्वाध्याय करतां... १०७ विहंगावलोकन उपा. भुवनचन्द्र ११४ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता जैनसाहित्य के सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन ११७ नवां प्रकाशनो १२५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरणचित्र-परिचय आवरण १ तथा ४ सरस्वतीदेवीनां मुघल-राजस्थानी शैलीनां मध्यकालीन बे चित्रो जर्जरित अने घसायेली हालतमा उपलब्ध थयां छे, ते अत्रे आपवामां आव्यां छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ श्रीवीतरागस्तवनं आदिनाथनमस्कारश्च ॥ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि पाटणना श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानभण्डारमा १ पानांनी, डा. १९१, क्र. ७३९९ नी एक प्रत छे, तेमां आलेखायेली बे लघु रचनाओ अत्रे प्रस्तुत छे. अनुमानतः प्रत १७मा शतकनी होवानुं जणाय छे. प्रथम रचना 'वीतरागस्तवन' नामे छे. संस्कृत १३ पद्यो प्रमाण आ रचनामां वीतराग जिनदेवनी प्रसाद-मधुर अने भावपूर्ण स्तवना थई छे. कर्ताए पोतानुं नाम स्पष्ट नथी जणाव्यु, पण १३मा पद्यमां आवतां 'चारित्रं सुन्दरं' ए पदो कर्ता- नाम सूचवी जतां जणाय छे. आ रचनाने छेडे एक प्रश्नोत्तरात्मक मजानुं पद्य छे, ते पण ते ज कर्ता- होय तेवं मानी शकाय. 'सुभाषित' गणी शकाय तेवू ए पद्य वांचतां ज आनन्द आपे तेवू छे. बीजी रचना छे 'आदिनाथ नमस्कार'. अपभ्रंशनी छांटवाळी गुर्जर भाषामां अने छप्पय छन्दमां रचायेली आ नमस्कारमां शत्रुञ्जय तीर्थपति श्रीआदिनाथनी वन्दना करवापूर्वक कर्ताए पोताना भवभ्रमण- बयान आप्युं छे, अने छेवटे तेनाथी थाकेला चंचल मनने निश्चल बनावीने तमारा शरणे रहेवानीराखवानी याचना करी छे. आमां पांचमा छप्पयमां शत्रुञ्जयना शिखरे चडीने तमारी पूजा करीश, अने रायणना वृक्ष तले तमारां पाय-पगलांनी पण पूजा करीश, ते उल्लेख ध्यान खेंचे तेवो छे. आ रचनाना कर्तानो सीधो उल्लेख अहीं जोवा मळतो नथी. कदाच छेल्ली पंक्तिगत 'आणंदिइं' ए कर्ता- सूचक पद होई शके. ----- श्रीवीतरागस्तवनं (१) मुंकारस्फाररूपं परमपदगतं छिन्नमोहप्ररोहं मायाहङ्कारमुक्तं त्रिगुणविरहितं त्यक्तनिःशेषसङ्गम् । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ ध्यायन्ति ध्यानगम्यं यमिह हृदि सदोद्योतिनं योगिनाथास्तं वन्दे देवदेवं निरुपमपरमज्ञानतेजःस्वरूपम् ॥१॥ न क्रोधो न भयं न मोहमहिमा नाऽहड्कृति! मृतिन द्वेषो न जरा न चाऽरति-रती निद्रा न यस्य क्षुधा । लोकालोकविभासकं निरुपमं यज्ज्ञानमव्याहतं नीरागाय निरञ्जनाय निरहङ्काराय तस्मै नमः ॥२॥ मोहद्रोहपरः स्वकर्मगहनं भस्मीचकाराऽखिलं शुक्लध्यानहुताशनेन सहसा यो योगिचूडामणिः । प्राप्तानन्तचतुष्टयं गतभयं निःसङ्ख्यतेजोमयं तं वन्दे जिनमप्रमेयमहिमागारं सुरेशार्चितम् ॥३॥ भक्तिं ते जगदीश ! ये जडधियो हित्वा परैः कर्मभिः कायक्लेशकरैस्तपःप्रभृतिभिः क्लिश्यन्ति मुक्त्याप्तये । तेषां क्लेशभरं विमुच्य भगवन्नाऽन्यत् फलं सम्भवे नूनं स्थूलतुषावगाहनकृतां यद्वज्जनानामिह ॥४॥ गर्वावेशविसंस्थ(स्थु)लाः कति सुराः केचिच्च रोषोद्धराः केचित् कामविडम्बिताः कति जगद्व्यापारबद्धादराः । रागद्वेषपराङ्मुखः शमरसास्वादैकबद्धस्पृहो नीरागो निरहकृतिस्त्वमिव नो देवः परः श्रीजिन ! ॥५॥ वश्या सिद्धिवधू वं करतले ताः सिद्धयोऽष्टावपि स्वर्गश्चात्मगृहं सुकेवलरमा तेषां न दूरस्थिता । ये त्वां जन्मजरान्तदुःखदलनं संसारवारच्छिदं कर्मातीतमनन्तमुज्ज्वलतरं ध्यायन्ति योगीश्वराः ॥६।। ते धन्यास्ते गुणज्ञास्त इह सुनिपुणा ज्ञानतः स्वास्त एव श्लाघ्यास्ते ते नमस्या जगति गुणवतां ते सदभ्यस्तशास्त्राः । योगाभ्यासे निलीना असमशमरसास्वादपीना हृदन्तर्ये त्वामव्यक्तरूपं जिनवर ! दिवसाश्चिन्तयन्तो नयन्ति ॥७॥ वीतातङ्कं विशङ्ख विगतकलिमलं निश्चलं निःकलङ्कं ध्येयं ध्यातृप्रदत्तोत्तमसुखनिचयं ध्यानगम्यस्वरूपम् । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ध्यायेदव्यक्तरूपं स्वहृदयकमले यश्चिदानन्दकन्दं त्वामानन्दाद् वृणीते प्रगुणगुणगणं तं स्वयं मुक्तिलक्ष्मीः ॥८॥ तत्त्वज्ञानमयं महोदयमयं कारुण्यलीलामयं शान्तं सूक्ष्ममनन्तमक्षरमनाकारं परं त्वां विभो !। ध्यायेद् यो हृदयाम्बुजे हततमस्तोमं शतार्कप्रभं तस्याऽऽदेशकरी च निर्वृतिपुरी निःसङ्ख्यसम्पत्करी ॥९॥ रामास्त्रेण जिगाय यो हरिहरब्रह्मादिदेवान् क्षणाद् ध्यानाग्नौ मदनृत्तमाप मदनः स ख्यातवीर्योऽपि ते । ज्ञानाब्धौ त्रिजगद् बित्ति भगवन् ! सूक्ष्मैकमत्स्योपमां स त्वं कोऽपि जिनाऽस्यचिन्त्यमहिमा तत्त्वं परं योगिनाम् ॥१०॥ गात्रं पात्रं कृपायाः परमशमरसास्वादहृद्या गिरस्ते शत्रौ मित्रे समानं हृदयमपगतद्वेषरागं सदैवम् । दुर्जेयं मोहमल्लं तदपि किल भवान् द्राग् विजिग्य(ग्ये?) स्वरूपं तत् ते को वेत्ति सम्यग् जिनवर ! विमलज्ञानिनं वै विहाय ॥११॥ यद्वद् हंसाः स्मरन्ति प्रतिदिनममलं मानसं मानसान्तश्चन्द्रं यद्वच्चकोरास्तरपि(णि)मुरुरसाच्चक्रवाका यथैव । स्वामिन्नव्यक्तरूपं परमपदगतं पुण्यपापोज्झितं त्वां तद्वद् ध्यायन्ति नित्यं त्रिभुवनमहितं योगिनो मोक्ष[लब्ध्यै ?] ॥१२॥ याचे न प्राज्यराज्यं न च विषयसुखं न श्रियं नापि भोगान् न स्वर्गं न त्रिवर्गं न च वररमणीसङ्गमं नोरुकीर्तिम् । वृत्तादिप्रोक्तमन्त्रस्मृतिधृतिरुचिरं नित्यवैराग्यरङ्ग चारित्रं सुन्दरं मे जिन ! जननहरं देहि त्व (स)द्भक्तियुक्तम् ॥१३॥ इति श्रीवीतरागस्तवनम् ॥ किं कर्पूरशलाकया यदि दृशः पन्थानमेति प्रियः ? सन्तश्चेदमृतेन किं ? यदि खलास्तत् कालकूटेन किम् ?। दातारो यदि कल्पशाखिभिरलं, यद्यर्थिनः कै (किं) तृणैः ? संसारेऽपि सतीन्द्रजालमरं यद्यस्ति तेनापि किम् ?॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ श्रीआदिनाथनमस्कार (२) भत्तिइं पणमिसु आदिदेव सेत्तुजसिरि मंडण भवीयण मन आणंदकरण कम्मट्टविहंडण । सुर नर किंनर नमइ तुब्भ मणभत्तिइं पाया पावपंकफेडणसमत्थ तूं तिहुयणि राया ।। भवभंजण भागु भमीअ तूं पय सरणह राखि कर जोडीनइ वीनवू मुगतिमारगडु दाखि ॥१॥ वस्यु काल अनादि नाथ निगोद मझारि सतर वार एक सासमाहि तहि मरण पयारिइं । नीलि फूलि अनंतकाय कंदिइं हूं भमीउ वरस कोडिलख ते मझारि मई काल नीगमीउ ।। पुढवी पाणी अग्नि पुण वाय वणस्सइ जाइ । बि ति चउरिंदी भवि भमीय लाधु मानवकाय ॥२॥ विनडई च्यारि कषाय क्रोध माया मद मच्छर यौवन भरि शृंगाररंगि मइं गम्या संवच्छर । लोभ लगइ कूडी बुद्धि मई कीधी सामी वंच द्रोह छेल छदम भावि नरयागइ पामी ॥ छेअण भेअण भूख उस(?उर?) सही दुःख अनंत अजखित्ति शुभकरमवसि श्रावयकुलि संपत्त ॥३॥ राग भावि निरखंत रूप ए नयण निरंतर परदूषण ए श्रवण सुणइं अट्टडाइ मणंतर । जीभ न पामइं त्रिपति किम्हइ आहार करती वारिउं न करई क्षणह एक परदोष वंध(वदं)ती ॥ नासिका परिमलगुणि लबध विषयव्यापित देह । तुझ पय तूठई देव हवं करिसु करमनु छेह ॥४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ सेत्रुजसिहरि चडीय नाह कहीयं तूं अरचिसु राइणि रूंखह तलइ पाय आणंदिहिं चरचिसु । न्हवण विलेपण पूजा करी आरती ऊतारिसु रोग शोक भावठि भमण हूं दूरि निवारिसु ॥ चंचल मन निश्चल करीय राखिसु जिण तूं नामि मण आणंदिइं मागीइए चरण शरण तुम्ह सामि ॥५।। इतिश्री आदिनाथ नमस्कार समाप्तः ॥ -X केटलाक शब्दो अनन्तकाय - अनन्त आत्माओ- एक शरीर गणाती वनस्पति नरयागइ - नरक गति अजिित्ति – आर्य क्षेत्रे अट्टडाइ - 'अथडाय (?)' त्रिपति - तृप्ति Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ उम्बरवाडिपार्श्वनाथ प्रशस्ति - मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ सुरत शहेर एटले जिनालयोथी मण्डित एक धर्मनगरी. जेमां प्राचीनता, ऐतिहासिकता, शिल्पस्थापत्य के कलाकारीगरी ए दरेक दृष्टिए विविधता पण जोवा मळे. अहिं आपणे सुरतनाज सौथी प्राचीन जिनालय सन्दर्भे वात करवी छे. किंवदन्ती प्रमाणे अहिं गोपीपुरमा एक कुमारपाळ महाराजाए बंधावेलु देरासर हतुं, जो के मळतां ऐतिहासिक प्रमाणोने आधारे गोपीपुरा- उमरवाडी पार्श्वनाथ भगवाननुं देरासर एटले सुरतनुं सौथी प्राचीन जिनालय. सं. १६५६मां कवि नयसुन्दरे रचेला श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवानना छन्दमां आ तीर्थनां नामनो सौ प्रथमवार उल्लेख मळे छे. त्यार पछी बीजी अनेक रचनाओमां उमरवाडी पार्श्वनाथ भगवान सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त थाय छे. प्रस्तुत कृति उमरवाडी पार्श्वनाथना जिनालयनी प्रशस्ति रूपे छे. कविए कृतिमां केटलीक ऐतिहासिक माहितीओ पूरी पाडी छे जे आपणे जोइशुं. कृति परिचय : कृतिनी शरूआतना २ श्लोकमां कविए पार्श्वनाथ प्रभुनी स्तुति करी छे. पछीना श्लोकमां तापीना तट उपर रहेल सुरतबन्दरने लावण्ययुक्त स्त्रीना चक्षुसमान सरखावायुं छे. उपकेशवंशनी वृद्धशाखाना माणिक्यादि मोंघां रत्नोना व्यापारनी स्पृहावाळा ------- श्रावको वडे प्रभुनी अर्चना कराय छे तेवो भाव चोथा श्लोकमां छे. पांचमा श्लोकना पूर्वार्धमां कविए प्रतिष्ठानी संवत्, मासादि गुंथ्या छे. ज्यारे उत्तरार्धमां प्रतिष्ठित थनार पार्श्वनाथ भगवानने प्रार्थना करी छे. अहीं प्रश्न ए थाय के प्रतिष्ठित थनार पार्श्वनाथ भगवान कया ? उमरवाडी पार्श्वनाथ के अन्य ? मानो के आपणे उमरवाडी पार्श्वनाथने प्रतिष्ठित थनारा पार्श्वनाथ मानीए तो देरासरनो संपूर्ण जीर्णोद्धार थयो होइ मूळनायक उमरवाडी पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा करवानो प्रसंग आवे एम मानवू पडे. अने जो सम्पूर्ण जीर्णोद्धार होय तो अन्य पण उत्थापित करेला प्रतिमाने प्रतिष्ठित कर्या होय. आम विचार्या प्रमाणे बन्युं होय तो कविए जे 'बिम्बं' शब्द एकवचननो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ प्रयोज्यो छे ते अयोग्य ठरे. तेथी उमरवाडीनी प्रतिष्ठा तो कल्पी शकाय तेम नथी. तेने बदले अन्य कोई पार्श्वनाथ भगवाननी प्रतिष्ठा थई हशे एम ज मानवू पडशे. छठ्ठो तथा सातमो श्लोक पार्श्वनाथ भगवाननी स्तुतिरूपे छे. सिद्धवधूने परणवाने माटे [चोरी]मण्डपसमान शुभ एवा मुख्य प्रासादमां भव्यजनोना वृन्दने बोलाववा कुकुमथी युक्त पत्रिका समान आ जिनगृहनी प्रशस्ति माणिक्यना पुत्र पानाचंदनी अभ्यर्थनाथी मारा वडे (कवि वडे) करायानुं कवि नवमा श्लोकमां लखे छे. अहीं जिनगृह शब्द फरी एक प्रश्न ऊभो करे छे के शुं आ स्वतन्त्र चैत्य हशे के जेनी आ प्रशस्ति छे ? आ वात पण अहीं बंधबेसती नथी. कारण आगळनी जेम अहीं काव्यमां वपरायेलुं 'प्रासादमुख्ये' ए पद पार्श्वनाथ प्रभुनी प्रतिमा मुख्य प्रासादमां ज स्थापना कराई छे एम जणावे छे. कदाच जिनगृह शब्दनो अर्थ देवकुलिका एवो करिए तो आ देवकुलिकानी प्रशस्ति होय ते शक्य पण बने. जो के अमे अहीं अमारा विचारो रजू कर्या छे. कदाच अन्य कोइ वातने पुष्ट करतां प्रमाणो मळी आवे तो वात जुदी. अन्त्य श्लोकमां कविए पोताना गच्छनो. तेमज गुरुना नामनो सामान्य परिचय आप्यो छे. कर्ता विशे के तेमनी परम्परा इत्यादिना सम्बन्धमां कशी नोंध मळती नथी. प्रत परिचय : प्रत प्रायः १९मी सदीना पूर्वार्धमां ज लखाई हशे एम प्रत जोतां अनुमान थाय. प्रतना अक्षरो स्पष्ट तेमज मोटा छे. प्रतना पानामां १२ पङ्क्ति छे. मोहनलालजी भण्डारनी प्रस्तुत झेरोक्ष प्रत संशोधनार्थे आपवा बदल भण्डारना व्यवस्थापक (सूरत)नो आभार. श्रीउम्बरवाडिपार्श्वनाथ प्रशस्ति ॐ श्रीपार्श्वजिनेश्वराय जगतां पूज्याय सिद्धात्मने, सत्त्वानामभयप्रदाय भविनां क्षेमकराय प्रभो ! । कौघोत्कटहस्तियूथमथने सिंहाय पापच्छिदे, देवेन्द्रामरवन्दिताय सततं तुभ्यं नमोस्त्वर्हते ॥१॥ रोगाग्न्यब्धिमृगेन्द्रपन्नगगजक्षोणीशयुद्धोद्भवां, भीति नाथ ! निवारयाऽऽश्वसमुतां, तेषां कृपावारिधे !। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अनुसन्धान- ५७ मायाबीजमयं फणीन्द्रसहितं पद्मावतीसेवितं, ये मन्त्रं तव नाथ ! गर्भितमिमं ध्यायन्ति हृत्पङ्कजे ॥२॥ तापीतटिन्या उपकण्ठशोभि, श्रीसूरतं बन्दिरमस्ति रम्यम् । लीलावतीनेत्रमिवास्ति....., विनोदयल्लोकभरं विलासैः ॥३॥ तत्रास्त्युम्बरवाडिपार्श्वजिनपस्त्रैलोक्यचिन्तामणिः, श्रीमद्भिः सदुकेशवंशतिलकैर्यो वृद्धशाखान्वितैः । माणिक्यादिमहार्हरत्ननिकरव्यापारबद्धस्पृहैः, सम्यक्त्वादिगुणैः सुभावकुसुमैरभ्यर्च्यते श्रावकैः ||४|| अब्दे त्रिष्वष्टचन्द्रे सुखकरसुखगे माघमासे विशुद्धे, शुक्ले पक्षे च वारे प्रवरसुरगुरौ पञ्चमीकर्मवाट्याम् । बिम्बं प्रासादमुख्ये जिनगुणरसिकैः स्थापितं यस्य सङ्घैः स श्रीमत्पार्श्वनाथो दिशतु भवभृतां मोक्षलक्ष्मीविलासम् ॥५॥ जो भोगे परिहत्तु दुग्गइपए लद्धूण सामन्नयं, पत्तू केवलनाणदंसणदुअं सिक्खेउ भव्वे जणे । सेलेसीकरणं पवज्ज लहिओ सिद्धिगणालिंगणं, सो वामातणओ मुणिंदथुणिओ बोहीदओ होउ मे ॥६॥ चतुर्मुखोऽसौ न च नाभियोनि - र्दशावतारोपि न विष्णुरेषः । फणाधरोऽसौ न च शेषनागः पुनातु पार्श्वो भुवि सङ्घलोकम् ॥७॥ पानाचन्द्र इति प्रशस्तगुणभाक् नामास्ति माणिक्यसूस्तस्याभ्यर्थनया मया जिनगृहस्येयं प्रशस्तिः कृता । सिद्धिस्त्रीवरणाय मण्डपनिभे प्रासादमुख्ये शुभे, भव्यौघाह्वयनाय कुड्कुमयुता पत्रीव संशोभते ॥८॥ श्री मुक्तिसौभाग्यसुवाचकेन्द्रा - स्तपागणे स्वस्तिकरे जयन्ति । तेषां विनेयो विशदां प्रशस्ति, कल्याणसौभाग्यगणिलिलेख ||९|| ॥ इति श्रीउम्बरवाडिपार्श्वनाथप्रशस्तिः सम्पूर्णा ॥ श्रेयसे त् कर्तृपाठकयोः ॥ C/o. निकेश संघवी कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा, सूरत - १ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ विद्वानोनो काव्यविनोद ९ उपा. भुवनचन्द्र ‘अनुसन्धान’मां जैन श्रमणो द्वारा रचित संस्कृत - प्राकृत पद्यरचनाओ प्रगट थती रहे छे. आ रचनाओमां प्रभुभक्ति-धर्मनिष्ठानां दर्शन थाय छे, एम जैन श्रमणोनी विद्वत्ता तथा साहित्यप्रीतिनां पण दर्शन थाय छे. जैन ग्रन्थभण्डारोमां एवी पण रचनाओ मळे छे जेमां श्रमणोनो काव्य - शास्त्र विनोद मुखर थतो होय छे हस्तलिखित प्रकीर्ण पत्रोमांथी प्राप्त थयेल आवी काव्यविनोदलक्षी चार रचनाओ अहीं प्रस्तुत करी छे. 'श्रुतिकटुश्लोक' अने तेनी व्याख्याना कर्तानुं नाम पत्रमां उल्लेखित नथी. श्लोक जैनेतर कविनो रचेलो होय सम्भवित छे परंतु तेनी व्याख्या जैन मुनि रचित होवानो पूरेपूरो सम्भव छे, केमके समस्यावाळा श्लोको ए ज पत्रमां छे अने ए जैन श्रमणनी ज रचना छे. बन्नेमां तीर्थङ्करोनो उल्लेख छे. कर्तानो उल्लेख नथी. आ त्रणे कृतिओ एक पत्रमां छे. वर्णमालाना अक्षरो वडे रचायेलो श्लोक अन्य पत्रमां छे. श्लोक अने टीका बन्नेना कर्ता पं. लक्ष्मीकल्लोल गणि छे. एमनी अनेकार्थी अन्य रचना ही. र. कापडियाए नोंधी छे. एमनो समय वि.सं. १६०० पण 'जै.सा.सं. इतिहास' मां नोंधायो छे. उपलब्ध प्रकीर्ण पत्र जो के १८ मा शतकनुं जणाय छे. श्रुतिकटु श्लोक आ श्लोक तेना नाम प्रमाणे कर्णकटु छे अने अर्थहीन पण लागे छे, परंतु ते व्याकरणसिद्ध रचना छे. सन्धि- समास - तद्धित-शब्दकोशनो युक्तिभर्यो विनियोग करीने कविए कर्णकठोर वर्णविन्यास सिद्ध कर्यो छे. विवरणनी सहाय विना आ श्लोक समजवो सामान्य अभ्यासी माटे शक्य नथी. शिवनी स्तुतिरूपे रचायेला श्लोकना कर्तानो उल्लेख नथी. विवरणकर्तानुं पण नाम नथी. समस्या ८ श्लोक अने ५ श्लोकोनी बे रचनाओ समस्या - पादपूर्तिरूप छे. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ कविनी फलद्रूप कल्पनाशक्तिना मनोरञ्जक नमूना जेवी आ रचनाओ छे. बन्नेना रचयिता एक होवानी सम्भावना छे. प्रथम श्लोकमां केटलाक प्रश्नो छे जेमना उत्तरो वडे चोथु चरण बने छे. आ चोथा चरणने लइने पछीना सात श्लोकोमां पादपूर्ति करवामां आवी छे. प्रत्येक श्लोकमां नवनवी उत्प्रेक्षाओ करीने कविए पादपूतिनो निर्वाह कर्यो छे जे रसिक जनोने आनन्ददायक बने एवो छे. बीजा श्लोकनो भावार्थ जोईए - "नागराज धरणेन्द्रे पोतानी वक्राकार काया वडे श्यामवर्णा प्रभु पार्श्वनाथने धर्या छे, तेमना उपर फेण- छत्र धर्यु छे, तेनी उपर मेघ वरसे छे ते जाणे धनुष्यनी टोच पर भमरो, भमरा उपर पर्वत अने पर्वत उपर दरियो होय एवं लागे छे". धनुष्य, भमरो, पर्वत अने पाणीनी कल्पना बाकीना बधा श्लोकोमां कविए सुन्दर रीते निभावी छे... बीजी पादपूर्तिमां 'सोयना अग्रभागे छ कूवा,तेना उपर नगर अने तेनी उपर गङ्गाप्रवाह' एवी कल्पनाने पांच कल्पनाचित्रोमां वर्णवी छे. एमांनी एक कल्पना- “तीर्थङ्करनी आरती माटे ऊंचा थयेला हाथ ए सोय, आरतीमां छ खाडा होय छे ते छ कूवा, अग्निनी ज्योत ए नगर अने धूम्रसेर ते गङ्गाप्रवाह." द्वात्रिंशद्व्यञ्जनमय स्तुति वर्णमालाना अक्षरोने यथाक्रमे राखी, मात्र तेमने योग्य स्वरो लगाड़ी ३२ अक्षरोनो अनुष्टुप श्लोक रचवामां आव्यो छे. ज व्यञ्जनने बाकात राख्यो छे. अनुष्टप्ना ३२ अक्षरोनी मर्यादाने माटे आ जरूरी हतुं. एकाक्षर शब्दो ज लेवा एवा नियमो कविए स्वीकार्यो नथी, वर्णमालाना वर्णो तेमना क्रमे ज आववा जोईए एटलो ज आग्रह राख्यो छे. वधु अक्षरवाळा शब्दोने एवी युक्तिपूर्वक गोठव्या छे के तेमना मात्र व्यञ्जनो ज उच्चरित थाय छे. आ श्लोक पर कविए स्वयं टीका रची छे. बुद्धिमान जनोना मनोविनोद अर्थे आ रचना करी छे एम कर्ता जणावे छे. श्रुतिकटुश्लोकः वाश्चारेध्वजधक् धृतोड्वधिपकः कुथ्रेड्जजानिर्गणेटगोराडारुडुरस्सरेडुरुतरग्रैवेयकभ्राडरम् । उड्वीडुग्नरकास्थिधृत्रिदृगिभेडार्दाजिनच्छत्रभृत् स स्तादम्बुमदम्बुदालिकलरुग्ग्रीवो मुदे वो मृडः ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ व्याख्या स मृडः ईश्वरः वः युष्माकं मुदे हर्षाय स्तात् भवतु । किंविशिष्टः ईश्वरः ? वाश्चारेध्वजधक् । वाः पानीयं, तत्र चरन्ति इति वाश्चाराः मत्स्याः । तेषां ईट् स्वामी मकरः वाश्चारेट् । स ध्वजश्चिह्नं यस्य स वाश्चारेटध्वजः कामस्तं दहतीति वाश्चारेध्वजधक् । पुनः किंविशिष्टः मृड: ? धृतोड्वधिपकः । धृतः उडूनां अधिपो येन स धृतोड्वधिपः । धृतोड्वधिप एव धृतोड्वधिपकः । पुनः किंविशिष्टः मृडः ? कुध्रेड्जजानिः । कुध्राः पर्वतास्तेषां इट् स्वामी हिमाचलः । तस्माज्जाता कुधेड्जा पार्वती । सो जानिर्जाया यस्य स कुध्रेड्जजानिः । पुनः किंविशिष्टः मृडः ? गणेट । गणानां ईट् गणेट । पुनः किंविशिष्टो मृडः ? गोराट् । गो (गौ)वृषभस्तेन राजते इति गोराट् । पुनः किंविशिष्टो मृडः? आरुडुरस्सरडुरुतरग्रैवेयकभ्राट् । आरुट् सरोषो योऽसौ उरस्सरः सर्पः आरुडुरस्सरः । तस्य ईट् स्वामी आरुडुरस्सरेट् एव उरुतरं ग्रैवेयकं कण्ठभूषा तेन भ्राजते इति आरुडुरस्सरेडुतरौवेयकभ्राट् । अरं अत्यर्थम् । पुनः किंविशिष्टो मृडः ? उड्वीड्रक् । उडूनि नक्षत्राणि तेषां ईट् स्वामी चन्द्रः । तद्वन्निर्मला रुक् कान्तिर्यस्य स उड्वीडूक् । पुनः किंविशिष्टो मृडः ? नरकास्थिधृत् । नरस्य कं मस्तकं, तस्य अस्थि नरकास्थि, तत् धरति इति नरकास्थिधृत् । पुनः किंविशिष्टो मृड: ? त्रिदृक् । तिस्रो दृशो विद्यन्ते यस्य स त्रिदृग् । पुनः किंविशिष्टो मृडः ? इभेडामा॑जिनछत्रभृत् । इभाः हस्तिनः । तेषां ईट् इभेट । तस्य आर्द्र यत् अजिनं चर्म तदेव छत्रं आर्द्राजिनछत्रं । तत् बिभर्तीति आर्द्राजिनछत्रभृत् । पुनः किंविशिष्टो मृडः ? अम्बुमदम्बुदा लिकलरुग्ग्रीवः । अम्बु विद्यते यत्र स अम्बुमान् । अम्बुमान् योऽसौ अम्बुदो मेघ: अम्बुमदम्बुदः । तस्य आलिः अम्बुमदम्बुदालिः, तद्वत् कला मनोज्ञा कान्तिः रुक् यस्याः सा अम्बुमदम्बुदालिकलरुक् । ईदृशी ग्रीवा यस्य सः अम्बुमदम्बुदालिकलरुग्रीवः । ईदृशो मृडः वः पातु ॥१॥ इति श्रुतिकटुश्लोकार्थः समाप्तः । समस्या शरक्षेपे प्रष्टं किमयुतमितिः क्व भ्रमणकृत् क आद्यं तद्रूपं वद नभ इदं क्वोच्चतनुभाक् । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ क आस्ते सप्तम्यास्तदिवदवचः (?) कोऽम्बुनि चितो धनु:कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥१॥ स्फुरन्नागेशेन स्वकवपुषि वक्रत्वसहिते धृते श्यामे पार्वे कमठरचितापायसमये । फणोच्चैराटोपे निबिड उपरिश्राविणि घने धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥२॥ पुरस्यान्ते दृष्ट्वा वनमभिनवं नीलरुचियुक् परिक्षेपे तस्योन्नततरगिरिं वीक्ष्य च दृशा । सरद्वार्यापूर्णं तदुपरि पुनः कुण्डममलं धनुःकोटौ भृगस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥३॥ लसत्क्रीडाकाले करनखशिखाग्रे भ्रमरके मुहुर्गुञ्जत्यास्ये भ्रमदतिगृहीतेऽत्र शिशुना तदीयोच्चैः भृङ्गे शितिसजलचञ्च्वीक्षणवशाद् धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥४॥ ललाटे लोलाक्ष्याः शशकरदलौपम्यकलिते तदूर्ध्वस्थानस्थभ्रमरविधृते पूर्णकलशे । तदन्तःस्थायिन्यप्यमृतनिवहे दृष्टिपतिते धनु:कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥५॥ शिशोः कस्यापि भूपरिगतमषीकृष्णतिलकैः कृते मात्रा रूपाधिकगुणरमारक्षणकृते । दृशा दृष्टे श्रोत्रोपरि खचितरत्नाभरणके धनु:कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥६॥ सुपर्वाद्रेः शृङ्गे जननमहिमायां शितिरुचेरमुष्य श्रीनेमीश्वरजिनपतेरत्र विबुधैः । सदुष्णीषस्याग्रे कुसुमनिकरे चापि निभृते धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥७॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ भुजादण्डे धृत्वाऽत्यसितरुचिरोचिष्णुवपुषि द्विषद्भूमीपालद्विरदशिरसि क्ष्माप भवता । असौ मुक्ते मुक्ताफलमणिगणेऽपि प्रकटि धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥८॥ ( समस्या ) श्यामाया आर्जव श्रीप्रथितकृशतनोः सत्कबन्धोपरिस्थं श्रोत्रध्राणोच्चतन्त्रद्वयविवरमधोर्ध्वप्रदेशस्थमीक्ष्य । स्फूर्जद्वर्णाद्यवालव्यतिकरमुदिताम्भोभरं स्नानकाले कूपाः सूच्यग्रतः षट् तदुपरि नगरं तत्र गङ्गाप्रवाहः १ ॥१॥ सूच्यग्रोच्चत्वधारिप्रवरसरलसद्वर्षभृत्षट्कनिम्नस्वच्छाम्भ:पूरपूर्णहूदविवरविवत्तिष्णुदेव्याश्रयेभ्यः । दृष्ट्वाविर्भूयमानं रुचिरसुरसरित्सिन्धुमुख्यापगाम्भः कूपाः सूच्यग्रतः षट् तदुपरि नगरं तत्र गङ्गाप्रवाहः ॥२॥ आयाता बहलाः सिताकरगृहा यत्र क्षणे मस्तके लोकानामृजुगात्रयष्ट्युपरितो रात्रौ तदूर्ध्वं पुनः । ज्योतिश्चक्रमवेक्ष्यते नगरवत् स्वर्गङ्गया शोभितं सूच्यग्रे किल कूपकाः षडभवन् गङ्गान्विता तत्र पूः ॥३॥ श्रीतीर्थङ्करपूजनोद्यतनरश्रेण्युच्चबाहुद्वयो पात्तारात्रिककूपषट्कनिवसद्वह्निस्वधाभुक् ततः । दृष्ट्वा धूमपय:प्रवाहमसकृच्चेतोविकल्पोऽस्ति मे सूच्यग्रे किल कूपकाः षडभवन् गङ्गान्विता तत्र पूः ॥४॥ अङ्गुल्यग्रसुमुद्रिकास्थविवरान्त:स्थायिषट्कोणभृद्वज्रातर्गतलोकरूपविकसत्पानीयसम्भारतः । मन्यन्ते च तदा स्वबुद्धिविभवान्निर्मोत (?) वृन्दारका: सूच्यग्रे किल कूपकाः षडभवन् गङ्गान्विता तत्र पूः ॥५॥ १३ टि. १. “सूच्यग्रे कूपषट्कं तदुपरि नगरं तत्र वार्धिस्ततोऽद्रिः " आवा पदवाळी समस्या 'जिनस्तोत्रकोष' मां छपाई होवानुं याद छे. एमां आवी अन्य समस्याओ पण हती. -शी. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनुसन्धान-५७ __ द्वात्रिंशद्व्यञ्जनमय जिनस्तुति श्रीगुरुभ्यो नमः । कखगघङ चछजझ टठडढण तथदधन पफबभम यरलव शषसह । अथ द्वात्रिंशयञ्जनानां श्लोककरणकाम्यया लघुदीर्घस्वरदानपूर्वं जिनस्तुति प्रतिपिपादयुषुरहं कोविदविनोदायानुष्टुब्बन्धं रचयामि । यथा कुखगाऽघं डचाछाऽज झटढेडढणातिथिः । दधानः पां फबाभामो यरलावश षासहीः ॥ अस्य व्याख्या - हे कुखग ! कौ पृथिव्यां, खगः सूर्यस्तत्तुल्य ! । यथा सूर्यः पृथ्वी प्रकाशयति तथा भगवान् केवलज्ञानेन भूमावुद्योतकरः । हे ङ चाछ! डा प्राणः बलं, चा शोभा, ताभ्यां छो निर्मलः, नित्यो वा । जिनस्य नित्यं तारुण्याद् बलशोभायास्तदवस्थत्वापत्तेः । ङः प्राण इति सौभरिमुनिकृत[नाम]मालायां। चा स्त्री शोभा । 'छस्त्रिष्वयं निर्मले नित्ये' - इत्युरगदण्डाधिपकृत[नाम]मालोक्तत्वात् । हे जिन ! त्वं अघं पापं अज क्षिप । हे झटठेड ! झः प्रतापस्तेन टोऽर्कः, ठः शम्भुस्ताभ्यामीड्यते स्तूयते इति झटठेड । अत्र उणादये(दौ) अः प्रत्ययः । झः प्रतापे । 'टः पुमान् करटे धूमे तापेऽर्क' - इति । ठः शङ्करे - इत्युरगदं० । हे यरलावश ! यश्चन्द्रः, रः सूर्यः, ला लक्ष्मीः, एते सर्वे वशे यस्य स यरलावशस्तस्य सम्बो० । सर्वेषां नमनीयत्वात् । 'यः सूर्ये तारके चन्द्रे। रः सूर्येऽग्नौ धने कामे । ला च लक्ष्मीर्लमम्बरे' - इति विश्वशम्भूक्तिः। त्वं किंलक्षणः ? ढणातिथिः । ढः स्वभावेन, णा कृपा, सा अतिथिर्यस्य सः । यतः कृपालोश्चेतोगृहे कृपा आयाति । यत उक्तं – 'सरिसा सरिसेहिं रच्चंति' इति वाक्योक्तेः । 'ढः स्वभावे, विमत्सरे' इति विश्वशम्भूक्तिः । ‘णा धेनुनासाकृपासु च'- इति उरगदं० । त्वं किं कुर्वाणः ? दधानः बिभ्रत् । कां ? पां । पा श्रुतं । 'पा पातरि तथा श्रुते' - इत्येकाक्षरनिघण्टुः । त्वं किल० फबाभामः । फो ज्ञानं तस्य बः समुद्रः । न विद्यते भामः क्रोधो यस्य सोऽभामः । फबश्च अभामश्च फबाभामः । 'फोऽपारदशने देवे न्याये ज्ञाने च' । तथा- 'वो दन्तोष्ठ्यस्तथौष्ठयोऽपि वरुणे वारणे वरे । शोषणे पचने गन्धे वासे वृन्दे च वारिधौ ॥१॥'- इति विश्वशम्भूक्तमालायां । पुनः त्वं किंलक्षणः ? षासहीः । षा रमा तया सहितो ही[:] हर्षस्तद्वान् । लक्ष्मीसहितहर्षवान् इत्यर्थः । यदुक्तम् - 'षा स्त्री रमायां Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ षं क्लीबे' - उरगदण्डाधिपकृतमालोक्तं ('हीरो हर्षवान् मृगः' - इति सौभरिमुनिप्रणीतमालोक्तत्वात् । कुखगेतिपदेन ज्ञानातिशयः १ । झटठडेतिपदेन पूजातिशयः २ । पापापनोदात् सङ्कटानि नश्यन्तीत्यतः अघं अज इतिपदेन अपायापगमातिशयः ३ । श्रुतं विना वाक्यस्यादेयता न स्यादतः पां दधान इतिपदेन वचनातिशयः ४ । इति द्वात्रिंशद्व्यञ्जनमयः विषमार्थयुगनुष्टुप् धीधनजनमनोविनोदनिबन्धनाय पं. लक्ष्मीकल्लोलगणिना व्यरचि । जैन देरासर नानीखाखर - ३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ एक अनुकरणात्मक स्तुति-रचना - मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ "भज गोविन्दं भज गोविन्दं" आ जगप्रसिद्ध कृति आद्य शङ्कराचार्यनी रचना छे. संसारनी असारतानुं वर्णन करती प्रत्येक पङ्क्तिओ खरेखर आत्मतत्त्वने उजागर करे छे. प्रस्तुत कृति शङ्कराचार्यजीना स्तोत्र जेवी ज (जैन श्रमणनी के गृहस्थनी) रचना छे. श्लोकनी सङ्ख्या अने रागर्नु बन्धारण ए बन्नेनुं पण बन्ने काव्यमां साम्य जणाय छे. शङ्कराचार्यजीनी कृति पासे नथी तेथी मूळ श्लोकोनु साम्यपणुं छे के नहि अथवा छे तो केटला अंशे छे ते मेळवी शकायुं नथी. प्रस्तुत कृति कृतिकारनी शरूआतनी रचना होई शके. क्यांक क्यांक छन्दभङ्ग थयो होय तेम जणाय छे. एकन्दरे अन्यदर्शननी कृतिनुं अनुकरण ए मूळकृतिनी लोकप्रियतानो उत्तम नमूनो छे. कृतिकार कोण छे ? तेनो काव्यमां स्पष्टपणे कशो ज उल्लेख नथी. परंतु छेल्ला श्लोकनो 'गुणचन्द्र'शब्द ए कवितुं नाम होई शके खरं. प्रस्तुत कृतिनी Xerox प्रत सम्पादनार्थे आपवा बदल श्री सुरेन्द्रनगर जैन संघ ज्ञान भण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो खुब खुब आभार. अहँ नमः ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ भज सर्वशं भज सर्वज्ञ, भज सर्वशं मूढमते, शिवपदसौख्यं यदि तव भोक्तुं, वाञ्छा कर्म विमोक्तुं रे, भज सर्वशं... ॥१॥ अशरणशरणं भवभयहरणं, शिवसुखकरणं तरणं रे, जन्मजरामरणादिनिवारं, भव्यजनौघाधारं रे, भज सर्वज्ञ... ॥२॥ सकलसुरासुरसेवितचरणं, कर्मविनाशनकरणं रे, जन्तूद्धरणे प्रवहणतुल्यं, दूरीकृतबहुशल्यं रे, भज सर्वशं... ॥३॥ न हि ते माता न हि ते भ्राता, न हि ते सौख्यविधाता रे, न हि ते जनको न हि ते भार्या, न हि ते वर्या चर्या रे, भज सर्वज्ञ... ॥४॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ न हि ते शत्रुर्न हि ते मित्रं, न हि ते चामर-छत्रं रे, न हि ते बन्धुः स्वजनसबन्धी, सर्वस्वार्थनिबन्धी रे, भज सर्वज्ञ... ॥५॥ त्वमेव कर्ता त्वमेव भोक्ता, त्वमेव कर्मविमोक्ता रे, त्वमेव भोगी त्वमेव रोगी, त्वमेव शोकी योगी रे, भज सर्वज्ञ... ॥६॥ त्वमेव वेत्ता त्वमेव नेता, त्वमेव नृणां पाता रे, दुष्प्रापं भववारिधिभ्रमता, लब्धं नृजन्म भवता रे, भज सर्वज्ञ... ॥७॥ क्षरति यथाञ्जलिप्राप्तं नीरं, क्षणेन भवत्यधीरं रे, गच्छत्यायुः प्रतिदिनमेवं, तस्मात् सेवय देवं रे, भज सर्वज्ञ... ॥८॥ इह संसारे विद्युच्चपला, दुःखनिदानं कमला रे, अभ्रच्छायावत्तारुण्यं, झटिति गमिष्यति निपुणं रे, भज सर्वज्ञ... ॥९॥ तृणैस्तुल्या भोगाः कामाः, स्थु(स्थ)लजलतुल्या [प्राणा] वामा रे, बुद्बुद्तुल्या देहप्रकृति-रिं-वारं यस्यां विकृति रे, भज सर्वज्ञ... ॥१०॥ खलेन सार्द्धं यादृक् प्रीति-स्नादृक् स्नेहे रीति रे, त्यजानुरागं मलमूत्राढ्ये, कुरु तं धर्मधनाढ्ये रे, भज सर्वज्ञ... ॥११॥ बाल्ये विहिता विपुला क्रीडा, कापि न कृता [त्वयका] व्रीडा रे, तारुण्येऽपि च सोढा पीडा, कृता न तीर्थकृदीडा रे, भज सर्वज्ञ... ॥१२॥ एवं बहुधा नेहानीतो-ऽधुनापि शृणु सुविनीतं रे, चित्तं पापाद् दूरे कार्य, धर्मं मुदा च धार्यं रे, भज सर्वज्ञ... ॥१३।। शुद्ध पात्रे दानं देयं, जिनवरवचनं ज्ञेयं रे, दुर्गतिदं त्याज्यं दुःशीलं, धार्यं मनसि सुशीलं रे, भज सर्वज्ञ... ॥१४॥ भावयुतं तपउररीकरणं, मुक्तिप्रमदावरणं रे, प्रभुगुणचन्द्रं दृष्ट्वा नव्यं, भव्याः प्रणमत सेव्यं रे, भज सर्व... ॥१॥ ॥ इति श्रीमुनि मणिविजयजी पठनार्थं लि० कृतं सीताराम गोरमलजी रेवासी मारवाड जोधपुरनगरे । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ पं. देवप्रभ विरचित कुमारपाळ रास ___ - मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ चौलुक्यवंशना राजा कुमारपाळनो इतिहास सौने विश्रुत ज छे. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य पासेथी प्रतिबोध पामी जेमणे जैनधर्मनां व्रतोनो स्वीकार को अने पोताना ताबा हेठळना १८ देशोमां अमारी पडह वगडाव्यो तथा मद्यपानादि साते व्यसनोनुं निवारण करी परमार्हत् एवं बिरुद प्राप्त कर्यु ते राजा कुमारपाळना गुणवैभवथी प्रभावित थई तत्कालीन तेमज उत्तरकालीन घणा विद्वानोए संस्कृतादि भाषाओमां तेमना जीवनचरित्रनी रचना करी. प्रस्तुत कृति पण तेमना जीवनचरित्र उपर प्रकाश पाथरती मध्यकालीन भाषा-कृति छे. । प्रस्तुत कृतिमां कविए कुमारपाळ महाराजानां धार्मिक कार्योनी सुन्दर पद्योमा वर्णना करी छे. व्यसनोने वश थयेला दशरथ राजा, नल राजा इत्यादिनां दृष्टान्तोथी व्यसनत्याग करवानी प्रेरणा करतां पद्यो खरेखर वखाणवा लायक छे. अणहिल्लवाडना कुमारविहारनुं तथा शत्रुञ्जयादि तीर्थ यात्रासंघ, एतिहासिक वर्णनकरती पङ्क्तिओ कविए अद्भुत रीते काव्यमां वणी काढी छे. काव्यमां अन्ते करायेल 'कुमारपाळनी प्रार्थना, सूर्य-चन्द्रनी जेम काव्यनी अक्षय स्थितिनी अभिलाषा तथा शाश्वतसुखना आशीर्वाद आ बधां पद्यो पण कविनी श्रेष्ठ प्रतिभाने प्रगट करे छे. कर्ता पोते कया गच्छना छे, तेमनी परम्परा शुं छे इत्यादि विषे काव्यमां कशी ज नोंध नथी. परंतु प्रतनी लेखन शैली उपरथी प्रायः १६मी सदीमां प्रतनुं लेखन थयुं हशे एम कल्पी शकाय. प्रस्तुत प्रतनी Xerox सम्पादन माटे आपवा बदल श्री आत्मानन्द सभा (भावनगर)ना व्यवस्थापकश्रीनो खुब खुब आभार. पढम जिणंदह नमीअ पाय, अनु वीरह सामीअ, गोअम पमुह जि सूरिराय, मुणि सिद्धिइं गामीअ, समरवि सरसति कवड जक्ख, वर देवि अंबाई, कुमर नरिंदह तणउ रास, पभणउं सुहदाई ॥१॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ मेरु खडी फरसीइ जाम, मसि कीजइ सायर, अंत न लाभइ गुणह तणउ, जिम चंद-दिवायर, पहिलउं धरीइ धज-पताक, गिरि मेरु समाणा, कुमरविहारह करइ भगति, सवि मंडलिक राणा ॥२॥ सोवन थंभे पूतली ए, मई मयगल दीठा, सांभलि कुमरनरिंदराय, जिनपंडित बइठा, रायह कुमरनरिंदराय, हेमसूरि बूझावइ, आहेडउ वारउ सयल, राउ धम्म करावइं ॥३॥ अरिठनेमि जिम कुमरपालि, डांगरउ वजाविउ, छाली बोकड करई वात, गाडरि वधाविउ, ससला नाचइं रूलिअभरे, अजरामर हुआ, लहिआ दहिआ करइं आलि, पारेवइ सहिआ ॥४॥ भइंसा अनइ हरिण रोझ, सूअर अनइं संबर, चीत्रा कुमरनरिंदराजि, रंगि नाचइ तीतिर, जू अन मांकुण लीख कोइ, किमईअ न मारइं, हरिणा-हरिणी करई केलि, सुखि हेमसूरि वारई ॥५॥ लावा लवइं पंजरि थिआ, सुखिआ छउ भूतलि, सूडा नवि पंजरि थिआ, पुण नाचइ सीतलि, काबरि अन्नइं होल भणइं, सांभरि तउं सारइं, पाणि माहि जिम छल्ल ए, लोधा नवि मारई ॥६।। सारस रीस रिहांस लवई, मोरडी अवधारइं, अखईअ होजे कुमरपाल, अम्ह मरितु न आवइं, काग सरप तिहिं सुणहडा, धाउ कोई नवि घालई, न मरउं कुमरनरिंदराजि, सुखि हीडउं चुण लेता ॥७॥ कंटेसरि चामंड भणई, सांभलि हो असाउगि, छंडि न पुडणा तणीअ वात, ए उभई उसावग, कंटेसरि आपणइ चित्ति थकी आलोचीअ, हेमसूरि सरिसउ किसिउ, रोस जस न सकउं पहचीअ ॥८॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनुसन्धान-५७ वालीनाहह परहडा ए, बे पडणि पडंता, छंडि न आमिष तणी आस, अच्छि वाकुल खंता, वालीनाहह दिउ ग्रास, लीहावउ वही ए, मांडे लाडू करउ भगति, अनई ईडरी ॥९॥ पारधि जीवन पोसिउं ए, बहु पावह जोगा, पारधि खेलत दसरथह, हुउ पुत्त वियोगो, कुमारनरेसर निययराजि, आहेडउ वारई, जलचर-थलचर-खयर जीय, इह कोइ न मारई ॥१०॥ वस्तुः पडण टालिअ पडण टालिअ जीवसंहार, सूअर संवर रोझ तिहिं फिरई जेह मणह भावई, दहिआ तीतिर सालहिअ कच्छ मच्छ नहु मरण आवई, छाली बोकड गाडरह कोइ न घालई घाउ, रात करई जांमे इणिहिं, कुमरड रायह राय ॥११॥ जूअ वसणि हूउ नल नरिंद, दमयंति वियोग, अडवि भमंतां बार वरिस, पांडव मनि सोग, देखी दूषण जूअ तणउ, केइ नवि खेलई सारि, जूरी नवि जूअ रमई, नवि बोलई मारि ॥ १२॥ मंस वसणि सोदासि राय, पांमिअ दुह सेणीअ, दीठी नरगह तणी भूमि, नरवई पुण सेणीअ, आमिष भोअण तणईं दंडि, बत्तीस विहार, राय कराविअ कुमरपालि, जगि तिहुअणसार ॥१३॥ दूषणि मदिरापान तणईं, यादवकुल नासो, कीउ दीवायणइ दुठ देवि, बारवइ विणासो, राय आदेसिइं नींच सवे, हिव मदिरा मेल्हई, मदुवारा नवि मदु करई, भूभलीउं खेलइं ॥१४॥ गणिकागमन निवारिउए, नरवइ निअ राजि, छंडवि वेसावसण लोग, लागा सवि काजि, वेश्या कीधी सती सरिस, तई कुमरड राय, तां पुण पूजइ जिणहमुत्ति, वंदई गुरुपाय ॥१५॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ वेश्यावसणिइं गमई अरथ, ते पुरिस अधन्नउ, पाच्छइ झूरई मनहमाहि, जिम वणिअ कयवन्नउ, चोरह जणणी इम भणइ ए सांभलि वच्छ वात, निश्चिइं जीवीअ जाइसीइए, जइ पाडिसि खात्र ॥१६॥ दीसई चोर न देसमाहि, जिम सूसमि रंकु, घर ऊघाडे बारि लोक, हिव सूइ निसंक, परस्त्री दोसिइं रावणहि ए, दीउं नरगि पिआणउं, दसरथनंदणि रामदेवि, किउं अकह कहाणउं ॥१७॥ निअ निअ मंदिरि भणइं नारि, सांभलि भरतार, नारि पिआरी जोअतउ, हिव जाणिसि सार, रंगिहिं घरणी भणइं नाह, मुणिधम्म विचारो, मन सिद्धिइं हिव करिन सामि, परस्त्री परिहार ॥१८॥ वस्तुः जूअ वारीअ जूअ वारीअ मंस संसुत्त, सुरापान नवि जाणीअ, वेसवसण नयणे न दीसइं, पारधि जीव न मारइं, चोर कोइ नयणे न दीसइं, कुमरड रायह मूलतउ, परस्त्रीनउ परिहार, सातइ वसण निवारि करि, गहिउ धम्मह भारु ॥१९।। पाणी गालई तिन्नि वार, अणाथमी करता, कुमरनरिंद तणइं राजि, सवेइ पडिकंता, वडा श्रावक थिआ अच्छई, श्रावकविधि पलाई, धम्मिहिं लीणा राति-दिवस, पातक ते टालइं ॥२०॥ बहिनडी बांधव भणई ए, मज्झ कउतिग भावइं, हेमसूरि गुरु तणउ बोध, अम्ह भलउ सुहावइ, कुमरविहार वंदावि चालि, जिण राय कराविअ, अणहिलवाडउं कुमरपालि, तिलि तिलि मंडाविअ ॥२१॥ सोवनथंभे पूतली ए, आपुण जोअंती, निरुवम रूविहिं आपणई ए, तिहुअण मोहंती, हीरे माणिक चूनडी ए, पाथरखंड जडिआ, निम्मल कंतीअ बिंबरासि, अइनिउणे जडिआ ॥२२॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ मंत्रीअ मोकलि देसि-विदेसि, बहु संघ मेलावई, धामी बहुआ रास दिइं, राउ यात्रा चलावइं, देस-विदेसह मिलिअ संघ, पहुतउ गूजरात, बाहुड मंत्रिअ वीनवइं ए, सुणि सामिअ वात ॥२३॥ चउरा गूडर संघ तणा, नवि लाभई पार, चालिउ (?) नरवर सुरठ भणी, मन लाइ न वार, दीधउं संघपति तीर्थ भणीय, पहिल पीआणउं, भोली बुद्धिइं आपणी ए, हुं किंपि वखाणं ॥२४।। वस्तुः बहुअ देसह बहुअ देसह संघ मेलेवि, जिणभत्तिहिं ए गमण भूमि नाह सेत्तुज्जि वच्चइ, गाइं वाइं रूलिअ भरि, संघलोअ आणंदि नच्चइ, ठामिहिं ठामि वधावीअ, हिव हुइ मंगल चारू, अरथिहिं वरिसइं मेघ जिम, दानि मानि सुविचारू ॥२५॥ सूरिराय सिरिहेमसूरि, जण धम्मधुरीणा, समणा-समणी सहस संख, मणि समरसि लीणा, मिलिआ सावय तणा लाख, धणि धनद समाणा, साचीअ वहता सीसि कमलि, गुरु-गुरुणी आणा ॥२६॥ भेरी भुंगल ढोल घणा, घमघमई नीसाणां, खेला नाचई रूलिअभरे, नव-नवा सुजाणा, धामिणि तरुणी दिई रास, किरि सग्गह आवी, महुरी वाणिइं(हिं) भणइं भास, मनरंगिहि (बहविह) आवी ॥२७॥ बंदी जय-जयकार करइं, कइ दीहर सादि, गायइं गायण सत्त सरे, केवि किन्नर सादि, चाली गयघड माल्हती ए, झरती मदवारि, खाणि खणंता तुरय लाख, करहा सई च्यारि ॥२८।। राउत-पायक-राजलोक, अनइ मागणहार, संख विवज्जिअ चलिअ लोक, कोइ जाणइ सारु, कि इह चालई भरतराय, कि सगरनरिंदो, राया संपइ दसनभद, किं कन्ह गोविंदो ॥२९॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ किं वा दीसइ नलनरिंद, किं देवह राउ, भंति ऊपजइ जोअंता ए नरवइ समुदाउ, संघपति करतउ गामि गामि, जिणपूअ वारी, पहुतउ सेतुजि दियई दाण, रिद्धि गणइ असारी ||३०|| देखीअ हरखी संघवीअ रिसहेसर सामिअ, वंदइ पूजई थुणई भावि मिलिआ सवि धामीअ, मंडिअ रेवइमंडणउ, यादवकुल सारो, सीलिइं सुंदर नाणवंत, सिरिनेमकुमारो ॥३१॥ वस्तुः भणइ कुमरड भणइ कुमरड रिसह अवधारि, कर जोडवि हुं विन्नवउ सामि पासि हुं काय न मागउं, जहिं कुलितइ नो लखउ तिहिं चक्कवई म देइ सिरि सित्तुंजय गिरिसिहरि वरि पंखीअ करेज ||३२|| संघ सहित पहु पूज करी, राउ दाणु दीयंतो, वाजत गाजत चालियर, हरिसहि उल्हसंतो, वीर जुहारी वउणथली, मंगलपुरि पासो, दीवि अजाहरि कोडिनारि, पाटणइ जिण पासो ||३३|| वस्तुः चडिअ भूपति चडिअ भूपति नाह सेतुंज्जि, रिसहेसर पणमीअ करि नर [य] - तिरियोज(नि) दुक्ख वारइं, तह ऊजलगिरि नेमिजिण, काम कोह जो मोह वारई, मंगल पाटणइ वउणथलि दीव अज्जाहरि देव, कोडीयनारि जुहारि-करि, पाटणइ पहुतउ देव ||३४|| सानिध सासणदेवि तणई, संधि कीधी यात्र, पाटिणि आवी नारि कहई, घरि घरि इम वात, कीधा जं पुण जातु अम्हे, इह सामि पसाउ, प्रतपउ कोडि दियवालीयहं हेमसूरिसिउं राय ॥ ३५ ॥ कासी कोसल मगददेस, कोसंबी वच्छा, मरहठ मालव लाडदेस, सोरीपुर कच्छा, सिंधु सवालख कासमीर, कुरकुंति सइंभरि, २३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान-५७ कान्हडदेस कान्हडीअ भणई, जाणीअ जालंधर ||३६|| वस्तुः मारि वारिअ मारि वारिअ देस अढारि, देस-विदेसह मेलि करि भविअण जुत्त कराविअ चउदसहि चालीस सहिअ रायविहार किउ रिद्धि सारिअ, मोगउ मूंकी जेण हिव जगि लीधउ जसवाउ, हुउ न होसिइ अवर कोइ, कुमरड सरिसउ राउ ||३७|| त्रिहु भुवणे जसु कीर्तित लईणई गूजर राई, कृतयुगि कय अवतारं, नेव गजिअ कलिवाइं, सेविअ भावठि जि कम्मदोस, जिम बंभ चक्कीसरि, देवभूमिगिइं सिद्धचक्क, जयसिंह नरीसरि ॥३८॥ चूलिक्यवंसी तिहुणपाल कुलअंबरभाणू, विक्कम वच्छरि वरतत ए, एगार नवाणूं, पाटि बईठउ कुंमरपाल, बलि भीम समाणउ, मंडइ रणरंगि जासु तणइ कोइ राउ न राणउ ||३९|| मेरु न ठामह चलइ, जाव जां चंद-दिवायर, शेषनाग जां धरइ भूमि, जां सीसिहं सायर, धम्म वसउ जां जगहमांहि, हूअ निश्चिल होइ, कुमरड रायह तणउ रास, नंदउ भू महीअलि ॥४०॥ सूरीसरि सिरिसोमतिलक, गुरु पाय पसाई, बहु देवप्पe गणिवरेण, रचिउ इह रासो, पढइ गुणई जे सुणइं रास, जिण हरि खेलेइ, सविहं दुरिहं करिअ छेह, सिवपुर पामेइ ॥४१॥ ॥ इति श्रीकुमारपाल भूपाल रास सम्पूर्णः ॥ अहिंसा प्रथमं पुष्पं, पुष्पमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया पुष्पं, क्षमा पुष्पं विशेषतः ॥१॥ ध्यानपुष्पं तपःपुष्पं, ज्ञानपुष्पं च सप्तमम् । सत्यं चैवाऽष्टमं पुष्पं, तेन तुष्यन्ति देवताः ॥२॥ ॥ इति अष्टपुष्पं मं० अजितवीरगणिनाऽलेखि ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १. मई में २. आहेडउ = शिकार डांगरउ = ढंढेरो रूलिअभरे आनंदित थई = लहिआ = ? दहिआ मांकुण मांकड लावा = पक्षि विशेष (लवारां?) सीतलि एक श्वेतपक्षी विशेष ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. = = = = १०. मछल्ल = मांछला ११. लोधा पारधि? १२. रीस रिंछ- पोपट ? १३. रिहांस = ? = पक्षिविशेष(दैयड?) १४. सुणहडा कूतरा १५. चामंड = चामुंडा = १६. पुडणा ? १७. उसावग = ? १८. परहडा = शब्दकोश १९. पडण (ह?) पडहो २०. दीवायणि = द्वैपायन २१. बारवइ = द्वारिका २२. महुवारा = मद्य करनारा (बनावनारा) २३. भुंभलीउं = ? २४. गयघड = गजघटा, हाथीनुं जूथ २५. संखविवज्जिअ संख्या वगरना असंख्य २६. दियवालीयहं दीवाळीओ सुधी २७. अणाथमी = चोविहार (?) पोताने(?) = = = = = २८. आपुण = २९. सूसमि = सुषमा काळमां, चोथा आरामां ३०. पिआरी = परायी (?) ३१. पाथरखंड = पथ्थरना खण्ड ३२. गूडर = पगला ३३. कुरकुंति = देशनुं नाम ३४. मोगउ मोकळु (?) ३५. लईणइं लईने(?) २५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनुसन्धान-५७ ओसवाल गोत्र कवित्त - मुनि सुजसचन्द्र - सुयशचन्द्रविजयौ ऊकेश, उपकेश, ओसवाल आदि शब्दो 'ओसवंश' नां ज जुदा-जुदां नामो छे. प.पू.रत्नप्रभसूरिजीए ओसिया नगरना लोकोने उपदेश आपी जैन धर्मी बनाव्या ते ज श्रावको ओसवाळना नामथी प्रसिद्ध थया. प्रस्तुत काव्यमां कविए उपकेश एटले के ओसवाळ वंशनां गोत्रनां नामोनो परिचय आप्यो छे. कृति ऐतिहासिक छे, परंतु अपूर्ण छे. वचली २४-२५-२६ ए त्रण गाथाओ पण पार्नु जीर्ण होई खण्डित थई गई छे. कर्ता पोते जैन कवि छे तेथी वीतराग परमात्माना चरणमां नमस्कार करी काव्यनो प्रारम्भ करे छे. कविए कृतिमां नामोना प्रास मेळववा सारो प्रयत्न कर्यो छे जो के एम करता क्यांक-क्यांक गोत्र- मूळनाम बदलाई गयुं होय तेवू अमने लागे छे. दा.त. - ठाकुरला, गन्धी... अमे अहीं मूळ कृतिमां कोइपण फेरफार न फरता ते यथावत् उतारी छे. ज्यां-ज्यां गोत्रनुं नाम न समजायु होय त्यां बाजुमां प्रश्नार्थ को छे. कृतिमां मळतां नामो करतां हालमां बोलातां नामोना फेरफार अमारा क्षयोपशम मुजब पाछळ नोंध्या छे. साथे अप्रसिद्ध एवा गोत्रना नामनी सूचि पण मूकी छे. कृतिना सम्पादन माटे हस्तलिखित प्रतनी Xerox आपवा बदल श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरना व्यवस्थापकश्रीनो खूब-खूब आभार. गोत्रना नाम माटे उपयोगी थनार पुस्तक 'श्रीसच्चियाय माताजी'ना सम्पादकश्रीनो आभार. प्रस्तुत प्रतनुं लेखन प्रायः १८मी सदीमां थयुं हशे. लखनारनी कलम पण व्यवस्थित न होइ अक्षर उकेलता तकलीफ पडे तेवू छे. ऊभा चीरियामां लखाएल काव्यपत्रमा आगळनी बाजु २३ श्लोक छे. पूर्ण छे. पछी थोडो भाग खण्डित छे. पाछळनी बाजु २६मा श्लोकनो थोडो भाग, २७ थी २९ श्लोक तथा ३०मां श्लोक- १ चरण छे. त्यार पछी शिव- ६ गाथा- कवित्त अने अन्य कवित्तो छे. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ओसवाळ गोत्र कवित्त अहँ नमः प्रणतसुरासुरपटलं, नत्वा श्रीवीतरागपदकमलम् ।। वणिजामुपकेसानां, वक्षे(क्ष्ये) गोत्राणि सर्वाणि ॥१॥ छाजड भावड दूगड, झाम्बड बालड कुहाड भकतिया । अब्भड कक्कड लक्कड, भक्कड लुङ्कड महामालू ॥२॥ वीराणी बगाणी, साम्बर नाहर सीयाल बोकडीया । नाबरीया ढाबरीया, पुष्करणा सङ्ख्वालेचा ॥३॥ हीगड रेहड चेहड, वेगड कूकड बराड पापडिया । फूलफगर भट्टेवर, मण्डोवर बोथरा सिखरा ॥४॥ कर्णावट नाणावट, सुन्धेचा चोरवेडियां आछा । नडूलाया नाडूला, भण्डारी रायभण्डारी ॥५॥ डूङ्गरवाल उफरिया, सफला फसं(?)ला कटारीया राङ्का । दूणीवाल सञ्चेती, पीपाडा छोपडा दरडा ॥६॥ ललवाणीं छजलाणी, मुहणाणी बाफणा सूराणा । देसरला गोसरला, संवरला साहुला डीडू ॥७।। समुदडीया मणिहडिया, वाघेचा वाघमार खीमसरा । गूगलीया पुङ्गलिया, केलाणी बाण्ठीया बाङ्का ॥८॥ गद्दहिया वरहडिया, मेडवाल मुहणोत्त गोलेचा । माण्डावत बछावत, लूणावत लूणिया सोनी ॥९॥ बडलूया वडगोत्रा, ठाकुरला सण्ड सङ्खला डागा । रातडिया वातडिया, श्रीश्रीमाली सुश्रीमाली ॥१०॥ कङ्करिया कङ्कलिया, पीम्पलिया नाग घण्घ चोलङ्की । धेनडिया ढेलडिया, भिल्लडिया वंस रूपधरा ॥११॥ अञ्चलिया कञ्चलिया, आलीजा डक पगारीया दोसी । भङ्गलिया मङ्गलिया, मकुआणा चोधरी तहुला ॥१२॥ डागलिया डाकुलिया, ढुङ्कलिया सेठ सेठिया गिडिया । बेताला तौताला, नवलक्खा मगदिया घोषा ॥१३।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ झाम्बक झुम्बक लुम्बक, कोचर कल्याण भण्डसालीया । चण्डालीया बलाही, बलदूटा भोर भोरडीया ॥१४॥ परिघल भाद्रा जणिया, पारिख सीसोदिया महाभद्रा । उत्कट कुम्भट बणवट, बिम्बोडी डोडियालेचा ॥१५।। मादडिया पालडिया, कोठारी भण्डगोत्र जालोरा । फोकटिया फोफलिया, देवानन्दीसखा वुहरा ॥१६॥ कुङ्कमलोल गहिलडा,वयद बुरूड चतुरधीग तिल्लोरा । मुहुलेचा भाहुरिया दीपक रूपक विणायगिया ॥१७॥ धीगड धाकड नाहड, लाहतण माहलण पठाण दाडमिया । गणधर कूकड छोपड, गोत्रा चीरौलीया लोढा ॥१८॥ पाद्रेचा ब्राह्मचा, प्रालेचा घंघवाल पावेचा । नान्देचा छोहरिया, मालविया मारु मेवाडा ॥१९॥ दिल्लीवालक नाणी, सेवाडीया उसभगोत्र नागोरा । मुरुवाल दूधवाडीया, मोटिम मीण्ठोडिया मीण्ठा ॥२०॥ सुन्दर तोडर वालर, खीरोद्र रुणवाल धारोला । कात्रेला बम्भधिया, कास्यप सीरोहीया गन्धी ॥२१।। काग बग हिरण कोल्हण, ठाकुर गोखरु भूरूय लाहुरिया । रत्नपुरा हेमपुरा, रोटागिण नाहटा प्रगटा ॥२२॥ खारीवाल कचारा, उडग टागट सुपाट पाटलिया । सोलक होलक दोलक,डागड जागड महाकरडा ॥२३।। षाण्डहडा मण्डलेचा, तगेटीचा जो..... ॥२४॥ राठोडा, ढेढीया डाङ्गी ॥२६॥ षोहिणीया एहिणिया, भयरविया मारु दक्क बावलिया । सुधणिया नलवाया, कसमा कुद्दाल अर्णोद्या ॥२७।। कावडिया कोठारी, नागमोत्त साहलेचा । काक्रेचा भादविया, सीपाणी मोगरा लुण्ठा ॥२८।। धाडीवाह वडाला, भूताल मुसल मोर धाहडिया । जोगड गोगड तोगड, राठोडा धूपीया पेमा ॥२९॥ कोठाडगोत्र दोसी, ... ॥३०॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ भकतिया अब्भड महामालू साम्बर रेहड चेहड नडुलाया नाडुला फरिया फसला दूणीवाल छोपडा - (चोपडा ?) गोसरला संचरला मणिहडिया वडलूया वडगोत्रा वातडीया श्रीमा रूपधरा कञ्चलिया आलीजा प्रायः अप्रसिद्ध गोत्र नाम झुम्बक लुम्बक कल्याण जणिया परिघल महाभद्रा उत्कण बम्बो पालडिया फोफडिया(फोफलिया?) भङ्गलिया ढङ्कलिया घोषा फोट वयद(बैद?) चतुरधीग मुहुलेचा भाहुरिया दीपक रूपक धीगड नाग चोलकी - (सोलङ्की ? ) चीरोलीया नडिया मोटिम भिल्लडिया पठाण छोपड सुन्दर रवीद्रा भुरूय हेमपुरा रोटागिण कचारा टागट सुपाट सोलक होलक दोलक डागड महाकरडा षोहिणिया एहिणिया भयरविया-(भैरविया?) धणिया नलवाया कसमा कूहाल अर्णोद्या नागमोत्त भादविया मोगरा लुण्ठा घोडीवाह वडाला भूताला मूसल मोर धाहडिया तोगड राठोड षे (ख?) मा २९ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-५७ प्राचीन नाम - हालमां प्रसिद्ध गोत्रनाम झाम्बड - झामड बलाही - बलाई वीराणी - विराणा बलदूडा - बलदोटा बङ्गाणी - बैंगाणी पारिख - पारख बराड - बरड बणवट- बणावट सिखरा - सिखरिया मादडिया - मादलिया सुन्धेचा - सुधेचा-सुन्देशा वुहरा - वोरा आछा - आच्छा गहिलडा - गेलडा डूङ्गर - डुङ्गरिया विणायगिया - विणायक्या वालड - वारड लाहलण - लालण छजलाणी - छजालाणी कूकड - कूकडा साहुला - साहला पाद्रेचा - पादरेचा वाघेचा - वागरेचा नादेचा - नान्देचा मुहणाणी - मोहीनानी छोहरिया - छोरिया वाघमार - बाघमारा दिल्लीवालक - दिलवाल बाङ्का - बाका सेवाडिया - सेवडिया गद्दहिया - गदैया मुरूवाल - मोरवाल भाण्डावत - भाण्डोत दूधवाडिया - दूधेडिया-दूधोडिया मेडवाल - मेलवाल मीण्ठोडिया - मीठडिया मुहणोत - मुणोत मीण्ठा - मीठा गोलेचा - गोरेचा-गोलेच्छा कात्रेला - कातरेला बछावत - बच्छावत गन्धी - गान्धी सण्डा - सण्ड कोल्हण - कुल्हण सङ्खला - साङ्खला लाहुरिया - लाहोरा ककरिया - काकरिया उडग - उडक ककलिया - काङ्कलिया पाटलिया - पटलिया पीम्पलिया - पीपलिया मण्डलेचा - माण्डलेचा घंघ - गंग कोटिचा - कोटिया अञ्चलिया - आञ्चलिया दक्क - दक मगलिया - माङ्गलिया बावलिया - बाबलिया मकुआणा - मकवाणा काळेचा - काकरेचा तहुला - तुला ? राठोडा-राठोड डाकुलिया - डाकलिया Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ श्रीज्ञानविजयकृत श्रीनेमिनाथस्तवन ३१ मुनि प्रशमचन्द्रविजय जैन दर्शनना चारित्र विषयक ग्रन्थोमां सौथी वधु ग्रन्थो जो कोइने पण अनुलक्षीने लखाया होय तो ते व्यक्ति एटले प्रभु नेमिनाथ भगवान. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जेवो महाकाय ग्रन्थ होय के पछी बारमासा, स्तवन जेवुं नानु साहित्य होय दरेकमां कोइने कोइ प्रकारे तेमनुं जीवन गुंथायेलुं जोवा मळे. प्रस्तुत कृति प्रभुजीना चरित्र पर प्रकाश पाडती पद्यरचना छे. प्रभुजीने लग्न माटे मनावती कृष्णनी स्त्रीनो संवाद, प्रभुनी मूक सम्मति, पशुनो पोकार सांभळी लग्न मण्डपथी पाछा जवुं, राजुलनो विलाप इत्यादि प्रसङ्गोने कविए काव्यमां सुन्दर रीते गोठव्या छे. कृतिमां विशेषता कशी नथी. परंतु कर्ताना हाथे ज लखायेल छे तेथी लेखनदोषो के भाषाकीय अशुद्धि प्रवेशी नथी ते नोंधवा लायक छे. कृतिकार तपागच्छीय परम्पराना विजयदेवसूरिजीना पट्टधर उपा० लावण्यविजयजीना शिष्य छे. कर्तानो विशेष परिचय अन्य ठेकाणे प्राप्त थतो नथी. सं. १७३३नी लखायेली प्रतनी प्रशस्तिमां तेमना गुरु उपा. लावण्यविजयना नामनो उल्लेख मळे छे. ते परथी कर्ता पण आसपासनी संवतमां ज थयानुं विचारी शकाय. कृतिनी प्रत आपवा बदल श्री वढवाण - संवेगीशाळा जैन ज्ञानभण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो तेमज मुनिराज श्रीधर्मतिलकविजयजीनो खुब खुब आभार. ए ६०॥ महोपाध्याय पूश्रीलावण्यविजयगणिगुरुभ्यो नमः । दूहा ब्रह्मधूआ समरुं सदा, प्रणमुं मनउह्लास, अंबा एतुं मागीइं, मुझ मुख करजे वास. १ विणा-पुस्तकधारणी, कविजनकेरी माय, नेमिनाथजिनगुण थुणुं, ते तुम तणो पसाय. २ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ नेमिनाथ बावीसमो, शियलरयणभण्डार, ब्रह्मचारीचूडामणी, जगजीवनआधार. ३ रंभ सरीसी राजीमती, जेणिं छोडी निरधार, मन थिर करी दीक्षा धरी, जइ रह्यो गढ गिरनारि. ४ ते श्रीनेमिजिणंदना, बोलुं गुण सुपवित्त, सांभलयो भवि भावस्युं, देइ मन एक चित्त. ५ ढाल राग-सारिंग ॥ सोरीपुर सोहामणुं रे, अमरापुरी सम जाण, समुद्रविजय तिहां राजीओ रे, रायकलानो जाण. ६ यादवराय ! थुणस्युं हो नेमिजिणंद, ए तो यादवकुलनभचंद, गायस्युं शिवादेवीनो नंद, यादव..... [आंकणी] तस घरि सोहि सूंदरी रे, इंद्राणी अवतार, शीवादेवी शियलिं सती रे, रूपिं रंगिली नारि. ७ यादव.... तस उअरि सरि हंसलो रे, रूअर्बु श्रीनेमिकुमार, चउदसपनसूचित जण्यो रे, चउविह संघ सुखकार. ८ यादव.... योवनवय जिन आवीयो रे, सामलीओ सुखकार, माता-पिता इणिपरि कहइं रे, पुत्र परणो तुमे नारि. ९ यादव.... ॥ ढाल राग- रामगीरी ॥ नेमकुमर बोलई वयरागी वयणडां रे, अम नारिं न परणिं काज रे, मन थिर करी अमे दीख्या ग्रही रे, लेस्युं लेस्युं मुगतिनां राज रे, १० नेमजी ते बोलई वयरागी वयणडां रे [आंकणी] मुगतिनारिनइं रे परणइं जे जना रे, तेहनो होइं अविहड मोह रे, तेणिं नारि परणीनइं ते स्युं कीजीइं रे, जेणिं होइ परणिं विछोह रे. ११ नेमजी.... Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ३ हुँ नवि परणुं रे नारी इणिं भवि रे, ___ वली लेस्युं लेस्युं संयम योग रे, मुगतिरमणीस्युं अहमे चित्त लायस्युं रे, ___ तेहथी लहिस्युं वंछित भोग रे. १२ नेमजी.... ॥ ढाल फागनी राग-काफी ॥ एणि समई मधुमास आवीयो हो, फूल्या सब सहकार, कृसनजी रमवा चालीया हो, साथि लेइ नेमिकुमार. १३ मनमोहन । नेमजी मन वस्यो हो, मन वस्यो नेमकुमार सखी ! यादवकुलशिणगार, मन..... [आंकणी] गोपांगना टोलिं मली हो, रमई माधवजी साथि, हाव-भाव करती थकी हो, नेमजी साथिं लिइं बाथि. १४ मनहोमन.... जंबूवती पदमावती हो, बोलई बहु बोल नारि, परणो नारि तुमे नेमजी हो, भोगवो भोग संसारि. १५ मनमोहन.... नेम न बोलइं नारिस्युं हो, तव बोलइं गोपांगना एम, एक नारि पूरुं नवी पडई हो, तेणि पुरुषइं अहो किजीइं केम.१६ मनमोहन.... एक नारि परणो तुम्हे हो, चिंत करसइ अम नाथ, मरकलडे नेमजी हस्या हो, मान्यु मान्यु करती सब साथि. १७ __ मनमोहन.... ढाल राग - गोडी ॥ ससनेहा सुणि वातडी एहनी ढाल । ह[वइं] उग्रसेन बेटी राजीमती रे, विवाह मेहलिं एम, राजीमती हरखी घणुं रे, भलई पाम्युं वर नेम रे. १८ विरह निवारवा.. हवई शुभ लगनइं शुभ दिनइ रे, परिणवा चाल्यो रे नेम, रथ बइंसी तोरण आवीया रे, आणी मन बहु प्रेम रे, विरह..... पशुय पोकार सुण्यो तदा रे, सारथी प्रति कहिं सामि, कुण कारणि पशु मेलीयां रे, सारथी कहिं तिणि ठामि रे, १९ विरह... तुम विवाहनइं कारणि रे, आण्या ए छई रे जीव, तेणिं ए वधना भय थकी रे, करता छई बहू रीव रे. २० विरह.... Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान-५७ रथ वाली नेमजी वल्या रे, छोडी जीवना बंध, दीख्या लेवा उमह्या रे, मुंकी सब जग धंध रे. २२ विरह.... ढाल राग-मारुणी ॥ नेम वल्या निसुण्या जव कानिं, विलपइं राजुल नारी रे, विण अपराध मूंकई कां रे वाला, पूरव प्रीत वीसारी रे. २२ पीउ रहो रहो रे प्राणाधार, अबला सार करीजइं रे, तुम पाखई रे कुण गति थाय, वाला वेगि वलीजइ रे, पीउ रहो... [आंकणी] तुम वियोग एकलडी हुँ अबला, केम करुं निरधार रे, वाला ताहरि वियोगिं ए सघलो, सूंनो एह संसार रे. २३ पीउ.... माय कहिं पुत्री तणि वियोगि, सुणिं तु रायुल बाल रे, नेम गयो तो जावा दइउं, वरजे अवर भूपाल रे. २४ पीउ.... सुणिय वयण मुखि अंगुलि देती, वयण एहवू न बोलीजई रे, जो एणि नेम न परणी मुझनइं, तो सही संयम लीजइं रे. २५ पीउ... राजीमती हवि नेमजी पासिं, लीधो संयमभार रे, नव भवनी प्रीत अविहड राखी, ध्यन ध्यन राजुल नारि रे. २६ पीउ... ढाल-चुपई संवच्छरी देइ करी, श्रीनेमिश्वर निज हित करी, दिख्या लेइ सारि काज, श्रीगिरिनारि गया जिनराज. २७ राजीमतीनई दिधी दिख, आपी सुमतिनइं अविरल सिख, नव भवनो नेम नेह पालीओ, कामपिशाच जेणि बालीओ. २८ नेमनाथनइं राजीमती, बेहु पाम्यां वली सदगती, अहनिसि लिजइं एहनुं नाम, जिम मनवंछित सिझइं काम. २९ ए श्रीनेमि तणुं चरित्र, भणतां गणतां पुण्यपवित्र, भवि भवि मागु एह ज देव, तुम चरणे देयो मुझ सेव. ३० कलस इम थुण्यो सामी, मुगतिगामी, नेमिनाथ जिणेसरो, मइं स्तव्यो भगति, भली युगति, सेवकजनमनदुखहरो, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ तपगच्छमंडण, दुरितखंडण, श्रीविजयदेवसूरीसरो, श्रीलावण्यविजय उवझाय सेवक, ज्ञानविजय सुहंकरो ॥३१॥ ॥ इति श्रीनेमिजिनवरेन्द्रस्तवनम् ॥ लिखितं गणि ज्ञानविजयेनालेखि ॥ सुश्राविका मेलाई तत्पुत्री श्रा । पदमा पठनाय ॥ C/o. निकेश संघवी गोपीपुरा, सूरत Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ केटलीक फुटकळ कृतिओ अनुसन्धान-५७ रसीला कडीआ सात आठ वर्ष पहेलां इन्डोलोजी (अमदावाद) मां जती त्यारे श्री लक्ष्मणभाई भोजके मने फुटकळ प्रतोना ढगलाने व्यवस्थित करतां करतां, केटलीक प्रतो उकेलवा आपेली. परन्तु, ते अवी तो गेरवल्ले मूकाई गयेली के छेक हवे हाथ लागी. अधूरु रहेलुं काम पूरुं कर्यु. अहीं ओक लांबी प्रत छोडीने बाकीनी प्रस्तुत छे. प्रतोने नम्बरो में आप्या छे. वळी, 'ष'नो ज्यां ख थतो होय त्यां 'ख' करी दीधो छे. (१) आ रचनानी बे प्रतो मळी छे तेथी ओमां बीजी प्रतना पाठभेद नीचे मूकेला छे अने कृतिमां ते पाठ अधोरेखा साथे मूकेल छे. श्री हस्ति श्री (हसतीश्री) ना शिष्य जडाव श्रीजीओ आ रचना करी छे. आमां कोठारीपोळमांना श्री आदिजिननुं स्तवन करवामां आव्युं छे. स्थळनिर्देश थयो नथी परन्तु, उपरना माळे सुविधिनाथ बिराजे छे अने श्री आदिनाथ भोंयरामां छे ते विगतोल्लेख प्रायः अमदावादना वाघणपोळ (कोठारीपोळ ओक समये मोटो विस्तार हतो अने वाघणपोळ तेनो अक भाग हतो.) मां आवेल आदीश्वरना देरासरने सूचवे छे. वळी, त्यां नगारां राखवामां आवता हता अने प्रहर दरम्यान तथा आरती वखते वागता में सांभळ्या छे. स्तवनमां सरखी सहियरो मळीने, भवसागरने तरवा, शिवसुखने वरवा माटे स्नात्र पूजा करी रहेली वर्णवी छे. (२) प्रस्तुत रचना शेठ बलुभाईनी छे. अमां श्री मुनिसुव्रतनाथनी स्तवना करवामां आवी छे. पद्मावती माता अने सुमित्रराय पिताना पुत्र छे. साठ जोजन कापीने, (अने ते पण ओक ज रातमां) भरुच गामनी भागोळे आवीने समवसरणमां अश्वने प्रतिबोध पमाडेलो. अश्व अनशन करी देवलोक गयेलो. वळी, गौतमगोत्री घणाने पोतानी पेठे केवलज्ञान पमाडी, मोक्षे मोकल्यां छे. तो पछी मने आप शा माटे विसरी जाव छो ? मारी - तमारी प्रीत पुराणी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ३७ छे, अने अटले ज आश लगावीने बेठो छु. कवि अंते कहे छे के मने तमारो बनावी, तमारा चरण-कमळमां स्थान आपो. भवोभव बोधि बीजनो लाभ पामतां हुं अवश्य मोक्षसुखने पात्र बनुं पछी मने मोक्षसुख आपजो. प्रस्तुत स्तवनमां कविश्रीनी मोक्षसुखनी झंखना- सुंदर निरूपण थयेखें छे. श्री मुनिसुव्रतनाथ तेमना आराध्य जिनेश्वर छे. भगवान साथे रीस करी, (मारा-तमारा तमे शेणे करो छो ?) अनेकोने मोक्षनो लाभ आप्यो छे तो पोताने य एमनो ज गणी, मोक्ष आपे एवी अपेक्षा जाहेर करे छे. प्रस्तुत कृति हरियाळी स्वरूपनी छे. आ स्वरूपमां गूढार्थ होय छे. देखीतो विरोध लागे पण ओनो अर्थ समजातां बधुं स्पष्ट थाय. उखाणुं के प्रहेलिका जेवू आ स्वरूप छे. ___अहीं अरिहंत, सिद्ध के केवलज्ञानीनी वात होय तेम लागे छे. अना बधा अर्थो हुं समजावी शकती नथी. विद्वानो तेना अर्थ अंगे प्रकाश पाडे तेवी विनंति. (४) पं. भावसागरना शिष्य ललितसागरनी आ रचना छे. कषायने विषय बनावी घणी सज्झाय बनी छे तेवी अहीं लोभनी सज्झाय छे. लोभ ओ दुर्गतिनो दाता छे. संसारमा लोभ घणो बूरो छे आथी, लोभने त्यजवो जोइओ. आ माटे अनेक उदाहरणोथी वातने स्पष्ट करवामां आवे छे. लक्ष्मीपति विष्णु अतिलोभने कारणे सागरे निवास पाम्यो. सुवर्णमृगना लोभथी दशरथपुत्र रामे सीताने गुमावी अने ते कारणे ठामोठाम भटकवू पड्यु.. ___ दसमा गुणस्थानक पर्यन्त लोभनो कषाय जीवने नडे छे. लोभथी परिग्रह थाय अने परिग्रह जीवने घणुं दुःख आपे छे. जो लोभनो त्याग करवामां आवे तो सुख सांपडे. जीव देव, दानव के राजा बने छे के त्यागथी मुक्ति मेळवे छे. ईश्वरप्राप्तिनो - मोक्षनो केवल आ ओक ज रस्तो छ - लोभ त्यजो. आम अहीं लोभकषाय मोक्षमार्गमां केवो अन्तरायरूप छे, छेक दसमा गुणस्थानक पर्यन्त ओ साथे ने साथे ज रहे छे अने ओथी अने महाचोर गण्यो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ छे. लोभ त्यजतां, मोक्षसुख हाथवेतमां छे. (५) प्रस्तुत रचना श्री उत्तमचंदनी छे. सं. १८५३ चैत्र वद १०ना रोज आ 'भास' रचायो छे. कविना गुरु, नाम शिवचंद छे. गाम अने नगरोमां विहार करतां करतां कविना नगरमां आव्या छे. साथे सद्गुरु श्री विजय जिनेन्द्रसूरि छे, जेओ तपागच्छना नायक छे. तेओ अहीं वीरप्रभुने वंदवा तथा चतुर्विध संघने वंदाववा आव्या छे.(कदाच तीर्थयात्राओ नीकळ्या छे अने रस्तामां आवता नगरोनां देरासरनां दर्शन करता जाय छे.) गुरुना पिताश्रीनुं नाम शाह हरचंद अने मातानु नाम गुमान छे. सूरिपदने पामेला गुरु खरे ज, गुणने पात्र आम अहीं गुरुदर्शननो थनार आनन्द व्यक्त थयो छे. अहीं गुरु नाम गच्छनाम मातापिताना नाम, संवतना उल्लेखथी कृति ऐतिहासिक रीते महत्त्वनी बने छे. साध्वी जडावश्रीरचित (१) श्री आदिजिन (कोठारीपोळमांना) स्तवन रीखवजी आवा गुजर देस रे : अबोडा : हुं तो प्रणमु बाले वेस रे : अ : ते तो कोठारी पोळमां छाजे रे : अ : प्रभु भोइरा माही बीराजे रे : अ : री : ॥१॥ उपर सुवधीनाथजी राजे रे : अ : तीहा ढोल नगारा बाजे रे : अ : साथे सरणाई भुगल वाजे रे : अ : आकासे दुंदभी गाजे रे : अ : रीख : ॥२॥ अमे मली सहीअरनी टोली रे : अ : सखी चसठ बाली भोली रे : अं: जल चंदन म्रगमद घोली रे : अ : केसर बरास रंगरोली रे : अं : रीखव ॥३॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ फुल धूपनी भरी तीहा झोली रे : अ : दीप अक्षत लीओ तीहा टोली रे : अ : फल नीवेद लीओ कर जोडी रे : अ : भवपूजा करे दिल खोली रे : अं : रीखः ॥४॥ अंते भवसमुद्रने तरवा रे अ: सीव सुदर वरने वरवा रे अं: गुरु हसतीसरी चीत करवा रे अं: जय जडाबसरी दील धरवा रे : अबोडा : [॥५॥ [नोंध : प्रस्तुत कृतिनी बीजा नकल पण प्राप्त थई छे. अना अक्षरो परथी आ बन्ने नकलो एक ज हाथे थयेली जणाय छे आम छतां अमां थोडाक पाठभेद छे जे नीचे प्रमाणे छे. कडी : ३ पंक्ति २ : कडी : ४ पंक्ति १ : झोहली कडी : ४ पंक्ति ३ : नोवेद] शेठ बलुभाई-रचित (२) श्री मुनिसुव्रतनाथ- स्तवन सि(श्री) सुव्रत नी(जी)न साहबा रे, तुमें सीव वसीआं महाराज जो. तुम्हें माहरा ताहरा सेंना करो रे, मुजमां अंतर राखो जीनराज जो. ॥१॥ माता तुमारी पदमावती रे, वली जनंक सुमितराय जो. तेहनें तमे प्रभु मोकलां रे, माहेन्द्र देवलोक माहराज जो. ॥२॥ सी सुव्रत..... ओक रातमां हे प्रभुजी तंमे रे, आव्या आ(सा)ठ जोजन जीनराज जो, भरु(व)च गांमनी भागोले रे रचु संमोवसरण माहराज जो. ॥३॥ सी सुव्रत..... स्वामी मीत्र जांणी आवा तुंजो रे, अस्व प्रतीबोधणने काज जो, अणसण उचरावु तेहा तमें रे आपु देवलोकनुं तुमें राज जो. ॥४॥ सी सुव्रत..... Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ वली गोतेंम गोत्री बहुने तंम्ये रे कीधां आप समां जीनराज जो, ईत्यादीक सरवे तुम तंणो रे कंम मोक्षे मोकल्य माहराज जो. ॥५॥ सी सुव्रत..... स्व(स्वा)मी हु स्या माटे वीसरो रे पीत पुराणी मंने घणी आस जो, प्रभु ताहर(रा) करी आपो मंने रे तमारा चरणकमळ नीवास जो. ॥६॥ सी सुव्रत..... ओम भवोभव मजने आपीओ रे कांईक बोधबीजनो लाभ जो । तीहा सेठ बलुभाई अमे कहे रे पछे आपो मोक्ष सुखना राज जो ॥७|| सी सुव्रत..... रंगविजयकृत (३) हरियाळी (महावीर जिनेसर उपदिसे - ओ देशी) अकपुरुष नवलो तुमे सांभलज्यो नरनारी रे सुणतां कौतुक उपजें, कहिज्यों अरथ विचारी रे ॥१॥ सांभलजो वात विनोदनी. रात दिवस ऊभो रहें, न गणें धुप में वरषा रे उपसम रसमां झीलतो, सत्रु मित्रु सम सरखा रे. ॥२॥ सांभलजो० अष्टोत्तर सत्त नाम छे, निरनामी सहु जाणे रे, खलक मुलक खट दर्शने, ओ नरने नित्य वखाणे रे ॥३॥ सांभलजो० त्रिण काया दोय जीव छों, त्रिण मस्तक जस दीपें रे, रुपे मनमथ सूंदरु, तेजें तरणी जीपे रे ॥४॥ सांभलजो० वदन कमल ते पुरुषनां, अक सहस दोय मानें रे दोय सहस दोय जीभ छे, लीनो आतंम ध्यांने रे ॥५॥ सांभलजो० नेत्रानंदन नेत्र छे, दोय हजारने च्यार रे खट कर में पग च्यार छ, पूंछ ओक मन धार रे ॥६॥ सांभलजो० पूत्र अनंता छे तेहनें, नारी नहि वली कोई रे ब्रह्मचारी सिर सेहरो, वली परण्या नारी सोई रे ॥७॥ सांभलजो० हरीहर ब्रह्म पुरंदर, नमवा पद[पं]कज आवे रे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ४१ अहनिस सेवामें रहें, पण कोइनें न बोलावे रे ॥८॥ सांभलजो० अचरिज ओक तिणे कीयो, तेह सकरमी कहावें रे। तेहनां ध्यान थकी घणां सीवपद पदवी पावे रे ॥९॥ सांभलजो० नग्न नहीं नभ छे वस्त्र, नहीं वस्त्र धरतो रे निज शत्रुने जीपवा, जोगमुद्रा अनुसरतो रे ॥१०॥ सांभलजो० अहवा नरने वांदतां, मिथ्या मोहथी विघटें रे अमृत पद लहें रंगथी, निज आतम गुण प्रगटे रे ॥११॥ सांभलजो० इतिश्री हरियाली गर्भित स्तवन संपूर्ण शुभं भवतू । ललितसागरकृत (४) लोभनी सज्झाय लोभ न करीइं प्राणीया, लोभ बुरो रे संसार. लोभ सरीखो को नही, दुरगतीनो दातार रे ॥१॥ भविकजन लोभ तणो परिहार, तुमें करज्यो निरधार. अतिलोभ लक्ष्मीपती, सागर नामें सेव. पूर पयोनिधिमां पड्यो, जई बेठो तस हेठ. भ० ॥२॥ सोवनमृगना लोभथी, दसरथसुत श्री राम. सिता नारि गमाविने,भमिआ ठांमोठांम. भ० ॥३॥ दसमा गुंणठांणा लगे, लोभ तणो छे चोर, सीवपूर जाते जीवनें, ओहि ज मोटो चोर. भ० ॥४॥ नव विधि परिग्रह लोभथी, बहु दुख पांमें जीव, परवस पडिया बापडा, पाडे अहो निसरीव. भ० ॥५॥ परिग्रहना परिहारथी, लहीइं सुख सरिकार, देव दानव नरपति थई, जइव्यै मुगति मोझार. भ० ॥६।। भावसागर पंडित तणो, ललितसागर बुध सीस, लोभ तणें त्यागे करी, पूगे सयल जगीस. ॥भ० ॥७॥ इति लोभ सज्झाय. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ शिवचंदकृत (५) विजय जिनेन्द्रसूरि भास गाम नगर पूर वीचरता रे, आव्या धीरपूर नगर मोझार ॥१॥ सखी वधावाने सहगुरुरे, श्री विजय जैनेन्द्र सर तपगच्छनायक अभिनवा रे, दिन दिन चढते नूर. स० ॥२॥ वीर जनंदने वंदवा रे, वली करवा निरमल देह चतुरविध संघने वंदाववा रे, आव्या अधिक सनेह सः ॥३॥ सा हरचंद कुल सेहरो रे, मात गुमाननो जाता पाट दीपाव्यो सूरी धर्मनो रे, गुरु दीनदयाल गुणपात्र. स. ॥४॥ संवत अढार समे त्रेपने रे, चैत्र वद दसमीउ जाण घणुं जीवज्यो कहे उत्तमचंदनो रे, शिवचंद गुरु गुण खांण स० ॥५॥ इति भास संपूर्ण Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ पं. देवचन्द रचित नवतत्त्व - चोपाईं ४३ साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री जैन दर्शनना सिद्धान्तमां प्रवेश करवारूप प्राथमिक प्रकरण ग्रन्थमां आवतुं ‘नवतत्त्व प्रकरण', जेनी ६० गाथा प्राकृतमां प्रचलित छे, जेमां जगतनुं दर्शन ‘जीव-अजीव-पुण्य - पाप - आश्रव - संवर - निर्जरा-बन्ध - मोक्ष' आ नवतत्त्वना माध्यमथी बताव्युं छे. 'नवतत्त्व प्रकरण' ग्रन्थना सन्दर्भमां गुर्जर भाषामां चोपाई, रास वगेरे अनेक रचना पूर्वपुरुषोए करेली छे. जेमांनी आ 'नवतत्त्व चोपाई 'नी बे हस्तप्रतिनी झेरोक्स आ. विजय शीलचन्द्रसूरिजीए मने आपेल तेना परथी आ वाचना तैयार करेल छे. तेमांनी (१) नवतत्त्व चोपाईना कर्ता वाचक भानुचन्द्रना शिष्य देवचन्द्र छे । आ कृतिनी छेल्ली त्रण गाथामां कर्ताए पोतानी गुरुपरम्परा बतावी छे. श्रीविजयदेवसूरि-शिष्य विजयसिंहसूरि, उपाध्याय सकलचन्द्र पण्डित सूरचन्द्र, वाचक भानुचन्द्र तेमना शिष्य देवचन्द्र. चोथा पाप तत्त्वनुं वर्णन बतावती ढाळमां अन्ते गाथामां वाचक भानुचन्द्र कया ? तेनो स्पष्ट उल्लेख कर्यो छे. “प्रतिबोधी अकबर सुलताण, मुंकाव्यं श्रीशत्रुंज दाण; भानुचंद गुरु सीस सुजाण, देवचंद कहइ तत्त्व वखांण'". जेमणे अकबर सुलतानने प्रतिबोध करी शेत्रुंजय परनुं दांण मूकाव्युं हतुं ते भानुचन्द्र गुरुना शिष्य देवचन्द्रे आ रचना करी छे. आ प्रतमां छेल्ली बे गाथामां भानुचंद वाचक० सुधी प्रतिना अक्षर एक सरखा छे, पछीनी लीटी 'जनचंद, तास सिस कहें देवचंद ..... अने छेल्ली गाथा जुदा अक्षरना मरोडथी लखायेली छे. आ प्रतिनी वाचना लख्या पछी पू. मुनिश्री सुजसचन्द्रविजयजी म. पाथी एज कर्तानी नवतत्त्व चोपाईनी बीजी बे प्रतिनी झेरोक्ष मळी, जेने कख संज्ञा आपी छे अने तेना जरूरी पाठभेद नोंधी आ साथे आप्या छे. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ • क प्रति – पत्र-१०, सं. १७६६मा फागण वद-६ना गुरुवारे, सौराष्ट्र देशना पोरबंदिर (पोरबंदर) नगरमां, ऋषि ओधवजीना शिष्य ऋषि हीरजीने पठनार्थे, ऋषि प्रेमजीए लखेली छे । आ प्रतिमां अन्ते अलग अक्षरे 'ऋ० प्रेमजी ओधवणीइं पुस्तक भण्डारे कर्यो' एम लखेला छे । • ख प्रति - पत्र-७, सं. १८१६ श्रावणवद-१ना गुरुवारे, राधनपुरमां लखायेली छे । अने एमां प्रान्ते अलग अक्षरे 'जीर्णगढ संवत १८३० फागण सुदि-११ उतरीया गीरनार । ॐ श्री पूज' एम लखेल छे. • क मां नवतत्त्व चोपइ लखेल छे. • ख मां बाजुमां (हांसियामां) 'नवतत्त्व सज्झाय' एम लखेल छे । • क अने ख प्रतिनी भाषा प्रयोगनी भिन्नताक संज्ञ क प्रतिमां – अन्त्य ओ अने उ ना स्थाने अउ प्रयोग वधु छे. दा.त. करो ना स्थाने करउ, तणुं ना स्थाने तण्णउं. अन्त्य ई ना स्थाने ईय (पाछल य कार) वाळा प्रयोग दा.त. विवरी ना स्थाने विवरीय, अधूरीना स्थाने अधूरीय, हकार युक्त प्रयोग दा.त. समकालिं ना स्थाने समकाल्हइं, इम ना स्थाने इम्मि, जिम ना स्थाने ज्यिम्मि छे । ख संज्ञक प्रतिमां – एकारवाळा प्रयोग बधे छे दा.त. कहई ना स्थाने कहे छे. आवा प्रयोगो पाठभेदमां नोंध्या नथी. • प्रस्तुत कृतिमां कुल २०४ गाथा छ । जेमां जीवतत्त्व - गाथा-१६, अजीवतत्त्व - गाथा-२०, पुण्यतत्त्व - गाथा१७, पापतत्त्व - गाथा-३८, आश्रवतत्त्व - गाथा-२१, संवरतत्त्व - गाथा३५, निर्जरातत्त्व - गाथा-१०, बन्ध तत्त्व - गाथा-१२, मोक्षतत्त्व- गाथा-३५, आ नव तत्त्वना जेटला भेद छे तेने विस्तारथी अर्थ बताववापूर्वक निरूप्या • संवर तत्त्वनी गाथा २४ पछीनी गाथाओ, निर्जरातत्त्वनी बधी गाथा अने बन्ध तत्त्वनी चोथी गाथा सुधीनी प्रायः २५ गाथा क अने ख संज्ञक प्रतिमां आनाथी भिन्न छे, जेथी ख प्रतिनी ए गाथाओ टिप्पणमां नोंधी छे अने ए Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ गाथा सन्दर्भित क. प्रतिना पाठभेद तेनी पाछळ ज नोंध्या छ । जैन पारिभाषिक शब्दोना अर्थ अहीं नोंध्या नथी. अघरा शब्दोना ज नोंध्या छे । नवतत्त्व चोपाइ १॥६॥ सयल जिणेसर प्रणमी पाय सारदवांणी करो पसाय नवयतत्त्व जिनसासण सार सुणयो कहुं संखेपि विचार ॥१॥ तत्त्व तत्त्व मुखि सहु को कहइं तत्वारथ विरलो को लहइं जाण्या विण नवतत्व विचार किम पालई जिनधर्माचार ॥२॥ जिवादिक नवतत्व विचार सद्दहतां समकित निरधार आगम अरथ अछइं अति घणो बादर बोल कहउं ते सुणो ॥३॥ जीव अजीव पुण्य पाप स्वरुप आश्रव संवर निर्जररूप बंध मोक्ष ए नवनां भेद विवरी कहुं सुणो ते वेद ॥४॥ जीवतत्त्व पहलुं जिन कहें जीवतणा दस प्राण सद्दहई पंचेंद्रीबल मनवयकाय सासोस्वास अनइं परमाय ॥५॥ एकेंद्री च्यारप्राण विख्यात छ बेंद्री तेंद्री सात आठ चउरिंद्री नव असन्नीया पंचेद्री दस प्रांण सन्नीया ॥६॥ जीव होइं ते प्रांणज धरइं प्राणवियोगि ते पणि मरइ । जीव तणउं लक्खण चेतना चउदभेद कहीइं जीवना ॥७॥ प्रथवी-पाणी-अगनि-वन-वाय ए पांचई एकेंद्रीकाय । मुख नासिका नयन कान नहीं एकेंद्रीने काया कही ॥८॥ एहना भेद संखेपी कह्या सूक्ष्म मनइं बादर बें थया सूक्षम ते जे दीसइं नहीं बादर ते जे दीसई सही ॥९॥ बेंद्री काया मुख अधिकता तेंद्री काय मुख नाशी छता चउरिंद्री काया मुख घ्राण नयणतणुं चउथउं अहिनाण ॥१०॥ विगलेंद्रीना भेद त्रिण थया अधिक कांन पंचेंद्री कह्या असन्नि सन्नि एहना भेद दोय समूर्छिम गर्भज होइं सोय ॥११॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनुसन्धान-५७ भेद सात ए जीवह जाणि पज्जत्तापज्जत्त वखाणि । जे पर्यापति पूरी करइं ते पज्जत्तपणुं अनुसरई ॥१२॥ ए पर्यापति अधूरी जेह अपर्यापता कहीइं तेह । षट् पर्यापति खंधि कही आहार सरीरमें इंद्री सही ॥१३॥ सास वचन छटुं मन पछई एकेंद्रीनई च्यारज अछई । विगल असन्नी पांच प्रधान गर्भज पंचिंद्री षट मान ॥१४॥ इणिपरि दोय भेद सातना करतां चौद भेद जीवना कडं लवलेशह तेहy हीर जीवतत्त्व छई गुहिर गंभीर ॥१५॥ वस्तु सूक्षम बादर सूक्षम बादर एकेंद्री दो भेद बिति चउरिंद्री त्रिणि पुण पंचेंद्रीना दोय लेवा सन्नि असन्नी मिलि सग ते पज्जत्तापज्जत्त करेवा चऊद भेद ए जीवना सद्दहतां आनंद वाचक श्रीभानुचंदगुरु सीस कहें देवचंद ॥१६॥ बीजुं अजीवतत्त्व हवइं सुणो चउद भेद तेहना पणि गणो अजीव ते जिहां नो हइं जीव तेहनो अरथ अछइं अतीव ॥१॥ धर्मअधर्म आकाशास्तिकाय त्रिणइं त्रिहुं भेदे नव थाय खंध देश प्रदेसई करी दशमो काल भेद मनि धरी ॥२॥ च्यार भेद पुदगल बंधाणु खंध-देश-प्रदेश-परमाणु इणी परि चउद भेद मनि धरी अवर एहनुं निसुणो चरी ॥३॥ अस्ति कहतां 'जीवप्रदेश कहीइं काय समूह विसेस । धर्मास्तिकाय पूरयो चउद राज तेतलो कह्यो खंध जिनराज ॥४॥ खंध थिको उणो ते देश देशथी ऊणो तेह प्रदेश अधर्म अनइं आकाशास्तिकाय त्रिणि भेद एहना इम थाय ॥५॥ दशमो काल तणो जे भेद खंधादिक तस नो हई च्छेद । कालमांन समयादिक बहु ते कहितां सुणयो हवंई सहु ॥६॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ "ऊपरा ऊपरि पोयण पान कुंलां बत्रीसइं तसंमान समकालिं कोइक बलवंत सूई साथि वींधई करि तंत ॥७॥ एकथी" बीजइ सूई जाय विचि असंख्य समय तिहां था । जीर्ण वस्त्र वलि फाडइं कोई त्रागिं त्राग समय विधि सोय ॥८॥ समय असंख्याते एक आवली बि सई छप्पन्न तेहज सांकैली क्षुल्लक भव एक एह प्रकासि साढा सतर भव स्वासोस्वासि ॥९॥ महूरतनी आवली एक कोडि लाख सतसठि सहस सत्योत्यरि जोडि दो सई सोल उपरि ते वली मुहुरत बिं घडी ए आवली ॥१०॥ बीजुं बि घडी मान जगीस पांसठि सहस १२ साधिक छत्रीस सूक्ष्मनिगोदि जीव भव जाय बीजी परिं महुरत इम थाय ॥११॥ महूरतमान त्रीजुं हवई सूणो सहस त्रिणिनई सातसई गणो सासोस्वास त्रिहुतरि बलि कह्या महुरतभेद गुरुवचनें लह्यां ॥१२॥ एहवा त्रीस महूरत १४ जाय रातिदिवस एक एतलें थाय १५ तिणि पनरे पखि दो पख मास वरसतणा पणि बारइं मास ॥१३॥ असंख्य वरस एक पल्यना जोडि सागर पल्य दस कोडाकोडि इम उच्छर्पिणी नई अवसर्पिणी दस दस कोडाकोडि सागर तणी ॥१४॥ कालचक्र एतलई नीपनुं कालमान ए अढीद्वीपनुं ए पुदगलपरावर्त्ति जाय चउभेदे पुदलग (गल) कहिवराय ॥१५॥ परमाणूं खंधादिक च्यारि अनंत परमाणूं खंध विचारि तेहथी थोडो कहीइं देश देशथी ऊणो तेह प्रदेश ॥ १६ ॥ ४७ परमाणूनो भाग न होय केवलज्ञानी जाणें सोय विविध वर्ण गंध रस फास पुदगल भेद अनंत निवास ॥१७॥ धर्माधर्म पुदगल आकाश काल सहित पंच अजीव प्रकाश जेह चलावें तेहज धर्म थिर राखइ ते को अधर्म ||१८|| अवर पदारथ द्यइं अवकाश ईणनं लख्यण बोल्यो आकाश लोक धर्माधर्म अढीद्वीप काल पुदगल सघलई गगन विशाल ॥ १९ ॥ १६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान-५७ वस्तु अजीवभेदह अजीवभेदह धर्माधर्म आकाश त्रिणि त्रिणि भेदज एहनां खंध देश प्रदेश कालभेद दसमो कह्यो पुदलग (गल) च्यार विशेश चउद भेद ए अजीवना सद्दहतां आनंद वाचक श्री भानुचंदगुरु सीस कहें देवचंद ॥२०॥१७ पुण्य प्रकृति त्रीजी हवई कहुं भेद बेंइतालीस तेहना लहुं सुख विलसइं शातावेदनी पहली प्रकृति कही पुण्यनी ॥१॥ पुण्यप्रकृति गुण बीजो एह उंचु गोत्र लहइं नर जेह मानवभव मुंकी मानवी त्रीजई थाइं वली मानवी ॥२॥ चोथइं नरानुपूर्वी होय अवरगति बांधि अंति १८ नर सोय आनुपूर्वी तेहज तुं जाणि अनेथि जातां आणि ताणि ॥३॥ पांचमइं नरथी सुरगति लही देवानुपूर्वी छट्ठि कही जाति पंचेंद्री लहई सातमई पुण्यतत्व निसुणो आठम ||४|| ऊदारिक वैक्रीय आहार तैजसकार्मण पंच प्रकार पहलां त्रिण देह अंगोपांग हूया धुरिथी पनरह भंग ॥५॥ पहलु व्रजऋषभनाराच संघयण भेद ए सोलमो साच पहलुं समचउरंस संठाण सतरसमो ए भेद प्रमाण ||६|| अढारमइं वर्ण वारु रूप उगणीसमई देह गंध अनूप वीसमइं रस रूडी वली जेह एकवीसमई सुकुमाल स्वदेह ||७|| अतिभारे हलूओ नवि होय अगुरुलघुकाय बावीसमई जोय दूर्द्धषरूप देखी सहू नमई पराघात कर्म त्रेवीसमई ॥८॥ सुरभि स्वास होइं चोवीसमई आतप सूरय परि पंचवीसमई ससि सम सोहईं सभा मझारि उद्योतकर्म छव्वीसमई धारि ॥९॥ गज जिम शुभगति सतावीसमई अंगोपांग शुभ अठावीसमई त्रसदसादि कर्म हवइं सुणो जाणें भेद छाया तावड तो ॥१०॥ भयथी त्रासइं ते तत्र ( त्रस ) कहिआ ओगणत्रीसमई १९विगलिंदिआ जस दीसइं परगट देह मर्म त्रीसमई बांध्युं बाद कर्म ॥११॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ सुरपरि पूरी करइं पजत्त एकत्रीसमानी एहज २°वत्त बत्रीसमई काया जीव एक वनसपती ते नाम प्रत्येक ॥१२॥ जे दृढ दांत दाढांदिक हाड ते थिरकर्म तेत्रीसमुं जाड नाभि उपरि सुभ काया२१ अंग चोत्रीसमई शुभ नामनो रंग ॥१३॥ सकल लोक मोहई २२एकलो शुभगकर्म पांत्रीसमई भलो सुस्वर नामकर्म छत्रीसमई मीठी वांणि सुरनर मन गमई ॥१४॥ बोल्युं वचन मानइं सहु कोय आदेअकर्म सात्रीसमुं सोय पूठि जसकीरति बोलाय अडत्रीसमइं जस नांम पसाय ॥१५॥ पूरुं सुर-नर-तिरि आउखुं ए त्रिहुं स्युं एकतालीस लखें। अदभूत बेंइतालींसमुं पूण्य तीर्थंकर पद आपइं धन्य ॥१६।। इणि परि पुण्य प्रकृति परमाण बइतालीस कही जिनभाण श्रीभानुचंदवाचक गुरुतणो सीस देवचंद कई भवि सुणो ॥१७॥२३ चोथं पापतत्व हवई सुणो ब्यासी भेद तेहना पणि २४गणो पुण्यइं ज्ञानवंत नर थाय ते पांचइं पणि पापइं जाय ॥१॥ ज्ञानांतराय ते कहीइं सही मति आवरण मति चोखी नहीं अक्षर मात्र मुखई नवि चढइं श्रुतनाणावरणइं नवि पढइं ॥२॥ अवधिनाण वार्यु आवतुं अवधिज्ञानावरण ते छतुं चोथु मणपज्जव न उपजइं मणनाणावरण ते भजइं ॥३॥ सर्व जीवनुं लहइं स्वरूप लोकालोक प्रकाशक रूप भवकोटी भाजई आमलो ते केवल कहीइं निर्मलो ॥४॥ एहवं नावइं पंचमनाण ते केवलावरण- प्राण छतुं वित्त पात्रे२५ नवि दीइं ते दानांतर फल लीइं ॥५॥ लाभ वांछतां साहमुं जाय ते लाभांतराय पसाय घरि खावा-पीवा छई घणुं भोगांतराय ते अलखामणुं ॥६॥ कर्म योगिं मल्यां दंपती नीरस कंइ नवि २६बाझइं रती सुखनी वात रही वेगली अहनिसि करतां दीसई कली ॥७॥ ए तो अंतरायनो योग पाम्या २७चूकई जे उपभोग यौवनवय नीरोगी काय पणि निर्बल ते वीर्यांतराय ॥८॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अनुसन्धान-५७ पाप प्रकृति दश ए अंतराय नव पणि बीजा कर्मनी थाय चक्षुदर्शनावरण ते जोय नेत्ररोग पडलादिक होय ॥९॥ अचक्षुदर्शनावरणनो भेद निर्बल बीजां इंद्री वेद अवधिदर्शनावरण ते कहई अवधिदर्शन जेथी नवि लहई ॥१०॥ चोथुं केवलदर्शन नहीं केवलदर्शनावरण ते २८ सही निद्रा ते जे जागईं सुखिं निद्रा निद्रा जागई दुखि ॥११॥ प्रचला उभां बइंठां उंघ प्रचलाप्रचला हींडतां उंघ थीणद्धी निद्रा पांचमी पाप प्रकृति ए ओगणीसमी ॥ १२ ॥ एहना गुण श्रीजिनमुखि २९ भणई निद्रावशि नर हस्ती हणइं वासुदेवसुं अर्द्धबल थाय पापई सातमी नरगई जाय ॥१३॥ वीसमइं नीचकुलिं अवतरई नीचगोत्रउदय इम करई एकवीसमइं दुर्गति दुखभोग तेह अशाता वेदिनी योग ॥१४॥ बावीसमइं मिथ्यात्व मनि रमई साचा देवगुरुधर्म नवि गमई थावरदशकतणी हवइं वात कहतां सुणयो ते अवदा ॥१५॥ थावर ते थिर थानकि काय त्रेवीसमई एकेंद्री थाय हाली चाली न सकई कही थावरनामकर्म ए सही ॥ १६ ॥ सूक्ष्म कर्म हवइं चोवीसमहं सूक्षमनिगोदमांहिं जीव भमई तेहनां सरीर न देखईं कोय अपर्यापतो पंचवीसमई होय ॥१७॥ गाजर मूलादिक जे काय चोथो थावर ते कहवराय अनंत जीवनई एक ज देह छवीसमो साधारण तेह ॥ १८ ॥ सतावीसमइं जीव ढीला अंग अठावीसमई पुरुषारथभंग दोभागी ३०दीठी नवि गमई दोभागकर्म ते ओगणत्रीसमई ॥ १९॥ घोघरस्वर दु:स्वर त्रीसमई वचन अनादेय एकत्रीसमई ३१रूडु करतां अपयस होय बत्रीसमई दस थावर होय३२ ||२०|| नरकगतिनई नरग आउखुं नरगानुपूर्वी नरगत्रिक लखुं एतलइं पातक पांत्रीस थाय हवइ निसुणो पंचवीस कसाय ॥२१॥ क्रोध-मान-माया-लोभ अतोल च्यार चोकुं ते थाइं सोल अनंतानुबंधनइं अपच्चखाण प्रत्याख्यान संजलणो जाण ॥२२॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ५१ क्रोध - मान-माया - लोभ अनंत जावजीव लगई नवी जंत समकित हणी नरगगति लहइं भव अनंता भमी दुख सहई || २३ ॥ एह अप्रत्याख्यानीया च्यार संवच्छर लगइं रहई निरधार देशविरति नवि पामई सही गति तिर्यंचतणी ते कही ||२४|| पच्चखाणीया चोमासी च्यार चारित्र विना मानवगति सार संज्वलना पखवाडो रहई मुगति विना सुरनी गति लहई ||२५|| च्यार च्यार करतां सोल ए कह्या पंचवीसमाहिं नोकसाय नव लह्या हास्य कर्म ते हासुं करइ रतिकर्म रूडूं दीठ ठरई ॥२६॥ अरतिकर्मइं रति न लहइं कही शोककर्म शोकिओ रहई सही भयकर्मइं बीकण जीव थाय नबला आगलि नाठो जाय ॥२७॥ कर्म दुगंछा ते कहवाय अणगमतुं दीठई दुख थाय मुखि थुंकई नई मरडइ नाक पुण्यतणो इम टालइ वाक ॥२८॥ पुरुषवेद तृणदाह समान क्षण एक प्रजली थाइ मांन कोऊ दाह सरिखो स्त्रीवेद स्त्रीनइं अधिको पुरुष भेद ||२९|| नपुंसकवेद नगरनो दाह अहनिसि प्रजलई अतिहिं अगाह पणतीस पंचवीस साठि ए थई पापई दुखिओ दुरगति जई ||३०|| तिरियदुगं जीव जाई तीर्यंचि तिरिआनुपूर्वी आणई खंचि इगबितिचउरिंद्रीनी जाति कुच्छित पापई ए षट भाति ॥ ३१ ॥ चालइं चालि खर करहातणी विरूई गति ते कुखगति भणी अडसठिमुं ते उपघात कर्म कंठ दशन मुख पीडा मर्म ॥३२॥ वर्ण-गंध-रस-चोथो स्पर्श ए विरूया ते पाप विमर्श काली वर्ण देह विरूओ गंध कडूओ रस खर स्पर्श संबंध ||३३|| र्वैर्ण गंध ए बोहोत्त्यरि पातक भेद कह्या, संघयण संस्थानना धुरि बें रह्या पहलुं संघयण नई पहलुं संठाण ए बें पुण्य प्रकृति अहिनाण ||३४|| पहइलुं वज्रऋषभनाराच बीजुं संघयण ऋषभनाराच नाराच त्रीजुं अर्द्धनाराच चोथुं पांचमुं कीलिका सा ॥ ३५॥ छट्टु छेवट्टं ते कह्युं समचउरंस संठाण धुरि लह्युं बीजुं न्यग्रोधमंडल जिस्युं सादि त्रीनुं चोथुं वामन वस्युं ||३६|| Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनुसन्धान-५७ पांचमुं कुब्ज षट् हुंड संठाण आगल्या दश ते पाप बंधाण पंच पंच संघयण संठाण ब्यासी भेदतणो ए ३५ मा ||३७|| प्रतिबोधी अकबर सुलताण मुंकाव्युं श्रीशेत्रुंज दाण भानुचंद गुरु सीस सुजाण देवचंद कहई तत्त्व वखाण ॥३८॥३६ पांचमुं आश्रव तत्त्व विचारि भेद बेतालीस तेहना धारि काया जीभ आंखि नाशा कान मोकलां पांचई आश्रव मान ॥१॥ क्रोध मान माया लोभ कषाय अयुक्ति प्रयुंज्या आश्रव थाय जीव हणई नई जुटुं लवई परधन लेवा निज मति ठवई ॥२॥ कुसीलं परिग्रह अव्रत पंच चऊद भेद आश्रव ए संच त्रणि योग जे मन वच काय पाप प्रयुंज्या आश्रव थाय || ३ || एतलई सतर भेद मनि जाणि हवई पंचवीस क्रिया वखाणि पहली क्रिया कही कायकी जयणा विण होई काया थकी ॥४॥ शस्त्रादिकथी पातिक जेह अधिकरणकी बीजी तेह जीवाजीव ऊपरि जे द्वेष त्रीजी प्रद्वेषकी ए देख ॥५॥ अवर तपावई आपरं तपईं परितापनकी चोथी थपई जीवनई जे चूकवरं प्राण थकी ते कहीई प्राणातिपाती ॥६॥ मूलनी पंच क्रिया ए कही एहथी वीस अवर पणि लही करसण प्रमुख आरंभ आचरई ते आरंभकी क्रिया करई ॥७॥ धण कण ढोर दास मेलवरं परिग्रहकी किरीया केलवई मायाप्रत्ययकी आठमी कपटइं धर्म करई आनमी ॥८॥ मिथ्या श्रुत सद्दहणा करी मिच्छादंसणवत्ती खरी अपच्छखाणी अविरति कही कुतिक जोणा दृष्टिकी लही ॥९॥ पुष्टिकी राग थिकी सुकुमाल फरसई जीव पशू स्त्री बाल अथवा राग द्वेष मन धरी पुठिं पृष्टिकी किरीआ करी ॥१०॥ पाडुची किरीया तेरमी ३७ अपूर्व वस्तु परनी नवि गमी निज धण घरनुं वर्णन सुणी हर्षे ते सामंतोवणी ॥११॥ अथवा तक्रघृतादि मझारि जीव पडई तें पातक धार परवश करइं अरिंट ढिंकूया यंत्रादिक नेसत्थीकि (क्रि)या ॥१२॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ससलादिक आहेडो करई साहत्थी हाथि हत्थीआर धरई जीवाजीवथी अणावइं जेह आणावणी सतरमी तेह ||१३|| सूत्रधार करई काष्टना कौंच माहिं खीलीना ते संच रायना घरथी अणावइं सालि अजीव थकी इम पड्या जंजालि ॥१४॥ अढारमी हवइं वीआरणी फल ईटालादिक फोडणी अथवा दलाल दोभासुं करई परवंची पाप पोत भई ॥१५॥ सूनई मन ल्यई मुकइं कांइं अनाभोगकी किरीया थाई इह परलोक विरुद्ध जे नाम ते अणवकंखपच्चईआ नाम ॥१६॥ मन वच काया सावद्य योग अन्ना पओग क्रियानो योग अथवा कुंभारादिक थकी वस्तु घटादि करावइं की ॥१७॥ कुटंब मली बांधइ अष्टकर्म सामुदानकी ३९ किरिया मर्म माया लोभ कही प्रेमकी क्रोध मान ते प्रद्वेषकी ॥१८॥ ईरीयावही किरिया साधुनई अथवा केवलज्ञानी कनइं हींडतां बोलतां लागइं क्रिया तिण लघुकर्मतणी विक्रिया ॥ १९॥ तेहज कर्म समय दो रहइं त्रीजइं विसराल जिनवर कह ए पंचवीस क्रिया ते लही कर्म आवई तिण आश्रव कही ॥२०॥ ए आश्रव बइतालीस भेद साधुनई ए पंचतत्व विच्छेद भानुचंदवाचक शिष्य सार ४ ९ देवचंद कहई तत्वविचार ॥२१॥४२ संवर तत्व छटुं सुखकार जेणि कीधइं लहीइं भवपार भेद सतावन तेह प्रधान कहुं सुणो छांडी अभिमान ॥१॥ पंच सुमति त्रिणि गुपतिसु कर्म बावीस परीसह दस यतिधर्म बार भावना चारित्र पंच संवर द्वार सतावन संच ॥२॥ सूर्यकिरण जेणे पंथई४३ भर्या पल्हलां लोके जिहां संचऱ्यां युगदृष्टिं जयणा तिहां करई पहिली ईर्यासुमति ४४ गति धरई ॥३॥ भाषासुमति सत्य मीठी वाणि पापरहित करई निरवाणि ५३ एषणा त्रीजी ल्यइं अणगार दोष बइतालीस शुद्ध आहार ||४|| लेतां मुकतां पूंजइं जोय आयाणभंडनिखेव्वणा सोय थुंक सलेखम मल मांतरूं परठवतां जीव जतन ज ४५ खरूं ॥५॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-५७ मन वच काय गुपति त्रिणि कही आठई प्रवचनमाता सही । बावीस परीसह इहां ऊपजइ ते खमतां संवर नीपजइं ॥६॥ भूख खमई सदोष न लीइं आहार तरस्यो सच्चित ज[ल] करइं परिहार शीत सहई नवि तापइं अगनि उहनालिं अंघोलि न पवन ॥७॥ डांस मसा करडई ते खमइ च्छठई मइलां वस्त्र मुनि गमई कुठाम अरति परीसह सहई स्त्रीरूप देखी नवि गहगहइं ॥८॥ चरीया परीसह न रहइं एक गामि नवकल्पी ४६विचरइं ठामि ठामि निसीहा परीसह काउसगि जिहां सादिक भय न करइ तिहां ॥९॥ सिय्या परीसह अग्यारमो पोसाल पाटि पाडूई खमो अक्रोश परीसह लोक अजाण विरूउं बोलई खमई सुजाण ॥१०॥ अज्ञानी को हणइं प्रहार खमतां वध परीसह धारि मोटां कुल मई हरां छइं आज याचना मागतां नाणइं लाज ॥११॥ हुं न लहुं शुद्ध बीजो लहइं अलाभ परीसह खेद नवि ४७वहइं सोलमो रोग परीसो (स)ह खमइं सावद्य ऊषध आरति वमइं ॥१२॥ कंटक तृणां परीसह कहई उन्हालई मल दीलई सहइं सत्कार परीसह सबल अगाह स्तुति करतां न करइं उत्साह ॥१३॥ प्रज्ञा परिसह वीसमो जेह ज्ञान भण्यो नवि फूलई तेह अज्ञान परीसह कर्मइं लह्यो नावडई ज्ञानहृदय नवि दह्यो ॥१४॥ देवगुरुधर्म उपरि निसंदेह समकित परिसह कहीइं तेह ए बावीस परीषह खमइं साधू सदा संवरमां रमई ॥१५॥ हवइं दसविध यतिधर्म पालवो खंति खिमा करी क्रोध टालवो आर्जव सरलपणइं ते जाणि मार्दव मानरहित हितवाणि ॥१६॥ मुत्ति मुंक्या सुखना लोभ बारभेद तप करई अलोभ८ संयम यतिधर्म सतरइं भेद सत्यवचन बोलइं ते वेद ॥१७॥ शौच अदत्त न ल्यइं एक रती अकिंचन द्रव्य न राखई यती ब्रह्मचर्य पालई नव वाडि ए दशकर्म (धर्म) हणइं कर्म धाडि ॥१८॥ बार भावना संवर सही पहिली अनीत्यभावना कही धन यौवन ठकुराईतणी माया म करो अस्थिर भणी ॥१९॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ बीजी अशरण भावना लही मरण शरण को केहनइं ४९नहीं चउद राज ५°रडवड्यो संसार त्रीजी जीव न पाम्यो पार ॥२०॥ चोथी एकत्व भावना कहई मली मेलावो सहु को रहइं एकलो मात ऊदरि अवतरई एकलो इंहां थको पणि मरइ ॥२१॥ जीव अन्यनइं काया अन्य पांचमी अन्यत्व भावना धन्य कहि मेल्युं कोइ खाइं डोकरना घेवर परि थाय ॥२२॥ छट्ठी अशुचि भावना एह अपवित्र सात धातमइं देह सातमी आश्रव भावना जीव करइ मिथ्यात अविरति अतीव ॥२३॥ आठमी संवर भावना कहइं५१ समकित विरति शुभ ध्यानइ रहइं पूर्वकर्म संवरें नवा न बंधाइं इम चिंतवता संवर थाइं ॥२४॥ नवमी निर्जर भावना तपतेग नारकी प्रमुख दुख साहइं अनेक छट्ठ अट्ठम आतपन धरई तो घणां कर्मनो क्षय इम करई ॥२५॥ दशमी धर्मभावना कही संसार तारण श्री जिनधर्म सही लोक राज छे चउद प्रमाण सात हेठां सात उपरि जाणि ॥२६॥ सिद्धसिलां तिहां सिद्ध संठवइं इत्यादि लोकस्वरूप चिंतविं लोकभावना ए इग्यांरमी हवइं बोधिदुर्लभभावना बारमी ॥२७॥ ए श्रीसर्वज्ञ धर्मनुं लहिअQ वली समकित दोहिलं पामवं हवई चारित्र वखाणुं पंच प्रथम सामाय चारित्रं संच ॥२८॥ धर्मव्यापार टाली अन्य वृथा सावध व्यापार नियम ल्ये यथा छेदोपस्थाव बीजुं चारित्र भरत अनें वली ऐरवत क्षेत्र ॥२९॥ प्रथम चरम तीर्थंकर बार दीक्षा दीधा पूठिं धारिं । जो षट जीव ओलखतओ होइ तो माहाव्रत पांच उचरावई सोय ॥३०॥ परिहारविशुद्धि त्रीजुं ते कहुं तेहना भेद गुरुवचनई लहुं नव जण गच्छथी जूदा रही उपसर्गादि अहिआस्यइं सही ॥३१॥ अढार मास लगई जिस्यो तप कह्यो तिस्यो तप करें मन उमह्यो पछई वली आवई गच्छमां तेह अथवा तेह तप बीजी वार करेह ॥३२॥ सूक्ष्मसंपराय चोथु सुखकार परिणाम शुद्ध अति चोखा सार क्रोध-मान-मायोदय क्षय दोइ अतिसूक्ष्म मात्र लोचन(लोभ)नो जोइं ॥३३॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ यथाख्यात चारित्र ते पांचमु अछे सर्व कषाय क्षय कीधा पछइं अथवा उपसमाव्यां हुई आवतां ए पंच चारित्र श्रीजिन भाखता ॥३४॥ भेद सत्तावन जे नर लहें संवर द्वारमा ते नर रहिं भानुचंदवाचक जयवंत सीस देवचंद कहइं ते संत ॥३५॥ निर्जरा तत्त्व सत्तम गुणखाणि बारह भेदें तप वखाणि कर्मक्षयनो कारणहार षड बाह्य षट अभितर धारि ॥१॥ प्रथम बाह्य ते कहुं हित धरी सुंणयो भवियां मन थिर करी इग बि ति दिन यावत षट मास अनसन करें जावजीव उल्लास ॥२॥ बीजो उणोदरी जांणी करो कवल बिडं त्रिहुं ते परिहरो वृत्तिसंक्षेप त्रीजो तप वली इत्यादि अभिग्रह मुंनि ल्ये रुली ॥३॥ सचित द्रव्यादि श्रावकने कहुं चोथा तपनो भेद हवइं लहुं रस परित्याग करें ते भलो कायकिलेस लोच पंचम गुणनिलो ॥४॥ इंद्रीय कषायनइं मन वच काय संवरतां प्राणी सुख थाय हवइं अभितर षट भेद प्रमाण प्रायछित्त आलोइं गुरु आगलि जाण ॥५॥ लाजरहित गुरु आगलि आवी गुरुदत्त तप करें मनि भावि बीजो विनय करें मन-वच-काय आसन प्रदानादिक उभो थाय ॥६॥ आचार्य उपाध्याय तपीया ग्लान बाल-वृद्ध-शिक्षादिक हित मान अन्न पान उसधादिक आणि आपें विश्रामण करें त्रीजें जाण ॥७॥ वाचना पुच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा चोथई एक मना आर्त रौद्रध्यान परिहरें धर्म शुकल पांचमि आदरई ॥८॥ छठइ काउसगा करई मनि भावि क्रोधादि विषयादि समावि बार भेद जे ए तप करें करम खपावीं शिवगति वरिं ॥९॥ भानुचंद वाचक गुरु सीस देवचंद नमइं निशिदीस अट्ठम तत्त्वतणो सुविचार चिहुं भेदिई सुणयो भवि सार ॥१॥ प्रकृतिबंध अनइं स्थिति-रसबंध चोथो प्रदेशबंध दलसंघ जिम दुध अनइं पाणि एकठां माटी अनइं धातु सामटां ॥२॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ तिम एकळं कर्म हुई जीवसुं विवरीनइं तेहविं कहिसु जिम कोइक वैद्य थकी नीपनी गोली मधु वा गुलें करी संपनी ॥३॥ बांधतां च्यार वानां बंधाई द्रव्ययोगइं स्वभाव जूदा कहिंवाई स्थिति काल अनुभाग रस जेह प्रदेस दलपरिमाणइं तेह ॥४॥ एक गोली टालई खास खास एक हरई जलोदरनो वास। एकथी सन्निपात ते ५२जाय एक निवारइं पित्त नइं वाय ॥९॥ प्रकृति स्वभावई इम गुण करई बीजी स्थिति आयु इम धरइं दिन पख मास छ मास ते रहइं पछई विणसइं गुण नवि नहई ॥१०॥ त्रीजो रस गोलीनो जेह खारी खाटी मधुरी तेह प्रदेश चोथो तोल प्रमाण इम कहीइं गोली चउ माण ॥११॥ इण दृष्टांतई जीवनो धर्म पुद्गल लेई बांधई कर्म ज्ञान दर्शन चारित्र आदरई वारई दुख नइं सुख अनुसरई ॥१२॥ प्राणनइं प्रकृतिबंध ए कह्यो एगेई कर्म स्वभाव संग्रह्यो बीजुं स्थिति रहवा- आय नाण दंसणावरण वेदनी अंतराय ॥१३॥ त्रीस कोडाकोडिं सागर विशाल तेत्रीस सागर आयुनो काल वीस कोडाकोडि नाम गोत्रनुं आय सितरि कोडाकोडि मोहनी कहाय ॥१४॥ जघन्य वेदनी मुहूरत बार नाम गोत्र ते आठ५४ विचार स्थिति थोडी बीजां कर्म तणी अंतमुहत्तप्रमाण लघु भणी ॥१५॥ त्रीजुं अशुभकर्मरस लींब शुभकर्मरस साकरटींब कर्मतणां दल चोथु प्रदेश एक भारे हलूया लवलेश ॥१६॥ सोवन आठिल सम शुभ कर्म लोह५५ समान कहिइं अशुभकर्म बंध तत्त्व ए च्यार प्रकार देवचंद कवि कहें विचार ॥१७॥५६ नवमुं मोक्ष तत्त्व सुविचार सुक्ख अनंततणो भण्डार सकलकर्म तणो क्षयकरी जीव रहइं तिहां सुख अणुसरी ॥१॥ ५७सोगठी अग्यारि जिम अमर तिम [ति] हां प्रांणी पणि ते अमर गणधर तीर्थंकर पद इहां सर्वजीव अंतर नहीं तिहां ॥२॥ अर्द्धचंद्र सम तस आकार लाख पिस्तालिस योजन विस्तार तेहनो भेद न दीसई कोय पणि परूपणा नवविध होय ॥३॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ लोकाग्र भागइं ते रहइं नास्तिक होइं ते नवि सद्दहइं तेहनइं मोक्ष थापवा भणी पहिलो भेद कहै त्रिभूवन धणी ॥४॥ मोक्ष पदारथनो ए मतो एकपद नाम माटइ छई छतो जे जे एक पद ते छई सही जिम जगि जीव देव घट दही ॥५॥ बै पद नाम पदारथ जेह केतला सत्य असत्य होइ तेह श्रीनंदन जिम हस्तीदंत राजपूत्रनइं लक्ष्मीकंत ॥६॥ ५९जपाकुसुम अनइं मृगशृंग ए बिहुं शब्दि छता शिर गंग बिहु शब्द नामइं अछता जेह ६°शशकशृंग वंध्यापुत्र तेह ॥७॥ तुरंगमसींग अनइं खरसींग पाडो ग्याभणो करहीसींग आकाशकुसुम संयोगी नाम एहनो कहीइं न दीसइं ठाम ॥८॥ तिम एक पद नाम मोक्ष निसंदेह छइं निश्चय मधुरो संदेह । वली मार्गणाद्वारइं करी मोक्ष परूपणा कऊं हित ६२धरी ॥९॥ बीजो भेद मोक्षनो एह कुण कुण जीव लहइं पुण तेह मानव कोइक पामई मुगति त्रिहुं गति नानइं नही ते मुगति ॥१०॥ पंचेंद्रि कोईक सिद्धि जाय बित्ति चउरिंद्री नयें न कहाय त्रसकायथी शिवपुर होइं पांच काय पुण न लहइं शोय ॥११॥ भव्य जीव ते पामइं एह अभव्यजीव नवि पामइं तेह लहइं सन्निया मोक्ष ६३दूयार असन्निया न लहइं निरधार ॥१२॥ पांचमई चारित्र लहइं शिवसुक्ख पहिले चिहुं नवि पामई मुक्ख समकित भेद अछइं ते पंच पहिला चिहुं नहि६४ नहि शिवसंच ॥१३॥ क्षायिक समकित जव जीव लहइं मोक्ष पामइं ते जिनवर कहइं अनाहारी मुगति जई मलई आहारी संसारइं रलई ॥१४॥ केवलदर्शन शिवसुख सही चक्षु अचक्षु अवधि त्रिहु नहीं केवली मोक्ष लहइं सर्वदा बीजइं चिहुं ज्ञानइं नहीं कदा ॥१५॥ इणि दस थानकि पामइं मुगति प्रथम द्वार ए जाणइं सुमति बीजुं द्वार ते द्रव्य प्रमाण अभव्य जीवथी अनंत सिद्ध माण ॥१६।। त्रीजुं क्षेत्र द्वार लोकाकाश अशंखमई भागि सिद्ध नीवास अथवा सर्वसिद्ध जिहां६५ रहइं लोक असंखमइं भागि सिद्धि ६६कहें ॥१७॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ चोथुं द्वार फरसना कहेश जे छई आकाशना सिद्ध प्रदेश मध्य जोयणभागि चोविसमई सिद्ध रह्या छई छेहलई गमई ॥१८॥ एह खेत्री अधिकी फरसना रुंधई चिहुं दिसि प्रदेश आकाशना तेजई रुंधई दीप आकाश सात प्रदेशी फरसना तास ॥१९॥ कालद्वार पांचमुं सिद्ध तणुं एक जीव आश्री आदि तस भ मोक्ष गया ते६७ जीव अनंत सर्वसिद्ध नहीं आदि न अंत ॥२०॥ छट्ठ द्वार अंतर नवि सिद्ध सिद्ध चवी वली नो हई सिद्ध सातमुं भाग द्वार ते लहुं जहीइं पुछई तइही कहुं ॥२१॥ अनंतमो भाग ए निगोदनो मान मुगति पोहता सिद्धनो आठमुं भाव द्वार ते जोय केहई भावई सिद्ध ज होय ॥२२॥ राग रोसनुं कर्मज नहीं उपसमिक बीजुं ए रही त्रीजुं क्षायोपशमिक पा(भाव) चोथेनं क्षायक वस्तई भाव ॥२३॥ पांचमुं पारणामिक सही कर्म क्षप्यां तो शिवगति ही भव्याभव्य न होइ कदा जीव अजीव नहीं ए सदा ||२४|| क्षायिकनई पारणामिक बेउ वर्त्तइ भाव सदा सिद्ध उ बीजाणि न होई भाव सर्वसिद्धनो एह स्वभाव ॥ २५ ॥ ७० नवमं अल्पबहुत्व सिद्ध द्वार तेहतणा हवई कहुं विचार जन्म नपुंसक मोक्ष न जाय दीक्षा पणि तेहनइं नवि थाय ॥२६॥ कीधा जे छेदादिक करी मोक्ष लहई ते दीक्षा वरी त्रीण वेदमांहिं नपुंसक जीव थोडा सिद्ध होइ सदीव ||२७|| तेथी स्त्रिवेद सिद्ध असंख तेथी पणि नर सिद्ध असंख इम नर नारि नपुंसक सिद्ध थोडा तेह अनंता सिद्ध९ ॥२८॥ ए नव द्वार मोक्षनां जाणि नवरं तत्त्वना भेद वखाणि बसइं छिहोत्यरि सर्व संखेव सद्दहतां समकित ततखेव ॥२९॥ मानइं जीवादिक नवतत्त्व समकितवंत कह्यो ते सत्व तिणि वारी दुगति एकंत भवसागरनो आण्यो अंत ||३०|| समकित अंतरमुहूरत मांन फरसिउं जेणइ आणी सांनि अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्तमान होई संसारि अधिक नहीं ताण ॥३१॥ ५९ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० १. ४. ए नवतत्त्वतणो विचार कहीइं कोइ न पामई पार संखेपि मति सारू कीध ग्रंथातर ए अरथ प्रसिद्ध ||३२|| सुविहित साधुतणो शृंगार श्रीविजयदेवसूरि गणधार तास पाटि प्रगट्यो सूरि सींह विजयसिंहसूरि राखि लीह ||३३|| गुरु श्री सकलचंद उवज्झाय सूरचंद पंडित कविराय भानुचंद वाचक जनेंचंद तास सिस कहें देवचंद ॥३४॥ ए चोपइ रचि करजोडि कविता कोइ म देजो खोडि अधिकुं ओछं सोधि जोडि भणता गुणतां संपति कोडि ॥३५॥७३ १००८ नमः १०८ | अथ श्री नवतत्त्व चोपईच्छंद लिख्यंते । श्री सद्गुरुभ्यो नमः क । श्री गुरुभ्यो नमः ख क । ग्रंथि ख - २. बंधि ३. होइ ख । इतिश्री सिद्धियस्वरूपे जीवतत्त्वाधिकार संपूर्णः ख । - अजीव ५. क । ६. धम्म अधम्म आका० ७. दृष्टांत: क । ८. कल्लीयां क । कुल ९. तसु अनूँम्हांह्रह १०. एक व्यद्धयी बीजइंय ११. मिली ख क । - - क। गणो १२. साढाय क । साथि १३. गुण्णो १४. कह्यां दाय १५. दिवस १६. वस्तु सिद्ध्य १७. सर्वगाथा च ढाल = - - क । - क । - ख । - ख । ख । क । जव थाय क। एक वींधी बीजे ख । ख । - ३६ । अथ ढाल तृतीया क । इति अजीव भेद अनुसन्धान-५७ क। इति जीवतत्त्वसंपूर्णः क । इतिश्री अजीवभेद संपूर्ण ख । - - । छंद चोपाई गाथा । अथ पूंण्यतत्त्वे ख । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १८. अतिर १९. बतीचउरिंदिया २०. चित् ख । २१. काया जीव एक अंग २२. मोहे पज्जत एकलो - - ख । २३. सर्व्व गाथा ५३ । ईति श्री पूंण्यतत्त्वाऽधिकार श्री नवतत्त्वप्रकरण चतुष्पद्यां पुंण्य तत्त्व संपूर्णः । श्री पुरबंदिरे ॥३॥ ॥ ६० ॥ क । २४. भो क । २५. पामे २६. सीझइं २७. रोकइंय २८. कहीं - ४३. रथइंय ४४. मनि - — - ख । २९. वदई ३०. निठुर ३१. सारुय क । ३२. जोय ख । ३३. अणसुहातूं - क । । ३४. 'वर्ण गंध' क ख मां नथी ३५. एह जांण क । मंडाण ख । ३६. सर्व्वगाथा छंद ९१ । इति श्रीपापतत्त्वाधिकार ४ | || || ख । - क ख । ख । ख । - क । क । क । ३७. अवर ३८. ठांम ३९. नो धर्म ४०. ति ख । ४१. पं. श्री देवचंद क | ४२. ईत्याश्रवतत्त्व पंचमंमिहुंण्णे सर्व्वगाथा शंख्या आंकेण एकश्ण्य बार ११२ । ५। अथ संवराऽधिक्हार षण्णहम्म ६ चोपईयच्छंदे ॥ ६०॥ ऐँ नमः १०८- । अथक इति आश्रवतत्व ५ । क । क । क । - क ख । ख । - ख । ६१ क । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनुसन्धान-५७ ४५. ज तत्व खरउं - क । ४६. विसिं - ख । ४७. लहे - ख । ४८. अक्ष्योभ - क । अखोभ ख । ४९. कही - ख । ५०. दडवडयउय - क । ५१. गाथा २४ना पहेला चरण पछी प्रायः २५ गाथा बन्ने प्रतिमा भिन्न छ जे भिन्न गाथा - नीचे प्रमाणे छे. जे पाठ ख प्रतिमांथी नोंधेल छे क प्रतिना पाठभेद साथेनी टिप्पणमां जुओ । आठमी संवर भावना विरति इंद्री दमतां पांचमी गति । ५१ःनिर्जरा नवमी मनि धरे कर्म अनंता खेरु करे ॥२४।। धर्मभावना दशमी कही जेथी वंछित पांमइ सही । लोकभावना चिंति पंडि जेहवो चउदराज ब्रह्मांडि ॥२५।। दुर्लभबोधिबीज बारमी शिवपुरगामीनिं मनि रमी । ए संवर बारे भावना चारित्र पांच सुंणो एक मना ॥२६।। तजे सर्व सावध व्यापार पहिलं समाईक आचार । छेदोपस्थान बीजुं ऊचरे जांणी छकाय महाव्रत धरे ॥२७॥ परिहारविसुद्ध त्रीजुं चारित्र मास अढार- तेह पवित्र । नव जण गछथी रहई आरामि तप संयम करी आवई ठामि ॥२८।। सुखम संपराय चोथु शुद्ध दशमें गुणठाणे लहि बुद्धि । क्रोध मांन माया मूलथी नहीं अंस मात्र लोभ रहे सही ॥२९।। यथाख्यातचारित्र पंचमुं मुलथी च्यार कषाय नीगर्नु । अति चोखो मननो परय्याय उपले चिहु गुंणठांणे थाय ॥३०॥ संप्रति धुरि बें चारित्र रह्यु आगला त्रिण विछदि गया । एतले संवर सतावन सार सद्दहतां लहीइं भवपार ॥३१।। प्रतिबोधी अकबर सुलतांण मुंकाव्युं श्री शेजय दांण । भानुचंद गुरु सीस सुजाण देवचंद कहे तत्त्व वखांण ॥३२॥ Eइति श्री संवरतत्त्व संपूरण ॥६॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ हवें सात तत्त्व निर्ज्जरा बारे भेदे तप शिवसुखकरा । बाहिरि अभ्यंतर तप तपिं तप तपतां सघलां कर्म खपइ ॥ १॥ बाह्य तपना षट भेद थाय पहिलो अणसण कहे जिनराय । उपवासादि छमासी करई तेथी कर्म कोडि निर्जर ||२|| बीजो ऊंणोदरी तप सार नरनें कवल बत्रीस आहार । स्त्रीनइं कवल कह्या अठावीस नपुंसकनई उत्कृष्ट पणवीस ॥३॥ जो वृतिसंक्षेप साधु धरई दत्त द्रव्यनी संख्या करें । चऊद नेम श्रावकने जेह संभारि संखेपि तेह ||४|| H चोथो रसत्याग तप जांणि षटरस विगय संख्या मनिं आणि । लोचादिक कायक्लेस पांचमो संलीनता तप छडो (ठो) खमो ॥५॥ ते बीहुं भेद बाहिर अंगोपांग संवरइ कषाय च्यार अंतरंग । षट्विध तप अभ्यांतर शुद्धि धुरि तप आलोअण ल्यइं बुद्धि ||६|| बीजौ विनय तप वडां गुणवंत जांणी वाद पूजें संच । अभ्यंतर तप त्रीजो भणो वेयावच्च दशविधि ते सुणो ||७|| आचार्य उवज्झाय ने ग्नाननई तपसी ज्ञानीनई Mबालनई । धइं आणी ओषध अन्नपांन वेयावचनु नो हई यान ॥८॥ चोथो तप ते पंचविधि सज्झाय अभ्यंतर ए मुगति उपाय । भणें गणें अर्थनी पृछना धर्मकथा पांचमी चिंता ॥९॥ पांचमो तप ते धर्म शुक्लध्यांन आर्त्तरौद्रनुं नही अभिधांन छठो काउसग तिप यथाशक्ति निर्दोष करतां पांमिं मुक्ति ॥१०॥ इम तप बारेइ भेदे करे कर्म कठिन सघलां निर्जरई । देवचंद कवि कहिए सार सातमुं निर्जरा बार प्रकार ॥११॥ "इति निर्जरातत्त्व संपूर्ण ॥७॥ आठमुं बंधन तत्त्व गंभीर सूक्षम छे पणि तेहनुं हीर । कहस्युं करवा परउपगार बंधतत्त्वना च्यार प्रकार ॥१॥ एणिपरि जीव मिल्यों कर्मबंध जिम एकठां फुल नि गंध । तिलनई तेल जिम छई एकठां दुध पांणी जिम मल्यां सामठां ॥२॥ इणिपरि जीव मिश्रबंधे कर्म लोक दैव कहिं ते कर्म । कर्म भेट्यो सुखदुख सहे वईरभावि बे एकठां रहइ ||३|| ६३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कहीइंक थाय कर्म बलवंत कहीइंक जीव तस अंत । जीव कर्मनो एहवो ढाल एक एकनइ छलई ततकाल ॥४॥ कर्मबंधना च्यार प्रकार प्रकृति स्थिति रस प्रदेश अपार । प्रकृति कहीइं वस्तु स्वभाव स्थिति रहिवुं आयुखानो भाव ॥५॥ कडूओ मीठो रस अनुभाग प्रदेश ते दलसंचय लाग । मोदिकनें दृष्टांतइं बंध अथवा वैद्य गोटिका संबंध ॥६॥ कोईक वैद्य वाटइ ओषधी बंधई गुटिका नव नव विधी । तेह तणो ए चिहुं भेद पहिलुं प्रकृति कहुं ते छेद ||७|| कोईक गोली टाले ताव कोईक करे सबलाई भाव । एक श्लेषमानो हरे संता ॥८॥ ख । टिप्पण : ५१.A नित्य निर्जरा B सामायक व्रत उच्चार C संभार क । संमीलितेन १४४ ॥ F कोडि सहीइं नि० Gष्ट पुण पणवीस बहू क । करवाय च्यार क । - D धार क । E इति श्री सयंवर तत्त्वाधिकार षष्टम्मः संपूर्णः ६ ॥ एवं सर्व्व गाथा सह ए६० ॥ नमः १०८ ॥ क ॥ क । - क । H गाथा च्छंदः मागध प्रां. शैलीं चेति ३ | J K संत L 1 नीव करइतस - - - 1 क । नमः १००८ ॥ - क ० कर्म्माकर्म्मः क । P क । Q विभाव R एक गोली क । क । क । - गिलाण्णन्हइं क । M वय बाल० क । N इति सत्तमनिर्ज्जराऽधिकार चोपाई । सर्व्व गा० । १५५ ॥ ७ ॥ ६०॥ क्लीँ क । अनुसन्धान-५७ - क । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ S एक गोली कोढनउय टालइंय व्याप ॥८॥ ५२. ते सवि जाय ५३. एग एगई य कर्म्म ५९. यथा कुसुम ६०. शिस्याय शृंग ६१. करही क । ६२. करी ख । - इति श्री बंधतत्त्व संपूर्णः ८ ५७. योगव क । ५८. नवभेदे य होय - ५४. आठ आठ क । ५५. लोभ क । ५६. इति अष्टमतत्वे बंधतत्त्वाऽधिकार संपूर्णः ८ । सर्व्व गाथा १७२ । अथ नवम मोक्ष्यतत्वाऽधिकार चऊप्पई च्छंदः ॥ ६० ॥ श्री सारदाय नमः १०००५ ॥ क - - - - - - - ख । ६३. दुवार ६४. चिना ६५. जिहां सुख लहइं ६६. सिद्ध ६७. ते तो सिद्धिय अनंत ख । क । - - क क । क । द्वार - क । नवभेद क । । ईश्वकर्म ख । क । - क । ख । - ख । - ६८. वरजइ ६९. ईति सर्व्व सिद्धिय सभावं व्याख्यातं अथ अल्पबहुत्वं च्छः । ७१. लिद्ध क । ७२. जगिचंद क-ख । ७३. नवतत प्रकरण ग्रंथ विस्तार वृत्त्यि सूत्र गाथाय अधिकार । बालावबोध टबालो लह्यो अर्थालो विवरण संग्रह्यो ||३६|| मूल सूत्र गाथा च्यालीस विरचित सूरि पूवि विनयीस । केवलनांण्ण घन विसवायवीस श्री माहवीर किल खलु प्रण्णम्मीस ||३७|| इतिश्री देवचंद नाम्ना कविराजार्हद्विरचितं श्री नवतत्त्व प्रकरण विस्तीर्ण क । ख । ख । ६५ क । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनुसन्धान-५७ गाथा चतुरपद चौपईच्छंदांशितुस्संपूर्णं ॥ श्री श्री सौराष्ट्रदेशेषु श्री लवणसमुद्रौ क्ष्यीर एव श्री बंदिर सौदांमाय श्री पौरबंदिरे नगरे । सिरी विक्रमादीत्त संव १७०० । वर्ष ६६ फागुण वदि छट्ठि गुरुवारे लिखितं ऋषि श्री ओधवजी तस्य शिष्य ऋषि हीरजी पठनार्थ ऋषि श्री प्रेमजी सुभं भवतु कल्याणमस्तु लिखक पाठक जयो । ऋ० प्रेमजी ओधवांणीइं पूस्तक भण्डारें कर्यो - क । इति श्री नवतत्त्व चउपई संपूर्ण । संवत् १८१६ वर्षे श्रावणिमासे वदिपक्षे पडिवा १ तिथो गुरुवारे लपिकृतं श्रेयतरात् श्री राधणपुर मध्ये । श्रीपार्श्व देवजी परसादात् श्रीरस्तु । कल्याण० ___ जीर्णगढ संवत १८३० फागुण सुदि ११ उतरीया गीरनार ॐ श्री पूज. - ख । अघरा शब्दोनां अर्थ पान नं. गाथानं. ४ १३ चरी जाड खंचि आनमी आठिल ग्याभणो चरित जाडु/जड, स्थूल (?) खेंचीने नम्र थईने बेडी गाभणो-गर्भयुक्त १३ १७ C/o. देवीकमल जैन स्वाद्यायमन्दिर विकासगृह रोड, ओपेरा, अमदावाद-७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ आणंदवर्धन-रचित नवतत्त्व-चउपई ६७ साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री पत्र - ७, शेठ डोसाभाई अभेचंद जैनसंघ भावनगरना संग्रहनी हस्तप्रतिनी झेरोक्स उपरथी आ सम्पादन कर्तुं छे. तेना कर्ता खरतरगच्छना श्री धनवर्द्धनसूरिना शिष्य श्री आणंदवर्द्धनसूरि छे. (गाथा २८४-२८५) रचना संवत १६०७ छे, लेखन संवत - १६०८ महा सुद- १ - मंगळवार छे. लेखक - देवगुप्तसूरि छे. आ नवतत्त्व चउपईनी रचना पछी १ वर्षमां ज आ प्रति लखायेली छे. आ चउपईनी कुल गाथा - २८९ छे. जेमां गाथा १ थी ५८मां जीवतत्त्व । ५९ थी ९९मां अजीवतत्त्व । १००थी १२३मां पुण्यतत्त्व । १२४ थी ९६१मां पापतत्त्व । १६२ थी १८४मां आश्रवतत्त्व । १८५ थी २१७मां संवरतत्त्व । २१८ थी २३०मां निर्जरातत्त्व । २३१ थी २४५मां बंधतत्त्व । २४६ थी २८०मां मोक्षतत्त्वनुं निरूपण छे । गाथा २८१ थी २८३मां नवतत्त्वने जाणवाथी थतो लाभ वगेरे दर्शाव्या छे । अन्ते गुरुपरम्परा अने लाभ बतावेल छे । श्री अरि[हं]तनां पह( द ) युगल । प्रणमीय परमाणंदि । नवइतत्त्व विवरण कहुं । जे भाख्यां वीरजिणंदि ॥१॥ नवनिधांन चक्रवर्त्तिनां । जिम धन पार न होइ । तिम नवतत्त्व विचारनु । कहीय न पामइ कोइ ॥२॥ नव नंदे नव डुंगरी । कनकतणी जलनिधि । तिम नवतत्त्व विचारणा । राखुं हीयडा मधि ॥३॥ ग्रीवां नव ग्रीवेकि छ । लोकनालि ब्रह्मंडि । मुखमंडण कंठं धरिं । तत्त्व नवइ निज पिंड ॥४॥ नव वार्ड रख्या करिं । ब्रह्मचारि नीय ब्रह्म । तिम नवतत्त्वे राखज्यो । विनय मूल जिनधर्म ॥५॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ हिव - चउपई ॥ जे सिद्धांति कहिउ विचार । सांभलतां लहीइ भवपार । भवियण अर्थ सयल संग्रहइ । अभव्य जीव ते नवि सद्दहइ ॥६॥ जीव अजीव अनइ पुण्य पाप । आश्रव संवर करिवू आप । निर्झर बंध मोक्ष ए नवइ । निसुणउ भेद कहुं जे हवइ ॥७॥ पहिलं चऊद भेद जीवना । सूखिम नइ बादर बेवना । पढवी अप्प तेउ नइ वाय । वणसय ए सूखिम कहिवराय ॥८॥ चऊदराज व्याप्यु इणि सही । दृष्टिगोचरि ते आविं नही । जिम जल मछ्यादिक गति गमण । तिम आकाशि खेचर परिभ्रमण ॥९॥ जिम तृणादि जल ऊपरि तरइ । तिम ज्योतिष पवने संचरइं । धन तन पवन थविर सुरलोक । तेम पृथिवीइं मानव लोक ॥१०॥ ए पांचइ थावर ते सही । विण चल्लाव्या चालई नही । माटी पाणी तेज पवन्न । बद्ध पिंड दीसइ वलि वन्न ॥११॥ पंचइ ए बादर इम लहियां । सूखिम बादर इणि परि कहियां । आंखि कांन मुख नाक जि नही । एकेंदी काया ते सही ॥१२॥ माटी पीली ऊस धावडी । आभूआं अरणेटु खडी । मणसिल हीगलो हरीआल । भोमल मीठा खाणि रसाल ॥१३॥ षाती धातु पषाणक सीस । पूढविकाय ए विश्वावीस ।। पाणी धुंइरि करहा हीम । ठार ओसादिक कणीआ सीम ॥१४॥ अप्यकाय हिव तेउकाय । वीज झरल धूउ कहिवराय । दीवु मुरमरा उलकापात । अगनि तणी छइं बहुली जाति ॥१५।। अति कपरिमा जे च्छई वाय । योनि सात सात लक्ष थाय । वणसय काय तणा बि भेद । भंग समु जे पाली छेत ॥१६॥ खंडोखंड करी वावीइ । ऊगइ ते अनंत साचीय । ऊगइ कंद न ऊगइ मूल । सूक्ष्म विचार नही ते थूल ॥१७॥ बाउल पीपल वडला आदि । ऊगइं डाल प्रत्येक बनी आदि । अनंत जीवनु बाधउ पिंड । चऊद लाख ते योनि अखंड ॥१८॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ बीज फूल फल पान जेतलां । छालि काठ मूल तेतलां । ते वनराइ कहीइ प्रत्येक । वेद नपुंसक पंचइ एक ॥१९॥ अष्ट जोयण वडनु विस्तार । वेला सहस जोयण निस्तार । आहार सयर इंद्रय ऊसास । पर्याप्ति पूरी च्यारइ जास ॥२०॥ योनि लाख दस एहनी जाणि । एकेंद्रीना च्यारि प्राण । सासोसास काय बल आयु । स्पर्शनेंद्रय हिव कहुं परमायु ॥२१॥ अठ पअंतर महूरत सवि सही । वर्ष सहस बावीसइ मही । सात सहस वच्छर अपकाय । त्रिण्णि दिवस हुताशन आय ॥२२॥ वच्छर त्रिण्णि सहस जे वाय । वर्ष सहस दश वणसइकाय । ए पंचइ हुंडक संस्थान । बावन लाख एकेंद्री मांन ॥२३॥ छाण योनि बाबति जूजूआ । जीव बहूपरि कुल इम हुआ । बार कोडि लख कुल पुढवीना । सात कोडि लख हुइं आपना ॥२४॥ त्रिणि तेऊ वाऊना सात । वणसय अट्ठावीस कुल जात । लेश्या कृष्ण नील कापोत । सयर ऊदारिक कार्मण ज्योति ॥२५॥ वाउकाय वैक्रय विशेष । इम एकेंद्रय कहिया निःशेष । हिव कहुं बिति चउरेंदी गुहिर । जेहं सरि हाड मंस नही रुहिर ॥२६।। बेंद्रीनइ काया मुक्ख । अलस जलो सीपूना शंख । कृमि पुरा ईअल गंडोल । कहितां पार नही इंडोल ॥२७॥ तेंद्री बोलु बहू छता । काया मुख नाशा अधिकता । कीडी मंकोडी जूअ लीख । मांकड चांचड मानव सीख ॥२८॥ कीडा ऊदेही घीमेलि । गीगोडा कातरा चूडेलि । गादहींआ खज्जूरा जूआ । केता कहु नामि जूजूआ ॥२९॥ हिव चउरिंदी बोलूं वयण । काया मुखनइ नाशा नयण । वीछी ढंकण भमरा टीड । डांस मसा पंखाला कीड ॥३०॥ कोकीआ मच्छर पत्तंग । देखी ज्योति जेहं लागइ रंग ।। फाकां फूदी कृती भाति । माखी भमरीनी बहू जाति ॥३१॥ विगलेंदीय ए आगम भाख । प्रत्येकि छइ बि बि लाख । बि ति चउरेंदीनां कुल कोडि । सात आठ नव लाखह जोडि ॥३२॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ बेंद्रीनइ छ एह प्राण । जीभ वचन बल अधिकां जणि । केंद्रीनइ घ्राण विशेष । चरिंद्रीनइ नेत्र नमेष ॥३३॥ असंनीआ पंचेंद्रय कांन । नवइ प्राण पणि न हुइ सांन । बि-ति-चउ-पंच समूच्छिम जेह । भाषा पर्याप्ति ऊपनी तेह ॥३४॥ विगलेंदीय नइ असंनीआ । तिरिय पंचिंदी इम वन्नीआ । औदारिक तेजस बेउ जाणि । कार्मण त्रीगँ सयर वखाणि ॥३५॥ एहतणुं नपुंसकवेद । हुइ आकार करइं बहु खेद । पढवी आप अनइ वनस्पती । बि-ति-चउरिंदी बेहू गती ॥३६।। मानव अनइ तिर्यंच मझारि । अगनि वाउ पुण तिरिय विचारि । नाना परि हुंडक संस्थान । देहतj हिव बोलुं मान ॥३७|| बेंद्री बार जोयण शंखादि । त्रिणि जोयण केंद्रीय आदि । ऊदेही आगमि एवडी । चरिंदी काया जोयणि च(व?)डी ॥३८॥ असंनीआ सनीआ तिर्यंच । जेहं तणइ हुई इंद्रय पंच । सहस जोयण मध्यादिक कहिआ । बि-ति-चउरिंदी असंनीआ ॥३९॥ एहनइं छेवट्ठी संघेण । च्यारइ गति पामइ तिरिएण । नर तिरि नारक नइ देवता । लाभइ अरथ सुगुरु सेवता ॥४०॥ माखिक मदिरा मांखण मंस । स्त्री सेवां मानव अवतंस । मरइ ऊपजइ बि घडीमाहि । समूच्छिम इम भव पूराय ॥४१॥ हिव गर्भज पंचेंद्रय सुणउ । एह विचार अछइ अतिघणउ । मानव तिरिय देव नारकी । पहिलुं चरच कही पारकी ॥४२॥ सुर-नर नारकनइ दश प्राण । पंचेंद्री मन वय काय जाणि । सासोसास अनइ परमायु । छइ पर्याप्ति अनेरी थाय ॥४३॥ आहार सयर इंद्रय ऊसास । भाषा मन महूरति ल्यि वास । सुर नारक वचन समकालि । मानव षट महूरत अंतरालि ॥४४॥ औदारिक वैक्रय आहार । तेजस कार्मण पंच प्रकार । मानव ए सुर नारक त्रिणि । औदारिक तेजस कार्मणि ॥४५।। पुरष नारि नपुंसकवेद । नर तिरि संनीआ नही भेद । सयर नारकी धणसय पंच । तेत्रीस सागर आयु अखंच ॥४६॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ७१ हाड रुहिर आमिरुं त्वचा- । रहित देह सुर मुनि कर वचा । दश सहसमाहिं नही आयु । सुर नारक बे सम वरसायु ॥४७|| पंचानुत्तरनइ ग्रीवेकि । वैक्रय सयरनु हि ते छेकि । लाख जोयण वैक्रय परमाण । अवर देव- ए करमाण ॥४८॥ मानव कोस त्रिहुंनु देह । पुंणा करमांहिं नही छेह । त्रिण्णि पल्योपमनुं परमायु । पूरवकोडि तिरि असंन्नी आयु ॥४९।। सत्तिरि कोडि लाख वच्छरिं । छप्पन कोडि सहस ऊपरि । एति एक पूरव निरमाण । इस्यां कोडि आउं परिमाण ॥५०॥ मानव सम संनीआ तिरियंच । जघन्य अंतरमहूरत अखंच । आरइ आयु देह निरमाण । भरहेरव जूजूआं बंधाण ॥५१॥ युगलीआं सुरगति इक होइ । देव-नारकी बि गति जोइ । नर-तिर्यंच थाई एह चवी । मानव पंचइ गति केलवी ॥५२॥ दस संज्ञा सवि हुँ जीवमाहि । नर छ लेश्या धरइ उच्छाहि । सुर तिरि नारक चउ चउ लाख । मानव चऊद लाख योनि भाख ॥५३।। लाख चउरासी सविहुं तणी । जीव योनि सरवालइ भणी । नर-तिरि-गर्भज काय बंधाण । छ संघेण च्छई नर संस्ठाण ॥५४॥ जलचर बार लक्ख कुल कोडि । ऊपरि कोडि पंचासह जोडि । खेचर लाख कोडि कुल बार । दसइ कोडि लख कुल थलचार ॥५५।। कोडि लाख नव भुजपरिसर्प । दाह कोडि लख उरपरिसर्प । बार कोडि लक्ष कुल मानवी । नारक पणवीसइ मानवी ॥५६॥ देव छव्वीस लक्ष कुल कोडि । सर्व थई सरवालु जोडि । पंच सात नव एक अपार । आगलि मीडा दिउ अग्यार ॥५७॥ १९७५०००००००००००. _वस्तु - १ सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर भेद एकेंद्र ।। विगलेंदीय त्रिण्णइ कहिया । गर्भजात तिरि मणुअ देवा । संमूच्छिम पंचेदीआ पज्जत्ता अपजत्त लेवा । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ भेद चऊद सुणतां सही । दुरी पणासिं दूरि । खरतरगच्छनायक भणइं श्री आणंदवर्धनसूरि ॥५८।। हिव चउपई । भविआं निसुणउ बीजुं तत्त्व । अजीव ते जिहांनु हइ सत्त्व । धर्माधर्मआका[शा]स्थिकाय । त्रिण्णइ त्रिहु भेदे नव थाय ॥५९॥ खंधु देश प्रदेसिं करी । अद्धाकालदसु उद्धरी । चउद राज व्यापिउ इणि भरी । केवलि जाणिं एहनां चरी ॥६०॥ पुदगल थूल अच्छई चिहुं भेदि । छदमस्थ जाणी कहिं विछदि । खण्ड(न्ध) देश प्रदेश परमाण । अजीव चऊद भेद निरमाण ॥६१॥ खंधु चऊद राजनुं नाम । धर्मास्थिकाय पूरिउ अभिराम । राज खंड जोयण ते देश । तेहनु अणु सूखिम प्रदेश ॥६२॥ अधर्मकाय त्रिहु ए इम गणउ । आकाशास्थि इच्छां तिम मणउ । त्रिण्णि त्री नव भेदे जाणि । अद्धाकाल समय वक्खाणि ॥६३॥ अतीत अनागत नइ वर्तमांन । एकठा न मलिं ए अनुमांन । तेहना भेद खंधादिकनुं हइं । इणि कारणि ते दशमु कहिं ॥६४॥ घट पट थंभ डुंगर नइ वृक्ष । आखा खंध कहिंजे दक्ष । तेहना खंड देश ए सही । सूक्ष्म प्रदेश जे भेदइ नही ॥६५॥ खंधा देश प्रदेशा वस्त । दृष्टिगोचरि देखि छदमस्थ । पुदगल सूक्ष्म अत्थि अत्यंत । देखि तुजउ मलिं अनंत ॥६६॥ धर्म अधर्म आकाश ते किस्यु । तेह सरूप केवलि कहइ जिस्यु । सावधान हुई सुणिज्यो सहू । एह विचार अच्छइ पणि बहू ॥६७|| धर्माधर्म पुदगल नभ काल । ए पंचइ निरजीव विशाल । पुदगल टाली च्यारइ वस्तु । दृष्टिगोचरि नाविं छदमस्थ ॥६८॥ तउ किम जाणिं छइ अहिनाण । जीव पुदगल नि गमण प्रमाण । धर्मास्थि छइ तिहां जाई सकि । अधर्मास्थि आविउ तिहां लुकिं ॥६९।। जिम पाणी माहि माछलु । जां पाणी तां चालइ भलु । जीव अनइ पुदगल तिहां जाइ । चऊद राज धर्मास्थिकाय ॥७०॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ७३ धर्माधर्म अलोकिं नथी । पुदगल जीव गमण नवि कथी । जिम खोडा नर काठी थोभ । तावडि जातां च्छाया क्ष्योभ ॥७१।। पर्वत थांभा भीति पखाणि । पाणी खीला मूल अहिनाणि । थूल पदारथ करिं प्रवेश । तउ सघले आकाश प्रदेश ॥७२।। अलोकमाहि अनंतानंत । च्छइ आकाश न जीव भमंत । परमाणू खंधादिक च्यारि । वर्ण गंध रस फरिस विचारि ॥७३।। विविध वर्ण धरि बापडा । कृष्ण नील सित पीत रातडा । गंध सुगंध दुर्गंधा होइ । खारा खाटा मधुरा सोइ ॥७४॥ कडूआ तीखिण कसायला । सरस विरस लागि केतला । फरिस कठिन कोमल छई जेह । वर्ण स्वाद पालटीइं तेह ॥७५।। एक पुदगल पोला वाटुला । एक त्रिखूण चउखूणा भला ।। एक निघट भारी लघु सही । एक चीता एक लांबा कही ॥७६।। इम पुदगलना भेद अनंत । केवलन्यानी जाणइ अंत । काल भेद कहुं हिव सुणउ । समय मांन सूखिम घणउ ॥७७|| कमल पांन ऊपरि ऊपरी । सबल पुरुष तनुइं करी । वींधइ पांन सवे समकाल । पांन विचिं वहई एतु काल ॥७८॥ असंख्यात समय तिहां कहिय । भविक जीव तीणे सद्दहिया । वली वस्त्र जूनुं फाडीइ । त्रागिं त्रागि सोइ जि मांडीइ ॥७९॥ असंख्यात समयेकावली । बिसि छपन्न संख्यान ही अली ।। सूक्ष्मनिगोद जीव एह आयु । सासोसासि सतर भव जाय ॥८०॥ एक कोडिनइ सतसढि लाख । सहस सत्युत्तिरि बि शत भाख । सोलोत्तर एतली आवली । हुई बि घडी महूरत ते वली ॥८१॥ अवर मांन कहिं सूरीश । पांसठि सहस साढा छत्रीस ।। एतले निगोद क्षुल्लक भवे । बीजु महूरत इणिपरे मवे ॥८२॥ त्रीजुं त्रिण्णि सहस सातमि । ऊपरि त्रिहुतरि सासोससिं । ते महूरत त्रीसे अहोराति । तिणि पनरे पखवाडि जाति ॥८३।। बिहु पाखे मास ते बारि । वच्छर हुइ ते असंख विचारि । एक पल्ल्योपमि जाइ वही । एह विवक्षा आगमि कही ॥८४।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान-५७ छेद्यु भेधु जे जाइ नही । ते अणु आठे त्रसरज कही । तिणि आठे रथरेणु विचारी । रेणु आठ वालाग्रउ धारि ॥८५॥ वालुकाग्गि आठे एक लीख । आठ लीखि एक जूका सीख । जूका आठे एक जव कहिउ । जव आठे उच्छेधांगुल लयु ॥८६॥ तिणि षट अंगुलि पाउ प्रमाण । बिहु पाऊए बि हत्थि निर्माण । बि हत्थि जोड एक हाथ समान । बिहुं हाथे धणुहानुं मांन ॥८७॥ बि सह धनुषे गाऊ एक । चिहुं गाऊ ए जोयण छेक । कूउ एक ऊंडु एतलइ । पहुलउ लांबउ सम तेतलइ ॥८८॥ रोम खंड एहवां लेई भरे । सिद्धांति कहिउं ते करे । युगल जण्यां सातइ दिन बाल । उच्छेधांगुल लिई सर वाल ॥८९॥ आठ आठ साते पावडी । खंड कीधां ते संख्या चडी । वीस लाख सत्ताणुं सहस । बावन ऊपरि अधिकां कहिंसु ॥९०॥ केवलन्यानी आगलि गयां । रोम खंड संख्यातां थयां । पुनरपि न होइ ए स्वल्पना । असंख्यात करि मन कल्पना ॥९१॥ तीणे ते इम कूउ भरू । निश्चल ठांसी गाढउ करु । जलि भेदइ नवि आगिं बलइ । बइठु तिम वाइं न ऊललइ ॥९२॥ वरस एकिं काढत अंश । यदा तदा ते हुइ निःसंश । एह पल्योपम नाम उद्धार । कोडा कोटि (डि) दशे एक सार ॥९३।। ते सागर दश कोडाकोडि । एक उत्सपिणि एहवी जोडि । कालचक्र ते एतिं भयु । ते पुदगलपरावर्त्ति गयु ॥९४॥ अढाई दीपनु एह विचार । जिहां हुइ चंद सूरजनउ चार । ए नरक्षेत्रतणी बांधणी । राति अनइ वासर सांधणी ॥९५।। अवर दीपि नही राति नइ दीह । थावर चंद सूरज विचि लीह । चंद्र ज्योति जिहां तिहां चंद्रमा । तावड हुइ तिहां सवितार्यमा ॥९६।। सहस पंचास जोयण हुइ तेज । नही मांहिं शशि-रविनां हेज । देवलोकि अजूआलु सदा । नरगि अंधारुं तेज न कदा ॥९७|| काल पल्योपम सागर तणी । त्रिभुवनि लेज्यो ए बांधणी । राति दिवस कांई नही जिहां । सुर नारक आऊखइ तिहां ॥९८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ वस्तु - २ ॥ देवलोकहिं देवलोकहिं आयु परिमाण । सुर असुर नारकतणां उरग ज्योति व्यंतर विद्याधर । भवन धांम वैमांणना नयर देह धनु पल्यसागर । आपिं एहजि बांधणी श्रीमुखि श्रीजगनाथ । आणंदवर्द्धन इम कहइ तु सुणिवू जोडीय हाथ ॥९९।। हिव दूहा ॥ पुण्य तत्त्व त्रीजुं सुणउ । भेदे बइतालीस । पहिलु सातावेदनी । सुख पामइ निसि दीसि ॥१००॥ बीजुं गोत्र उंचुं लहइ । निश्च लहइ नर मांन । नरभव मुंकी नर हवइ । त्रीजुं साभिन्यांन ॥१॥ चउधुं करम सु बांधीउं । अवर गती जिणि होइ । मुन(मनु)क्षानुपूरवी ते कही । अंतिकालि नर सोइ ॥२॥ पुण्यप्रकृति गुण पांचमु । नर वैमानिक किद्ध । छटुं कर्म गति अवरनुं । बद्धअंति सुरलद्ध ॥३॥ देवानुपूरवी ए कही । सत्तम पणिदीय सार । पुण्य पसाइं आठमुं । पंच देह अनिवार ॥४॥ नवमुं सुरनारकतणुं । वैक्रय सयर कहाइ । चऊदपूरवधर दाहमुं । सयर आहारक जाइ ॥५॥ अदभुत रूप समय भणुं । एक हाथ परिमाण । सीमंधरस्वामी कह्नइ । पूछी आवइ जाण ॥६॥ तेजस नइ कारमण बिहू । दृष्टिगोचरि नवि थाय । अनादिकाल प्राणी कह्नइ । मुगति लहइ तव जाय ॥७॥ तेजस सयर तणइ बलिं । उदक आहारइ भात । पुण्यप्रकृति अग्यारमी । भेदइ सातइं धातु ॥८॥ चउपई ॥ कार्मण सयर आठइ जे कर्म । जिणि आधारि रहियां ए मर्म । एतिं भेद हुआ छई बार । उदारिक वैक्रय आहार ॥९॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान-५७ एहतणां विवरण सांभले । हाथ पग नख नइ आंगले । ऊदारिक उपांग तेरमु । वैक्रय कहीइ छइ चऊदमुं ॥१०॥ पनरसमु आहारकोपांग । पुण्यप्रकृति लहइ अंग उपांग । तेजस कार्मण सदा अनंग । निरमल पामइ सयर पंचांग ॥११॥ हाड सवे हुई मर्कट बंध । जिहां जिहां सयरतणी छई संधि । पाटु विचि खीली बंधेण । वज्रऋषभनाराच संघेण ॥१२॥ भेद एह सोलसमु कहिउ । संस्थान समचउरस लहिउ । सतरसमउ गौरादिक वर्ण । सुंदर रूप नयण आकर्ण ॥१३॥ धुरि अड्डार हुआ ओगणीस । देह सुगंध रस कहीइ वीस ।। एकवीसमु सयर सुकुमाल । अति भारे नही हलूउ बाल ॥१४॥ बावीसमु दीसइ दुद्धर्ष । रूपिं सहू आकंपइ पुरूष । त्रेवीसमउ ए पुण संपजइ । सासोसास सुरभि ऊपजइ ॥१५॥ पुण्यपसाइं एह चउवीस । आतपकर्म कहूं पंचवीस । सभा सोभावइ नर एकलु । तेजकर्म सविहुंथी भलु ॥१६।। छव्वीसमु ए पुण्य प्रकृति । सत्तावीस मंथर गजगति । अट्ठावीसम कर्म निर्माण । नर तिर्यंच अवयव शुभ जाणि ॥१७॥ दस त्रसादि कर्म फल एह । छाया तावड जाणइ बेह । भय त्रासिं ज विगलेंदिआ । ओगणत्रीस भेद ए कहिआ ॥१८॥ बादरकर्म दीसइं तिसु देह । बांधइ भेद त्रीसमु एह । पूरी पर्याप्ति हुइ एकत्रीसमइ । सयरि जीव एक बत्रीसमइ ॥१९॥ थिरकर्म अस्थ्यादिक दंत । तेत्रीसमु दृढ होइ जंत । नाभि ऊंचा अवयव जेतला । सरि लागि हरखि केतला ॥२०॥ भेद चउत्रीसम बोल्यु सोइ । शुभ कर्म सोभागी होइ । ए पणत्रीस छत्रीसम छती । सुसरकर्म वाणी रसवती ॥२१॥ आदेय कर्म सहू मानइ कहिउ । भेद सा[ड]त्रीसम इम निरवहिउ । यशःकर्म पुंठिं गुणग्राम । बोलिं ते अठत्रीसम नाम ॥२२॥ सुरनर तिरिय संपूरण आयु । त्रिण्णि भेद एहू पुण थाय । तीरथंकर जीव हुइ जगदीश । पुण्यतत्त्व ए बइतालीस ॥२३॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ पाप तत्त्व हिव ब्यासीं भेद । ते कहितां कोइ म धरु खेद । पहिलूं जोईइ नरनइं न्यांन । ते पांचइ जिणि कीधां यान ||२४|| मतिन्यान मति सुंदर नही । श्रुतन्यान जाइ श्रुत वही । अवधिन्यान पापिं न ऊपजइ । मनपर्य्यव अंतराई भजइ ॥२५॥ अढाई दीपि नर तिरि जेतला । मनोगत भाव जाणई तेतला । न्यान पंचम छइ केवलनाण । चऊद राज आमला प्रमाण ||२६|| भव कोटी भाजिं संदेह । ते जिणि पापिं दीधु छेह । छती लाछि अवसर पामीइ । दिवराइ नही जिणि ठा (वा) मीइ ||२७|| उद्यम करतां लाभ न होइ । पोतानी नीमी सवि खोइ । घरि खावा छइ संपत्ति घणी । पणि रोगं काया रेवणी ॥२८॥ भोगांतराई विलसइ नही । सकल लाछि जास्यइ ते सही । हिव उपभोग करूं जिणि रुलिउ । दंपति योग सरीसु मिलिउ ॥ २९॥ हुइ नपुंसक कइ रूसणुं । जोड विहंडइ लाजइ घणुं । नव ए दशमुं वीर्यांतराय । समरथ रोगिं बल नवि थाय ||३०|| पापकर्मि अंतराई दसइ । अदाप देखइ हाथ जि घसइ । नव आवरण बीजां छई जिस्यां । कहुं छतां दीपिं नही तिस्यां ॥३१॥ चक्षुदर्शन नयण निलाडि । उरम छायादिक आविं आडि । अचक्षुदर्शन अभिप्राय । अपर इंद्रय बल हीणां जाय ||३२|| एक भेद हिव बीजउ कहइ । विशेष वस्तु न्यानिं निरवइ । ए चिहुंनइं पातक आवरण । निद्रा पंच कहितां दिउ कर्ण ||३३|| निद्रा ते संचलि जागीइ । सुखिं समाधिं वतइ लागीइ । निद्रानिद्रा बीजी सुणउ । जागइ जुधं धूणइ घणउ ॥ ३४ ॥ प्रचुला नामि हिव सांभलउ । बइठां ऊभां नर घांघलउ । प्रचुला प्रचुला नामि नरींद्र । हीडइ हालइ नयणे नीद्र ||३५|| पंचम निद्रा छइ थीणधी । तेहना गुण न कहिं खीणधी । दृढ संघेण धणीनई तेह । वासुदेव बल आधुं जेह ||३६|| गजेंद्र विणास निद्रा समइ । नारि नरगि छ नर सातमइ । बांधइ कर्म हुइ नारकी । पापकर्म ओगणीसइ बकीं ॥३७॥ ७७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुसन्धान-५७ पापि नीचइ कुलि अवतरइ । दुर्गतिमाहिं असातां फिरइ । नरग तिर्यचि दुख भोगवइ । पापोदय एकवीसइ हवइ ॥३८॥ साचा देव अनइ गुरु धर्म । आस्ता नावइ पातक कर्म । कुगुरु कुदेव अनइ कुधर्म । तेह ऊपरि सद्दहणा शर्म ॥३९॥ बावीसमु जे भेद मिथ्यात । थावर दसइ कहुं सुणि वात । पाप बहुल एकेंद्री थाय । तावडथी च्छायां न जवाय ॥४०॥ गमण छांहथी तावडि नही । एक भेद एहु ते सही । सूखिमकर्म निगोदी हुआ । ए बिहू भेद अच्छि जूजूआ ॥४१॥ अनंतकाय मिली एक शरीर । थावर च्यारि भेदि सुणि वीर । कर्म अथिर जीव सघलां अंग । अशुभकर्म पुरुषारथ भंग ॥४२॥ दरशन दीर्छ कहि न सुहाइ । कर्म दुभागी ए कहिवराइ । दुःस्वरकर्म वचन कर्णमूल । अनादेय कहण समतूल ॥४३॥ अयशकर्म यश नु इह निटोल । दशइ भेद थावरना बोल । नरय त्रिक्क होइ नारकी । मरवा वंछइ नारक थकी ॥४४॥ न मराइ पूरइ नरकायु । नरगानुपूरवी ते कहिवराय । अंत समइ ऊरधगति करइ । कर्म ताणीनइ नारकि धरइ ॥४५॥ विचिं भव पूरी तिरिआं तणउ । कर्म बहुल जीव नरकिं घणउ । पातक भेद कहिया पांत्रीस । हिव कसाय सुणिज्यो पंचवीस ॥४६॥ वस्तु - ३ च्यारि चउकुं च्यारि चउकुं भेद इम जाणि । नोकसाय नव अपर छइं क्रोध मान मायातिलोभी । पक्ष चउमासुं वरसनइ जन्म शुद्ध ते रहइं थोभी । संज्वलनु पचखाणनइ अपच्चखाणु अनुबंध । आणंदवर्द्धन इम कहइ सोल कसाय बंध ॥४७॥ हिव - दूहा । अनंतानु नामि सबल । क्रोध मांन माया लोभ । समकित ते पामइ नही । मरणिं नारकि थोभ ॥४८॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ च्यारइ ए अपच्चखाणीआ । देशविरति हुइ हाणि । वर्षावधि परमायु जे । गति तिर्यंची जाणि ॥४९॥ चउमासी पच्चखाणीआ । नामिं च्यारि कसाय । भाव चारित पामइ नही । मानवनी गति जाय ॥५०॥ संज्ज्वलना पखवाडीआ । न हवइ ते अरिहंत । वैमानिकपद पामस्यई । मोक्ष न जाइ जंत ॥५१॥ नोकसाय नव सांभलु । हास्यकर्म नितु हास । रतिकमिं (र्मिं) मन थिर करइ । मनोहर दीठिं ठांम ॥५२॥ अरतिकर्म कीही रति नही । वनि निवरां पुरि लोक । शोककर्म अहनिसि धरइ । स्नेह वियोगिं शोक ॥५३॥ भय कर्मि बीहइ बहुल । जोइ दुगंछा कर्म । मुह मचकोडी थुंकीइ । विरूउं देखी मर्म ॥५४॥ पुरुषवेद पूला समु । हेलां भटकी जाय । स्त्रीवेद कोऊ जसिउ । बलती किम न ओल्हाय ॥५५॥ नयरदाह नपुंसकी । अहनिसि जलण न जाय । पापिं पंचवीस लहइ । साठि भेद इम थाय ॥ ५६ ॥ तिरियागति बेहू कही । जीव तिरिजं च जाइ । तिरियानुपूरवी अवरथी । ताणिउ त्तिरिया थाइ ॥५७॥ एक बिति चउरिंदिआ । कर्मबद्ध गति च्यारि । च्छइ भेद ए भोगवइ । पुनरपि कुगति मझारि ॥५८॥ रासभ ऊंटतणी परिं । चालइ विरुई चालि । उपघातकर्म पीडा घणी । कंठि दशनि पुण गालि ॥५९॥ वर्ण गंध रस फरसणा । विरूआं पामइ पापि । कालु कडूउ खार पण । देह दुगंधि व्यापि ॥६०॥ बाहुत्तरि हूआ हविं । पढम एकीका टालि । पंच संघेण संस्थान पण । ब्यासी भेद संभालि ॥ ६१ ॥ ७९ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ हिव चउपई । एकसउ वीस शुभाशुभ कर्म । पुण्य प्रकृति बइतालीस शर्म । वर्ण गंध रस फरिस विचारि । शुभ कइ अशुभ गणउ एक ठारि ॥६२।। ब्यासी भेद पातक जे समुं । आश्रव तत्त्व कहुं पांचमुं । जेहना छइ बइतालीस भेद । किंचनमात्र विचार विछेद ॥६३॥ काया कांन आंखि नासिका । भव रलवु सवि रसना थका । ए पांचइ इंद्री मोकलां । प्रेरक च्यारि कसाय ओकलां ॥६४॥ नवइ एह आश्रव मूलगां । पंचाणुव्रत छइ ओलगां । हणइ जीव जंपइ अलीक । चोरी चांब चोरी निरभीक ॥६५॥ अलकसमल कस मेलु करइ । ए पांचइ आश्रव आचरइ । मन वचन काया त्रिण्णि योग । सतर भेद संयम संयोग ॥६६॥ जेह वैरागी रुंधइ सहू । पापी ते प्रवर्त्तावइ बहू । सहजिं लागि क्रिया पंचवीस । कहितां कोइ न धरज्यो रीस ॥६७॥ पहिली जे कायाकी क्रिया । चपलपणिं चालइ विक्रिया । बीजी अधिकरणिं ऊपजइ । खटक शाल पांचे नीपजइ ॥६८॥ त्रीजी कहीइ प्रद्वेषिकी । राग-द्वेष आणइ मन थकी । पारितापनकी चउथी खरी । आपघात परघाति करी ॥६९॥ प्राणातिपातकी मांड अजाण । स्वर्ग वांछता काढिं प्राण । ए पांचइ क्रिया मूलगी । वीस ऊपजिं एहं लगी ॥७०॥ गाडावाही खेत्रारंभ । आरंभकी क्रियानां थंभ । दास दीकोलां ढोर अन्नादि । वहुरइ वेचइ गृही बनीआदि ॥७१॥ जैनधर्म मायां आचरइ । मिथ्या श्रुत सद्दहणा करइ । नही पचखाण अवरती होइ । हड कूकड कलि जोणां जोइ ॥७२।। पृष्टिकी क्रिया सुकुमाल । फरसइ रोम पशू स्त्री बाल । प्रातिकी परघरि जे घटइ । रूडी वस्त देखी आवटइ ॥७३॥ निज सामंतोपात अवास । लोक वखाणिं धरइ उल्हास । अथवा दूध दही घी तेल । पडि जीव ते पातल वेलि ॥७४॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ हिव पनरमी नेसत्थिकी । परवसि कीजइ राजा थकी । अरहट पावट जंत्र पखाण । क्रिया ऊपजइ नही तस माण ॥७५।। चीत्रे स्वानि आहेडु करइ । अथवा जे कारूं आचरिं । मारइ जीव हाथिं हथीआरि । स्वाहस्तिकी क्रिया अनिवारि ॥७६।। आन्यापनिकी दिइ आदेश । जीव मरावइ पाप निवेश । अपर करावइ न करइ धणी । क्रिया कहुं हिव वीआरणी ॥७७।। अहिंड वस्त वखाणइ घणुं । वेचावी नर बहइ आपणुं । दो भासु दल्लाली करइ । बेहू जण वंची बूडइ मरइ ॥७८।। वस्तह लावइ सूनई मन्नि । ओघसंज्ञा ते आपइ अन्न । निद्धंधस दया नही योग । ते कहीइ क्रिया अणभोग ॥७९॥ लोकविरुद्ध जे कीधइ कांमि । वध बंधन पामइ जस नामि । परलोक्किं नारकगति लहइ । ते अणवकंखपच्चईआ कहइ ॥८०॥ आर्त्तरौद्र ध्यान मनि धरइ । काया कठमर्द अहनिसि करइ । वयणि उच्छृखल वाणी सही । अनापउग क्रिया ते कही ॥८१।। सामुदानकी क्रिया ए वली । हाट अवांस करिं सहू मिली । कहि ऊपरि आवइ अतिनेह । क्रिया प्रेमकी कहीइ तेह ॥८२॥ कोपि निरंतर कीजइ द्वेष । बांधइ कर्म क्रिया प्रद्वेष । यति रहिं ईर्यापथिकी क्रिया । बोलइ चालइ ते विक्रिया ॥८३।। सूक्ष्मकर्म बोधइ केवली । समय बिहुं ताई ते वली । ए पंचवीस क्रिया पातकी । आश्रव ते बइतालीस बकी ॥८४॥ पांच तत्त्व ए गृहीनई छविं । साधु तणइं ते नावि लंबिं ।। हिव बहुं संवर तत्त्व कहुं । बोधिबीज जिम मन शुद्धि लहुं ॥८५।। जेहना छइं सत्तावन भेद । तिणि आचरणि कर्म हुइ च्छेद । पंच सुमतिनइ त्रिण्णि गुपत्ति । धर्मतणा दश भेद संयत्ति ॥८६॥ परीसह बावीस अखंच । बार भावना चारित्र पंच । द्वार कहिया ए सत्तावन्न । आणइ संवर प्राणी धन्न ॥८७॥ युग झुंसर दृष्टिं अवलोकि । चालइ पगि पगि जयणां लोकि । डाबु जिमणुं जोइ नही । पहिली ईर्यासुमति ए कही ॥८८॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ भाषासुमति राखइ पर आप । सत्यवचन बोलइ निपाप ॥ दोष बयालीस छई जे तणा । ल्यइ आहार रहित एषणा ॥८९।। कांई वस्त मुकइ ल्यइ जिहां । आदानसुमति पुंजीजइ तिहां । मल मातरं सलेखम थुक । परठतां पुंजवू अचूंक ॥९०॥ आर्त रौद्र न करइ मनि ध्यांन । धर्म शुक्ल धरतां हुइ ग्यांन । मौन करइ जव काढइ वाणि । धर्मकथा मुखि वस्त्र वराणि ॥९१॥ बार आगारे काउसग धरइ । कायगुपति संचल नवि करइ । आठइ प्रवचनमाता कही । हिव बावीस परीसह सही ॥९२।। क्षुधा खमइ अशुद्ध नवि ग्रहइ । सचित न पीइ तृषा सहइ । आगि न तापइ सीतल खमइ । स्नान नवायु ऊन्हाला समइ ॥९३।। डांस मसा सहि काउसगि रहियां । वस्त्र न वांछइ जूना लहियां । अशुभ ठाम च्छइ नही आरत्ति । सरूप देखी न धरइ चिति ॥९४|| गाम क्षेत्र कुल ठाम न मोह । करइ नवकल्पि विहारिं सोह । का[उ]सगध्यांन जिहां नैषेधकी । भय न करइ सादिक थकी ॥९५।। पाटि पीढ सिय्या लंपणी । दुख नाणइ संकीरण भणी । अजाण लोक बोलि वैभाख । आक्रोस परीषह खमीइ लाख ॥९६।। लोहि लाकडि कोइ मारइ दुष्ट । छांडइ प्राणपणिं खेद न कष्ट । मोटां कुल मुझ किम याचना । दुःख न आणइ मनि वासना ॥९७|| न लहूं भिक्षा हूं सूझती । अपर लहिं दुख नाणइ यती । व्याधि परीसह सबलु रोग । सहइ पुण न करइ सावद्ययोग ॥९८॥ धर्म पणइं मल टालइ नही । गुण सतकारि न गरबी लही । न्यांन भणिउ पणि न धरइ मांन । विद्या नावइ खेद न अन्यान ॥९९।। देवगुरुनइ धर्म आचरइ । समकित लही साचु नवि करइ । ए बावीस परीसा खमइ । साधु सदा आत्माइ दमइ ॥२००॥ हिव दश भेद यतीनु धर्म । क्षमानिधि क्रोध नही ए मर्म । आर्जव माया नही सुकुमाल । मार्दव वाणी अमीय रसाल ॥२०१॥ मुगति मुंक्या संसारी सुक्ख । बार भेदि तप सहवा दुक्ख । संयम सर्वजीव साचवइ । सत्य वचन सिद्धांत जि लवइ ॥२०२॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ शौच अदत्त कांई नवि ग्रहइ । धर्मोपगरण चऊद संग्रहइ । द्रव्यादिक ममता नवि करइ । ब्रह्मचर्य नव भेदे धरइ ॥२०३॥ ए दश भेद यतीना कहिया । भावन बार भेद संग्रहिया । घर घरणी धन वय अस्थिरं । माया म धरु इणि विस्तरि ॥४॥ आव्यइ मरण शरण नही कोइ । नवि आपणु पिआरु लोइ । लाख चउरासी जीवा योनि । भमता भव नीगमीआ सुनिए ॥५॥ एकलु आविउ एकलु जाइ । को कहिनु साथी नवि थाइ । असुचिपणुं तुह देह मझारि । मूत्र परीखा श्लेष्म मलधारि ॥६॥ आश्रवद्वार मिथ्यातिं भरिउ । जीव कसाय अवरतिं आवरिउ । संवरभाव विरति शुभ ध्यांन । धरतां पामइ पंचम न्यांन ॥७॥ नवमी कर्मनीझर भावना । नारक दुक्ख सहियां मन विना । धर्मभावना इणिपरि धरइ । सार मनोरथ धर्म सरइ ॥८॥ लोकभावना चऊदइ राज । चिंतइ पिडि सरइ सवि काज । बोधिभावना दुर्लभ लहइ । शिवपुरगामी ते सद्दहइ ॥९॥ ए बारइ भावन भावीइ । चडती पदवी तु फावीइ । हिव पांचइ चारित्र विचार । पालइ ते पामइ भवपार ॥१०॥ पहिलं सामाइकु ऊचरइ । सर्व सावध मनसां परिहरइ । बीजु चरित च्छेदोपस्थान । पढम चरम वारइ जिन मांन ॥११॥ छजीवकाय जउ जाणइ खरइ । पंचमहाव्रत तउ ऊचरइ । त्रीजुं छइ परिहार विशुद्ध । अरण्यमाहि रइ जूउ बुद्ध ॥१२॥ नव जण सरसु जई तप करइ । अढार महीना जालइ खरइ । जउ उपसर्ग परीसह खमइ । तु गच्छमाहि आवीनइ जमइ ॥१३॥ चउथु चरित सूखिमसंपराय । दशमइ गुणठाणइ चडि जाय । क्रोध मांन माया परिहरइ । लोभ उदय अति सूखिम धरइ ॥१४॥ मन परणाम चोथानी वातु । चारित पंचम जह ख्यात । कषाय सर्वनां काढियां मूल । उदय न आवइ सूखिम थूल ॥१५॥ त्रिण्णि चारित्र हिवइ छतिं गयां । पहिला बि चारित ते रहियां । इणि परि संवर सत्तावन्न । भेद आणइ जे हुइ कृतपुन्न ॥१६॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनुसन्धान-५७ वस्तु - ४ सुमति पंचइ सुमति पंचइ । तिन्नि गुपत्ति । परीसह बावीस छई दशइ भेद यति धर्म आणउ । बारइ भावु भावना पंच भेद चारित्त जाणउ । परिहारादिक तिन्नि गय चारित वर्तइं दुन्नि । श्री आणंदवर्द्धन इम कहिं संवर सत्तावन्न ॥१७।। हिव - दूहा ॥ तत्त्व नीझर जे सातमुं तेह तणा कहुं भेद । बार प्रकारे तप करू कर्म हुइ जिणि छेद ॥१८।। छइ भेद तप बाह्यना । अनशन धुरि दिन एक । षटमासाविधि बोलीइ । जउ हुइ हीइ विवेक ॥१९॥ ऊनोदरता पुरुषनिं । कवल कहिया बत्रीस । नारि अट्ठावीसइ घटिं । नपुंसक पणवीस ॥२०॥ ए उतकृष्ट संखेपीइ । त्रीजुं वृत्तिसंक्षेप । साधु द्रव्यादिक नवि ग्रहिं । श्रावक एह आक्षेप ॥२१॥ चऊद नियम जे दिन प्रति संभारी पचखाण । संध्यां तेह संक्षेपीइ । जे भवियण हुइ जाण ॥२२॥ रसत्याग षटरसतणा । केता लेवा नीम । कायक्लेश लोचहतणु ताप सहइ अनुहीम ॥२३।। संलीनता त्रिवधि कही इंद्रीय मन वच काय । ओही तेह संखेपीइ बादर तप इम थाय ॥२४।। अब्भितर तप भेद छइ आलोयण गुरु पासि । तप दीधुं पहुचाडीइ मन शुद्धि गृहवासि ॥२५॥ विनय विशेष कीजीइ थिवरां अनइ गुणवंत । अभ्युत्थान आस दीइ वंदइ विनई संत ॥२६।। वेयावच्च दश तप करइ आयरीयोवज्झाय । ज्ञान तपश्वी बालनइं अन्न पान गम खाय ॥२७॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ पढq गुणवू पुच्छिवं चिंतनधर्म उपाय । चउथउ तप ए जाणिवउ जे पंचविधिं सज्झाय ॥२८॥ आर्त्तरौद्र टालइ सदा शुक्ल धर्म मनि ध्यान । सयर सगति काउसग करइ नउ हुइ हीयडइ सांन ॥२९॥ ॥ चउपई ॥ इम तप करिवु बारे भेदि । इणिपरि कर्म तणु हुइ च्छेदि । तप घरष्टी उपशम मांकडी । श्रम हाथउ कर्मसुं कुदली ॥३०॥ बंध तत्त्व सांभलयो सहू । सूक्ष्म विचार अछइ ते बहू । जेहथी काल अनंतु रुलइ । जीव कर्म बंधन इम मलइ ॥३१॥ दूध अनइ पाणी जिम एक माटी धातु अच्छि एकमेक । लोह धभिउ जिम अगनि प्रदेश जीवकर्म तिम मिश्र निवेश ॥३२॥ दैव कहीइ ते प्राची कर्म भेट्यउ जीव सहइ दुख शर्म । वैरि भावि रहिं एकठां तेह ऊपरि सुणिज्यो इम उठां ॥३३।। सर्प तणइ मस्तकि मणि दाढ । कोमल जीभ दशन छइं गाढ । घर भीतरि मूंसा मंजारि । माखी चिमन विष्टा निवारी ॥३४॥ दीवा तेज मषी सामली जीव कर्म तिम रहियां बे मली । जाणइ जीव कर्म भोलवं वांछइ कर्म जीव रोलवू ॥३५॥ कर्मतणां बंधन छइं च्यारि प्रकृति-थिति-रस-प्रदेश विचारि । जिम को बांधइ वैद्य गोटिकां । वाटइ ओसड नही मोटिकां ॥३६।। तेहमाहि पुण ए चिहु बंध पहिलं प्रकृति कहुं ए खंध । केतली गोली टालइ वाय एक जाणीसिं पित्त जि जाय ॥३७॥ बहुमूली सबलाई करइ केतली गोली श्लेष्म उपहरइ । ज्वर फेडइ गोली केतली संनिपांत जाइ ते भली ॥३८॥ इम गुण द्यइ ते प्रकृति सुभोव । बीजी स्थिति बांधइ इणि भावि । दिवस मास वच्छर परमायु ते ऊपहिरी वणसी जाय ॥३९॥ थिति ए कहीइ रसनी वात खारी खाटी मधुरी जाति । ताजे ओसडि सरसी होइ जूने विरसी लागइ सोइ ॥४०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुसन्धान-५७ तोल प्रमाण कहीइ प्रदेश इम गोलीना भेद विशेश । तिम प्राणी पुदगल संग्रही बांधइ कर्म जगमाहिं रही ॥४१॥ न्यान दर्शन चारित्र आचरइ । प्रगट करइ सुख दुख छावरइ । प्रकृतिबंध कहीइ प्राणनु । बीजु थिति भेदे आयुनु ॥४२॥ अंतर्महूर्त एक अड बार जघन्य कर्म थिति ए अवधारि । कोटाकोटि अपर बांधणी वीस त्रीस सत्तरि कर्म तणी ॥४३॥ ए उतकृष्ट जाणु परमायु इणिपरि थिति ए बांधी जाय । घj घणेरुं बंधन थाय ए अनुभाग रस कहिवराय ॥४४॥ पुण तिणि बंधनि करइ प्रदेश एक पुदगल बहुला लवलेश । बंध तत्त्वना च्यारि प्रकार किंचन मात्र कहिउ विचार ॥४५॥ नवमुं तत्त्व विचारुं मोक्ष ते(ति)हां अविहड अनंता सौक्ष । कर्मतणां बंधन जो मठी जिम अग्यारांगई(?) सोगठी ॥४६।। सविहुं जीव सरीखां सुक्ख अंतरभेद न दीसइ मुक्ख । तिहाइ भेद कहिं केवली नव प्रकारि होइ ते वली ॥४७॥ सकल लोक मस्तकि ते सही नास्तिकमत ते मानि नही । तेह संदेह भांजेवा अरथि एक जि नाम हुइ समरथि ॥४८॥ जीव देव घट पट जिम धर्म जगि नियति छई एह जि मर्म । जोड नाम हुइ अथ नही जिम छइ राजपुत्र ते सही ॥४९॥ वृषभसींग नइ चांपा फूल महिषशृंग पुन अर्कह तूल । इत्यादिक छई नही ते किस्युं बंध्या सुत खरशृंग न इस्युं ॥५०॥ तुरंगमसींग कुसुमआकाश नाम अछि पुण वस्त विनाश । जिहां संदेह मोक्ष एक नाम छइ इम निश्चई उत्तम ठाम ॥५१॥ बीजु भेद मोक्ष कुंण जाइ नारक तिरिया गत्ति न जाइ । एकेंद्री विगलेंद्रीय नही पंचेंद्री कोइ जाइ सही ॥५२।। त्रीजु भेद षट जीवनिकाय त्रस माहिथी मानव जाय । अभव्य जीव जाइ नही कदा भव्य हुइ ते जाइ सदा ॥५३।। च्यारि भेद ए पंचम कहिं । असनीआ ते मो[क्ष] नवि लहिं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ८७ लहिं संनीआ मोक्ष अखंच चारित भेद अछि जे पंच ॥५४॥ पहिला बिहुं चारित्रना धणी थाइं संसारिं रेवणी । यथाक्षात चारित्र जव लहइं मोक्ष जाइ ते केवलि कहइं ॥५५।। भेद सातमइ समकित पंच पहिलु उपशम विवरं तं च । कहीइं समकित पामिउं नही आयुकर्म स्थिति निश्चइ कही ॥५६॥ अवर कोटाकोटि सातइ कर्म आण्या माहि करी जीव धर्म । मन चोखइ लाधुं समकित अंतर्महूर्त मिथ्या गिळं चित्त ॥५७॥ ते लव पुदगल वेइ नहि पुनरपि समकित थिरता नही । मिथ्या भाग मइलु ढग नूउ । मन चोखइ समकित ढग हूउ ॥५८॥ इम बिहू ढगला जूआ धरइ मिश्र भाग ते त्रीजु करइ । जिम कोदिरा भेदि त्रिहु हुआ मीण्या मिश्र सूधा ते जूआ ॥५९।। समकित मिथ्या विचि जे समइ अनंतानुबंध आविउ तिहां उदय । कलुष समइ सास्वादन तेह खीर खांड घृत जिम जमीआं जेह ॥६०॥ वमतां स्वाद वेइ जेतलउ सास्वादन समकित एतलउ ।। पंच समकितना सुणिज्यो मर्म । अकाम निर्झरा हणीआ कर्म ॥६१॥ तव लाळू उपशम समकित वमतां आस्वादन दृढ चित्त । क्षायोपशमिक चोखं मन्न वर्तमान पामइ त्रिण्णि धन्न ॥६२॥ क्षपक श्रेणि चडतां त्रिणि भाग । छेहलु वेदक समकित राग । मिश्रकर्म क्षप्यां सवि सात तउ क्षायक समकितनी वात ॥६३।। जिणि पामीजइ मोक्ष दूआर पुनरपि गमण नही अवतार । आहारक संसारी जीव अणाहार मोक्ष जाइ सदैव ॥६४॥ तुं मइ घातकि दर्शन च्यारि । चक्षु अचक्षु अवधि त्रिण्णि वारि । केवलदर्शन होइ मोख । पंच न्यानमाहि कुणि संतोष ॥६५॥ मति श्रुति अवधि न्यान ए तिण्णि मनपर्यव केवल शिव सरण्णि ए चिहु मुगति न पामइ जीव पंचम केवलन्यान सदैव ॥६६॥ इणि दश थानकि पामइ पार शेषि अनंत भमइ संसार । गर्भज मानव इंद्रय पंच मोक्ष तेहं छइ अपरां वंच ॥६७।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ प्रथम द्वार ए बीजूं सुणेउ अभव्यजीव पाहिं अनंता गुणउ । द्रव्यप्रमाण हिव त्रीजुं द्वार चऊद राजमाहि शव कुंण वार ॥६८।। लोकत्तणउ असंख्यातु भाग मुगति भुंइरुं धीर ही माग । लख पणयाल जोयण वाटुली मुगतिक्षेत्रमाहिं तेह वली ॥६९॥ चउy द्वार कहुं फरसना सिद्धप्रदेश छई आकाशना । मध्य जोयण चउवीसे भागि सिद्ध रहिया छई छेहलइ मा(भा)गि ॥७०॥ क्षेत्र एह फरसना विशेस चिहु दिशि रुद्ध आकाश प्रदेश । दीपक तेज रुंधइ आकाश परसना सात प्रदेसी जास ॥७१॥ पंचम सिद्धतणु कहि काल सिद्धि गयु जीव आदि विशाल । मुगति क्षेत्रि छइं सिद्ध अनादि आदि न अंत नही बनी आदि ॥७२॥ अंतर द्वार छठें हिव कहिं सिद्ध टली वली सिद्ध जिनुहिं । सिद्ध अंतर नही सपतम द्वार केता मुगति छई सिद्ध न पार ॥७३॥ एक निगोद अनंतु भाग । जही पूछई तही एह जि वाग । अष्टम द्वार सिद्ध स्यइ भावि तेहू पंच प्रकार चलावि ॥७४।। राग रोसनुं कर्म जि नही उपशमक बीजुं ए रही । त्रीजुं क्षायोपशभिक पाव चउथु क्षायकवर जइ भाव ॥७५।। पांचमुं पारणामिक सही कर्म क्षप्यांतु शिवगति लही । भव्याभव न होई कदा जीव अजीव नही ए सदा ॥७६॥ क्षायिकनइ पारणामिक बेउ वर्तई भावि सदा सिद्ध तेउ । अलपबहुल नवम्युं ए द्वार तेह तणउ बोलु उद्धार ॥७७।। पुरुष नारि नपुंसक वेदि सिरज्या नही कीधा कुणि च्छेदि । तेह नपुंसक दीक्षा लहिं ते थोडा छइं सिवपुरि कहिं ॥७८।। तेहथी असंख नारिना जीव । ओहथी पुरुष असंख सदैव । लाख न किंचन आगलि कोडि सहस न कांई लाखह जोडि ॥७९॥ तिम नरनारि नपुंसक जाणि सिद्ध अनंत अच्छि निरवाण । ए नव द्वार अनइ नवतत्त्व सद्दहणा धरज्यो भुवि सत्व ॥८०॥ जीवादिक नवतत्त्व विचार जाणइ तेह समकित निरधार । आगमवयण न मानइ जेह अनंत भव रुलस्यइ नर तेह ॥८१॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ कविता कहण कहइ कर जोडि कोइ विद्वांस म देज्यो कोडि । कहि तणउ कहिवु नही मर्म महानुभावनु एहवु धर्म ॥८२॥ आगम अरथ गुहिर गंभीर बादर बोलि कहिउं ते हीर । लाभ छेहु जोइ सहु कोइ लाभ दीसइ ते बहुरइ लोइ ॥८३।। प्रीछया पाखइ तत्त्व विचार पालइ किम जिनधर्माचार । जलनिधि नंभ रर्संनइं चंद्रमा । रची चउपई वरस एहमा ॥८४|| सुविहित खरतर गच्छनु ईश श्रीधनवर्द्धनसूरिजि सीस ।। श्रीआणंदवर्द्धनसूरि विचार कहइं केवलि भाखिउं ते सार ॥८५॥ कविता नाम हरिं पातकी एक मात पणि बहु जातकी । इणि नाभिं अनंता हूआ एह जि जीव अनइ जूजूआ ॥८६।। इस्युं न जाणिं इणइ संसारि । मद मुंकीनइ कहुँ अवधारि । आगइ कवियण साल पसालि नाम कहिउं ते देखी वालि ॥८७॥ आणी भाव भणु चउपई । सुणिज्यो सहू एक मनां थई । आगम अरथ अनंत विचार कहिउ लवलेश न लाभुं पार ॥८८।। सवि हुं जाण्या तत्त्व विचार दृढ समकित जपिवु नवकार । ममता मुंकी समता धरु मुगतिवधू जिम लीलां वरु ॥८९।। इति नवतत्त्व चउपई समाप्ता ॥ भद्रं भूयात् । संवत १६०८ वर्षे माह सुदि-१ भूमे लिखिता श्री देवगुप्तसूरिगुरुणा ॥ कठिन शब्दोना अर्थ अर्थ शब्द सूखिम पढवी सूक्ष्मपृथ्वीकाय स्थिर थविर आभूआ अभ्रक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ १४ धुंइरि झरल १५ २० मुरमरा सयर पर्याप्ति २3 हुंडक संस्थान ऊदारिक कार्मण ज्योति सरि धूमस-झाकळ ज्वाळा धूमाडो मुर्मुर-तणखा शरीर जीवन शरीरधारी तरीके जीववानी जीवनशक्ति लक्षण रहित सर्व अंगवालु शरीर औदारिक शरीर (एक प्रकारचें शरीर) कार्मण शरीर (एक प्रकारचं शरीर) तेजस शरीर (एक प्रकारनुं शरीर) शरीर छीप पोरा जीवनी जात छेवटुं संहनन मध २७ सीपूना पुरा ४१ ४७ आरो (छ आरामांनो एक) भरत - ऐरवत क्षेत्र लोके-लोकमां ६९ दोरेदोरे इंडोल छेवट्ठी संघेण माखिक कर वचा आरइ भरहेरव लुकिं त्रागि त्रागि मवे उच्छेधांगुल पल्योपम उद्धार साभिन्यांन मनुक्षानुपूरवी दाहमुं यान ru mm मपाय उत्सेधांगुल (लंबाई- एक माप) काळनुं एक जैन शास्त्रीय माप पल्योपमनो एक प्रकार साभिज्ञान-ओळखाण मनुष्यानुपूर्वी दशमुं जाण १०१ १०२ १०५ १२४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १२८ धन ? नीवी - (मूल द्रव्य) घेरायेली । नीमी रेवणी अदाप उरम १३१ 생 जधं १३४ १३५ १३६ घांघलउ थीणधी खीणधी निटोल च्यारि चउकुं ओकलां युद्धमां (युद्ध करतांये उंघे) ऊंघर्बु (?) थीणद्धि(निद्रानो एक प्रकार) क्षीण बुद्धि वाळो नक्की / अवश्य. सोल (१६) (४४४) १४४ १४७ १६४ १६५ चांब १६६ अलकमलकनुं (?) भेगु करवू (सुमेळ) १६८ १७१ अलकसमलक समेलु खटकशाल दीकोलां बनीआदि प्रातिकी आवटइ अहिंड वस्त १७३ १७८ द्विपद-बेपगां (?) वणिज आदि (?) एक क्रियानुं नाम(आश्रयीने) अटवाय शिकार (आहेड)नी वस्तु (?) कष्ट-मर्दन खंचकाट वगर लींपण (?) तिरस्कार रूप वाणी, विभाषा भावना (अनित्यादि) कठमर्द १८१ १८७ १९६ अखंच लंपणी वैभाख २०४ पत्नी २०५ भावन घरणी पिआरू परीखा अवरति सुमति २०६ २०७ २१७ परायु खाई (?) अविरति समिति (सम्यग् प्रवृत्ति) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ गुपत्ति थिवरां गुप्ति (सम्यग् निवृत्ति) स्थविर मुनि २२६ २२७ २३० गम घरष्टी कुदली उठां २३३ २३९ घंटी (?) कोदाली (?) दृष्टान्तरूप कहेवत - ओठां स्वभाव उपरनी सुख २४६ सुभोव उपहिरी सौक्ष जो मठी रेवणी मइलुं शव सपतम साल पसालि २५५ २५८ २६८ २७३ २८७ रहेनार (?) मेलुं-अशुद्ध सातमुं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ दूंकनोंध : ( १ ) उत्तराध्ययन-निर्युक्तिनी ओक गाथाना अर्थ विशे मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय उत्तराध्ययन-निर्युक्तिमां नीचे मुजब अक गाथा छे "मोत्तूण ओहिमरणं, आवीची आइयं तु तं चेव । सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणेण णेयव्वा ॥ " ९३ उ. नि. ५.१६ ॥ आ गाथा माटे उत्तराध्ययननी शिष्यहिता ( पाइय) वृत्तिमां वादिवेताल श्रीशान्तिसूरिजी महाराजे आम नोंध करी छे - " अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु 'मोत्तूण ओहिमरणं' इत्यादिगाथा दृश्यते, न चाऽस्या भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नाऽपि चूर्णिकृताऽसौ व्याख्यातेति उपेक्ष्यते ।" (-अत्रे केटलीक अन्य प्रतोमां ‘मोत्तूण ओहिमरणं' अ गाथा देखाय छे, पण आनो भावार्थ बराबर समजातो नथी, वळी, चूर्णिकारे पण अनी व्याख्या नथी करी, ओटले अमे पण अनी व्याख्या नथी करता.) आनी सामे जैन विश्वभारती - लाडनूं - थी प्रकाशित निर्युक्ति- -पञ्चकभाग ३मां उत्तराध्ययन-निर्युक्तिना मूळपाठमां आ गाथानो समावेश करवामां आव्यो छे अने त्यां सेना पर टिप्पणी करवामां आवी छे के टीकाकारे आ गाथाने व्याख्यायित न करी होवा छतां हस्तलिखित आदर्शोमां मळती होवाथी अने प्रसंगानुसार उपयुक्त लागवाथी राखवामां आवी छे. त्यां आ गाथानो आवो अर्थ आपवामां आव्यो छे- "अवधिमरण और आवीचिमरण को छोडके शेष पन्द्रह मरण तद्भवमरण कहे जातें हैं ।" - आ गाथानो आवो अर्थ करवो योग्य नथी लागतो; कारण के(१) आमां 'आइयं तु तं चेव' आटला शब्दोनो अर्थ बाकी रही जाय छे. (२) तद्भवमरणनी व्याख्या बहु स्पष्ट छे के जे जीव जे भवमां वर्ततो Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ होय, तेना ते ज भवमां जो मरीने उत्पन्न थाय, तो तेनुं ते मरण 'तद्भवमरण' कहेवाय छे. हवे केवलिमरण, पादपोपगमनमरण जेवां मरणो बाद जीव तेना ते ज भवमां कदापि उत्पन्न नथी थतो. तो आ बधां मरणोने 'तद्भवमरण' केवी रीते कहेवाय ? आम करवामां तो तद्भवमरण- स्वरूप ज अनिश्चित थइ जाय छे. 'तब्भवमरणेण णेयव्वा'नो अर्थ थाय 'तद्भवमरण प्रमाणे जाणवा.' अनो ओवो अर्थ केवी रीते कराय के 'बीजा मरणोने तद्भवमरण कहेवा.' ? वास्तवमां आ गाथा नियुक्तिना अनेक आदर्शोमां मळे ज छे तेथी ते अनुपयुक्त तो न ज होई शके. पण आ गाथाना साचा अर्थ सुधी पहोंचवा ओक नानकडं शुद्धीकरण आवश्यक छ अने ते माटे मरणना १७ प्रकारोने समजवा जरूरी छे. (१) आवीचि - सर्व संसारी जीवो प्रतिसमये उदयप्राप्त आयुःकर्मनां दलिकोने भोगवीने छोडे छे. आयुः-कर्मनां दलिकोनो आ वियोग ज 'आवी चिमरण' कहेवाय छे. (२) अवधि - जे नरकायु वगेरे आयुष्य कर्मनां दलिकोने भोगवीने जीव मरे छे, तेनां ते ज दलिकोने फरीथी आयुष्यकर्मरूपे जीव भोगवीने मरे तो तेनुं ते (पहेलु) मरण 'द्रव्यावधि' कहेवाय छे. अम क्षेत्र वगेरेने अंगे पण जाणवू. (३) आत्यन्तिक - जीव जे कर्मपुद्गलोने आयुष्यकर्मरूपे भोगवीने मर्यो होय, ते पुद्गलोने जो ते फरीथी आयुः-कर्मरूपे ग्रहण न करे तो तेनुं ते मरण 'द्रव्यात्यन्तिक' कहेवाय छे. अq ज क्षेत्र वगेरेने सन्दर्भे पण समजवू. (४) वलन् – चारित्र अने तपथी निर्वेद पामेला जे संयमी जीवो चारित्रथी छूटवा माटे मृत्युनी आकांक्षा राखे तेवा जीवोनुं मरण. (५) वशार्त - इन्द्रियोना विषयो पाछळ मूढ बनेला जीवोनुं मरण. (६) अन्तःशल्य - ज्ञानादिनी विराधना करीने गारव, लज्जा व.ने लीधे अनी आलोचना कर्या वगर मरवू ते. (७) तद्भव - जीव जे भवमां वर्ततो होय, तेना ते ज भवमां मरीने फरीथी जन्मे तो तेनुं ते मरण 'तद्भवमरण' गणाय छे. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ (८) बाल- अविरत जीवोनुं मरण. (९) पण्डित- संयतजीवोनु मरण. (१०) मिश्र- श्रावको, मरण. (११) छद्मस्थ- केवलज्ञान नहीं प्राप्त करनारा जीवनुं मरण. (१२) केवलि- केवलज्ञानी महात्मानुं निर्वाण. (१३) गृध्रपृष्ठ- स्वेच्छाले पक्षीओना भक्ष्य बनीने मरवू. (१४) वैहायस- फांसो खाइने, भृगुपात व. द्वारा मरवू.' (१५-१७) भक्तपरिज्ञा, इंगिनी, पादपोपगमन - शास्त्रव्यावर्णित अनशनना त्रण प्रकारो स्वीकारीने मरवू. हवे युगलिक मनुष्य-तिर्यंचो (के जेओ अवश्य असंख्य वर्षना आयुष्यवाळा होय छे अने मरीने देवलोकमां ज जाय छे), देवो (मरीने देव के नारक न ज थाय) अने नारको (देवनी जेम) ने १७मांथी केटलां मरण सम्भवे ते जोईओ. आ जीवोनुं मृत्यु स्वाभाविक ज होय छे तेथी आ जीवोने गृध्रपृष्ठ के वैहायस तथा वशात मरण न होय. वळी आ जीवोने अनशन पण न होय, तेथी अन्तिम त्रण मरण पण न होय. आ जीवोने मरीने तेना ते ज भवमां उपजवानुं होतुं नथी, तेथी तद्भवमरण पण न होय. तेमज वलन्मरण अने अन्तःशल्यमरण पतितपरिणामी संयतने ज होय, पण्डित-मरण अने मिश्र-मरण अनुक्रमे संयमी जीवो अने श्रावकोने ज होय, तथा छद्मस्थमरण अने केवलिमरणनी विचारणा संयमीओने अनुलक्षीने ज थाय छे, तेथी आ बधां मरणो पण युगलिको, देवो अने नारकोने न होय. अने बालमरण जो के आ जीवोने सम्भवे छे पण पारमार्थिक रीते जोईओ तो बालमरण पण आ जीवोने न गणाय, केमके ज्यां विरतिनो सम्भव छे त्यां बाल, पण्डित अने मिश्रनी विचारणा थाय, परन्तु ज्यां सदा अविरति ज छे त्यां बाल-पण्डित ओवा भेदो पण न पडाय. तेथी आवीचि, अवधि अने आत्यन्तिक-मरणना आ त्रण ज भेदोनो युगलिको, देवो अने नारकोमा सम्भव छे. १. गृध्रपृष्ठ अने वैहायस - आ बे मरणोनी तेवां कारणोसर साधुने अनुज्ञा मळे छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ अनुसन्धान-५७ हवे प्रस्तुत गाथानी पूर्वनी गाथामां तद्भवमरण कोने होय ते जणाव्युं छे"मोत्तुं अकम्मभूमग नरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥" (उ.नि. ५.१५) (अकर्मभूमिज-युगलिक मनुष्य-तिर्यंचो, देवो अने नारकोने छोडीने शेष जीवोमां तद्भवमरणनो सम्भव छे अने अमांथी केटलाकने ते मळे छे.) अने ते पछीनी प्रस्तुत गाथामां अन्य मरणो विशे पण सरखी ज वात होवाथी साथे ने साथे कही दीधी छे "मोत्तूण ओहिमरणं, आवीची आइयं तु तं चेव । सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणेण णेयव्वा ॥" हवे आपणे जोई गया छीओ के युगलिक व.ने जेम तद्भवमरण नथी संभवतुं तेम आवीचि, अवधि अने आत्यन्तिक सिवायनां अन्य मरणो पण नथी संभवतां. माटे आ गाथामां जो 'आइयं तु तं' ने स्थाने सहेज सुधारीने 'आइयंतितं' (-'आत्यन्तिक', 'त' श्रुति धरावतुं प्राकृतीकरण) करी दइओ तो आ गाथानो स्पष्ट अर्थ समजाय छे के अवधिमरण, आवीचिमरण अने आत्यन्तिकमरणने छोडीने शेष मरणो विशे तद्भवमरण प्रमाणे जाणवू. मतलब के जेम तद्भवमरण युगलिक व.ने नथी होतुं तेम आ त्रण सिवायनां अन्य मरणो पण आ जीवोने नथी होतां तेम समजवू. बनी शके के श्रीशान्तिसूरिजी महाराज सामे 'आइयं तु तं' पाठ होय अने तेथी तेओए आ गाथाने अस्पष्ट अने उपेक्षणीय गणावी होय. नियुक्ति पञ्चकना अनुवादक-सम्पादकनी स्खलना तो आ अशुद्ध पाठने लीधे ज थइ छे. पण जो आपणे एने बदले 'आइयंतितं' अम सुधारी लइओ तो आ गाथा स्पष्ट अने उपयुक्त बनी रहे छे. __ [आ अंकना प्रूफवाचन दरम्यान, उत्तराध्ययन नियुक्तिनी पाटणभण्डारनी ताडपत्र प्रतिना पाठ मेळववानुं बन्युं तेमां प्रस्तुत गाथा पण जोवा मळी छे, अने तेमां 'आइयंतियं' एवो स्पष्ट पाठ छे. आथी उपरनो ऊहापोह साची दिशानो होवा- प्रमाणित थाय छे.] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ (२) अर्हत्ना ३४ अतिशयो विशे - ६. ९७ मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय हमणां पूज्य गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजे पोताना संग्रहमांथी, चोत्रीस अतिशयोने वर्णवती ओक कृति प्रतिलिपि करवा माटे मने आपी. मुनि भक्तिविजय शास्त्रसंग्रह ( जैन आत्मानन्द सभा) भावनगर - नं. १०४६/ १नी प्रतनी से फोटोकोपी हती. प्रतिलिपि दरमियान शुद्धीकरण माटे समवायाङ्ग सूत्र जोयुं तो ख्याल आव्यो के कृतिमां मूकायेलां ३४ सूत्रो अने तेमनो स्तबकार्थ अनुक्रमे समवायाङ्गगत चतुस्त्रिंशत्स्थानक अने तेनी अभयदेवसूरिजी कृत टीकानुं थोडुंक अशुद्ध अनुलेखन मात्र छे. मतलब के आ कृति कोई स्वतन्त्र रचना नथी, पण उतारो ज छे अने तेथी तेनुं सम्पादन - प्रकाशन करवानुं रहेतुं नथी. पण आ सन्दर्भे अर्हत्ना ३४ अतिशयो अंगे जे थोडीक वातो विचारवा जेवी लागी ते अहीं नोंधवी छे. आपणे त्यां अत्यारे ३४ अतिशयो नीचे मुजब गणावाय छे. ४ जन्मजात अतिशयो १. प्रभुनुं शरीर नीरोगी अने निर्मल होय छे, अद्भुत रूप धरावतुं होय छे. २. श्वासोच्छ्वास कमल जेवो सुगन्धी होय छे. ३. लोही अने मांस गायना दूध जेवा सफेद अने दुर्गन्ध रहित होय छे. ४. आहार अने नीहार चर्मचक्षुथी अदृश्य होय छे. ११ कर्मक्षयथी थनारा अतिशयो X१५. समवसरणमां अंक योजन जेटली जग्यामां ज करोडो करोडो देव, मनुष्य अने तिर्यंचो रही शके. अर्द्धमागधीमां देशना आपे. ओ देशना देव, मनुष्य अने तिर्यंचोने १. आ निशानी करेला अतिशयो समवायाङ्गजीमां नथी. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ ___ पोतपोतानी भाषामां समजाय. ओक योजन सुधी ओ देशना संभळाय. ७. मस्तकनी पाछळ भामण्डल सर्जाय. ८. रोग न थाय. (आ अने हवे पछीना ७ अतिशयो ‘१२५ योजन सुधी' समजवाना छे.) ९. वैरभाव न थाय. १०. उपद्रव न थाय. ११. मारि न थाय. १२. अतिवृष्टि न थाय. १३. अनावृष्टि न थाय. १४. दुर्भिक्ष न पडे. १५. पोताना के बीजाना देश के राजा तरफथी भय न आवे. देवकृत १९ अतिशय १६. आकाशमां धर्मचक्र चाले. १७. आकाशमां चामर वींझाता रहे. १८. आकाशमां पादपीठिकासहित उज्ज्वल स्फटिकमय सिंहासन होय. १९. आकाशमां त्रण छत्र होय. २०. आकाशमां रत्नमय ध्वज होय. ४२१. सुवर्णकमल उपर ज पग मूके. ४२२. सुवर्ण, रौप्य अने रत्नमय त्रण गढवाळु समवसरण होय. X२३. समवसरणमां प्रभुनी त्रण प्रतिकृतिओ रचाय, जेथी प्रभु चतुर्मुख लागे. २४. अशोकवृक्ष होय. २५. कांटा ऊंधा थई जाय. ४२६. वृक्षो नमन करे. ४२७. दुन्दुभिनाद थाय. २८. वायु सुखद होय. ४२९. पक्षीओ प्रदक्षिणा आपे. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ३०. सुगन्धी पाणीनी वृष्टि थाय. ३१. पंच वर्णनां पुष्पोनी वृष्टि थाय. ३२. वाळ, दाढी, मूछ अने नख न वधे. ४३३. ओछामां ओछा १ करोड देवो भगवाननी सेवामां रहे. ३४. छ) ऋतुओ इन्द्रियोना विषयोने अनुकूल रहे. हवे आपणे समवायाङ्गमां ३४ अतिशयोनुं जे निरूपण छे तेनी प्रस्तुत प्ररूपणा साथे तुलना करीशुं अने त्यारबाद तेना फलितार्थो विशे विचारीशुं. समवायाङ्गजीमां सौप्रथम अरिहन्तोना शरीर साथे सम्बन्धित ५ अतिशयोपूर्वोक्त नं. ३२ अने नं. १-४ क्रमशः नोंधाया छे अने त्यारबाद तेओनी विभूति दर्शावनारा १५ अतिशयोनुं वर्णन छे. ६. आकाशमां वर्ततुं के प्रकाशमान' चक्र होय. (तुलना-पूर्वोक्त नं. १६) ७. आकाशमां वर्ततां के प्रकाशमान' त्रण छत्र होय. (नं. १९) ८. प्रकाशमान बे श्वेत चामर होय. (नं. १७) ९. आकाश जेवा स्वच्छ स्फटिक रत्ननुं पादपीठ साथेनु सिंहासन होय. (नं.१८) १०. अत्यन्त ऊंचो, नानी नानी हजारो पताकाओथी सुशोभित इन्द्रध्वज भगवाननी आगळ चाले. (नं. २०) ११. ज्यां ज्यां भगवान ऊभा रहे ते बेसे त्यां त्यां यक्षनिकायना देवो पत्र, ___पुष्प अने पल्लवथी लची पडेलुं अने छत्र, ध्वजा, घण्टा तेमज पताकाओथी सुशोभित अशोकवृक्ष रचे छे. (नं. २४) १२. मस्तकथी थोडाक पाछळना भागमां प्रभामण्डल सर्जाय छे के जे अन्धकारमां पण दशे दिशाओने प्रकाशित करे छे. (नं. ७) १३. जमीन समतल अने रमणीय बनी जाय छे. (X) १४. कांटा ऊंधा थइ जाय छे. (नं. २५) १५. ऋतुओ अनुकूल बनी जाय छे. (नं. ३४) १. अत्रे 'आगासगं' शब्दना आ बे अर्थो टीकामां सूचवाया छे. २. अत्रे मूळमां 'जक्खा देवा' पाठ छे, तेने अनुसरीने आ अर्थ लख्यो छे, टीकाकार भगवन्ते तो 'तक्खणादेव' ओवो पाठ स्वीकारीने 'तत्क्षणमेव' ओवो अर्थ को छे. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-५७ १६. शीतल, सुखद अने सुरभित पवनथी चारे बाजुनी अंक योजन जेटली जमीन स्वच्छ थइ जाय छे. (नं. २८) १७. झीणां फोरां वाळी वृष्टि द्वारा धूळ, रजकण व. दूर थइ जायछे. १ १८. जलज अने स्थलज, पांच वर्णना अने ऊर्ध्वमुख पुष्पोनो जानुप्रमाण ढगलो थाय छे. (नं. ३१) १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गन्धनो अभाव थाय छे. (X) २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, अने गन्धनो प्रादुर्भाव थाय छे. २ (X) त्यारबाद भगवानना अन्य व्यक्तिओ पर के प्रकृति पर प्रभाव दर्शावनारा १४ अतिशयो समवायाङ्गजीमां नोंधाया छे २१. भगवाननो स्वर हृदयाह्लादक अने योजनगामी होय. २२. भगवान अर्धमागधी भाषामां देशना आपे. २३. ते अर्धमागधी भाषा आर्य अने अनार्य मनुष्यो, पशु, पक्षी, सरीसृप - सर्वेने पोतानी हितकारी, कल्याणकारी अने सुखद भाषापणे परिणमे. (देशनाने लगता आ त्रणे अतिशयोनो समावेश अत्यारे एक ज अतिशयमां करवामां आवे छे. (जुओ नं. ६) २४. पूर्वे जेओने वेर बंधायेलुं छे तेवा देवो, असुरो, नागकुमारो, सुपर्णकुमारो, यक्षो, राक्षसो, किंनरो, किंपुरुषो, गरुडो, गन्धर्वो अने महोरगो; अर्हत्ना चरणोमां प्रशान्त मन वाळा थइने धर्म सांभळे छे. (नं. ९) २५. अन्यतीर्थिको पण भगवानने वन्दन करे छे. ४ (X) २६. अन्यतीर्थिको भगवाननो प्रतिवाद नथी करी शकता. (X) १. टीकाकारे आ अतिशयने 'गन्धोदकवर्षा' ओवा नामे ओळखाव्यो छे. २. टीकाकार जणावे छे के आ १९-२० अतिशय बृहद्वाचना मुजब छे. स्वसम्मत अतिशयो आछे १९. भगवान ज्यां बेसे ते स्थान कालागुरु व. धूपनी सुगन्धथी मघमघायमान बनी जाय छे. २०. भगवाननी बे बाजुओ बे यक्षो चामर ढाळे छे. ३. टीकाकार ‘सुवण्ण’नो अर्थ 'ज्योतिषिक' अने 'गरुल' नो अर्थ 'सुपर्णकुमार' करे छे. ४. टीकाकारे आ बे अतिशय माटे आवी नोंध करी छे - "बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमभिधीयते" पण आवी नोंध कर्या पछी अन्य वाचनामां आ बेनी जग्याओ शुं हतुं ते दर्शावता नथी. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०१ २७. उपद्रव न थाय. (नं. १०) २८. मारि न थाय. (नं. ११) २९. पोताना देशनी राजसत्ता उपद्रवकारी न बने. ३०. अन्य देशनी राजसत्ता उपद्रवकारी न बने. (बन्ने मळीने नं. १५) ३१. अतिवृष्टि न थाय. (नं. १२) ३२. अनावृष्टि न थाय. (नं. १३) ३३. दुर्भिक्ष न पडे. (नं. १४) ३४. पूर्वे उद्भवेली व्याधिओ शीघ्र शान्त थइ जाय. (नं. ८) उपरनी तुलना परथी जणाशे के अत्यारे वर्णवाता अतिशयोमांना ८ अतिशयो नं. ५, २१, २२, २३, २६, २७, २९ अने ३३ प्राचीनकाले (कम से कम समवायाङ्गनी वीर नि.सं. ९८०मां थयेली संकलना सुधी तो) ३४ अतिशयोमां नहोता ज गणावाता. आ अतिशयो ३४ अतिशयनी गणतरीमां क्यारे स्थान पाम्या ते निश्चितपणे तो कहेवू मुश्केल छे, पण विक्रमनी ११मी सदी पछीना ग्रन्थोमां आ अतिशयो, जे रोचक वर्णन मळे छे ते जोतां आ प्रवृत्ति बहु वहेली चालु थई हशे ते अनुमानी शकाय छे. जोके विक्रमनी १११२मी सदी सुधी नवा नवा अतिशयो सर्जावानी प्रक्रिया चालु हती तेम श्री अभयदेवसूरिजीओ १९-२०मा अतिशय तरीके दर्शावेली तद्दन नवी वातो परथी जाणी शकाय छे. तेओ स्वयं जणावे छे के “एते च यदन्यथाऽपि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यम् ।" आनो संकेतार्थ ए होई शके के अर्हनी नवनवी विभूतिओ भक्ति-बहुमानपूर्वक कल्पवानी प्रक्रिया त्यारे पूरजोशमां चालु होय. समवायाङ्गजीमां आ अतिशयो, कोई विभागीकरण नथी करवामां आव्यु. टीकाकार भगवन्ते २-५ अतिशयोने भवप्रत्ययिक, २१-३४ अने १२प्रभामण्डलने कर्मक्षयजन्य अने शेष १५ने देवकृत गणाव्या छे. पाछळथी आ देवकृत अतिशयोनी संख्या वधारीने १९ करवामां आवी अने तेने लीधे केटलाक कर्मक्षयजन्य अतिशयोने कां तो भेगा करी देवामां आव्या कां तो बाकात करवामां आव्या. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-५७ आ समग्र सन्दर्भे विचारतां अम लागे छे के आगमोनी रचनाकाले अर्हत्नुं वर्णन वास्तविकताने अनुलक्षीने थतुं हतुं, तेओने अन्य मनुष्योतीर्थप्रवर्तको करतां विशिष्ट कोटिना अवश्य जणावाता हता, तेओनी पासे देवोनुं आवागमन पण वर्णवातुं हतुं, पण ओ बधुं ओक हद सुधी सीमित हतुं. पाछळथी जेम बौद्धादि अन्य परम्पराओनी जेम जैन परम्परामां पण तेवा देशकालने अनुलक्षीने अर्हत्नुं चमत्कारिक वर्णन आरंभायुं होय. लौकिक, चमत्कारिक, वातो-वर्णनोथी अंजायेला लोकोने आवर्जवा माटे तेम करवू जरूरी पण हशेज. आ वर्णन माटे अर्हत्नी विविध विलक्षण विभूतिओने ३४ अतिशयोमां स्थान आपवामां आव्यु, अटलुं ज नहीं पण समावायाङ्ग जेवा आगममां आवा ३४ अतिशयो वर्णवाया छे ओम पण जणाववामां आव्यु.१ केटलाक अतिशयोनुं समवायाङ्गमा जे स्वरूप हतुं तेना करतां घणुं जुदुं वर्णन, पण करवामां आव्यु. जेमके- इन्द्रध्वज के सिंहासनना वर्णनमां आवता 'आगासगं' शब्दनो अर्थ तद्दन जुदो हतो, (प्रकाशक) ओने बदले इन्द्रध्वज अने सिंहासन (आकाशगामी) आकाशमां अद्धर रहे छे' अवो अर्थ करवामां आव्यो. मारि, दुर्भिक्ष व.ना निवारणनी मर्यादा २५ योजनथी वधारीने १२५ योजननी करवामां आवी. 'भगवाननी देशना बधा वेरझेर वीसरीने ओकसाथे सांभळे' ओवा अतिशयने स्थाने 'भगवानना स्थानथी १२५ योजन सुधी कोईने वेर-विरोध न रहे' अवो अतिशय प्ररूपायो के जेनी महावीरस्वामीना जीवनमा बनेली केटलीये घटनाओ साथे विसंगति आवे छे. अन्ते, श्वेताम्बर परम्परानी ३४ अतिशयनी प्ररूपणा साथे तुलना माटे दिगम्बर परम्पराने मान्य ३४ अतिशय तिलोयपण्णत्तिने आधारे जोइशुं.. जन्मजात १० अतिशय- १. स्वेदरहितता २. निर्मलशरीर ३. दूध जेवू श्वेत रुधिर ४. वज्रऋषभनाराचसंघयण ५. समचतुरस्रसंस्थान ६. अनुपम रूप ७. नृपचम्पक जेवी उत्तम गन्ध ८. १००८ उत्तमलक्षण ९. अनन्त बल १. "चार अतिशय मूळथी, ओगणीश देवना कीध । कर्म खप्याथी अग्यार, चोत्रीश एम अतिशया समवायांगे प्रसिद्ध ।" आ गाथामां वर्णवाया प्रमाणे समवायाङ्गजीमां अतिशयो न होवा छतां अमने समवायाङ्गनी साखथी ज प्रमाणित कराय छे. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०३ १०. हित, मित अने मधुर भाषण. कर्मक्षयजन्य ११ अतिशय- ११. चारे दिशामां १०० योजन सुधी सुभिक्ष १२ आकाशगमन १३. हिंसानो अभाव १४. भोजननो अभाव १५. उपसर्गनो अभाव १६. बधानी सामे सन्मुखता १७. पडछायो न पडवो १८. निर्निमेष दृष्टि १९. विद्यासिद्धता २०. नख अने रोम न वधवा २१.१८ महाभाषा अने ७०० क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि. देवकृत १३ अतिशय- २२. वनो फल फूलथी लची पडे २३. कांटा, रेती व. दूर करनारो सुखकारी पवन वाय छे. २४ वैरभावनो नाश थाय छे. २५. जमीन स्वच्छ अने रत्नमय बनी जाय छे. २६. मेघकुमारो सुगन्धि जलनो छंटकाव करे छे. २७. वैक्रिय सस्य देवो बनावे छे. २८. बधा ज जीवोने आनन्द थाय छे. २९. वायुकुमारो शीतल पवन चलावे छे. ३०. कूवा-तळाव निर्मल जलथी भराई जाय छे. ३१. आकाश निर्मळ थइ जाय छे. ३२. रोगो नाश पामे छे. ३३. यक्षेन्द्रोना मस्तक पर रहेला अने किरणोथी उज्ज्वल चार धर्मचक्रने जोइने लोकोने आश्चर्य थाय छे. ३४. भगवाननी चारे तरफ ५६ सुवर्णकमल, १ पादपीठ तेमज विविध प्रकारनां पूजन द्रव्यो होय छे. (जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश-१, पृ. १३७) (३) आदिनाथस्तव (ते धन्ना...) विशे अनुसन्धान-२४, पृ. १-३मां 'ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि', आवर्तन धरावतुं आदिनाथ प्रभुनु अत्यन्त भाववाही स्तोत्र छपायुं छे. आ स्तोत्रने ओक हस्तप्रत साथे मेळवी जोतां केटलाक पाठान्तरो मळ्या ते अत्रे नोंधवामां आवे छे. ___ * मुद्रित-वाचना अने हस्तप्रत-वाचनाना गाथाक्रममा ७मी गाथाथी नीचे मुजब भिन्नता छे. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गाथा रंजतो वणराई नमिविनमी रायाणो गयपुर सेयंसराइणो अद्धतेरसकोडीओ छट्ठठ्ठमदसमदुवालसेहिं लंबतबाहुजुयलो तह पुरिमतालनयरे पउमेसु ठविअचलणो तिअसासुरमज्झगओ ते धन्ना कयपुन्ना धन्नेहिं तुमं दीससि मिच्छत्ततिमिरवामो. १५ १६ १७ १८ १९ * हस्तप्रत-वाचनामां बे गाथा वधारे छे.* अट्ठावयंमि सेले गाथा-१७ मु.क्र. ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ गाथा २१ अनुसन्धान-५७ ह.क्र. १० ७ ११ १२ ८ ९ १३ १४ १५ १९ २० १६ १८ "बंधवरहियाण पुणो, सरणविहीणाण देहतवियाण । जक्खाहि पीडियाणं, जिणिंदवरसासणं सरणं ॥ " "दिट्ठो सि जेहिं सामिय जेण न दिट्ठो सि तिहुणादो । ताण भवकोडिदुलहो मणुअभवो निष्फलो जाउ ||” * मुद्रित - वाचनानी वीसमी गाथामां बे गाथानां चरणोनी भेळसेळ थइ गइ छे. हस्तप्रतमां नीचे मुजब पाठ छे : "इअ चवण - जम्म - निक्खमण - नाण- निव्वाणकालसयंमि । जेहिं सयं चिय दिट्ठो ते धन्न सुपुन्नया पुरिसा ॥ इय संथुओ सि जिणवर ! दढमूढअयाणएण हियएण । तं कुणसु नाभिनंदण ! पुणो वि जिणसासणे बोही (हिं) ||" * जो के आ बन्ने गाथा पाछळथी उमेराई होवानो सम्भव छे. *आ पाठ प्रमाणे अनी पहेलाना 'सुमंगलासुनंदाए'ने सामासिक पद गणवुं पडे. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०५ ह.वा. * केटलांक पाठान्तरो - गाथाक्र. मु.वा. (मुद्रित) बालत्तणिमि देवी तिअसलोगंमि मिहुणनरेहिं जगग्गुरू महिम० सिबिअविमाणारूढो दिक्खसमयंमि सिद्धत्थवणं ते धन्ना तह नाहमल्लीणा वंछियरिद्धि ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि गयपुर सेयंसराइणो विहरंतो ०कोडीओ मुक्का सुर० तवंतो ०महिमा गहिओ पउमेसु ठविअचलणो ते धन्ना कयपुन्ना केवल(ल्ल?)नाणसमये अहन्नेहिं बालत्तणमि देवीइ तिअसलोरोहिं मिहुणेहिं पुणो जगगुरू ०महम० सिबियाविमाणरूढो दिक्खकालंमि सिद्धत्थवणे वनवासे तुह देव ! संलीणा इच्छियरिद्धि गरुआण न निप्फला सेवा गयपुरनयरे सिज्जंसरायणो पारंतो ०कोडी मुक्का उ सुर० चरंतो ०महिमाइ गओ पउमे चलण ठवंतो विहरतो सुकयत्था केवलनाणसमग्गो अहम्मेहिं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ जयनाह ईय नाह उम्मीलीऊण उमि(म्मि)ल्लिऊण चउदसभत्तेण मुक्खमणुपत्तो दसहिं सहस्सेहिं समणसहिओ दसहि सहस्सेहि समं निव्वाणगमणकाले ०अयाणेण भत्तिए ०अयाणएण हियएण आमां घणे ठेकाणे मुद्रित पाठ करतां हस्तप्रतनो पाठ वधु उपयुक्त छे. पण सम्भव छे के मुद्रितवाचना ओ मूळ वाचना होय अने मूळ वाचनामां पाछळथी उचित फेरफार करवामां आव्या होय अने हस्तप्रत ओ परिवर्तित वाचना धरावती होय. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०७ स्वाध्यायः विशेषावश्यक महाभाष्यनो स्वाध्याय करतां...। [विशेषावश्यक भाष्य, वांचन-स्वाध्याय करतां जडेलां शुद्धिस्थानोनी नोंध प्रायः चार के पांच हिस्सामा अगाऊ 'अनुसन्धान'मां आपेली छे. छेल्ली नोंध ३६मा अंकमां हती. त्यारबाद छेल्ली नोंध आपवानी रही गई, ते आ अंकमां आपवामां आवे छे.] विशेषावश्यकभाष्य - शुद्धिपत्रक पंक्ति ११ ५७६ ५७६ १ २६ ५७७ ५७७ ५८० ५८१ ५८१ ५८४ ५८५ अशुद्ध णत्थि ओ अहवोसप्पु-सप्पि० एसा व चूओऽचूओ वा ०वस्त्रादिभिर्बाह्य सम्मत्तं ति सुपत्थिओ नओ कस भवो आउ नोकर्मद्रव्यकषया भिउडीभंगुरा० ०जीवज्जीवाणु० पुष्पं फलं० ०शोधनरूपउपादानसाधनः नमोऽरहा निरुक्तसमय शुद्ध णत्थि उ अहवोसप्पु-स्सप्पि० एसा वा चूओ अचूओ वा ०वस्त्रादिर्बाह्य० समत्तं ति सुप्पत्थिओ तओ कसं भवो आओ नोकर्मद्रव्यकषाया भिडडिभंगुरा० जावज्जीवाणु० पुप्फ कलं० ०शोभनरूपअपादानसाधनः नमो अरहा निरुक्तसम्भव ५८५ ३४ २८ ५८५ ५८६ ५८७ ५८८ ५८८ ५८९ ५८९ ११ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-५७ ५८९ ५८९ ५८९ ५९० * * * * * * * * * * ५९० ५९० ५९१ ५९२ ५९२ ५९२ * ५९३ ३८ एया अपि अणुमुयंतो हृदयमनुमुञ्चन् पुणब्भवो पगरणं कहं न पिंडयत्थो बहुवारा स्थित्यनुभवादिभि० नेरइएसु उववज्जइ एवंविधासिद्धा० लेश्याविशेषाश्ले० स्थित्यनुभवादिना० सोऽकय० छम्मासमुक्कोस० आवज्जीकरणमज्झेइ समुत्थाताशेषक्रिया० शीलेस्येशः 'तनुरोहारंभाओ' वि ज्ञाणम्मि' ०प्रदेशांत्स्वस्पृश० तस्यावरणक्षये सागरोव० निषिद्धे तद्यौग० -नाणाणमणुओगे -परिनिवृत्तादि० किं सागरोवउत्ते ०पयोगोपषुक्त० -ऽणगारय ५९३ ५९५ ५९५ ५९६ ५९७ ५९७ ५९७ ५९९ ५९९ ५९९ एता अपि अणुम्मुयंतो हृदयमनुन्मुञ्चन् पुणब्भव पेगरयणं कह न पिडयत्थो बहू वारा स्थित्यनुभागादिभि० नेरइएसु नेरइए उव्वज्जइ एवंविधसिद्धत्वा० लेश्याविशेषश्ले० स्थित्यनुभागादिना० सो अकय० छम्मासुक्कोस० आवज्जीकरणमब्भेइ समुच्छिन्नाशेषक्रिया० शीलस्येशः 'तणुरोहारंभाओ' वि झाणम्मि' प्रदेशांस्त्वस्पृश० ०तस्यावरणदेशक्षये सागारोव० निषिद्धे किमिति तद्यौग० -नाणाणमणुवओगे -परिनिर्वृतादि० किं सागारोवउत्ते ०पयोगोपयुक्त० -ऽणागारय १७ ३६ ६०१ ६०१ ६०४ ६०५ ६०६ ६०६ ४० १५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ६०६ ६०९ ६०९ ५ ६१० १३ ६१० १५ ६१० २० ६१० २५ ६१० ३६ ६१० ४१ ६१२ ३१ ६१४ ५ ६१६ २७ ६१६ ३३ ६१६ ३३ ६१६ ३५ ६१६ ३६ ६१७ ६ ६१७ ३० ६१८ ७ ६१८ १२ ६१८ १७ ६१९ २५ ६१९ ३३ ६२० २४ ६२१ १६ ६२१ ३४ ६२१ ३५ ६२१ ३६ ६२२ ३१ ३३ ४ OSनाहारकऽ भाषक० जह तेसला० ० निरवेकक्खं विहियस्सा ० विहितस्य च विहितस्याऽव० बोदिच्चाओ अत्थीसीयज्झारो० अस्त्यृष्यध्यारो ० घटाकारपरिणामवांश्च सोक्खेण संक्षेपकारणवशात् विशिष्टस्य फलसिद्धिः द्विविधनमस्करण० ०स्कारकृत्त्वात् विस्तरस्तु • सुद्धिहे निक्कमणकाले तेणायरियाई कमो ते विसेसे आयरियाइउ ०मात्महितभावसंवरा० अपरिग्गहाओ नन्वयमनुक्तो० दाणाइपराणु० तस्याहरति अहिंतो वा तहाहारी • विसुद्धऊओ - ऽनाहारकभाषक० जह ते सला० ० निरवेक्खं विहयस्सा ० विहतस्य च विहतस्याऽव० बोंदिच्चाओ अत्थीसीपब्भारो० अस्तीषत्प्राग्भारो० घटाकारः परिणामवांश्च सो केन संक्षेपः कारणवशात् विशिष्टफलस्य सिद्धिः द्विविधनमस्कारकरण० ०स्कारत्वात् विस्तरतस्तु ० सुद्धिहेऊ निक्खमणकाले तेणायरियाइकमो तेऽवसेसे आयरियाइओ ०मात्महितपरिज्ञाभावसंवरा० अपरिग्गहओ नन्वयमयुक्तो० दाणाइ पराणु० तस्यापहरति अदितो व तदाहारी १०९ ० विसुद्धिहेउओ O Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ६२३ ९ ६२३ ३० ६२५ २७ ६२६ ३ ६२६ १० ६२६ १३ ५ ६२७ ६२७ ६२७ १० ६२७ ११ ६२८ ७ ६२८ ७ ६२९ २४ ६२९ ३६ ६३३ ६ ६३४ १३ ६३६ ७ ६३६ २७ ६३७ १० ६३७ १४ ६३७ २० ६३७ २७ ६३८ ३ ६४० ३ ६४० ६४० ६४२ 5 30. ५ सर्वस्वहरणं परप्रसादनार्थं ८ तहवेह भुक्ते यो० परिग्रहादेव धर्मः बहु- मुणि० नियत्थो वज्झत्थालंबण० दुइभावओ तणुदोब्बलाइ० वि धम्मओ ०वोसग्गो ०नुसारतो हीना डुक्कियं इह यत् पञ्चा० भवद्युक्तित विगच्छद् विगतम् ० मुभयं स्वस्थितिमानं तरीतुं साऽस्सान्तमुहुत्तं वैक्रियशरीरशाटस्य चान्तरे दुविहो ऽन्तरंतियं जघन्यमन्तर्मुहूर्त अजीवाणं सुयकरणं सुया० श्रुताभिधानं च १४ उत्ती ओ इह सव्वहा अनुसन्धान-५७ सर्वस्वादेर्हरणं किमिति परप्रसादनार्थं तह चैव भुक्ते भक्ते यो० परिग्रहादेव स्वीकारादेव धर्मः बडु- मुणि० निययत्थो बज्झालंबण० दूराइभावओ तणुदोब्बल्लाइ ० विधम्मओ • वोसग्गे ०नुसारतोऽहीना ० डुकिय इह षट्पञ्चा० तावद्युति विगच्छद् अविगतम् ०मुभयस्य स्थितिमानं तु तरीतुं साडस्सन्तमुत्तं वैक्रियशरीरस्य शाटस्य सर्वशाटस्य चान्तरे दुविहो ऽतरंतियं जघन्यमन्तरमन्तर्मुहूर्त॰ अज्जीवाणं सुयकरणं नोसुया० नोश्रुताभिधानं च उत्ती उ इय सव्वहा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १११ ६४३ ६४४ ६४४ ६४५ ६४६ ६४७ सेग्गहं ६४७ ६४७ ६४८ ६४८ ६४८ ६४८ ६४८ ६४९ ६५० ६५० ६५१ ६५२ ६५३ ก : : : : : : ก ง * * * * * * * * * * * जहवा जह वा अवच्छिन्न अव्यवच्छिन्न केण केयं केण कयं तॉन्यदूषणम् तीन्यद् दूषणम् ०स्तत्सम्पत् प्राप्ति० ०स्तत्सम्पत्प्राप्ति० एवाधीतसामायिकत्वात् एवाधीतसामायिकसूत्रत्वात् खित्ताईसु सुपसत्थेसु खित्ताइसु सुप्पसत्थेसु पलितत्रिक० परिकर्तित० सग्गहं सेग्रहं च ग्रहा० सग्रहं च क्रूरग्रहा० गुण-दव्व-पज्जवेहिं दव्व-गुण-पज्जवेहिं -प्रतिपात -प्रणिपातर्यथासंख्यं 'सम्यग् र्यथासंख्यं 'स्थिरपरिचितं होई सुयनाणं होइ सुयनाणं कणं कयं केण कयं कीरइ तो तेण सद्देण कीरइ तेण तु सद्देण ०सामायिकप्रस्तावेऽपि ____०सामायिकसद्भावेऽपि तिसहावो तिस्सहावो किन्तु 'भदन्त' किन्तु 'भजन्त' भजते सेवते भजति सेवते स चेह स चैवं ०तपोगुणदीप्त्येति ०तपोगुणधुत्येति तेणं तो तेणंतो भगवन्त-भवन्त- भगवन्त-भवान्तगुरुकुलवासे वसं गहत्थं गुरुकुलवासोवसंगहत्थं गुरुकुलवासे वसन् ग्रहार्थं गुरुकुलवासोपसंग्रहार्थं यस्मादभिशय्यायां द्विती- यस्मादभिशय्यायां-प्रतिशय्यायां द्वितीकइपया ६५३ ६५३ ६५४ ६५४ ६५५ * * * * ६५५ ६५५ ६५५ २५ ६५५ २७ कयपया Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-५७ २८ ३१ ६५५ ६५५ ६५६ ६५६ ६५६ ६५६ ६५६ ६५६ ६५५ गृह्येत ६५७ ६५७ ६५७ ६५७ ६५७ ६५७ ६५७ ६५८ ६५८ ६६१ ६६३ ६६५ दाप हापभदन्तश्च यस्मात् भदन्तशब्दश्च यस्मात् विणयपाडिवत्ति० विणयपडिवत्ति० तदणापुच्छाई तदणापुच्छाए विणओवयारमणस्स विणओवयार माणस्स विनयोपचारमनसो भजना विनयोपचारः मानस्य भञ्जना -ऽसंवन्नया ०ऽसवन्नया निसीहियाओ निसीहियाइ परस्परमसंपन्नता० परस्परमसपत्नता पत्तमलक्खण० एत्तमलक्खण० विरई ओ विरईओ विरतिर्गम्यते विरतेर्गम्यते गृह्यते योगविरतिस्तु योगविरतेः तेण सामाओ तेण व त्ति सामाओ तत्रायस्तेन सामायः तत्रायस्तेन सामायः कइवहं कइविहं प्रधानतरादेशे प्रधानतरेषु जीवज्जीवं जावज्जीवं जावज्जीवाइ जावज्जीवाए इत्यादिनैव वियवेन इत्यादिनैव सूत्रावयवेन करणकरणादि० करणादि० तिविहेण त्ति तिविहेण नत्थि निप्फत्तीए० निज्जुत्तीए० प्रत्याख्यानदोषा० प्रत्याख्यानभङ्गादिदोषा० मिच्चाइगहणाओ ०मिच्चाइवयणाओ कालत्रयगतः समस्त० कालत्रयगतसमस्त बिइयाइगारा० बिइयाहिगारा० तस्यान्यत्वम् तस्येत्युक्तम् w ६६५ ६६७ ६६७ ६६८ ६६९ ६६९ ६६९ ६६९ २२ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ६७० ९ ६७१ ३ ६७१ ४ ६७१ १२ ६७१ २४ ६७१ ३० ६७१ ३८ ६७३ २३ ६७३ २४ ६७४ २ ६७४ २८ ६७४ ३५ ६७४ १४ ६७५ ३० ६७६ ५ ६७७ २ ६७८ ३१ तस्यातीत० कारणाऽनुमतय । वार्यन्ते नामविधयो पुरा पुर्वं जानिवत् विशेषवदेवं व्यासो तत्रैकार्था० ०विसेसपयत्थाय० किंव अर्थत जीवाद्यविना० तरीउं सर्वरूपतया प्रोक्तं -ब्रह्मवृता० तस्येति कारणानुमतयः । निवार्यन्ते नाम विधयो पुरा पूर्वं का निवत्ती विशेषवदेव न्यासो तत्रैवार्था० ०विसेसपत्थार० किंथ अर्थ्यत बीजाद्यविना० तरिउं तत्त्वरूपतया पूर्वोक्तं - ब्रह्मव्रता० ११३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान-५७ विहंगावलोकन - उपा. भुवनचन्द्र अद्यावधि अप्रगट अने चरित्रसाहित्य माटे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवी एक रचना- ऋषिमण्डलस्तव-अनुसन्धानना ५६मा अंकमां प्रकाशन पामी छे. आनी हस्तप्रति ताडपत्रीय छे अने श्री पुण्यविजयजी महाराजना अनुमान प्रमाणे १२मा शतकना उत्तरार्धनी छे. रचना तो ते पूर्वेनी होय. आथी ते ओछामां ओछा ८०० वर्ष पहेलांनी ठरे छे. कृतिनो विषय पूर्व महर्षिओनां नामकीर्तन अने गुणकीर्तननो छे. वर्तमानमां जेमनां नामो वीसराइ गयां छे तेवा केटलाक महामुनिओनां नाम आमां जोवा मळे छे अने केटलाक बहु जाणीता महामुनिओना जीवन विशेनी केटलीक नवी वातो पण आमां छे. सम्पादक श्री शीलचन्द्रसूरिजीए समग्र कृतिनुं अवलोकन करीने रसप्रद विगतो तारवी आपी छे. मात्र संशोधक विद्वानोए ज नहि, सर्व साधु-साध्वी वर्गे आ कृति वांचवा-विचारवा जेवी छे. आना वाचनथी प्रेरणा मळशे अने इतिहास-परम्परा-संशोधननी बाबते प्रकाश पण मळशे. समयना प्रवाह साथे इतिहास भूलाय छे अने क्यांक कल्पनाना रंगो तेमां पूराय छे ए वात आवा दस्तावेजी आधारोना परिशीलनथी ज समजाय छे. प्राचीन साहित्यना अध्ययन-परीक्षण-संशोधननी उपयोगिता आ ज छे. आ अद्भुत कृतिना प्रकाशन बदल श्री शीलचन्द्रसूरिजीने शतशः धन्यवाद. कृतिनो पाठ शुद्ध छे. गाथा २५२ अने २५३मां कीडाहिं शब्द छेजे 'कीडीहिं' होवानो संभव छे. २५१मी गाथामां 'कीडीहि' 'शब्द मळे ज छे. हस्तप्रतोमां दीर्घ ईकारवाळो अक्षर क्यारेक आकारान्त होवानो भास करावे छेडी अक्षर डा रूपे वंचायो होय एवं बनी शके. गा. २५७मां 'अग्गीय' छे त्यां 'अग्गीए' होवू घटे. 'ए' 'य' रूपे वंचायो होय. गाथा २३५मां 'तवयेय' छपायुं छे त्यां 'तवतेय' पाठ ठीक लागे. रत्नाकरसूरिनी एक नवी रचना- 'रैवतकाद्रिमण्डन नेमिजिनस्तोत्र' तेना अनुप्रासो अने लालित्यथी हठात् 'रत्नाकरपञ्चविंशतिका', स्मरण करावे छे. १०८ वार 'संवर' शब्दनो जेमा प्रयोग थयो छे ते 'अभिनन्दन जिनस्तोत्र' चमत्कृतिवाली रचना छे. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ११५ सोपारकपत्तन (हालतुं ठाणे जिल्ला- नाला-सोपारा) एक महत्त्वनुं नगर हतुं एम वारंवार मळी आवता ऐतिहासिक उल्लेखो परथी जणाय छे. हालमां त्यां कोई प्राचीन जिनालयना अवशेषो पण नथी, परंतु पूर्वे त्यां भव्य तीर्थरूप जिनालय हतुं एम स्तोत्रसाहित्य अने अन्य उल्लेखो परथी सिद्ध थाय छे. आजे त्यां एक भग्न किल्लो छे, एक मोटो टिंबो छे. ए टिंबा नीचे अवशेषो होय पण खरा. प्रस्तुत अंकमां सोपारक नगरना आदिनाथ प्रभुनी स्तवनारूप बे कृतिओ प्रकाशित थई छे. सम्पादकोए सोपारकनगर सम्बद्ध माहितीनी पूर्ति करवा साथे कृति तथा कर्ता विशे ऊहापोह पण को छे. बीजी कृति'सोपाराविज्ञप्तिका'मां सोपारकनगरनी आसपास वनश्रीनी विपुलतानुं वर्णन जे थयुं छे वास्तविक छे. आ पंक्तिओना लेखकनुं बचपण नालासोपारामां वीत्यु छे. केळांनी वाडीओ अने करमदांनां झुंड पुष्पळ प्रमाणमां त्यारे पण हता. बे स्तुतिनी श्री गुणविनय कृत टीका सुन्दर छे. सम्पादकोए अभयदेवसूरि खरतरगच्छना न हता एवा विधानना टेकामां एक प्राचीन प्रतिमालेख टांक्यो छे परंतु ते लेखवाळा प्रतिमाजी क्यांना छे अथवा क्या पुस्तकमांथी ए लेख उद्धृत को छे ते नोंध्युं नथी- जे नोंध आपवी जरूरी गणाय. _अमदावादमा टंकशाळ विस्तारमा आवेला श्रेयांसनाथ भ० ना जिनालयना निर्माण-प्रतिष्ठानो ऐतिहासिक रास बहु रसप्रद छे. शेठ हठीसिंह-शेठाणी हरकुंवर जेवा श्रावकोनी भावना, ऐश्वर्य, मोभो वगेरेनी तेमज अमदावादनी त्यारनी परिस्थिति, कम्पनी सरकारनो वहीवट वगेरेनी जाणकारी आमां मळे 'गुणकित्त्व षोडशिका' व्याकरणप्रेमीओ माटे रसथाळ समान छे. 'मूरीबाइ तेरमासो'मां एक त्यागी-तपस्वी आर्याना सुन्दर गुणग्राम जोवा मळे छे. मास ११,क. ४मां 'सर्पनुं खोखं' शब्द छे, सम्पादिकाए, तेनो अर्थ 'सर्पनी कांचळी' को छे, परंतु एनो अर्थ 'सापर्नु खोखलुं थई गयेलुं शरीर' एवो करवो जोईए एम लागे छे. ___'प्रकीर्ण स्तवनो'मा अन्तिम स्तवनमा ‘चिरयछि' शब्द छे, तेनो अर्थ कीरमजी (एक जातनुं कापड़) एवो लख्यो छे. आ ज स्तवननी एक अन्य प्रत ते पछी मळी तेमां 'चिरमठि' शब्द छे. मगनभाई देसाईना 'हिन्दी-गुजराती Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान-५७ शब्दकोश'मां 'चिरमि' शब्द छे जेनो अर्थ 'चणोठी' त्यां आपेलो छे. स्तवनमां आ अर्थ संगत पण थाय छे. आथी चिरमठि = चणोठी नक्की थाय छे. मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो शास्त्रीयविषय परनो अभ्यासलेख'दर्शन विशे विचारणा' एकाग्रतापूर्वक पठन माटे बाध्य करे छे. मुनिश्रीनी तात्त्विक विषय परनी पकड प्रशंसनीय छे. आवा गम्भीर लेखमां चर्चित विषयनो सार संक्षेप लेखना अन्ते आपवानी एक परिपाटी छे जे सामान्य वाचक माटे उपकारक छे. तर्को अने निष्कर्षोने संक्षिप्त रूपे तारवीने लेखना छेडे मूकवाथी चर्चित विषय वाचकना मनमां स्थिर थाय छे. मुनिश्रीने विनंति के आगामी लेखोमां आ परिपाटी अपनावे. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ११७ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता जैनसाहित्य के सन्दर्भ में - डॉ. सागरमल जैन भारतीय इतिहास में अवन्तिकाधिपति विक्रमादित्य का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । मात्र यही नहीं, उनके नाम पर प्रचलित विक्रम संवत का प्रचलन भी लगभग सम्पूर्ण देश में है। लोकानुश्रुतिओ में भी उनका इतिवृत्त बहुचर्चित है। परवर्ती काल के शताधिक ग्रन्थो में उनका इतिवृत्त उल्लेखित है । फिरभी उनकी ऐतिहासिकता को लेकर इतिहासज्ञ आज भी किसी निर्णयात्मक स्थिति में नहीं पहुंच पा रहे है। इसके कुछ कारण है- प्रथम तो यह कि विक्रमादित्य बिरुद के धारक अनेक राजा हुए है अतः उनमें से कौन विक्रम संवत का प्रवर्तक है, यह निर्णय करना कठिन है, क्योंकि वे सभी ईसा की चौथी शताब्दी के या उसके भी परवर्ती है । दूसरे विक्रमादित्य मात्र उनका एक बिरुद है, वास्तविक नाम नहीं है । दूसरे विक्रमसंवत के प्रवर्तक विक्रमादित्य का कोईभी अभिलेखीय साक्ष्य ९वीं शती से पूर्व का नहीं है । विक्रम संवत के स्पष्ट उल्लेख पूर्वक जो अभिलेखीय साक्ष्य है वह ई. सन् ८४१ (विक्रमसंवत् ८९८) का है। उसके पूर्व के अभिलेखो में यह कृतसंवत या मालव संवतके नाम से ही उल्लेखित है । तीसरे विक्रमादित्य के जो नवरत्न माने जाते है, वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विभिन्न कालों के व्यक्ति है। विक्रमादित्य के नाम का उल्लेख करनेवाली हाल की गाथासप्तशती की एक गाथा को छोड़कर कोईभी साहित्यिक साक्ष्य नवीं-दसवीं शती के पूर्व का नहीं है । विक्रमादित्य के जीवनवृत्तका उल्लेख करनेवाले शताधिक ग्रन्थ है, जिनमें पचास से अधिक कृतियाँ तो जैनाचार्यों द्वारा रचित है। उनमें कुछ ग्रन्थो को छोड़कर लगभग सभी बारहवीं-तेरहवीं शती के या उससे भी परवर्ती कालके है । यही कारण है कि इतिहासज्ञ उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में सन्दिग्ध है। किन्तु जैन स्रोतों से इस सम्बन्ध में विक्रमादित्य जो सूचनाएँ उपलब्ध Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ है, उनकी विश्वसनीयताको पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता है । यह सत्य है कि जैनागमों में विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है । जैनसाहित्य में विक्रमसंवत प्रवर्तक विक्रमादित्य का सम्बन्ध दो कथानकों से जोड़ा जाता है - प्रथम तो कालकाचार्य की कथा से और दूसरा सिद्धसेन दिवाकरके कथानक से । इसके अतिरिक कुछ पट्टावलियों में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है । उनमें यह बताया गया है कि महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत का प्रवर्तन हुआ और यह मान्यता आज बहुजन सम्मत भी है । यद्यपि कहीं ४६६ वर्ष और ४५ दिन पश्चात् विक्रम संवत का प्रवर्तन माना गया है । तिलोयपण्णत्ति का जो प्राचीनतम (लगभग-पांचवी - छठ्ठी सदी) उल्लेख है । उसमें वीरनिर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् शकराजा हुआ ऐसा जो उल्लेख है उसके आधार पर यह तिथि अधिक उचित लगती है- क्योंकि कालक कथाके अनुसार भी वीरनिर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् कालकसूरिने गर्दभिल्ल को सत्ता से च्युत कर उज्जैनी में शक शाही को गद्दी पर बिठाया और चार वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्यने उन्हें पराजित कर पुनः उज्जैन पर अपना शासन स्थापित किया। दूसरी बार पुनः वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष और पांच माह पश्चात् शकोने मथुरा पर अपना अधिकार - शक शासनकी नीव डाली और शकसंवत् का प्रवर्तन किया । इस बार शको का शासन अधिक स्थायी रहा । इसका उन्मूलन चन्द्रगुप्त द्वितीयने किया और विक्रमादित्य का बिरुद धारण किया । मेरी दृष्टिमें उज्जैनी के शक - शाही को पराजित करनेवाले का नाम विक्रमादित्य था, जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय की यह एक उपाधि थी । प्रथम ने शको से शासन छीनकर अपने को 'शकारि' बिरुद से मण्डित किया था । क्योंकि शकों ने उसके पिता का राज्य छीना था अतः उसके शक अरि या शत्रु थे अतः उसका अपने को ‘शकारि' कहना अधिक संगत था । दूसरे विक्रमादित्यने अपने शौर्य से शकों को पराजित किया था अतः विक्रम = पौरुष का सूर्य था । ११८ यद्यपि निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा विस्तार से उपलब्ध है किन्तु उसमें गर्दभिल्ल द्वारा कालक की बहिन साध्वी सरस्वती के Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ अपहरण, कलकाचार्य द्वारा सिन्धुदेश (परिसकूल) से शको को लाने गर्द भिल्ल की गर्दभी विद्या के विफल कर गर्दभिल्ल को पराजित कर और सरस्वती को मुक्त कराकर पुनः दीक्षित करने आदि के ही उल्लेख है । उसमे विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है । जैनसाहित्य में विक्रमादित्य सम्बन्धी हमें जो रचनाए उपलब्ध है उनमें बृहत्कल्पचूर्णि (७वी शती) प्रभावक चरित्र (१२३७ इ.), प्रबन्धकोश (१३३९), प्रबन्ध चिन्तामणि (१३०५ ई.), पुरातनप्रबन्धसंग्रह, कहावली (भद्रेश्वर), शत्रुञ्जय महात्म्य, लघु शत्रुञ्जयकल्प विविधतीर्थकल्प (१३३२), विधिकौमुदी, अष्ठाह्निकव्याख्यान, दुषमाकालश्रमण संघस्तुति, पट्टावली सारोद्धार, खरतरगच्छसूरि परम्परा प्रशस्ति, विषापहारस्तोत्र भाष्य, कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाष्य, सप्ततिकावृत्ति, विचारसारप्रकरण, विधिकौमुदी, विक्रमचरित्र आदि अनेक ग्रन्थ है, जिनमें विक्रमादित्य का इतिवृत्त किञ्चित् भिन्नताओं के साथ उपलब्ध है । खेद मात्र यही है ये सभी ग्रन्थ प्राय: सातवीं शती के पश्चात् के है | यही कारण है कि इतिहासज्ञ इनकी प्रामाणिकता पर संशय करते हैं । किन्तु आचार्य हस्तीमलजी ने दस ऐसे तर्क प्रस्तुत किये है, जिससे इनकी प्रामाणिकता पर विश्वास किया जा सकता है । उनके कथन को मैंने अपनी शब्दावली आगे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । (देखे - जैनधर्म का मौलिक इतिहास खण्ड २ पृ. ५४५-५४८) I ११९ (१) विक्रमसंवत आज दोसहस्राब्दियों से कुछ अधिक काल से प्रवर्तित है आखिर इसका प्रवर्तक कोई भी होगा - बिना प्रवर्तक के इसका प्रवर्तन तो सम्भव नहीं है और यदि अनुश्रुति उसे 'विक्रमादित्य' (प्रथम) से जोडती है तो उसे पूरी तरह अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है I मेरी दृष्टि में अनुश्रुतियाँ केवल काल्पनिक नहीं होती है । (२) विक्रमादित्य से सम्बन्धित अनेक कथाएँ आज भी जनसाधारण में प्रचलित है, उनका आखिर कोई तो भी आधार रहा होगा । केवल उन आधारों को खोज न पाने की अपनी अक्षमता के आधार पर उन्हें मिथ्या तो नहीं कहा सकता है । जिस इतिहास का इतना बडा जनाधार है उसे सर्वथा मिथ्या कहना भी एक दुस्साहस ही होगा । (३) प्राचीन-प्राकृत ग्रन्थ गाथासप्तशती, जिसे विक्रमकी प्रथम - द्वितीय शती Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-५७ में सातवाहनवंशी राजा हाल ने संकलित किया था उसमें विक्रमादित्य की दानशीलता का स्पष्ट उल्लेख है । यह उल्लेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य के सम्बन्ध में या उससे परवर्ती अन्य विक्रमादित्य उपाधिधारी किसी राजा के सम्बन्ध में नहीं हो सकता है, क्योंकि वे इस संकलन से परवर्ती काल में हुए है अतः विक्रम संवत् की प्रथम शती से पूर्व कोई अवन्ती का विक्रमादित्य नामक राजा हुआ है यह मानना होगा । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि विक्रमादित्य हाल के किसी पूर्वज सातवाहन वंशी राजा से युद्धक्षेत्र में आहत होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे । वह गाथा निम्न है संवाहणसुहरसतोसिएण, देन्तेण तुह करे लक्खं । चलणेण विक्कमाइच्च चरिअमणुसिक्खिअं तिस्सा | गाथा सप्तशती ४६४ सातवाहनवंशी राजा हाल के समकालीन गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में बृहत्कथा की रचना की थी । उसी आधार पर सोमदेव भट्टने संस्कृत में कथासरित्सागर की रचना की - उसमें भी विक्रमादित्य के विशिष्ट गुणों का उल्लेख है (देखें - लम्बक ६ तरङ्ग १ तथा सम्बक १८ तङ्ग १) (५) भविष्यपुराण और स्कन्दपुराण में भी विक्रम का जो उल्लेख है, वह नितान्त काल्पनिक है - ऐसा नहीं कहा जा सकता है । भविष्यपुराण खण्ड २ अध्याय २३ में जो विक्रमादित्य का इतिवृत्त दिया गया है वह लोकपरम्परा के अनुसार विक्रमादित्य को भर्तृहरि का भाई बताती है तथा उनका जन्म शकों के विनाशार्थ हुआ ऐसा उल्लेख करता है । अत: इस साक्ष्य को पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है । (६) गुणाढ्य (ई.सन् ७८ ) द्वारा रचित बृहत्कथा के आधार पर क्षेमेन्द्र द्वारा रचित बृहत्कथा मञ्जरी में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है । उसमें भी म्लेच्छ, यवन, शकादि को पराजित करनेवाले एक शासक के रूप में विक्रमादित्य का निर्देश किया गया है । (७) श्री भागवत स्कन्ध १२ अध्याय १ में जो राजाओं की वंशावली दी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १२१ गई है, उसमें दश गर्दभिनो नृपाः के आधार पर गर्दभिल्ल वंश के दस राजाओं का उल्लेख है । जैन परम्परा में विक्रम को गर्दभिल्ल के रूप में उल्लेखित किया गया है । (८) विक्रम संवत के प्रवर्तन के पूर्व जो राजा हुए उसमें किसीने विक्रमादित्य ऐसी पदवी धारण नहीं की । जो भी राजा विक्रमादित्य के पश्चात् हुए है- उन्होंने ही विक्रमादित्य का बिरुद धारण किया है - जैसे सातकर्णी गौतमीपुत्र (लगभग ई० सन् प्रथम - द्वितीय शती) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (ई. चतुर्थशती) आदि - उन्होंने विक्रमादित्य की यशोगाथा को सुनकर अपने को उसके समान बताने की यशोगाथा के अनुसार अपने को उसके समान बताने हेतु ही यह बिरुद धारण किया है । अत: गर्दभिल्लपुत्र विक्रमादित्य इनसे पूर्ववर्ती हैं । (९) बाणभट्ट के पूर्ववर्ती कवि सुबन्धु ने वासवदत्ता के प्रास्ताविक श्लोक १० में विक्रमादित्य की कीर्ति का उल्लेख किया है । (१०) ई०पू० की मालवमुद्राओ में मालवगण का उल्लेख है, वस्तुतः विक्रमादित्य ने अपने पितृराज्य पर पुनः अधिकार मालवगण के सहयोग से ही प्राप्त किया था, अतः यह स्वाभाविक था कि उन्होंने मालवसंवत के नाम से ही अपने संवत् का प्रवर्तन किया । यही कारण है कि विक्रम संवत् के प्रारम्भिक उल्लेख मालवसंवत् या कृत संवत के नाम से ही मिलते है । (११) विक्रमादित्य की सभा के जो नवरत्न थे, उनमें क्षपणक के रूप में जैनमुनिका भी उल्लेख है, कथानकों में इनका सम्बन्ध सिद्धसेन दिवाकर से जोडा गया है, किन्तु सिद्धसेन दिवाकरके काल को लेकर स्वयं जैन विद्वानों में भी मतभेद है, अधिकांश जैन विद्वान भी उन्हें चौथी - पाँचवी शती का मानते है, किन्तु जहाँतक जैन पट्टावलियों का सम्बन्ध है, उनमें सिद्धसेन का काल वीर निर्वाण संवत् ५०० बताया गया है, इस आधार पर विक्रमादित्य और सिद्धसेन की समकालिकता मानी जा सकती है । (१२) मुनि हस्तिमलजीने इनके अतिरिक्त एक प्रमाण प्राचीन अरबी ग्रन्थ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुसन्धान-५७ सेअरूल ओकूल (पृ. ३१५) का दिया था जिसमें विकरमतुन के उल्लेख पूर्वक विक्रम की यशोगाथा वर्णित है । इस ग्रन्थका काल विक्रम संवत् की चौथी - पाँचवी शती है । यह हिजरी सन् से १६५ वर्ष पूर्व की घटना है । इस प्रकार विक्रमादित्य (प्रथम) को मात्र काल्पनिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है । मेरी दृष्टि में गर्दभिल्ल के पुत्र एवं शकशाही से उज्जैनी के शासन पर पुनः अधिकार करने वाले विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति है, इसे नकारा नहीं जा सकता है । उन्होंने मालव गण के सहयोग से उज्जैनी पर अधिकार किया था । यही कारण है कि यह प्रान्त आज भी मालव देश कहा जाता है । I (१३) जैनपरम्परा में विक्रमादित्य के चरित्र को लेकर जो विपुल साहित्य रचा गया है, वह भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि किसी न किसी रूप विक्रमादित्य (प्रथम) का अस्तित्व अवश्य रहा है । विक्रमादित्य के कथानक को लेकर जैन परम्परा में निम्न ग्रन्थ रहा है । विक्रमादित्यके कथानक को लेकर जैन परम्परा में निम्न ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं (१) विक्रमचरित्र यह ग्रन्थ काशहृदगच्छ के देवचन्द्र के शिष्य देवमूर्ति द्वारा लिखा गया है । इसकी एक प्रतिलिपि में प्रतिलिपि लेखन संवत् १४९२ उल्लेखित है, इससे यह सिद्ध होता है यह रचना उसके पूर्व की है । इस ग्रन्थ का एक अन्य नाम सिंहासनद्वात्रिंशिका भी है । इसका ग्रन्थ परिमाण ५३०० है । कृति संस्कृत में है । - — (२) विक्रमाचरित्र नामक एक अन्य कृति भी उपलब्ध है । इसके कर्ता पं. सोमसूरि है । ग्रन्थ परिमाण ६००० है । (३) विक्रमचरित्र नामक तीसरी कृति साधुरत्न के शिष्य राजमेरु द्वारा संस्कृत गद्य में लिखी गई है । इसका रचनाकाल वि.सं. १५७९ है । (४) विक्रमादित्य के चरित्र से सम्बन्धित चौथी कृति ‘पञ्चदण्डातपत्र छत्र प्रबन्ध नामक है । यह कृति सार्धपूर्णिमा गच्छ के अभयदेव Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १२३ के शिष्य रामचन्द्र द्वारा वि.सं. १४९० में लिखी गई एक लघुकृति है। इसकी अनेक प्रतिया विभिन्न भण्डारों में उपलब्ध है। वेबर ने इसे १८७७ में बलिन से इसे प्रकाशित भी किया हैं। (५) पञ्चदण्डात्मक विक्रमचरित्र नामक अज्ञात लेखक की एक अन्य कृति भी मिलती है । इसका रचनाकाल १२९० या १२९४ है। पञ्चदण्ड छत्र प्रबन्ध नामक एक अन्य विक्रमचरित्र भी उपलब्ध होता है, जिसके कर्ता पूर्णचन्द्र बताये गये है। (७) श्री जिनरत्नकोश की सूचनानुसार - सिद्धसेन दिवाकर का एक विक्रमचरित्र भी मिलता है । यदि ऐसा है तो निश्चय ही विक्रमादित्य के अस्तित्व को सिद्ध करने वाली यह प्राचीनतम रचना होगी । केटलागस केटलोगोरम भाग प्रथम के पृ.सं. ७१७ पर इसका निर्देश उपलब्ध है । यह अप्रकाशित है और कृति के उपलब्ध होने पर ही इस सम्बन्ध में विशेष कुछ कहा जा सकता है। इसी प्रकार 'विक्रमनृपकथा' नामक एक कृति के आगरा, एवं कान्तिविजय भण्डार बडौदा में होने की सूचना प्राप्त होती है । कृति को देखे बिना इस सम्बन्ध में विशेष कुछ कहना सम्भव नहीं है। उपरोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त 'विक्रमप्रबन्ध' और विक्रम प्रबन्ध कथा नामक दो ग्रन्थों की और सूचना प्राप्त होती है । इसमें विक्रम प्रबन्धकथा के लेखक श्रुतसागर बताये गये है। यह ग्रन्थ जयपुर के किसी जैन भण्डार में उपलब्ध है । (१०) विक्रमसेनचरित नामक एक अन्य प्राकृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थ की भी सूचना उपलब्ध होती है । यह ग्रन्थ पद्मचन्द्र किसी जैनमुनि के शिष्य द्वारा लिखित है । पाटन केटलोग भाग १ के पृ. १७३ पर इसका उल्लेख है । (११) विक्रमादित्यचरित्र नामक दो कृतियाँ उपलब्ध होती है, उनमें प्रथम के कर्ता रामचन्द्र बताये गये हैं। मेरी दृष्टि यह कृति वही Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनुसन्धान-५७ है, जिसका उल्लेख पञ्चदण्डातपत्रछत्र प्रबन्ध के नाम से किया जा चुका है। दूसरी कृति के कर्ता तपागच्छ के मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य शुभशील बताये गये है। इसका रचनाकाल वि.सं. १४९० है। (१२) पूर्णचन्द्रसूरि के द्वारा रचित विक्रमादित्यपञ्चदण्ड छत्र प्रबन्ध नामक एक अन्य कृति का उल्लेख भी 'जिनरत्नकोश' में हुआ है । यह एक लघुकृति है इसके ग्रन्थाग्र ४०० है । (१३) 'विक्रमादित्य धर्मलाभादिप्रबन्ध' के कर्ता मेरुतुङ्गसूरि बताये गये है। इसे भी कान्तिविजय भण्डार बडौदा में होने की सूचना प्राप्त होती है। (१४) जिनरत्नकोश में विद्यापति के 'विक्रमादित्य प्रबन्ध' की सूचना भी प्राप्त है । उसमें इस कृति के सम्बन्ध में विशेष निर्देश उपलब्ध नहीं होते हैं। (१५) 'विक्रमार्कविजय' नामक एक कृति भी प्राप्त होती है । इसके लेखक के रूपमें 'गुणार्णव' का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार जैन भण्डारो से 'विक्रमादित्य से सम्बन्धित पन्द्रह से अधिक कृतियों के होने की सूचना प्राप्त होती है । इसके अतिरिक्त मरुगुर्जर और पुरानी हिन्दी में भी विक्रमादित्य पर कृतियों की रचना हुई है। इसमें तपागच्छ के हर्षविमल ने वि.सं. १६१० के आसपास विक्रम रास की रचना की थी। इसी प्रकार उदयभानु ने वि.सं. १५६५ में विक्रमसेन रास की रचना की । प्राच्यविद्यापीठ शाजापुर में भी विक्रमादित्य की चौपाई की अपूर्ण प्रति उपलब्ध है । इस प्रकार जैनाचार्यों ने प्राकृत संस्कृत, मरुगुर्जर और पुरानी हिन्दी में विक्रमादित्य पर अनेक कृतियों की रचना की है - ऐसी अनेको कृतियों का नायक पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं माना जा सकता है । प्राच्य विद्यापीठ दुपाडा रोड, शाजापुर (म.प्र.) ४६५००१ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १२५ नवां प्रकाशनो १. अप्रगट प्राचीन गूर्जर साहित्य संचय. सं. विरागरसाश्री, डॉ. कविन शाह; प्र. ओंकारसूरि आराधना भवन-सूरत; सं. २०६७ केटलीक मध्यकालीन गुर्जर रचनाओर्नु संकलन आमां थयुं छे. नाममां 'अप्रगट' शब्द छे, परन्तु केटलीक रचनाओ तो पूर्वे 'अनुसन्धान'मां प्रगट थयेली छे; तेनो निर्देश थयो होत तो योग्य थात. सम्पादकोनी साहित्यिक रुचि ज आवां संकलनमां प्रेरकबळ गणाय. २. पार्श्वनाथचरित्रम् कर्ता : हेमविजयगणि; सं. हितवर्धनविजय; प्र. कुसुमअमृत ट्रस्ट-वापी; सं. २०६७ संस्कृत काव्यात्मक आ ग्रन्थ वि.सं. १९७२मां बनारसथी प्रगट थयेल, तेनुं पुनः प्रकाशन. सम्पादकनो दावो छ के ग्रन्थकारे करेली शास्त्रीय भूलोनुं तेमणे सम्मार्जन कर्यु छे. सम्पादकनां पूर्व-सम्पादनोनी माफक ज आ ग्रन्थ माटेनो पण तेमनो आ दावो हास्यास्पद ज गणाय तेवो छे. एक तरफ प्रस्तावनामां जैन साधु असत्य बोले ज नहि - तेवू प्रतिपादन, वगर कारणे, अभिनिवेशपूर्वक, सम्पादके कर्यु छे. अने पछी तरत ज ग्रन्थकारे आगमथी विरुद्ध लख्युं छे त्यां पोते सम्मार्जन कर्यु होवानुं ते जणावे छे. केवो विरोधाभास लागे ! सम्पादके ४६ टिप्पणीओ करी छे. तेमांनी केटलीक शास्त्रसम्बन्धित तो केटलीक व्याकरणनी भूलो अंगे छे. आमां जे जे स्थळे 'आ अनागमिक' - आगमविरोधी छे, एवं सम्पादके नोंध्युं छे, त्यां क्यांय आगमथी विरुद्ध वात ग्रन्थकारे कही ज नथी. ___ ग्रन्थकारोनी अपेक्षा तथा आशय समज्या वगर, कोई पण बाबत परत्वे प्राचीन ग्रन्थोमां अनेक मतमतान्तरो होय ते बधांने जाण्या वगर, ग्रन्थकारनी वातने अनागमिक, अशास्त्रीय के खोटी कही देवी, ए खरेखर तो पोतानी अणसमज अने अणआवडतनुं ज सूचक बनी रहे छे. थोडा दाखला लईए : Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनुसन्धान-५७ १. पृ. ७४, श्लोक ३०९ मां "ध्यायन्नत्र व्रत इव व्रती" एवो पाठ छे, त्यां सम्पादके टि. करी छे : “अत्र 'व्रतमिव' इत्यपेक्ष्यते". अहीं 'व्रते इव व्रती' एम स्पष्ट पाठ छे ते पण ते समजमां नहि आव्यो होय ? २. पृ. ५६, १४४मां श्लोकमां शैव-तापस तरीके दीक्षा लीधी तेवी वात छे, तेने जूठी ठरावतां सं. टि. करे छे के - "इदं विपरीतं, तदानीं तत्र च शैवमतस्याऽनुत्पत्तेः, अत्र 'मिथ्या' इति पदमपेक्ष्यते".- कूपमण्डूकतानुं आनाथी वधु श्रेष्ठ उदाहरण क्यां जडशे ? ३. पशु पण चारित्रनी भावनामां वर्ते तो भावथी साधु गणाय, तेवो व्यवहार शास्त्रोनो छे. गुणठाणुं न आवे ते बराबर, पण परिणति (अध्यवसाय/ भावना) तो संभवी ज शके, अने ते अपेक्षाए 'भावभिक्षु' तरीके ओळखाववामां कोई दोष नथी. परन्तु आ सादी वात सम्पादकने मंजूर नथी. तेओ पृ. ७८ना ३४७ मा पद्यनी टि. करतां नोंधे छे के - "तिर्यग्जातौ पञ्चमोत्तरगुणस्थानस्याऽभावादत्र 'भिक्षुभक्तित्व'मित्युचितं भासते". ग्रन्थकार आटली पण वात समजता नहोता- एवं साबित करवा माटे थयेली आ टि. वस्तुतः सं.नी समजण, माप ज आंकी बतावे छे. ४. पृ. ८४, ३९७. आ पद्यमां 'मुक्तिवान्' प्रयोग थयो छे. त्यां 'मुक्तिवा(मा)न्' आम करीए तो शुद्धि थई जाय छे. आम करवू ते मान्य पद्धति पण छे. परन्तु अहीं सं. ए टि. लखी के - "अत्र व्याकरणमालिन्यम्, 'मुक्तिमान्' इत्युचितम्". आ टि. ग्रन्थकारना गुरुमहाराज करे तो जरूर शोभे. पण गुरुजनो सुधारे, डहोळे नहीं ! ५. पृ. २०१, श्लोक ११० आ प्रमाणे छे : अर्हत्पेयपयः पुष्टस्तनयोरनयोश्च मा । दृक्पात इति तत्तुण्डे श्यामत्वं विदधे विधिः ॥ (अर्थात्, तीर्थंकर जेमांथी नीकळतुं दूध पीवाना छे तेवां (मातानां) बे स्तन उपर कोईनी कुदृष्टि (नजर) न लागे ते माटे ज, जाणे के, स्तननां डींटडां (जाणे के काळां-मेशनां टपकां) विधाताए श्याम निर्त्यां छे !) अहीं सम्पादकने भारे वांधो पडी गयो छे ! अर्हन्तो स्तनपान न करे एवी मर्यादा शास्त्रप्रसिद्ध छे. परन्तु माता- अङ्गवर्णन करता ग्रन्थकार लोकस्थितिने Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १२७ मनमा राखीने वर्णन करी रह्या छे. खरेखर तो हजी अर्हत् पार्श्व माताना उदरमां छे; जन्म पाम्या नथी, अने 'स्तनपान करे छे' एवं पण कविए कर्वा नथी. मात्र माता, स्तनमण्डल दूधछलकतुं होय, अने तेनुं पान अर्हत् करी शकेतेवी लोकव्यवहारमान्य सम्भावना ज आ पद्यथी प्रगट थाय छे. तो अहीं भयानक टि. सं. द्वारा आपणने मळे छे :- "इदमनागमिकम्, सर्वेषामप्यर्हतां स्तनपानस्याऽभावात् । वस्तुतः तीर्थकराशातनाकरत्वेनेदं श्लोकमेव निगृहितव्यं विद्वद्भिः ।" कविनी चमत्कृतिसभर कल्पनानो आस्वाद माणवाने बदले सं. कहे छे के 'आ वात अनागमिक छे; आ श्लोकथी 'जिन'नी आशातना थती होई तेने रद्द करी देवो घटे. ___जो के श्लोक शब्द पुंलिङ्गी छे, तेथी अहीं सं.ना वाक्यमां नपुंसक बनावी देनार सम्पादकजीनी सज्जता परत्वे शुं कहेवू ते समजाय तेम नथी. अस्तु. आटलुं विगते लखवा पाछळ सं.ने के अन्यने ऊतारी पाडवानो आशय नथी होतो. परन्तु अवास्तविक सम्मार्जन-संशोधन रोकवानो ज आशय छे. ज्यां सुधी परिकर्मित मति न बने त्यां सुधी आवां सम्पादनो पोताना जाणकार वडीलादिने देखाड्या विना ने तेमनी सम्मति विना प्रगट न करवां जोईए. ३. ऋषिदत्ताचरित्रसंग्रहः कर्ता : भिन्नभिन्नकर्तारः; सं. साध्वी चन्दनबालाश्री, पं. अमृत पटेल; प्र. भद्रङ्कर प्रकाशन अमदावाद; सं. २०६७, ई. २०११ __ ऋषिदत्ता ए जैन संघ- एक अमर पात्र छे. ते महासती स्त्री हतां. तेमनुं जीवन-कथानक घणुं रोचक, करुण तथा प्रेरक छे, तेथी तेमनें कथानक अनेक ग्रन्थकारोए पोताना ग्रन्थोमां के स्वतन्त्र रूपे आलखेलुं छे. ते पैकी छ विशिष्ट चरित्रोनो सङ्ग्रह आ ग्रन्थमां थयो छे. आमां प्रथम त्रण चरित्रो तो प्रथमवार ज सम्पादित थईने पुस्तकरूपे प्रकाशित थाय छे. सम्पादकोए प्राचीन ताडपत्र-हस्तप्रतोनो आधार लईने लिप्यन्तर करवापूर्वक आ त्रण कृतिओनुं सरस सम्पादन आप्युं छे. प्रथम चरित्र प्राकृतभाषाबद्ध अने पद्यात्मक छे. तेनी रचना ९मा-१०मा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-५७ शतकमां विद्यमान श्रीगुणपालगणिए करी छे. बीजी बे रचनाओ पण पद्यबद्ध ज छे, परन्तु ते संस्कृतमां रचाई छे, तथा तेना कर्ता अज्ञातप्राय छे. सम्पादकोनी नोंध प्रमाणे, बीजी रचना १५मा-१६मा शतकनी, अने त्रीजी रचना १३मा-१४मा शतकनी (१३३४ पूर्वेनी) जणाय छे. परिशिष्टरूपे ऋषिदत्तानां वसुदेवहिण्डी, आख्यानकमणिकोश तथा शीलोपदेशमाला-वृत्तिमां आलेखायेल ऋषिदत्ताचरित्रो आपेल छे. ऋषिदत्ताकथाना विकास, अध्ययन के पछी अन्य कोई पण प्रकारे तेनुं अध्ययन करनार अभ्यासी माटे आ रीते एक सुन्दर संकलन सम्पादकोए संपडाव्युं छे. ____ माहितीप्रद प्रस्तावना, कथासार, विविध परिशिष्टो आ बधांमां सम्पादकोनो अभ्यास तथा परिश्रम देखाई आवे छे. त्रण कथानकोना अलग अलग कथासार, जोके, अनावश्यक लागे. एकनो सार आपी, अन्य बेमां आवता नोंधपात्र फेरफारो के मुद्दा टिप्पणीमां नोंधी लेवामां होत तो पृष्ठो वेडफात नहि. उत्तम सम्पादन, प्रकाशन. ४. सम्मत्तम् ले. डॉ. भानुबेन सत्रा; प्र. अजरामर जैन सेवा संघ, मुम्बई. सं. २०६६, ई. २०१० १७मा शतकना प्रसिद्ध जैन श्रावक कवि ऋषभदासनी एक रासकृति 'समकितसार रास'ने आधारे जैनोने अभिमत एवा 'सम्यक्त्व' विषे लखायेलो शोधनिबन्ध; एना आलेखनथी लेखिकाने डॉक्टरेटनी पदवी प्राप्त थई छे. ___ ऋषभदास कवि विषे, प्रस्तुत रास विषे विस्तृत अने विशद अध्ययन थयेलं आ ग्रन्थमां जोवा मळे छे. रासमां आवता विविध धर्म-शास्त्रीय विषयो विषे परम्परागत जाणकारी आपवामां आवी छे. तेने लगतां केटलांक चित्रो पण आपेल छे. 'सम्यक्त्व' पदार्थने केन्द्रमा राखीने जैन तेमज अन्य दर्शनोनो तुलनात्मक अभ्यास दर्शावतुं एक प्रकरण पण छे. मूळ रासनी वाचना, तेनी आधारभूत हस्तप्रतनी फोटोकोपी, तथा उपयोगी परिशिष्टो धरावता शोधप्रबन्धने जोईने डॉ. भानुबेनना स्वाध्याय-श्रमनी अनुमोदना करवानुं मन थाय तेम छे. श्राविका बहेनो तथा साध्वी-सतीओमां आ प्रकारनी स्वाध्यायरुचि वधती जोवा मळे छे, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर 2011 129 ते पण आश्वासक बाबत छे. श्रावको तथा साधुवर्गमां आवी रुचि क्यारे उद्दीप्त थशे ? 5. जयन्तविजयमहाकाव्यम् कर्ता : अभयदेवसूरिजी, सम्पा. - चन्दनबालाश्रीजी, प्र.-भद्रंकर प्रकाशन - अमदावाद, वि.सं. 2067 नवाङ्गीटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीना चतुर्थ पट्टधर श्रीअभयदेवसूरिजीओ (द्वितीय) वि.सं. १२७८मां प्रस्तुत काव्यनी रचना करी छे. विविध छन्दोमय 1548 पद्योमां गूंथायेलुं आ महाकाव्य पोतानी अलङ्कृत शैली अने उदात्त भावभङ्गिमाने लीधे अनेक आकर्षण जन्मावे छे. राजा जयन्त अने तेनी समृद्धि तथा तेना विजयोनुं वर्णन तेमज ते द्वारा नमस्कारमन्त्रना महिमा- कीर्तन ओ आ काव्यनी प्रधान विषयवस्तु छे. आ काव्य आ पूर्वे ई.स. १९०२मां निर्णयसागर मुम्बईथी काव्यमालाना ७५मा मणकारूपे प्रसिद्ध थयुं हतुं. तेना सम्पादक पं. भवदत्त अने पं. काशीनाथ हता. आ पुस्तकना आधारे साध्वी श्रीचन्दनबालाश्रीजीओ काव्यनवेसरथी सम्पादन कर्यु छे. हस्तप्रतोना आधारे पाठसंशोधन अने 75 जेटली स्थाने त्रुटित पाठनी पूर्ति आ सम्पादन- मुख्य कर्म छे. नेमिचन्द्र शास्त्रीनी प्रस्तावना, सम्पादकीय, परिशिष्टो व.ने लीधे सम्पादन समृद्ध बन्युं छे. मुद्रण पण सुघड अने व्यवस्थित छे. उपेक्षित बनी रहेला आ महाकाव्यने प्रकाशमां लावीने साध्वीजीओ संस्कृतसाहित्यनी अनुपम सेवा बजावी छे ते निःशङ्क छे. 6. नन्दिसूत्रम् (मलयगिरीय टीका अने तेना आंशिक अनुवाद साथे) अनु.अजितशेखरसूरिजी, प्र.- अहँ परिवार ट्रस्ट - मुम्बई, वि.सं. 2067 परम मङ्गलभूत श्रीनन्दिसूत्रनी मलयगिरिजी भगवन्ते रचेली टीकार्नु संशोधनपूर्वक सम्पादन. प्रस्तुत टीकामां प्रथम त्रण मङ्गलगाथाना विवरणमां घणी घणी शास्त्रीय चर्चाओ निरूपाई छे. आ चर्चाओ, गुजराती भाषामां विस्तृत विवेचन आ ग्रन्थमां करवामां आव्युं छे. विद्यार्थीओ माटे उपकारक प्रकाशन.