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अनुसन्धान-५७
विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र
अद्यावधि अप्रगट अने चरित्रसाहित्य माटे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवी एक रचना- ऋषिमण्डलस्तव-अनुसन्धानना ५६मा अंकमां प्रकाशन पामी छे. आनी हस्तप्रति ताडपत्रीय छे अने श्री पुण्यविजयजी महाराजना अनुमान प्रमाणे १२मा शतकना उत्तरार्धनी छे. रचना तो ते पूर्वेनी होय. आथी ते ओछामां ओछा ८०० वर्ष पहेलांनी ठरे छे. कृतिनो विषय पूर्व महर्षिओनां नामकीर्तन अने गुणकीर्तननो छे. वर्तमानमां जेमनां नामो वीसराइ गयां छे तेवा केटलाक महामुनिओनां नाम आमां जोवा मळे छे अने केटलाक बहु जाणीता महामुनिओना जीवन विशेनी केटलीक नवी वातो पण आमां छे. सम्पादक श्री शीलचन्द्रसूरिजीए समग्र कृतिनुं अवलोकन करीने रसप्रद विगतो तारवी आपी छे. मात्र संशोधक विद्वानोए ज नहि, सर्व साधु-साध्वी वर्गे आ कृति वांचवा-विचारवा जेवी छे.
आना वाचनथी प्रेरणा मळशे अने इतिहास-परम्परा-संशोधननी बाबते प्रकाश पण मळशे. समयना प्रवाह साथे इतिहास भूलाय छे अने क्यांक कल्पनाना रंगो तेमां पूराय छे ए वात आवा दस्तावेजी आधारोना परिशीलनथी ज समजाय छे. प्राचीन साहित्यना अध्ययन-परीक्षण-संशोधननी उपयोगिता आ ज छे. आ अद्भुत कृतिना प्रकाशन बदल श्री शीलचन्द्रसूरिजीने शतशः धन्यवाद.
कृतिनो पाठ शुद्ध छे. गाथा २५२ अने २५३मां कीडाहिं शब्द छेजे 'कीडीहिं' होवानो संभव छे. २५१मी गाथामां 'कीडीहि' 'शब्द मळे ज छे. हस्तप्रतोमां दीर्घ ईकारवाळो अक्षर क्यारेक आकारान्त होवानो भास करावे छेडी अक्षर डा रूपे वंचायो होय एवं बनी शके. गा. २५७मां 'अग्गीय' छे त्यां 'अग्गीए' होवू घटे. 'ए' 'य' रूपे वंचायो होय. गाथा २३५मां 'तवयेय' छपायुं छे त्यां 'तवतेय' पाठ ठीक लागे.
रत्नाकरसूरिनी एक नवी रचना- 'रैवतकाद्रिमण्डन नेमिजिनस्तोत्र' तेना अनुप्रासो अने लालित्यथी हठात् 'रत्नाकरपञ्चविंशतिका', स्मरण करावे छे. १०८ वार 'संवर' शब्दनो जेमा प्रयोग थयो छे ते 'अभिनन्दन जिनस्तोत्र' चमत्कृतिवाली रचना छे.