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डिसेम्बर २०११
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नवां प्रकाशनो
१. अप्रगट प्राचीन गूर्जर साहित्य संचय. सं. विरागरसाश्री, डॉ. कविन शाह; प्र. ओंकारसूरि आराधना भवन-सूरत; सं. २०६७
केटलीक मध्यकालीन गुर्जर रचनाओर्नु संकलन आमां थयुं छे. नाममां 'अप्रगट' शब्द छे, परन्तु केटलीक रचनाओ तो पूर्वे 'अनुसन्धान'मां प्रगट थयेली छे; तेनो निर्देश थयो होत तो योग्य थात. सम्पादकोनी साहित्यिक रुचि ज आवां संकलनमां प्रेरकबळ गणाय.
२. पार्श्वनाथचरित्रम् कर्ता : हेमविजयगणि; सं. हितवर्धनविजय; प्र. कुसुमअमृत ट्रस्ट-वापी; सं. २०६७
संस्कृत काव्यात्मक आ ग्रन्थ वि.सं. १९७२मां बनारसथी प्रगट थयेल, तेनुं पुनः प्रकाशन. सम्पादकनो दावो छ के ग्रन्थकारे करेली शास्त्रीय भूलोनुं तेमणे सम्मार्जन कर्यु छे. सम्पादकनां पूर्व-सम्पादनोनी माफक ज आ ग्रन्थ माटेनो पण तेमनो आ दावो हास्यास्पद ज गणाय तेवो छे. एक तरफ प्रस्तावनामां जैन साधु असत्य बोले ज नहि - तेवू प्रतिपादन, वगर कारणे,
अभिनिवेशपूर्वक, सम्पादके कर्यु छे. अने पछी तरत ज ग्रन्थकारे आगमथी विरुद्ध लख्युं छे त्यां पोते सम्मार्जन कर्यु होवानुं ते जणावे छे. केवो विरोधाभास लागे !
सम्पादके ४६ टिप्पणीओ करी छे. तेमांनी केटलीक शास्त्रसम्बन्धित तो केटलीक व्याकरणनी भूलो अंगे छे. आमां जे जे स्थळे 'आ अनागमिक' - आगमविरोधी छे, एवं सम्पादके नोंध्युं छे, त्यां क्यांय आगमथी विरुद्ध वात ग्रन्थकारे कही ज नथी.
___ ग्रन्थकारोनी अपेक्षा तथा आशय समज्या वगर, कोई पण बाबत परत्वे प्राचीन ग्रन्थोमां अनेक मतमतान्तरो होय ते बधांने जाण्या वगर, ग्रन्थकारनी वातने अनागमिक, अशास्त्रीय के खोटी कही देवी, ए खरेखर तो पोतानी अणसमज अने अणआवडतनुं ज सूचक बनी रहे छे. थोडा दाखला लईए :