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निरीक्षणो/निष्कर्षो विषे यद्वातद्वा के आडेधड पोताना अभिप्राय लखी वाळे ! एम मानीने के अमे आवा धुरन्धरोनी पण भूल काढी बताडी !
स्वाध्यायनी ऊणप होय त्यां 'स्वीकार'नी भूमिका क्यारेय न रचाय. परम्परागत मान्यता तथा वातोने बदलती ने उथलावती वात, कोई शोधक, प्रमाणो साथे रजू करे; क्यारेक विमर्शरूपे तो घणीवार निष्कर्षरूपे; त्यारे आवा अधकचरा संशोधक बन्धुओ, प्रमाणो के तर्कसंगति विना ज, पोताना प्रतिभावो व्यक्त करीने पेला संशोधननो निषेध/अस्वीकार करी बेसे छे. 'स्वीकार' माटे होवो जोईतो मध्यस्थभाव ए लोको पासे नथी होतो. परिणामे उत्तम, उपयुक्त अने महत्त्वपूर्ण संशोधनोथी पण एवा लोको वेगळा ज रही जाय छे.
संशोधन जेटलुं अगत्यनुं छे, ते करतां वधु अगत्यनुं छे शोधक मानस. शोधक मानस एटले खुल्लू मानस, मध्यस्थ मानस; कोई पण बाबतनो, संकुचित अने आग्रही/पक्षपाती दृष्टिथी, स्वीकार के इन्कार नहि करी देनारुं मानस. विपुल मात्रामां वांचन-स्वाध्याय, सातत्यपूर्ण परिशीलन-अनुप्रेक्षा अने तेना फलरूपे जागती उदार दृष्टि - ए ज आवा मानसर्नु उपादान बनी शके छे.