Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ४२९) A अनुसंधान श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि S २५ TAS कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद 2003 dain Electioneintervallona por Friva personal use only jainerbralioreye 22 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादकः विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद सप्टेम्बर, २००३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि संपर्क : अनुसंधान २५ C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद - ३८०००७ प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद - ३८०००७ मुद्रक : मूल्य : Rs. 50-00 (२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद - ३८०००१ क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ ( फोन : ०७९-७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन जैन धर्म पासे तेनां आगवां शास्त्रो-आगमो छ, स्वतन्त्र दर्शन छ, मान्यताओ अने परंपरा छे, क्रियाकाण्ड तथा अनुष्ठानो छे, साधना-पद्धति छे. आथी, स्वाभाविक रीते ज, ते बधां परत्वे आगवी परिभाषा एटले के पारिभाषिक शब्दावली पण, जैन धर्म धरावे छे. आम तो प्रत्येक दर्शन, धर्म तथा सम्प्रदाय पासे पोतानी विशिष्ट परिभाषा अने शब्दावली होय ज छे, जेना अर्थ तथा तात्पर्य समजवानू, ते धर्मथी जुदी मान्यता धरावनार व्यक्ति/विद्वान् माटे, अटपटुं तथा कठिन पडतुं होय छे. आम छतां, 'जैन' परिभाषा वधु जटिल, कठिन तथा अटपटी छे तेवो सूर व्यापक रूपे सांभळवा मळ्या करे छे. कदाच आ कारणे ज, घणा घणा विद्वानो तथा जिज्ञासुओ, जैन धर्ममां रस होवा छतां, तेनाथी अळगा रही जता होवानी के दूर रहेवू पडतुं होवानी फरियाद पण सतत संभळाया करे छे. आ फरियादनो उकेल आणवानो एकमात्र अने श्रेष्ठ उपाय छे, जैन पारिभाषिक शब्दार्थकोश निर्माण. जैन धर्म-सम्प्रदाय साथे संकळायेल रोजिंदा कर्मकाण्डो, अनुष्ठानो तथा व्यवहारोमा प्रयोजाता शब्दोनो एक सरस संग्रह होय, अने तेना गुजराती, हिन्दी तथा खास तो अंग्रेजी अर्थो तथा पर्यायशब्दो होय, एवा एक कोशनी आजे अनिवार्य आवश्यकता वरताय छे. जैन धर्ममा प्रयोजाता दार्शनिक अने शास्त्रीय शब्दो तथा तेना अर्थोनो समावेश करता 'जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश' जेवा शब्दकोशो तो आजे पण प्राप्त छे ज, अने तेनी उपयोगिता-उपकारकता पण घणी छे, तेमा शंका नथी. परन्तु अहीं जे आवश्यकता दर्शाववामां आवे छे, ते तो मुख्यत्वे जैन धर्मना व्यवहारोमा उपयुक्त शब्दोना कोशात्मक संग्रहनी छे. आवो कोश रचवा, काम, जो थोडाक अभ्यासी जैन विद्वानो मळीने करवा धारे, तो अवश्य थई शके तेवू काम छे. ___ आजकाल आपणे त्यां अनेक लोको M.A., Ph.D. थता जोवा मळे छे : जेमनो विषय जैन धर्म-सम्बद्ध होय छे. खास करीने साध्वीसमुदायमां Ph.D. थनारो वर्ग विपुल छे. आ वर्ग Ph.D. थया पछी पोताना अध्ययन पर महदंशे पूर्णविराम मूकी देतो होय छे. पछी ते वर्ग कां तो धार्मिक-सामाजिक प्रवृत्तिओमां, कां तो प्रवचनव्याख्यान- दायित्व संभाळवामां जोडाई जतो होय छे. परन्तु, आवा Ph.D. थनार वर्गमांना थोडाक जण, जो पोतानी अध्ययनप्रियताने उद्दीप्त राखे, अने आ प्रकारना कोशनी रचना जेवा अध्ययन-संशोधननां कार्य हाथ पर ले, तो जैन धर्मनी मोटी सेवा करी शके अने जैन धर्मना प्रचार-प्रसारमा घणो वेग आवी शके. - शी. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. श्रीसिद्धसेनसूरि रचित सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १ _ 'सिद्धमातृका' प्रकरण मुनि धुरन्धरविजयजी २. श्रीमुनीश्वरसूरिकृत प्रमाणसारः ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १८... ३. श्रीराणभूमीशवंशप्रकाशः सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ४४ ४. भुवनहिताचार्यकृत : . सं. म. विनयसागर ५३ चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् ॥ ५. मुनि भुधररचित सरस्वती बार मासो ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ५९ ६. श्रीदयाकुशलकृत लाभोदय रास ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ७. श्रीमुनिचन्द्रसूरिगुरुगुणगहुंली ॥ सं. आ. प्रद्युम्नसूरि ८. वाचक मुक्तिसौभाग्यगणि कृत डॉ. अभय दोशी स्तवनचोवीसी ९. विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र १०. पत्रचर्चा : महोपाध्याय सहजकीर्ति म. विनयसागर १०३ ११. स्वाध्याय : श्रीमद्हरिभद्राचार्यरचित स्वोपज्ञवृत्तियुत पञ्चवस्तुक प्रकरणमांथी पसार थतां जडेलु विजयशीलचन्द्रसूरि १२. ढूंक नोंध : (१) जैन धर्म विशे भ्रान्त धारणाओ (२) 'पतियाला' ना राजमहेलमां जैन भीतचित्र (३) ते धन्ना० स्तोत्र विषे १०६ -x Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धसेनसूरि रचित 'सिद्धमातृका' प्रकरणनी भूमिका सं. विजयशीलचन्द्रसूरि मुनि धुरन्धरविजयजी आचार्य श्रीसिद्धसेनसूरिजी कृत सिद्धमातृकाधर्मप्रकरणनी मूल कृति अहीं प्रस्तुत छे. आ कृति अर्थगम्भीर छतां प्रसन्न छे... ___ 'अ' थी प्रारंभीने 'क्ष' सुधीना वर्णोनी माळाने प्राचीन महापुरुषो सिद्धमातृका कहे छे. जगतनो समग्र व्यवहार भाषाथी ज चाले छे. अने ते भाषानी जननी आ सिद्धमातृका छे. सिद्धमातृका एटले अविनाशी एवी जगज्जननी अक्षरमातृका, जे क्यारे पण नाश पामती नथी. ___ आ सिद्धमातृकाना प्रारंभमां भले मींडी, ४ नमः सिद्ध-अने अंतमा मङ्गलं महाश्रीः । आवतुं. आ आकृतिने प्राचीन कालथी 'भले मिंडी' कहे छे. एने कुण्डलिनी रूपे आ रचनामां अने अन्यत्र पण आ प्रकारनी रचनामां वर्णवी छे. आ आकृति माटे 'भले' शब्द ज केम वपरायो ते आम्नायना अभावना कारणे समजातुं नथी. पण अत्यन्त प्राचीनकाळथी आ रीते ज ओळखाय छे. आ शब्द परम मांगलिक छे. माटे वार्तालापना व्यवहारमा स्वीकारना अर्थमां आपणे खूब ज व्यापकताथी 'भले' शब्दनो उपयोग करीए छीए. सिद्धं शब्दनो उपयोग 'क्यां' ने बदले 'शीद' आ अपभ्रष्ट रूपे करीए छीए. ___ जैन तान्त्रिकोना मते अर्ह ए शब्दब्रह्म छे. तेमांथी कुण्डलिनी शक्तिनुं जागरण, तेमांथी अनादि संसिद्ध वर्णमातृकानुं प्रागट्य - आ वैश्विक क्रम छे. आ रचनामां पूज्य आचार्यश्री 'अहँ' 'भले मिंडी' 'ॐ नमः सिद्धं' पछी वर्णमाला - आ क्रमथी ज रहस्य उपर प्रकाश पाथरे छे. आ रचनाना १ थी ६२ सुधीना श्लोको अत्यन्त अर्थगम्भीर रहस्योथी भरेला छे. जेमां ग्रन्थकार 'अहं' 'भले मिंडी' अने 'ॐ नमः सिद्धं नुं Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ अद्भुत स्वरूप वर्णवे छे. जेमां अध्यात्मरसिकोने खूब ज रस पडे तेवू छे. पछीना श्लोकोमा अ थी लईने ह सुधीना वर्णो उपर चिन्तन छे. अ थी लईने क्ष सुधीना वर्णोना माध्यमथी थतां जापने तान्त्रिको अक्षमाळा कहे छे. आ रचनामां ॐ नमः सिद्धं' थी क्ष सुधीना ५६' वर्णोने ५६ दिक्कुमारिका साथे सरखाव्या छे. (श्लोक ४५). अरिहन्त परमात्मा शब्द ब्रह्मस्वरूप छे. एमनुं सर्वप्रथम सूतिकाकर्म ५६ दिक्कुमारी ज करे छे. इन्द्रनो अधिकार पण पछीना क्रमे छे. आ घटना कोक वैश्विक रहस्य तरफ आंगळी चीधे छे. सिद्धमातृकाने विश्वसंरचना साथे मूळभूत गूढ सम्बन्ध छे, ए वात आ रचना उपरथी समजाय छे. बाकी आनुं हार्द तो कोक गुरुगमप्राप्त साधक ज समजावी शके. 'महावीरनुं निशाळगरj' नामथी मळती प्राचीन हस्तप्रतोमां 'भले मिडी'थी लइने सम्पूर्ण वर्णमातृकाना आध्यात्मिक अर्थो प्रतीकोथी प्रगट करवामां आव्या छे. आजथी ६०/७० वर्ष पहेलां राजस्थाननी पोशाळोमां आ रीते ज बाराखडी (वर्णमाळा) भणाववामां आवती हती, एम जूना माणसो कहे छे.. ___ एवी अनुश्रुति छे के प्रभु महावीर निशाळे बेठा त्यारे इन्द्रे जे प्रश्नो कर्या तेना जे उत्तर ते ज आ निशाळगरणुं छे. तेमां प्रभुए वर्णमातृकानां रहस्यो प्रगट कर्यां छे. ___ आ सिद्धमातृका प्रकरण अने निशाळगरणुं बनेमां प्रतिपादनहुँ जबरदस्त साम्य छे. आ सिवाय पण व्रज अने जूनी गुजरातीमां वर्णमाळाना '५२' अक्षरोना आधारे घणी बधी बावनी लखाणी छे - किशन बावनी, ब्रह्म बावनी, अक्षर बावनी आदि. संस्कृत अने देश्यभाषामां आवी वर्णमातृका अंगेनी घणी बधी गूढ रचनाओ मळे छे. पूज्य उपाध्याय श्रीमेघविजयजी म., जे गूढतत्त्वोना वेत्ता हता, एमणे पण मातृकाप्रसाद नामनो विराट ग्रन्थ रच्यो छे जे ५० पत्र प्रमाण छे. अमुद्रित अने अप्राप्य छे. एनी एक ज नकल में एक स्थाने जोई छे. पण मालिक ए प्रतने दबावीने बेठो छे. पू. सिद्धसेनसूरि रचित बीजी पण बे रचना मळे छे. एक छे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 नमस्कार माहात्म्य अने एक छे शक्रस्तव आ त्रणे रचनाओमां भाषासाम्य, पदार्थ - विवेचनासाम्य आंखे उडीने वळगे एवं छे. आ बने रचना स्वतन्त्र तथा नमस्कार स्वाध्याय भाग - २ संस्कृत विभागमां मुद्रित छे. शक्रस्तवनुं 'जिनो दाता जिनो भोक्ता' नमस्कार माहात्म्यना प्रारम्भमां ज छे. सिद्धसेनाधिनाथ' शब्दनो प्रयोग शक्रस्तवनी जेम नमस्कार महात्म्यना प्रारम्भमां ज छे. सिद्धमातृकामां श्लोक ५१ थी ५५ ने शक्रस्तवना आलापक साथे सरखावी शकाय. आ त्रणे रचनाना कर्ता सिद्धसेन एक ज छे, ए वात ऊंडाणथी त्रणे रचनानो अभ्यास करवाथी दीवा जेवुं स्पष्ट समजाशे. नमस्कार महात्म्यना अन्तिम श्लोकोमां आ कर्ता, एनी रचना क्यां थई तेनो स्पष्ट उल्लेख करे छे. "सिद्धसेनसरस्वत्या सरस्वत्यापगातटे । श्रीसिद्धचक्रमाहात्म्यं गीतं श्रीसिद्धपत्तने ॥ " नमस्कार माहात्म्यनी रचना सरस्वतीनदीना किनारे सिद्धपत्तन एटले सिद्धपुर पाटणमां थई छे. बस आ सिवाय स्थळ-काळनो कोई उल्लेख आ रचनामां नथी, के नथी गुरुपरंपरानो उल्लेख. पण आ आचार्य सिद्धसेन नमस्कार मन्त्रना महान् साधक छे. मन्त्रमर्मज्ञ छे, ए वात निःशंक छे. हवे आ रचनाकार सिद्धसेन दिवाकर छे, के सिद्धर्षि छे, के प्रवचन सारोद्धार टीकाना कर्ता आचार्य सिद्धसेन छे, के तत्त्वार्थ टीकाना कर्ता सिद्धसेन छे ए प्रश्न छे. के आ बधाथी अलग कोई अज्ञात साधक आचार्य सिद्धसेन छे जे १३मी सदीमां होय ? मने पोताने तो आ त्रणे रचना प्रायः उपमितिभवप्रपंचाना कर्ता सिद्धर्षिनी होय तेम लागे छे. उपमितिना श्लोको साथे आ श्लोकोने सरखावी शकाय. श्रीचन्द्र केवलीचरित्र पण एज सिद्धर्षिनी रचना गणाय छे. 'अर्हं - अक्षरतत्त्वस्तव' धर्मोपदेशमालाप्रकरण (जयसिंहसूरिकृत, रचना संवत् ९१५ सिंघी जैन ग्रन्थमाला अने नमस्कार स्वाध्याय भा. - २ पत्र २१ थी २४) एनी साधे पण आ मातृका प्रकरणनी तुलना करी शकाय भाषाकीय दृष्टिए आ ग्रन्थ ९ थी १४मा सैका वच्चेनो मने लागे छे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ श्रीरत्नचन्द्रकृत मातृकाप्रकरण पण मळे छे जेनी प्रति आ. यशोदेवसूरि म. ना संग्रहमां छे. अमुद्रित छे. - मुनि धुरन्धरविजय समृद्धि एपार्ट. नजीक 'अरिहंत' डीसा- ३८५५४५ 'मातृका, वर्णमाला, कक्को, बाराखडी' - आने विषय बनावीने थती रचनाओ, पगेरुं बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर', मतङ्गमुनिकृत संगीतग्रन्थ 'बृहद्देशी' तथा सोमेश्वरकृत 'मानसोल्लास' सुधी जाय छे. अद्यावधि प्राप्य रचनाओनी संख्या ३२ आसपास छे, अने ते संस्कृतेतर एटले के अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी वगेरे भाषाओमां छे. आ विषये विगते जाणकारी मेळववा इच्छनारे डो. हरिवल्लभ भायाणी द्वारा सम्पादित, महाचन्द्रमुनिकृत 'बारहक्खर कक्क' (अमदावाद, पार्श्व फाउन्डेशन, ई. १९९७)नी प्रस्तावना वांचवी जोईए. मातृकाना प्रथम अक्षरने लईने थयेल 'कक्को' प्रकारनी रचना संस्कृतमां उपलब्ध थई होय तेवो आ प्रथम दाखलो छे. अन्य आवी संस्कृत रचना विषे हजी जाणवामां आव्युं नथी, ए दृष्टिए प्रस्तुत कृति तथा सम्पादन नोंधपात्र छे. मातृकाप्रधान जे रचनाओ अत्यारे उपलब्ध के नोंधायेल छे, तेमां १३मा शतकथी पहेलांनी कोई रचना मळी नथी. एवी संभावना विचारी शकाय के १२ मा सैका बाद आ रचनाप्रकार प्रत्ये रचनाकारोनुं ध्यान आकर्षायुं होय, अने त्यारथी आवी रचनाओ आरंभाई होय. आ अटकळना सन्दर्भमा विचार करतां एम लागे छे के 'सिद्धमातृका'ना कर्ता आ. सिद्धसेनसूरि पण १३मा शतकना ज, अने ते पण प्रवचनसारोद्धार-टीका (सं. १२४८) ना प्रणेता ज होई शके. मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीनी ए अटकळ के 'शकस्तव, नमस्कार माहात्म्य, सिद्धमातृका'- आ त्रणेना कर्ता एक ज सिद्धसेनसूरि छे, ते साथे संमत थवामां लेश पण बाध नथी जणातो. श्री सिद्धर्षि (उपमिति.कार) आना कर्ता होवानुं असंभव लागे छे. 'सिद्धपुरपत्तन'नो 'नमस्कार माहात्म्य'गत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 निर्देश, नमस्कारमाहात्म्य अने सिद्धमातृकानी रचनाओमां जडतुं आन्तरिक साम्य - आ बधां परथी आ बधी रचनाओ १३मा शतकना सिद्धसेनाचार्यनी होवानुं वधु सुसंगत जणाय छे. अने ए वात ने प्रमाणभूत समजीए तो 'शक्रस्तव' तथा 'नमस्कारमाहात्म्य'नुं कर्तृत्व सिद्धसेनदिवाकरसूरिना नामनी साथे जोडातुं आव्युं छे, ते धारणा बदली नाखवानी रहे छे. 'सिद्धसेन' नाम आवे एटले तेनो सम्बन्ध सिद्धसेन दिवाकरजी जोडे जोडवानी रूढ प्रथा छे. तेमांये 'शक्रस्तव' माटे तो, प्राकृत सूत्रोने संस्कृतमां बदलवानी दिवाकरजी साथे जोडायेली कथाना सन्दर्भमां, अत्यन्त सहेलाईथी गळे ऊतरी जाय तेवी वात गणाय. परन्तु, कोई वातने रूढ गतानुगतिकताए मानवाने बदले प्रमाणो अने ते-आधारित ऊहापोह थकी ज मूलववी तथा विचारवी वधु उचित छे. ___ 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास'मां ही.र. कापडियाए 'सिद्धमातृका' विषे नोंध आपतां तेना कर्ता आ. सिद्धसेन विषे (?१५मो शतक) आम नोंध आपी छे, जे निराधार जणाय छे. १५मा शतकमां कोई सिद्धसेनाचार्य थया होय तो ते विषे जाणवा मळ्युं नथी, अने श्रीकापडिया सामे पण तेवी कोई जाणकारी होय तेवो संकेत सुद्धां तेमणे आप्यो नथी. सिद्धमातृका प्रकरणना पद्य १-१०मां संभवतः 'अहँ'नो महिमा वर्णवायो छे. ११-१५मां 'भले' तरीके ओळखावाती आकृतिनुं वर्णन छे. १६-२१मां 'मींडी' एटले के शून्य-०नुं स्वरूपवर्णन थयुं छे. २२-४४ मां अनेक विकल्पो थकी शून्य पछी मूकाती बे रेखा (ऊभी लीटी) - ॥ नुं विशद वर्णन छे. आ रेखावर्णनने 'नमस्कारमाहात्म्य' ना 'नमो सिद्धाणं' पदवर्णनप्रकाशगत "द्धा' अक्षरमांना 'द्-ध्'ना संयोगनुं वर्णन करतां पद्यो साथे सरखावीए तो आ बन्ने कृतिओ एककर्तृक होवानी सहज प्रतीति थाय. ४५-५०मां प्रणवमन्त्र गर्नु, ५१-५४मां 'नमः' के नमः' , ५५मां 'नमः' मुं, ५६मां 'सिद्धम्'- स्वरूपालेखन छे. ५७-५८मां नाभिमां षोडशदल कमलमां, हृदयदेशे चतुर्विंशतिदल कमलमां अने मुखमां अष्टदल कमलमां, समग्र वर्णमाला-मातृकानुं ध्यान धरनार मनुष्य सर्वज्ञतुल्य थाय छे, ते वात निर्देशवामां आवी छे. 'मातृकाध्यान' ए ध्याननो एक मान्य अने सिद्ध प्रकार छे. ५९-६२मां सिद्ध-मातृकानुं माहात्म्यवर्णन थयुं छे. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ पछी आरंभाय छे कक्काना अक्षरोना क्रमे श्लोकरचना. अ थी ह सुधीना (अनुस्वार-विसर्ग समेत) १६ स्वरो तथा क वगेरे ३३ व्यञ्जनो माटे ६३-१२५ सुधीना श्लोको छे, जे औपदेशिक अने बोधकतानी दृष्टिए बहु मजाना छे. छेवटे १२९ मा पद्यमां कक्काशिक्षणमां शीखवातुं अन्तिम वाक्य 'मङ्गलं महाश्रीः' छे, अने साथे ग्रन्थकारनो नामनिर्देश पण छे. आ रचनानी हाथपोथी अमदावादना संवेगी उपाश्रयना ग्रन्थभण्डारनी छे, जेनी जेरोक्स नकल मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीए मेळवी हती, तेना आधारे आ सम्पादन करेल छे. प्रत ८ पत्नी छे, अने शुद्धप्राय छे. श्री अक्षयचन्द्रकृत मातृकाप्रकरण अनुसन्धान-१२मां मुद्रण पाम्युं छे, तेनुं स्मरण पण आ क्षणे थाय छे. -शी. (मद्रास) -xसिद्धमातृकाप्रकरणम् ॥ अहँ ॥ अहं विभुर्विश्वशिरोवतंस - प्रायान्तरज्योतिरनाद्यनन्तः । सिद्धाक्षरब्रह्मवितानगर्भो विमुक्तचित्तैरपि चिन्तनीयः ॥१॥ अहं समग्रवर्णानां धुरि चान्ते च लीनवान् । ज्ञातो नतैः परब्रह्मनिष्णातैर्नरशेखरः ॥२॥ अहं मध्यस्थतालीनसकलाक्षरनायकः । तमोजैकशिरोरत्न-माम्नातो बालकैरपि ॥३॥ अहं विधाता परमः पुमानहं महेश्वरोऽहं गुणसम्पदा सदा । त्रैगुण्यमुक्तः क्रमतो जिनोऽप्यहं चराचरेऽहं खलु नामधामभिः ॥४॥ मित्येकं ध्येयमध्यात्मिनां यो मायाबीजे यत्प्रतिच्छायमम्भः । सोऽहं हंसः सात्त्विका लिप्सवो मे न हीमन्तः श्वा(स्वा)त्महानिः क्व तेषाम् ?।।५।। सोऽहं हंसः कश्चिदाकाशदेवो मायास्थल्यां यन्मरीचिप्रपञ्चः । अग्रे तन्वनुत्तरङ्गं भवाब्धि स्वान्तभ्रान्ति हन्त दत्ते पशूनाम् ॥६॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 सोऽहं हंसः सर्वलोकैकचक्षुः पङ्कातङ्कस्याऽन्तको यत्प्रकाशः । सच्चक्राणां ध्वस्तदोषान्धकारः कान्तासङ्गं नित्यरङ्गं चकार ||७|| नैकात्मतैकात्म्यमनात्मतेतिधीस्त्रिमार्गगा मद्व्यवहारशैलतः । निर्याति विश्वत्रयवन्द्यवैभवा सन्निश्चयाब्धौ व्रजति स्वयं लयम् ॥८॥ नैकात्मतां केवलितामनीशतां प्रकाशमानेन परां चराचरे । स्याद्वादिना हन्त मयैव केनचित् कृतः प्रसादो निखिलासु दृष्टिसु ॥९॥ यावान् भावो यो भवार्थं स तावान्, सर्वोऽपि स्यान्मुक्तये मत्प्रसादः । यन्मेघाम्भः क्षीयते धन्वभूमौ मुक्तीभूतं पश्य तच्छुक्तिलाभात् ॥१०॥ अर्हद्विष्णुशिवस्वयम्भुसुगतज्योतिःश्व(स्व)भावाम्बरब्रह्मानन्दचिदात्मनः सदसदूद्धर्वाधःस्थदूर्वाङ्कुरैः । द्वैताद्वैतिभिरुद्गतैर्धृतनवाकाराङ्गजन्मान्तरं सङ्ख्याबीजकमादिमं भगवतीं शक्तिं भलीति स्तुमः ॥११॥ द्वयात्मभावाङ्कुरनिर्मिताकृतेर्जीवान् दिशन्ती नवधा भवस्थितान् । जनि-क्षय-स्थेमगुणत्रयीमयी सा शक्तिरेका परमात्मनोऽर्हतः ॥१२॥ भलते जनाय नवतत्त्वसुधां भलतेऽस्तितां नवविधाङ्गभृताम् । नवपापकारणगणं भलते, तदसौ भलीति भणिता गुणिभिः ॥१३॥ फणीन्द्रबीजाङ्कुरविद्युदाकृतेर्या भूर्भुवः स्वर्दधतीव लक्ष्यते । शक्तिः परा कुण्डलिनी भलीति सा, लेलिख्यतेऽभैर्धुरि शब्दब्रह्मणः ॥१४॥ भले भले कुण्डलिनि । श्रियं तवाद्भुतां महाभूतगुणात्मिकां तदा । जाड्यान्धकारं भलसे यदा तदा संवित्तिवित्तं भलसे सनातनम् ॥१५॥ लोकेशकेशवशिवेश्वरशक्तिबुद्धीलक्ष्म्या (क्ष्म्य) र्हदात्मपरब्रह्मपदानि यस्य । तज्ञा जगुः स्तुतिवचांसि तदेतदीडे शून्यं गुणत्रयविकारनिकारशून्यम् ||१६|| अन्तरङ्गबहिरङ्गतरङ्गैः शून्यतामुपगताय नितान्तम् । शुद्धशाश्वतशिवाय नमोऽस्तु क्षीणपुण्यवृजिनाय जिनाय ॥१७॥ स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णा-कृति - पू (पौ) र्वापर्य्य- लिङ्ग-समयाद्यैः । नामस्थान-ध्यान- ध्येयैर्यः सर्वथा मुक्तः ॥ १८॥ ? 7 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ आद्यन्तशून्यो जगदेकजीवनो य आदिसङ्ख्यः सकलोऽविशत्कलाः । नवाऽष्ट सप्ताऽथ षडेव पञ्च वा चतुस्त्रिकद्व्येकमितास्ततः परम् ॥१९॥ शान्तः कृतान्तस्त्वमहन्तयोज्झितः शून्यात्मतां काञ्चन यो दधौ पराम् । . अहं स रूढ्या परमेश्वरो जने मध्यस्थतालीनसमग्रवर्णराट् ॥२०॥ द्वन्द्वैभृशं शून्यवदेव शून्यः, शून्योऽणुमात्रं न निरञ्जनानाम् । शून्यैकभावे फलशून्यबुद्धे ! परं लयं संश्रित ऐक्यसिद्ध्यै ॥२१॥ द्वयो रेखे नित्ये महिमविषये शक्तिशिवयोईयो रेखे तथ्ये भुवनजनने पुण्यतमसोः । उभे रेखाप्राप्ते शिववितरणे ज्ञानतपसी उभौ रागद्वेषौ किल कलितरेखौ भवपथे ॥२२॥ उभौ रेखायोग्यौ श्रितसहजवैराश्रवभरौ जने कर्मात्मानौ कलितविधिदैवादिबिरुदौ । उभावेव ह्येतद्विरहकरणोपायनिपुणौ जिनस्तावद् रेखां भजति समयोऽन्यस्तदुदितः ॥२३॥ यदि वा द्वन्द्वेषु च्छायातप-सुखदुःख-दिनक्षि(क्ष)पा-शिवभवेषु । अरिमित्र-पुण्यपाप-प्रमोदशुगु-त्पत्तिमरणेषु ॥२४॥ तेजस्तम-उदयक्षय-जागरनिद्रा-परात्ममुख्येषु । यच्चित्तं समरेखं तेषा रेखे इहाऽमुत्र ॥२५॥ युग्मम् ॥ अथवा जगदेकशरण्यस्य रेखे स्याद्वादभूभुजः । निश्चय-व्यवहाराख्ये भुजे इव विराजतः ॥२६॥ नित्यानित्यात्मकान् भावान् स्थापयन्त्यौ चराचरे । अनेकान्तगृहद्वारि रेखे जैत्रध्वजोपमे ॥२७॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 शब्दब्रह्मशरीरेऽनेकान्तात्माऽस्ति साक्षिणी रूपे । हिमकरदिनकरनाड्या-विव रेखे निर्भरे स्फुरतः ॥२८॥ युगादिदेवस्य शिवस्य नन्दिनी ब्राह्मीति विश्वप्रथिता सरस्वती । सौन्दर्यसीमा कमला च सुन्दरीत्यवाप रेखामिषतोऽर्हणामिह ॥२९॥ नाभिप्रिया कुण्डलिनी भवात् शिवात् जाते सुरेखे सुसमे सुसङ्गते । एकान्तमानोद्धतबुद्धये स्थिरास्थिरप्रमाणप्रगुणे इमे स्तुमः ॥३०॥ संसारे श्री-सरस्वत्यो रेखा प्राप्ता पवित्रिता । यत्त्यक्तमङ्गिनं सर्व-तीर्थार्णासि पुनन्ति न ॥३१॥ .. द्वाविमौ पुरुषौ लोके लब्धरेखौ मतौ मम । । अर्थितो यः करोत्येव यश्च नार्थयते परम् ॥३२॥ गङ्गासिन्धू च पाविन्यौ द्वयो रेखे सतां मते । कार्यं विनोपकारी यो यश्च नापनुते कृतम् ॥३३॥ स्वर्गापवर्गयोर्मार्गों द्वावेव प्राञ्जलौ स्मृतौ । श्राद्धधर्म-यतिधर्मी प्राप्तरेखौ चराचरे ॥३४॥ अवश्यं नश्वरं सर्वं देहगेहधनादिकम् । ध्रुवत्वे धर्म-यशसोरेव रेखे निरीक्षिते ॥३५।। स्वात्मा देवः कर्म दैवं रेखे सूनृतवर्मनः । स्वातन्त्र्यं सर्वसन्तोषो रेखे ऐश्वर्यसम्पदः ॥३६॥ मन्ये सुखे च दुःखे च परां रेखां श्रिता बु(ब) भौ । स्निग्धैर्मुग्धैर्विदग्धैर्यः संयोगो विरहश्च यः ॥३७॥ पीयूष-कालकूटे च द्वे रेखे मुनिभिर्मते । एका सद्दर्शनप्राप्तिः परा तदवधीरणा ॥३८॥ द्वौ रसेन्द्रौ द्वयोरेव रेखाप्राप्तौ बभूवतुः । शृङ्गारो गिरिजाकान्ते शान्तः पारा(र)गते विभौ ॥३९|| धर्मशास्त्रोपनिषदा-मिदं रेखाद्वयं ध्रुवम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥४०॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अनुसंधान-२५ रेखाप्राप्तावुभावेव मन्ये सुखिषु मानिषु । सम्पन्नाखिलकामो वा यो वाऽस्ताखिलकामनः ॥४१॥ एकोऽर्हन् बोधिदो देवः परः स्वात्मा गुरूदितः । इदं रेखाद्वयं स्थास्नुः सिद्धादेशश्चराचरे ॥४२॥ अलं वा विस्तरेण । प्रस्तुतमभिधीयते-- पुरस्कृतनिरञ्जनाऽहमिति रूढितो याऽर्चिता प्रमाणयुगमग्रतो जगति जातरेखं श्रिता । धृतान्तरखिलाक्षरा जयति कापि शक्ति परा गुणत्रितययोगिनीं सुगुणलक्ष(क्षि)तामक्षताम् ॥४३॥ हेतुः शम्भोः शक्तिः शम्भुबिन्दुः पुरःस्थिते रेखे । प्रत्यक्षाऽ[प्रात्यक्षपदार्थबोधनिपुणे प्रमाणे द्वे ॥४४॥ उमादिर्लक्षान्ता वर्णाली दिक्कुमारिकासङ्घः । इति सिद्धमातृकायै नमो नमो विश्ववन्द्यायै ॥४५॥ यो जन्मबीजं शिवशक्तिशब्द-ब्रह्मात्मचैतन्यजगद्गुणानाम् । षड्दर्शनान्तर्लयतारकाभां तां मातृकां त्रैधमहं स्मरामि ॥४६॥ अचलाऽनलाऽनिलोदक-खमूत्तिरधऊर्ध्वमध्यलोकमयः । अर्हन्मुखमुख्याक्षर-सिद्धः प्रणवोऽवतु जगन्ति ॥४७॥ अथवा-अधमोत्तमध्यमादिमा-क्षरतः सन्धिप्रयोगसंहतात् । उदितं प्रणवं जगन्मयं जगदुर्जागरयोगसम्पदः१ ॥४८॥ आक्रम्य कर्माण्यधमोत्तमानि केनापि माध्यस्थ्यमहो महिम्ना । जज्ञे महानन्दमयो मुनिर्यो नमो नमोऽस्तु प्रणवाय तस्मै ॥४९॥ मध्यस्थतां मध्यमलोकपालः, पापेषु पुण्येषु परां प्रपद्य । ययावनन्तामधऊर्वलोका-वतंसलक्ष्मी जिन एक एव ॥०॥ अतो ब्रूमहे सुनमः सकलपारगामिने सिद्धपञ्चपरमेष्ठिरूपिणे । अत्रिलिङ्गमहसे परात्मने ज्ञानदर्शनचरित्रबीजिने ॥५१॥ १. मुनयः ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 नमः परमवेधसेऽर्हते भास्वते पुरहृतेऽमृतद्युते । अच्युताय सुगताय तायिने भूर्भुवःस्वरपवर्गदायिने ॥ ५२ ॥ चनमस्त्रिपुरुषाचितार्चिषे सर्वदोषरहितात्मनेऽर्हते । व्यापकत्रिगुणतीतमूर्तये लोका (क) पौरुषशिरोमणिश्रिये ॥५३॥ नमो विरजसे स्वयम्भुवे विष्णवे दलितदम्भलये । शम्भवेऽस्ततमसे भवस्थितिध्वंसकारणगुणात्मनेऽर्हते ॥५४॥ | नमोऽस्तु देवाय चिदात्मनेऽर्हते, नमोऽस्तु शीलाङ्गधराय साधवे । नमोऽस्तु धर्माय दयास्वरूपिणे, नमोऽस्तु रत्नत्रयभक्तिशालिने ॥५५॥ सिद्धं त्रिलोकी सुखवैभवं ध्रुवं सिद्धं प्रसिद्धं तदहो ! गुणाष्टकम् । सिद्धं परब्रह्म तदक्षरं सता-मनादिसिद्धं श्रयतामिहाऽक्षरम् ॥५६॥ तथाहि षोडशच्छदजुषि स्वरमालां, नाभिकन्दकमले विचरन्तीम् । चिन्तयेदथ सकणिकपद्मे, द्वादशद्वयदले हृदि वर्णान् ॥५७॥ अष्टपत्रयुजि वक्त्रसरोजे, I संस्मरन्निति जिताक्षकषायो मातृकां सकलविन्मनुजः स्यात् ॥५८॥ युग्मम्॥ सुधियां चिन्मयधाम्नो जननात् परिपालनात् विशोधनतः । श्रीसिद्धमातृकैवं कमल श्रीर्जयति मातेव ॥ ५९ ॥ 11 अनादिनिधनं वेद - सिद्धान्तादि परम्परम् । पौरुषेयं परं ज्योति-र्मातृकाख्यमुपास्महे ॥६०॥ पुमर्थशास्त्राण्यखिलानि येभ्यो, बीजोत्करेभ्योऽङ्कुरवद् विकाशम् । गृह्णन्ति सदबुद्धिसुधोक्षितानि, तेभ्योऽक्षरेभ्यः प्रणतोऽस्मि बाढम् ॥ ६१ ॥ सिद्धान्त - तर्क - श्रुत-शब्द-विद्या- वंशादिकन्दप्रतिमप्रतिष्ठान् । अनादिसिद्धान् सुमनः प्रबन्धै- वर्णान् महिष्यामि जगत्प्रसिद्धान् ॥६२॥ तद् यथा अर्हन्तमेकं शरणं श्रयध्वं धर्मानहिंसाप्रभृतीन् कुरुध्वम् । अनाश्रवत्वाय सदा यतध्वं विमृष्टसम्यक्सुलसावदाताः ॥६३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनुसंधान-२५ अघं न लोकोत्तमचिन्तकानां, पुण्यं न मिथ्यात्विसमागतानाम् । दुःखं न सन्तोषवशंवदानां, सुखं न सारम्भपरिग्रहाणाम् ॥६४॥ अर्हन्तमन्तः स्मरतां न पापं, मिथ्यात्विभिः सङ्गकृतां न पुण्यम् । सन्तोषसाम्राज्यजुषां न दुःखं, परिग्रहारम्भपुषां न सौख्यम् ॥६५॥ आचारमाजीवितमाश्रिताना-माशाविकाशै रहिताशयानाम् । आज्ञामिहाऽऽराध्यति कोऽपि धन्यः, प्रदेशिवत् केशिमुनीश्वराणाम् ॥६६॥ इष्टेष्विहामुत्र सुदुस्त्यजेषु, श्रीराम-सीतावदसङ्गतानाम् । इच्छानिवृत्त्या कपिलोपमानं, गृह्णामि दुःखं ऋषिसत्तमानाम् ॥६७।। ईर्ष्यादिदोषत्यज ईश्वरत्वेऽपीहादिहीनाः सुखसङ्गमेऽपि । पुण्यैः सतामीक्षिततत्त्वमार्गा भवन्ति वीरप्रभुवज्रतुल्याः ॥६८॥ उभौ मनुष्यौ सुमनःपतीनां गोविन्दवद् गौतमवत् प्रशस्यौ । एको वदान्यो जगदीश्वरोऽपि, ज्ञाताखिलार्थोऽपि परो विनीतः ॥६९।। उन्निद्रता शूरकराग्रजाग्रत्सरोरुहस्येव विकाशभाजः । कस्यापि राजत्यभयस्वभावं प्रपद्यमानस्य मनःप्रसत्त्यै ॥७०॥ ऊर्वोxवीक्षाप्रयताः सचेतना, ऊनं प्रपश्यन्ति न के स्वमृद्धिभिः । लोकोत्तरैः सच्चरितैः परं गुरुं कर्तुं क्षमाः केऽपि दशार्णभद्रवत् ॥७१॥ ऋद्धि प्रकृष्टामपि नष्टदृष्टां क्षणेन सन्ध्यामिव येऽवबुध्य । सनत्कुमारस्थितिमाजुषन्ते, तेभ्यो भवेयं बलिरीश्वरेभ्यः ॥७२॥ ऋषितां दधते न के बुधा ऋषिदत्ताचरितं निशम्य तत् । ऋजुता-मृदुता-क्षमा-ऽवनी-'ऋतुराजावतरप्रभाभरम् ॥७३॥ ऋकारवत् क्वापि पदे प्रतिष्ठा सर्वाङ्गवक्रस्य निशम्यते न । ऋजोः प्रसन्नानुजवत्तु जन्तोः, पदे निवासः परमो(मे)ऽपि दृष्टः ॥७४|| लुवर्णवक्रक्षणिकातरङ्गोन्मेषात्तमिश्रा सुपदार्थदृष्टौ ।। यादृक् सुखं तादृगहो सुखादौ, सौमित्रिवत् केचन चिन्तयन्ति ॥७५॥ १. वसन्तः, तस्य अवतरः ॥ ३. विद्युत् ॥ २. वल्कलचीरिवत् ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 13 लकारवत् प्राञ्जलतोज्झितस्य दण्डादृतेऽन्यत्र न हि प्रसङ्गः । किं नाम नाभूत् पुरतोऽर्हतोऽपि, गोशालकस्याऽनर्वधिर्वधार्थः ॥७६|| एकत्वतत्त्वामृतसिन्धुमग्नाः, सनातने ब्रह्मपथे विलग्नाः । प्रत्येकबुद्धा नमिराजमुख्या बाढं मदीये हृदये ध्वनन्ति ॥७७|| ऐश्वर्यसत्सङ्गमगेहदेह-प्राणप्रियास्नेहधनादि सर्वम् ।। तरङ्गभङ्गप्रतिमं विचिन्त्य स्वालोचितं श्रीकरकण्डुपादैः ॥७८॥ ओष्टाविव द्वौ मिलितौ तपः-शमौ, सतां सदा मुख्यतयाऽपवर्गदौ । परस्परप्रीतिपरौ श्रुतौ नवा-ऽनन्ताच्युतौ किं परलोकसाधकौ ? ॥७९॥ औत्सुका(क्य)मग्र्यं गणयन्ति सात्त्विका, दानोपकारव्रतधर्मनिर्मितौ । अहक्षये हन्त विलम्बितैः पथि, श्रीनेमिनाथः प्रणतो न पाण्डवैः ॥८०॥ अंतर्विशुद्धिर्मनसः प्रसाद-श्चारित्रचर्या च बहिर्विशुद्धिः । द्विधा विशुद्धं सुभगं जयश्री-वृणोत्यहो ! विष्णुमिव द्विधापि ॥८१॥ अः सत्त्वमुक्तं र इतो रजो है- स्तमो घखं मूर्ध्नि परात्मधाम । इत्यक्षयं पञ्चदशप्रभेदा अहँ समाश्रित्य न केऽत्र सिद्धाः ? ॥८२॥ कला: कलाकेलिकलङ्ककन्दली-कुद्दालकल्पाः कलिकालरात्रयः । सतां यशोभद्रमुनीशितुः कथा-प्रथा यशोभद्रशतप्रदायकाः ॥८३॥ कः कलङ्कविकलोऽजनि लोके. कः कलानिधिरभूद् गुणगौरः । कः खलेषु पतित: पतितो नं, क: खिंलं ऋषिपथं श्रयति स्म ॥८४|| कः पुरन्ध्रिभिरलाभि न रन्ध्र, तृष्णया भण न कः परिभूतः । कः फणी वनकुटुम्बकरण्डा-न्तर्गतः फलमवाप दुरन्तम् ॥८५।। कः प्रजेश-शिव-बुद्ध-बिड़ौज:-केशवादिकगणोऽपि न जिग्ये । ऊर्मिभिर्भवसमुद्रभवाभि- स्तं विनाऽवनितले जिनमेकम् ॥८६।। खलैः कषायैर्गलहस्तितात्मा, स शूलपाणिर्नरकान्धकूपे । पतन् महावीरजिनेश्वरेण, संरक्षितोऽकारणवत्सलेन ॥८७॥ ३. समस्तं ॥ १. अविनयः ॥ २. चन्द्र ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अनुसंधान-२५ गता न के वैषयिकैः सुखैविषै-ग्लानिं परां द्वादशचक्रवर्तिवत् । महाम्बुवाहस्तनितैरिवाऽध्वगाः, पारीन्द्रनादैरिव गन्धसिन्धुराः ॥८८॥ घरट्टवृत्तोऽविरतिस्त्रिया यो, निरन्तरां भ्रान्तिमवापितोऽङ्गी । . गुणान् कणान् हन्त पिनष्टि दुष्टः, स पुण्डरीकानुजवद् विनष्टः ॥८९॥ ङ इव प्रकृतिवक्र: प्राकृतेऽपि प्रतिष्ठां न भजति ङवते वा नाऽस्य बालोऽपि भद्रम् । तदिह सरलतायां विश्वतो वल्लभायां मतिमुपचिनु मत्वा नागचन्द्रेतिवृत्तम् ॥१०॥ चतुरचित्तचमत्कृतिकारिणी, चरणचर्च्यतमाऽत्र चराचरे । चतुरचारु चिराय चिलातिका-तनयचिन्मयताऽचललोचना ॥९१।। छलयिता श्रुतकेवलिना मयि, स्खलयिता महतां मरुतामपि । दृढप्रहारि महामुनिना भवो, विदलितः सकलोऽपि कलावता ॥१२॥ जपतपःक्षपणैः कृपणैरलं, 'रल ! विचारय हारय मा रसम् । समतया मतया समयं नय-नियतमेष्यति माषतुषत्विषम् ॥९३।। जलानिलस्त्रीपरिवर्जकानां, जगत्त्रयीपावनदर्शनानाम् । जडत्ववक्रत्वमुचां मुनीनां, जयातिरेकाय कृता कथाऽपि ॥२४॥ झटिति शैशवतोऽपि शिवं कुरु क्व रुषिते शमये शमनिष्टता । तदतिमुक्तकमौक्तिकलक्षणं न च दधेः श्रवसो किमु भूषणम् ॥९५|| जवदनार्जवशालिनि पृष्टतः कुपुरुषे पुरतः सरलेऽपि हि । मतमुपेक्षणमुक्तमिहागमें न यदभव्यगुरोरपि गौरवम् ॥९६।। टलति कनकशैलो विश्वमध्यस्थतायास्त्रिभुवनगुरुलीलाक्षोभितात्मा कदापि । चलति न तु मुनीनां स्कन्दकाचार्यशिष्यस्थिरचरितधराणामन्तरात्मा क्षयेऽपि ॥९७॥ ठगमोदकैः प्रियतमावचनै-बडिशामिषैर्विविधवित्तभरैः । ऋषभाङ्गजस्य ऋषिभानुमतो नमति स्म नाम न मतिः स्वमतात् ॥९८।। १. घरट्टवत् भ्रमितः ॥ २. मूर्खः ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 15 डमरुकरवरौद्रैः शैवशाक्यादिवाक्यैः, कथमिव तव तावत् क्षीयतां मोहनिद्रा। अतिमधुरगभीरं पुष्पचूलेव याव-ज्जिनवचनमुदारं जीव ! न श्रोष्यति त्वम् ॥९९॥ ढक्का महानन्दपुरप्रयाणे क्ष्वेडा महामोहगजप्रहाणे । दिव्यो ध्वनिः कैश्चन विश्वभर्तु-निशम्यते श्रीमरुदेवयेव ॥१०॥ एकारवद् ये सरलास्त्रिशुद्ध्या, तत्त्वत्रयी तान् वृणुते क्रमात् ते । रत्नत्रयाभ्यासहतत्रिवेदा-स्त्रैगुण्यमुक्ते महसि स्फुरन्ति ॥१०१।। ण इवादौ मध्यं (ध्येऽ)न्ते, तपसा श्रितरेख एष हरिकेशः । कैः कैर्न पुरश्चक्रे गीर्वाणैर्ब्राह्मणैः श्रमणैः ॥१०२॥ तथ्यमेकममलं गृहाश्रमे, पात्रदानसुकृतं सखे ! श्रय । शालिभद्र-कृतपुण्य-चन्दना-वीरभद्रयशसे स्पृहाऽस्ति चेत् ॥१०३।। थटे प्रतीतिः प्रतिभाप्रतिष्ठा प्रभाप्रभावप्रभुताप्रियाणाम् । शीलेव हीलां न सुधीविधत्ते, श्रुत्वा यशश्चेटकनन्दिनीनाम् ॥१०४॥ दक्षत्वदाक्षिण्यदयादमाङ्कुरो-त्करादिकन्दं शिवसौख्यलग्नकम् । रजस्तमोमुक्तमनन्तसत्त्वभृत् तपस्ततानाऽऽर्यमहागिरिर्गुरुः ॥१०५।। धन्या इलातीसुतवद्विधिज्ञा, विचित्रदुःखार्पणशत्रुभूतम् । मात्राधिकेनेव महत्त्वशक्त्या भवं हि भावेन पराभवन्ति ॥१०६॥ न हारेहूरा हृदयं हरन्ते न शर्करा भाति च शर्कराभा । सुधा मुधा चेन्न ममाक्षवर्गः सम्यग् निपीतार्द्रकुमारकीर्तेः ॥१०७॥ परापवादाश्रवणं परस्त्रिया-मदर्शनं श्रोत्रदृशोः शुचित्वकृत् । पैशून्यमुक्ती रसनांचलस्य वै अस्तेयमप्राणिवधोंऽहिहस्तयोः ॥१०८॥ पराङ्गनालिङ्गनवर्जनं तनोः शौचं सतां तत्त्वविदो विदुः सदा । एवं शुचिः सत्पुरुषस्त्रिमार्गपाप्यभीष्यते स्वात्मविशुद्धिहेतवे ॥१०९॥ पश्य पश्य पवनैरिवोद्धतैः पर्वता इव नहि प्रकम्पिताः । वज्रकर्ण-कपिराज-कात्तिका-स्तत्त्वनिर्णयविशुद्धबुद्धयः ॥११०॥ १. लोकसमुदाय ॥ २. द्राक्षा ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 फल्गु वल्गु जनताप्रतारणं, वेदवाक्यमपवादकारणम् । तं मरुन्तमखभञ्जनं' विना, को निवारयति दुःषमारके ||१११|| बध्यतेऽविकलधीः सुधीस्तु नो, वाङ्मनस्तनुविकल्पनागुणैः । उत्थितेन भवनादि दह्यते, वह्निना न गगनं कदाचन ॥ ११२ ॥ भद्रमस्तु भवभीतिभेदिनां, श्रीयुगादिजिन शान्ति - नेमिनाम् । ये निरर्गलभवोत्सवोर्मिभिः सङ्गता अपि चिरं न रङ्गिताः ॥११३॥ मणिपतेरसमैः सुमनःपते - रुपचिता बत ये शमसौरभैः । न कलिकालनिबन्धविगन्धयो, विधुरयन्ति कदाचन तानहो ! | | ११४|| मत्वा क्षणं यदि जिनस्य तदाऽकरिष्यन् पादाः प्रसादममृतोर्मिकिरा गिरा न । हा हन्त तत्कथममी फणिशूलपाणिमुख्यास्तमोमयगरज्वरिणोऽभविष्यन् ॥११५॥ यस्तनोत्यतनुशुद्धिमात्मनो बन्धुदत्तचरितामृतार्णवे । रागनागगरलोर्मयो न तं मूर्च्छयन्ति विषमक्रमा अपि ॥ ११६ ॥ यम-नियमा - ऽऽसन-प्राणा-यम- प्रत्याहार - धारणा - ध्यानम् । सुसमाधिरष्टधैवं, योगः शिवलक्ष्मियोगकरः ॥११७॥ रजस्तमःसत्त्वमयाशयानां, चिरक्षणस्थास्नुगुणप्रमाणे । रतिः क्रमात् कीर्तिशरीरधर्मे, वैगुण्यभाजां तु शिवे मुनीनाम् ॥११८॥ रत्नश्रवः- सम्भव- पद्मनाभ - नारायणानां चरितानि तानि । श्रुतानि केषां ददते न शान्ति, शीतावदातोन्नतिबन्धुराणि ॥ ११९ ॥ लक्ष्ये विशन्त्यविरतेः पुरुषाधमा ये ते प्राप्नुवन्ति जिनरक्षितवद् विपत्तिम् । श्रीवर्द्धमानचरणाम्बुजचञ्चरीका अन्ये तु यान्ति जिनपालितवन्महत्त्वम् ॥१२०॥ वर्द्धिष्णुमैत्री-मुदिता-ऽनुकम्पा - माध्यस्थ्यमेध्यासमताप्रेणीतम् । वक्ष:स्थले कौस्तुभवच्चकास्ति, समत्वमेकं पुरुषोत्तमानाम् ॥१२१॥ १. प्रभवं विना (?); 'रावणं विना' इति स्यात् ॥ २. सहितं ॥ अनुसंधान-२५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 शमं शरीरे शतधा दधानः, शरण्यमेकं जिनमेव जानन् । शतक्रतोरप्यविकम्प्यचित्तः, शक्नोति शान्ताय पदाय गन्तुम् ॥१२२॥ षड्दृष्टिदृष्टान्तविदश्चतुर्थ-षष्टादिनिष्ठारसिकात्मवृत्तेः । षड्भेदजीवावननिष्ठितस्य षष्ठी यतेर्हस्तगतेव लेश्या ॥ १२३ ॥ > सत्यं समाधिः समता समर्थता, सहिष्णुता सत्त्वकला सकता सम्यक्त्वसङ्गः सरलत्वसभ्यते, सदा सतां सद्गतिसाक्षिणो गुणाः ॥ १२४॥ हर्म्याणि रम्याणि रमाश्च रामा, हर्म्यातिकाम्याभरणाभिरामाः । भवे भवे भाग्यभृतां भवेयुः सुदुर्लभः किन्तु जिनेन्द्रधर्मः ॥ १२५ ॥ हंसः सतां लसति सद्गुरुभानुबोध्ये योगाम्बुजे गृहि-यतिव्रजबीजकोशे । सम्यक्त्वनालजुषि शुद्धयमादिपत्रे, पुण्यामृतोपचितमानसगर्भजाते ॥१२६॥ लक्ष्यैकभाग् द्वादशभावनारसे लयं श्रयन् ध्यानचतुष्कपूरणे । लघुत्वमाज्ञाविचयादिचिन्तया लब्ध्वोद्धर्वलोकान्तमुपैति चेतनः ॥१२७॥ क्षमामृदुत्वार्जवसत्यसंयम त्यागास्तयोऽकिञ्चनता सशौचता । ब्रह्मेति धर्मो दशधा जिनोदितः स्याद् भूर्भुवः स्वःसुखसिद्धिदायकः ॥ १२८ ॥ मङ्गलं निरवधि स्थिरा महाश्रीः परं शरणमुत्तमं महः । सिद्धसेनहृदयाधिदैवतं निर्मलं जयति जैनशासनम् ॥१२९॥ इत्याचार्य श्रीसिद्धसेनोपज्ञं श्रीसिद्धमातृकाभिधं धर्म्मप्रकरणं समाप्तमिति शुभं भवतु ॥ श्रीरस्तु ॥ 17 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमुनीश्वरसूरिकृत प्रमाणसारः ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ___ 'जैन तर्क'ने विषय बनावीने रचायेलो आ लघुग्रन्थ छे. भाषा सरस छे, अने रजूआत जाणे आकाशमां उड्डयन थई रह्यं होय तेवी छे. बे वाक्यो के बे युक्तिओ के बे मुद्दाओनी वच्चेनुं वाक्य, युक्ति, मुद्दो वाचके-भणनारे जाते ज योजी-समजी लेवानो रहे छे. घणीवार तो एक विषय- निरूपण करतां क्यारे बीजा विषयमां कर्ता सरी पडे छे ते पण कळवा, कठिन बनी जाय छे. कर्तानो मुख्य आशय, वाद-विवादमां सामा पक्षने परास्त करवानी के विजय प्राप्त करवानी कुशलता हांसल करवानी रीत दर्शाववानो छे, जे ग्रन्थारम्भे लखेला तृतीय पद्यमां तेमणे ज स्पष्ट कर्यु छे. ए समय पण दार्शनिक-धार्मिक वादविवादनो हतो, एटले आवी रचनाओ घणी आदेय बनती होय तो ते संभवित छे. आ ग्रन्थ त्रण परिच्छेदोमां वहेंचायो छे. प्रथम परिच्छेदमां प्रमाणना स्वरूपनी चर्चा छे. परन्तु अन्य ग्रन्थोमां जेम प्रथम अन्य-अन्य दर्शनोने मान्य एवा 'प्रमाण स्वरूप'नुं निरूपण थाय, अने पछी जैन दृष्टिए ते तमामनु साथे के क्रमशः खण्डन करवापूर्वक जैनसम्मत 'प्रमाणस्वरूप' प्रतिष्ठित थाय, ते पद्धति आ ग्रन्थमां जोवा नथी मळती. आमां तो कर्ताने बोलतां बोलतां जे पळे जे मुद्दो के युक्ति मनमां ऊगे, तेनुं प्रतिपादन, पूर्वापरनो सम्बन्ध जळवाय छे के केम तेनी चिन्ता राख्या विनाज, तेओ निरूपतां जाय छे. रमतियाळ तेमज बोलचालनी भाषामां लखी रह्या होय तेवू अनुभवाय. शक्य छे के ग्रन्थकार पोते कोई गम्भीर वाद-विवादमांथी पसार थया होय अने तेना परिपाकरूपे आ अन्योने मार्गदर्शक रूपरेखात्मक ग्रन्थरचना तेमणे सर्जी होय. द्वितीय परिच्छेदमां प्रमाणोनी संख्या वगेरे प्रमाण-सम्बद्ध बाबतोनी विचारणा थई छे. तो त्रीजा परिच्छेदमा छ दर्शनोनी व्यवस्था अर्थात् स्वरूप परत्वे चर्चा छे. 'षड्दर्शनसमुच्चय'नो आभास थाय, पण वस्तुतः तेवू नथी. अहीं तो दरेक वाते ग्रन्थकार खण्डनना लडायक मिजाजमां ज होवानुं जणाई आवे छे. एकंदरे जोतां ग्रन्थ भाषा-शैलीनी रीते सरल लागवा छतां जरा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 19 कठिन अने दुर्बोध छे तेम मानवू पडे तेम छे. _ ग्रन्थकार आ. मुनीश्वरसूरि छे तेवू प्रारम्भे आवता पांचमा पद्य परथी प्रतीत थाय छे. ते श्लोक प्रमाणे, "मुनीश्वरसूरिए मुनिहर्ष मुनिने आ हस्तबाण-(हाथवगुं बाण ?) आपेल छे", अने ते पण कोई "तार्किकोनी पर्षदामां जवानो सुयोग आवी लाग्यो हशे ते वखते", एवो अर्थ नीकळी शके छे. ग्रन्थकारना सत्ताकाळ विष के अन्य कशी माहिती सांपडती नथी. मात्र आदर्श प्रतिना मथाळे 'नमः श्रीजिनराजसूरिभ्यः' एम लखेलुं छे, तेना आधारे ग्रन्थकार जिनराजसूरिना शिष्य के तेमनी परंपराना साधु होय तेम मानी शकाय. जिनराजसूरि खरतरगच्छना पंदरमा शतकमां थयेला एक प्रमुख आचार्य छे. तेमना शिष्यनी आ रचना पंदरमा शतकनी होवानुं अनुमान थाय छे. The New Catalogus catalogorum (Vol. 13, p. 46) (1991 A.D. Madras) मां आ विषे एटलो ज उल्लेख छे के "प्रमाणसार - Jain. by munisvarasuri" उपरांत, तेमां मुनि पुण्यविजयजीना संग्रहनी सं. अने प्रा. प्रतिओना सूचिपत्र (अमदावाद १९६३) नो हवालो आपवामां आव्यो छे. मुनीश्वरसूरिना शिष्य मुनिहर्ष मुनिए कातन्त्र व्याकरण पर 'कातन्त्रदीपक' नामे विवरण लख्यु होवानी तथा ते अपूर्णप्राय मळतुं होवानी माहिती जयपुरस्थित विद्वान् म.श्रीविनयसागर तरफथी सांपडी छे, जे मुनिहर्ष मुनिनी संप्रज्ञतानो ख्याल आपी जाय छे. आ ग्रन्थनी बे प्रति मळी छे. एक, भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभास्थित श्री भक्तिविजयजी शास्त्रसंग्रहनी प्रति, जेनो क्रमांक ८८८ छे, अने ९ पानांनी प्रति छे. तेमां प्रान्तभागे 'स्वोपज्ञः प्रथमादर्शः' लखेल छे, ते परथी आ प्रति ग्रन्थकारे स्वयं प्रथम प्रतिलिपि तरीके लखी होवानी छाप पडे छे.प्रतना दिव्य अक्षरो तथा लेखशैली पण, प्रति पंदरमा सैकानी होय तेवू अनुमान करवा प्रेरे तेवी छे. मात्र एक ज प्रश्न छे के जो कर्ताए स्वहस्ते लखेल होय तो आटली बधी अशुद्ध केम ? केटलीक तो महत्त्वनी क्षतिओ जोवा मळे छे, जे टिप्पणीरूपे नोंधेला थोडाक पाठान्तरो जोतां जणाई आवे छे. __आनी बीजी प्रति लींबडीना जैन ज्ञानभण्डारनी छे, जे अपूर्ण छे, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - २५ मात्र बे ज परिच्छेद प्रमाण छे, छतां तुलनामा घणी शुद्ध प्रति छे. त्रीजो परिच्छेद धरावतां शेष पानां अलभ्य होई तेना लेखक तथा लेखनसमय विषे कोई स्पष्ट निश्चय थतो नथी. आम छतां तेनी लखावट जोतां ते १६मा सैकामां लखाई होय तेवुं अनुमान थई शके तेम छे. १० पानांनी ते प्रतिमां ४थुं पत्र नथी, अने पाने पाने अनेक उपयोगी टिप्पणो लखेलां जोवा मळे छे. झांखी जेरोक्स प्रतिकृतिमां ते टिप्पणो उकेलवां जो के विकट छे. लींबडी भंडारमां क्र. ५४ तरीके ते प्रति नोंधायेली छे. 20 उपरोक्त बन्ने प्रतिओनी जेरोक्स नकल वर्षो पूर्वे प्राप्त थयेली. उक्त बन्ने भण्डारोना कार्यवाहकोनो आभार मानुं छं. 'प्रमाणसार' नुं सम्पादन करवानी भावना घणां वर्षोथी मनमां हती. केटलांक वर्ष पूर्वे स्वर्गस्थ परमविदुषी अने चारित्र सम्पन्न साध्वी श्री पूर्णभद्राश्रीजीने, प्राचीन साहित्यना अध्ययन - संशोधनमां रस जागृत थतां, आ ग्रन्थनी प्रतिलिपि करवानुं कार्य तेमने सोंप्युं हतुं. पोतानी केन्सरग्रस्त नाजुक स्थितिमां पण तेओए आनी प्रतिलिपि स्वहस्ते करेली. परन्तु सम्पादनकार्य हाथ पर लेवाय ते पूर्वे ज तेमनो कालधर्म थयो, तेथी आ कार्य आम ज पडी रह्युं हतुं, जे वर्षो बाद आजे, नवेसरथी प्रतिलिपि - लेखन तथा सम्पादन पूर्वक अत्रे रजू थाय छे. भावनगरनी प्रतिना आधारे वाचना तैयार करी छे, अने लींबडीनी प्रतिमांथी पाठान्तर तथा टिप्पणो नोंध्यां छे. -X नमः परमगुरुभ्यः श्रीजिनराजसूरिभ्यः ॥ ब्रूमः श्रिये तं वरिवस्य सार्वं रहस्यमुद्दिश्य विशेषदृष्टीन् । स्पष्टाष्टकर्मप्रकृतीर्विजित्य जग्राह योऽनन्तचतुष्टयं स्राक् ॥१॥ तर्कान्तविद्यां समवेक्ष्य जैनतीर्थान्यपि क्षोणिभुजां सभाश्च । स्वान्तं यदाशान्तरसान्तरासीन्मुदा तदाऽयं विहितोऽस्ति गुम्फः ||२॥ अजिह्मवाग्ब्रह्मवशात् प्रमाणसारप्रबोधाख्यमधीत्य गुम्फम् । अखर्वगर्वान् प्रतिवादविद्यामुद्रार्थिनो दिग्विजये जयन्तु ||३|| Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 रहस्यं प्रोक्तुकामस्य प्रमाणस्योपदर्शनम् । सागरं गन्तुकामस्य हिमवद्गमनोपमम् ॥४॥ तदित (द) मा: किमेतत् ? अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्को रहस्यज्ञानं प्रमाणमिति । प्रमाणेन चरन्ति प्रामाणिकाः तेषाम् । श्रीमुनीश्वरसूरीन्द्रै- दत्तस्तार्किकपर्षदि । मुनिहर्षमुनेरेष हस्तबाणः प्रमाणतः ||५|| ननु प्रामाणिकानां चतस्रो विप्रतिपत्तयो भवन्ति प्रमाणस्य स्वरूप (प) १, सङ्ख्या २, फल ३, विषय ४ लक्षणाः । 21 तत्र 'प्रमाणस्य स्वरूप' मिति | आदितोऽत्र 'साकांक्षं वचनं प्रमाणम् । न, तद्विप्रमिणोतीति प्रमाता । आत्मा वा प्रमाणम् ! न, साधकत्वात् कर्तृत्वाच्च । प्रमीयते योऽर्थः प्रमेयं वा प्रमाणम् । न, साध्यत्वाद्, अस्य कर्मपदत्वाच्च । प्रमातीति प्रमा सम्यगनुभव एव वा प्रमाणम् । न, प्रमा- प्रमाणयोर्महान् भेदः। प्रमायाः कार्यरूपत्वात् तावत्करणस्य कारणरूपत्वादिति । अथ 'घटमहमात्मना वेद्मी'ति - 'अह' मित्यात्मा ज्ञाता कर्ता १, 'घट' मिति ज्ञेयं कर्म २, 'वेद्मी'ति फलं क्रिया ३, केन ? 'आत्मना ' - ज्ञानेन ४, करण व्युत्पत्तेश्च कर्तृकर्मविलक्षणत्वाद् वेदितव्य ( व्यं) प्रमाणम् । प्रमातुः साधकत्वेन प्रमेयस्य साध्यतः । प्रमायाः फलरूपत्वात् साधनं त्वन्यदेव हि ॥१॥ प्रमीयते - परिच्छिद्यते संशयादिव्युदासेन वस्तुतत्त्वार्थोऽनेनेति प्रमाणमिति मुष्टिः । अथ किम् ? । अव्यभिचारि प्रमाणं सम्यग्ज्ञानमिति यावत् । अपीदमेवं, परं व्यभिचारादन्यत्र । स तु संशयादिभ्य एव प्रादुःष्याद्, अतस्तया (स्ते आ) विष्कृत्याऽनभ्यासमित्याः । यथा तत्र उभयकोट्यवलम्बी संशयः । यथा कश्चिद् विपश्चित् कुतश्चिदन्धतमसे परितः प्रसर्पति प्रान्तरे शिरः पाण्यादिलक्षणं क्षणं स्थाणुमालोक्य सन्देग्धि'किं स्थाणुरयं' ? एका कोटि:, 'आहोश्वित् पुरुषो वा ? ', द्वितीया कोटिः । अनिश्चितज्ञानमिति यावत् । तत्र अनिश्चितैककोट्यवलम्बी ह्यनध्यवसायः । -पुन्नागनागवनराजिनिकुञ्जे 'किंसंज्ञको वृक्ष' इत्येका कोटिरेव । 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ अतस्मिंस्तदध्यवसायो विपर्ययः । शुक्तिकाशकले रजतज्ञानं, अन्यथाख्यातिः । एष वन्ध्यासुतो याति खपुष्पकृतशेखरः । मृगतृष्णाम्भसि स्नात्वा शशशृङ्गधनुर्धरः ॥१॥ इत्यसत्ख्यातिः । तर्जन्याश्चक्षुर्विक्षेपे 'द्वौ चन्द्रा विति, सुप्तस्य गजादिदर्शनं च । मिथ्याध्यवसाय इति यावत् । न प्रमाणमेतद्, अर्थक्रियाकारित्वाभावात् । 'यदेवाऽर्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसद्' इति न्यायपक्षः कक्षीकरणार्हः । तदितरथा प्रेक्षावतां चक्षुःसमक्षं पर्षदन्तः कथं साध्यमानं साधिमानमञ्चेदिति ब्रूमो भ्रूमोटनाश्रिताः । न हि भ्रान्तिज्ञानेऽर्थक्रियाकारित्वम् । पुनरुररीकरोति-प्रमाश्रयः प्रमाता १, प्रमाविषयः प्रमेयं २, सम्यगनुभवः प्रमा ३, प्रमाकरणं प्रमाणमिति ४ चतुष्टयम् ।। ब्रह्माद्वैत-ज्ञानाद्वैत-शून्यवादिनः प्रमाणादिचतुर्विधसत्तावादिनं प्रति विप्रतिपद्यन्ते । तथा हि अद्वैतं परमं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किञ्चन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत् पश्यति कश्चन ॥१॥ एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ इत्यादि ॥ चराचरं ब्रह्मविवर्तमेव स्त्यानीभूतं(त)घृते कणा इव । वस्तुप्रपञ्चो मिथ्या, प्रतीयमानत्वात् । वास्तवः परिणामः किं सूक्ष्मरूपः स्थूलरूपो वा ? | यथा यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा । यद्येतत् स्वर्यमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ? ॥१॥ तदेतत् पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादिविश्वं मध्याह्नार्कमरीचिकासु पयःपूर इव प्रतिभाति । किमहो सत्तावादिन्(ऽसत्तावादिन् ?)! प्रमाण्या(णा?)द्यन्तरेण कथा प्रवृत्तिहेतुकवाग्यवहारो न स्यात् । तथा च लौकायतिके बादरायणीयाभ्युपगमे कथाप्रवृत्तिदर्शनात् । अथ भवतु नाम । अद्वैतं प्रमाणसिद्धमुताऽप्रमाणसिद्धं वा? । पौरस्त्यः पक्षश्चेद्, दत्तोऽद्वैतवादाय जलाञ्जलिः । एकमद्वैतं, द्वैतीयकं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 September-2003 प्रमाणं-इति द्वैतापत्तिः । अप्रमाणसिद्धं चेत्, असिद्धमसिद्धेन साध्यते । इति चेद्, अस्तु, किं सिद्ध्यै ब्रूमः?। १३कणेहत्य वैयात्यतः परास्त्रैर्युयुत्सुरिति प्रमाणसत्तावादिनं प्रति खण्डनवादी प्रत्यवतिष्ठते । तर्हि लोकद्वैतं फलद्वैतं कर्मद्वैतं विरुध्यते । गुरुशिष्यत्वमेवेति बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥१॥ तदिदं विष्टपं द्विष्ठमिष्टं कथमद्वैतं सङ्गतिमङ्गति ? । मध्येसभं यत् प्रोच्यमानं हि नौचितीमञ्चति ॥ __ प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनोऽसद्दर्शिनश्चार्वाका अपि प्रमाणं न प्रमाणयन्ति, निगदन्ति च-यश्च परलोकात्मसर्वज्ञमोक्षाभावः प्रत्यक्षपथातिक्रान्तत्वाद् वाजिविषाणवत् । अनुमानागमौ सर्वज्ञाभावान प्रमाणम् । नास्त्यात्मा । संयोगचैतन्यमात्रमेव । धातुकीकुड्मलगुडाम्भःसंयोगादुन्माद इव प्रादुर्बोभवीति । यत्किञ्चिदेतत् पलालपूलप्रायम् । तदुदर्कतोऽनेडकमूका ब्रूयुर्नाम, का नो हानिः ? । संयोगतो भूतचतुष्टयस्य यज्जायते चेतन इत्यवादि । मरुच्चलत्पावकतापिताम्भःस्थाल्यामनेकान्तमिहास्तु तस्य ॥१॥ सुखादि चैत्यमानं हि स्वतन्त्रं नानुभूयते । मतुबर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः ॥ 'इदं सुख'मिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत् । 'अहं सुखी' ति तु ज्ञप्ति- रात्मनोऽपि प्रकाशिका ॥ इत्येवं गणशो वाचोयुक्तीनां वचोयुक्तिभिरात्मनि सिद्धे भवमोक्षौ सिद्धावेव ॥ दर्शनं तदागमः । तन्निदर्शादर्शदर्शनिनः स्वव्यवस्थाया अवस्थिताः षट्। जैन नैयायिक २ वैशेषिक ३ साङ्ख्य ४ सौगत ५ मीमांसका ६ इति । एतैस्तु प्रमाणसत्ताकोटिकुटीरमटाट्यते । एतावता प्रमाणं प्रामाण्य सिद्ध(द्धि)सौधमध्यमध्यासीनम् । सिद्धं नः समीहितम् । जितं जितं वाद्यतां मित्र ! झल्लरी । अलमलं गल्लझल्लरीझात्कारेण । किं बंहीयान् अनेहा नीरसो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसंधान-२५ निरस्यते? । उत्तिष्ठोत्तिष्ठ अप्रामाणिक ! प्रामाणिकमण्डलीतः । प्रकृतं ब्रूमहे । हे महेच्छाः ! तावदनुष्ठीयते प्रमाणगोष्ठी ॥ अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः प्रमाणाङ्गं संशयादिव्युदासविशदं प्रमाणपदमासाद्य तत्त्वज्ञानार्थी कारणोपपत्तीम॑गयते । भावा अविज्ञातपरमार्था अवान्तरभेदकारणज्ञानेन निर्मीतार्थाः स्युः । मानाधीना मेयसिद्धि-निसिद्धिश्च लक्षणात् । प्रमाणमिति साकांक्षं वचनं तत्र मानसिद्धिश्च लक्षणात् (?) ॥ तत्र लक्षणं द्वेधा-सामान्यलक्षणं १ विशेषलक्षणं च २ । तत्र स्वपरजातीयव्यावतको धर्मो लक्षणमसाधारणमेव । पटाद् घटस्वरूपं व्यावर्त्तयति, घटात् पटस्वरूपं, इति स्वपरजातीयव्यावृत्तिः । लक्षणे त्रीणि दूषणानि - अव्यापकत्वं १ अतिव्यापकत्वं २ असम्भवित्वं ३ चेति । स्वपक्षमपि न व्याप्नोति अव्यापकम् । यथाब्राह्मणश्चतुर्वेदाभिज्ञः । व्रात्येनाऽनैकान्तिकत्वात् । स्वपरपक्षसिद्धौ समत्वेऽतिव्यापकत्वम् । यथा-१“यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणः । क्षत्रियादावतिव्याप्तिः । ब्राह्मणेन सुरा पेया, द्रवद्रव्यत्वात्, क्षीरवद्, इत्यसम्भवित्वं चेति ॥ इह हि न्यायशास्त्रे चतुर्की प्रवृत्तिरस्ति - उद्देशो १ लक्षणं २ परीक्षा ३ विभाग ४ श्चेति ॥ उद्देशः किमुच्यते ? । नाम्ना पदार्थानां संक्षेपेणाऽभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथाक्रमं विचारः परीक्षा । परीक्षितस्याऽवान्तरभेदप्रकटनं विभागः ॥ ततः प्राक्सूत्रे प्रमाणस्वरूपादुद्देशः कृतः, ततो 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य चतुर्द्धा विप्रतिपत्तौ प्राक् प्रमाणस्वरूपमाह-स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । स्वं आत्मा-ज्ञानस्य स्वरूपम् । परः स्वस्मादन्योऽर्थ इति यावत् । तौ विशेषेण यथावस्थितस्वरूपेण अचेतनस्य सन्निकर्षादेः पराकरणेन अवस्यतिनिश्चिनोतीत्येवं शीलं यत् ज्ञानं [तत्] स्वपरव्यवसायि प्रमाणमिति सामान्यलक्षणम्। ततो ज्ञानमेवैतत् । ज्ञानस्यैको ह्युत्पत्तिक्षणः द्वितीयो ज्ञप्तिक्षणः । ज्ञानस्य प्रामाण्यमप्रामाण्यं च । अवग्रहेहादिभिरासन्नदशायां घटादिज्ञानोत्पत्तिक्षणे। प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यं परतः । अनभ्यासदशायां तु सानुमति धूमवत्त्वात्, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 गोपालघट्यादौ सदोषवह्निमत्त्वज्ञानोत्पत्तिक्षणे । अप्रामाण्यं परत एव ॥ ज्ञसिक्षणे तु ज्ञानस्य प्रामाण्यं संवादकज्ञानतः स्वतः प्रादुर्भवति । ज्ञप्तिक्षणे तु बाधकज्ञानतोऽनासन्नदशायामप्रामाण्यमपि परत इति ॥ तदिदं विवादास्पदीभूतमदुष्टं सिद्धं प्रमाणस्वरूपम् । ततः उत्पद्य ज्ञानं किं गृह्णीयात् ? । यत्तावदुक्तं 'प्रमीयते वस्तुतत्त्वार्थोऽनेनेति, तत् सामान्यविशेषाद्यनेकात्मकं वस्तु । पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यं सामान्यं, तदाश्रया विशेषाः । गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । यथा- आत्मनि ज्ञानं सहभावी गुणः । यथाआत्मा द्रव्यम्, ज्ञानं गुणः । क्रमभावी पर्यायः । यथा- आत्मनि नरनारक तिर्यक्त्वादिः । द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः । क्व कदा केन ९किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा ? ॥१॥ द्रव्यापेक्षया सर्वे भावा नित्याः । पर्यायापेक्षया सर्वेऽनित्याः । उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् । तद्भावाव्ययं नित्यम् । आदीपमाव्योम नित्यानित्यम् । मानाधीना मेयसिद्धिः । प्रमेयं प्रमाणसिद्धमिति ॥ 25 कथमिति परे गिरं सङ्गिरन्ते- अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूताना' मिह' प्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवायः । यथा शिलातलशकलयुगलानुसन्धायकं तार्तीर्यके ( तार्तीयीक ? ) तया रालादिद्रव्यम् । तथेन्द्रियार्थज्ञानसम्बन्धी इह प्रत्ययो विशेष्यविशेषणभावात्मकः । इह भूतले घटोऽस्ति । इह भूतले घटो नास्ति । शुक्लरूपं कृष्णरूपशून्यम् । इह शुक्लरूपे कृष्णरूपं नास्ति । गृह्यते येन यद्भवस्तदभावस्तेन गृह्यते । तदपरे प्राहु: इन्द्रियेण परिच्छिन्ने रूपादौ यदनन्तरम् । तद्रूपादिस्ततस्तस्य मनोज्ञानं प्रवर्तते ॥१॥ आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति ॥ शब्दार्थपरिज्ञानं च । वाच्यवाचकभावसम्बन्धाद् वाच्योऽर्थः । वाचक: शब्दः । स्वाभाविकसंकेतितशब्दग्रहणान्नियमितार्थस्यैव ग्रहणं किम् ? | पृथुबुघ्नोदराद्याकारवानर्थक्रियाकारि दासीशिरसि चेष्टते इति घटः । 'घट' इत्युक्ते तरङ्ग-शृङ्ग-भृङ्ग-भृङ्गारादिषु घट एवादीयते, न तु पटः । नात्र सम्बन्धाभावो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अनुसंधान-२५ वक्तुं युक्तः । अथ तदयं शब्दार्थयोर्भवंस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वाच्यवाचकभावो वा ? | प्राचि पक्षे, 'स एवाऽऽत्मा यस्ये 'ति शब्दार्थद्वये ह्येकत्वमेव, सर्वभावानां शब्दरूपताऽर्थरूपता वा । यदि शब्दरूपता, तर्हि भावानां स्ववाचकत्व स्वभावानां युगपत् सर्वदा गुमगुमायमानतापत्तेः शंकी (गी? ) तकारम्भनिभृतमिव त्रिभुवनं चकास्यात् । पट शब्दोच्चारणत एवाऽऽवरणक्रिया प्रसज्येत । भावानामर्थरूपतैव चेत्, तर्हि खड्गाग्निमोदकोच्चारणे वदनस्य च्छेद- दाह- पूरणादिप्रसक्तिः । अथ द्वये ह्येकत्वं कथम् ? । शब्दस्तु कर्णकोटरावलम्बी, साक्षात् क्षितितल मिलितकुम्भस्तम्भाम्भोरुहादिभावराशिसरित्यतस्तावत्तादात्म्यपक्षोऽपि न क्षेमकारः । तदुत्पत्तिरपि-शब्दादर्थ उन्मज्जेदर्थाद्वा शब्दः । शब्दादर्थश्चेत्, तर्हि घटशब्दोच्चारणे ति(ऽपि ) जलाहरणक्रिया सिद्धैव, को नाम सूत्रखण्डदण्ड चक्रचीवरादिकारणमीलनक्लेशमाश्रयेदिति वाक्यतः प्रयोजनं सिद्धम् । द्वितीयभिदायां तु अर्थाद्वा शब्दः । स तु ताल्वोष्ठपुटादिव्यापारादेव दृष्टः । न तु कलशादेः । 1 वाच्यवाचकभावोऽपि तदवस्थो व्यवस्थादौस्थ्यस्थेमानमास्तिघ्नुते । किं वाच्यवाचकयोर्भेदो वा १ अभेदो वा २ भेदाभेदो वा ३ ? । भेदश्चेत्, तर्हि तन्नियमितार्थग्रहणाभावादसम्बद्धतालूतालता लालग्यात् । अभेदः, कथं साक्षात् शब्दार्थावुपलभ्येते ? । तदित्ययुक्तिबन्धकीसंपर्कतोऽस्पृश्य एवाऽयं पक्षः । भेदाभेदपक्षश्चेत्, पर्यायान्तरेण कथञ्चिदविश्वग्भावात्मक: सम्बन्ध एवाऽङ्गीकृत: मुधामद्वि(?) तदिति तटादर्शिशकुन्तपोतन्यायाज्जिनोक्तिष्वेव विश्रामः । अर्थोपलब्धौ सन्निकर्षादेः प्रामाण्यमामनन्ति वैशेषिकाः । अदग्धदहनन्यायेन तान् प्रत्याचक्ष्महे । न च सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपन्नम् । तस्याऽर्थान्तरस्येव स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वानुपपत्तेः । न ह्यचेतनः स्तम्भः स्तम्भान्तरं निश्चिनोति । नहीन्द्रियवदञ्जन भोजनादेः सन्निकर्षादर्थान्तरज्ञानं संघ । द्रव्येन्द्रियं तु भावेन्द्रियाधीनम् । भावेन्द्रियं ह्यात्मज्ञानमेव । युक्तं तस्वीकृतं स्यादिति फलितार्थः । अपि च अर्थस्य प्रमितौ प्रसाधनपटु प्रोचुः प्रमाणं परे तेषामञ्जनभोजनाद्यपि भवेद् वस्तु प्रमाणं स्फुटम् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 आसन्नस्य तु मानता यदि तदा संवेदनस्यैव सा स्यादित्यन्धभुजङ्गरन्ध्रगमिवत् तीर्थैः श्रितं त्वन्मतम् ||१|| अत्यन्त व्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारणादन्योऽन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम् । एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यता स्वाऽनुवृत्तिः । सर्वत्र गोत्वंगोत्वमिति । भावाः सामान्यविशेषात्मकाः स्वभावसामग्रीतः स्वत एव सामान्य विशेषार्प्पकाः स्युः । घटे घटत्वमिति सामान्यम् । तदाश्रयाः सङ्ख्यावर्णपरिमाणादयो विशेषाः ॥ निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥१॥ 27 सामान्यरहिता विशेषा माण्डूकजटाभारानुकाराः । विशेषरहितं सामान्यमपि तदवस्थम् । तदिति सामान्यविशेषाद्यनेकात्मकं वस्तु प्रमेयम्, अनुगतविशिष्टाकारप्रतीतिविषयत्वात् पूर्वापर (रा) कारपरित्यागोपादानस्वरूप परिणामेनाऽर्थक्रियाकारित्वाच्च सिद्धम् ॥ सामान्यपक्षवादिनो मीमांसकाः । सामान्यतोऽर्थक्रियां कुर्युः । विशेषवादिनो बौद्धाः । विशेषानेव प्रमाणयन्ति, सामान्यं पराकुर्वन्ति । जैनास्तु अवियुतसामान्यविशेषस्वरूपवादिनः ॥ अथ तत्त्वं अनन्तधर्मात्मकमेव, सत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति । एकान्तपक्षोऽपि न क्षोदक्षमः । “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । " तावदेकान्तनित्यस्य सत्त्वस्याऽऽत्मादेः सुखदुःखोपभोगः कथम् ? । एका सुखावस्था, अपरा दु:खावस्था । नहि गुणो गुणिनमतिरिच्य क्वचन केवलोऽवलोकितः । अवस्थाभेदेऽवश्यमवस्थावतोऽपि भेदः स्यात् । " अयमेव ४ भेदो भेदहेतुर्वा यद् विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्चेति" । स्वभावभेद एव हि कारणमनित्यतायाः ॥ तर्ह्येवमेकान्तनित्यात्मनोऽनित्यतैव प्रत्युत भवितुमर्हति । लाभमिच्छतो मूलक्षितिरेवैवम् । गेहेनर्दितया स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् । न तु प्रामाणिक प्रकाण्डपर्षदि । एकान्ताऽनित्यस्याऽऽत्मनस्तावत् कृतकर्मनाशोऽकृतकर्मोपभोगश्च । येनाऽनित्यात्मना सुकृतं कृतं स काकनाशं नष्टः । क्षणान्तरे सान्वयविनाशेन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुसंधान-२५ वासनां दत्वा अलक्तद्रवभावितबीजे कर्पासे रक्तता यथा, दग्धे 'रामठे परिमलो यथा । तथा चामनन्ति-अपर एवात्मा अवतातरीति । तथा सति प्राक्कृतोपभोगोऽपरस्य कथंकारं प्राग्भवे स्मारं स्मारं दत्तमादत्ते कथमिति । येनाऽनित्यात्मना सुकृतं कृतं स तावच्चौरंकारं पलायितः । परकृतं कोऽयमपरः सम्बन्धविनाकृतो लभते ? । यः सापराधः स एव दण्ड्यो अत्र न तु माछ्यो (त्स्यो) न्यायः ॥ क्षणान्तरोत्पन्न आत्मा स्वकृतमेवोपभुङ्क्ते, न तु परकृतम् । अथ यत्तु(त्त)दस्तु नाम । अनित्यात्मगता सा वा वा(वासना)ऽऽत्मनो भिन्नाऽभिन्ना वा ? । भिन्ना चेत् कथं तस्येति सा ? । अभिन्ना चेत्, सा नित्याऽनित्या वा ? । नित्या चेत् स्वपदे कुठारप्रहारः । प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानम् । अनित्या चेत्, सा कौतस्कुती सहैवाऽत्मना वराकी काकीव करतालीभिस्त्रासितैव ।। अथ क्षणिकात्मा सान्वयं निरन्वयं वा विनश्यति ? । सान्वयं चेत्, तर्हि समूलकाषंकषित एव । द्वारिकादाहे सन्देसा(शा)र्पकसन्देहवत् तत्र[न] कोऽपि क्षणान्तरभावी । सोऽयं ताथागतधर्मकीर्तेः पन्था दुस्तरः । का गतिस्तावदस्य ? । अथ क्षणिकात्मा निरन्वयं विनश्यति । अन्वयरूपां वासनां दत्वा क्षणान्तरभावी भवति चेत् । ननु धर्मोत्तरवादिस्तव सन्धासम्बन्धाभिसन्धिरिति ।। यत् किलात्मा क्षणविनाशी । अन्वयरूपा वासना तिष्ठति । सा वासनापरम्परां प्रवर्तयतीति नूनं नित्यानित्यगुण गणोपभोगभाक् स एवात्मा। अन्धभुजङ्गरन्ध्रेमिव । यथाऽन्धो भुजङ्गो यत्र तत्र भ्रान्त्वा सरलस्वरन्ध्रमेव विशति । परैः पक्षान्तरे२७ जिनमतमेवाऽऽश्रितम् || मनस्ते कुत्रचिद् यातु वपुस्ते वर्तते नवा । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् ॥इति।। सौगत- वृषष्यन्ती प्रतिवादिषिङ्गवाग्भिरपि प्रस्तुतार्थः समर्थितः स्यादेव ॥ किञ्च - सत्त्वस्याऽनन्तधर्मात्मकत्वं भूयः प्रतिजानीते जैनः । नन्वेकान्तनित्यानित्यस्य क्रमाऽक्रमाभ्यां ह्यर्थक्रियाकारित्वं न घटते । एकान्तनित्यानित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुर्यादक्रमेण वा ? । क्रमो हि पौर्वापर्यम् । पाकक्रियायामधिश्रयणादिका क्रिया पूर्वभागः । निष्पन्नमित्यपरभागः । तत्रैकान्तनित्यस्य पूर्वापरभागौ न घटेते । अवस्थाभेदतोऽनित्यताप्रसक्तेरिति । १. हिङ्गु ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 29 तावेकान्ताऽनित्यस्यापि न युज्येयाताम् । पूर्वभागोऽपरभागं यावत् क्षणक्षयी न प्रतीक्षते, मंक्षु क्षीयते च । युगपदुभयोरपि न सिद्धिरिति तात्पर्यार्थः ॥ अनन्तधर्मात्मकत्वमिति स्याद्वादलक्षणम् । 'सदेव२९ स' दुन्नी (नी) तिवाक्यम् १ । 'स्यात् सत्' नय(?)वाक्यम् २ । 'सदिति घटः' प्रमाण(?)वाक्यम् ३ । “घटोऽस्तीति न वक्तव्यम् । सन्नेव हि घटो यतः ॥" सत्तायामपि सत्तायोगेऽनवस्था । "नास्तीत्यपि न वक्तव्यं, विरोधात् सदसत्त्वयोः" ॥ प्रत्यक्षविरोधः । "सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ॥२॥ एकस्मिन् भावे सत्त्वमसत्त्वं च विरोधः । परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः । नैकतापि विरुद्धानामुक्तमात्रविरोधिनी ॥३॥ विरोधे चाऽविरोधे च प्रमाणं कारणं मतम् । प्रतीयते चेदुभयं विरोध: कोऽयमुच्यते ? ||४|| नीलोत्पले द्वयं यथा । नरसिंह इति । भागे सिंहो नरो भागे । द्वयस्यैकार्थकारित्वान्न विरोधः । अथ गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे ॥ तथा मेचकवस्तुष्वपि द्वयं न विरुद्धं, सत्प्रमाणप्रसिद्धेरिति । एकान्तनित्यो भावः कथं कार्यकारणतामश्नुते ? । एका कारणावस्था, अपरा कार्यावस्था । कारणं त्रेधा-समवाय(यि)कारणं १, असमायिकारणं २, निमित्तकारणं ३ चेति । प्राप्तानां प्राप्तिः समवायः । यथा घटे रक्तत्वादिरूपसमवायः। अप्राप्तानां प्राप्तिः संयोगः । यथा-इह कुण्डे बदराणि। तत्र समवायिकारणं घटोत्पत्तौ मृदादि, पटोत्पत्तौ तन्तवः । असमैवायिकारणं सूत्रखण्डदण्डचक्रचीवरादि, पटोत्पत्तौ तुरीवेमादि । निमित्तकारणं कुलालादि, पटे कुविन्द इति । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसंधान-२५ __ अत्र कारणे कार्योपचारात् कारणं मृदादि, कार्यं घटादि । कारणस्य कार्यं चेत् तदनित्यतापत्तिः । यत् कृतकं तदनित्यम् । तुल्यकालत्वे युगपत् चेत्, किं कस्य कारणं किं कस्य कार्यम् ? । उभयोस्तुल्यकालत्वाद्, अङ्गुल्योरिव ॥ एकान्तानित्यपक्षोऽपि क्षणक्षयित्वात् कथं कार्यकारणभावमासादयति? । कारणापलापे कार्यमेवास्तीति चेत्, तदुदितः यो यदनन्तरः । कारणापेक्षया कार्य, कार्य कारणमन्वेषयति । क्षणिकत्वे तावत् कारणं कार्यं यावन्न प्रतीक्षते२३ । सौगतमते कारणमसत् कार्यमप्यसत् । कारणे विलीने कार्यं "किमधिकृत्य प्रवर्तते । कार्यं तु कारणाधीनमेव । कारणाभावे कस्य कार्यमिति । क्रियते इति कार्यम् । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वोत्पत्तौ कृतक इत्युच्यते । 'सापेक्षमसमर्थम्' । कारणापेक्षं हि कार्यम् । कार्यकारणत्वे चाऽर्थक्रियाकारित्वम् । तस्येवं कार्यं पर्यायरूपमनित्यं, कारणं द्रव्यरूपं नित्यम् । अथेत्थमप्यनेकान्तमतं प्रसिद्धिसमाधिसौधमध्यमध्यास्ते । तथा चैकान्तनित्यानित्ययोः का गतिः ? । एकान्तनित्यवादी साङ्ख्योऽनित्यपक्षे दोषलक्षमाख्याय प्रतिपक्षं सौगतमाक्षिपति, नित्यपक्षे३५ गुणांश्च प्रकाशयति । एकान्तानित्यवादी बौद्धोऽपि स्वपक्षं सगुणं जल्पन् एकान्तनित्यपक्षं सदोषं प्रतिजीनीते । साङ्ख्यं पराकुरुते ।। तदेवं कण्टकेषु परस्परध्वंसिषु सोऽयं नित्यानित्यगुणवाननेकान्तः परभा गतः सर्वोत्कर्षेण वर्तते । एवं सति ह्यनन्तधर्मात्मकता प्रणिगद्यमाना हृद्यैव । तथा हि पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥१॥ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥२॥ प्रध्वस्ते कलशे सु(शु)शोच तनया मौलौ समुत्पादिते पुत्रः प्रीतिमवाप कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । पूर्वकारपरिक्षयस्तदपराकाराश्रयस्तद्वयाधारश्चैतदिति स्थितं त्रयमिति न्यायावलीढं वचः ॥३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 31 अपि च- स्याद्वादः प्रमाणस्वरूपं । स्यादित्यव्ययं अनेकान्तद्योतकम् । स्याता उपलक्षितः सदसन्नित्यानित्याभिलाप्यानभिलाप्यो वादः स्याद्वादः । तत्रेयं सप्तभङ्गी 'स्यादस्त्येव सर्व' मिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः १ । स्यानास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयो भङ्गः २ । स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयो भङ्गः ३ । स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थो भङ्गः ४ । स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यं निषेध (विधि)कल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया पञ्चमो भङ्गः ५ । स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यं निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया षष्टो भङ्गः ६ । स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यं क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया सप्तमो भङ्गः ७॥ या प्रश्नाद् विधिपर्युदासभिदया बोधच्युता सप्तधा धर्मं धर्ममपेक्षवाक्यरचनाऽनेकात्मके वस्तुनि । निर्दोषा निरदेसि(शि) देव ! भवता सा सप्तभङ्गी यया जल्पन् जल्परणाङ्गणे विजयते वादी विपक्षं क्षणात् ॥ ग्रन्थगौरवभयादवैतावदुक्तम् । विस्तरतः स्याद्वादरत्नाकरादवसेयम् ॥ इति प्रमाणसारे प्रमाणस्वरूपप्ररूपकः स्वोपज्ञः प्रथमादर्शः ॥१० (२) अथ प्रमाणस्वरूपविप्रतिपत्तिहेतुं प्रदर्श्य प्रमाणसङ्ख्याप्रतिपत्तिमुसन्ति४२ । अथाऽनेकान्तमतप्रामाण्यमभ्युपगम्य जितकासी प्रत्युत प्रत्यवस्थानपुरःसरं परवादिनं प्रतिवादी जैनः प्रतिजानीते ।। ननु भो वादिन् ! प्रश्न:४३ क्रियताम् । परः- "कियन्ति प्रमाणानि' ? । इत्युक्ते जैनः - जिज्ञासाऽऽविष्करणं प्रश्न इति । ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा । अत्र ज्ञाते सति पृच्छा, अज्ञाते वा ? । सुनिश्चिताशेषपदार्थपरमार्थस्य किमर्थं पृच्छा ? । अज्ञाते वा क:४४ कृती कर्ममर्मविनाकृतेन वृथाप्रलापिना सम्यग् वाग्जन्मवैफल्यं नाटयति ? । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ 32 32 अनुसंधान-२५ परः - ४५एवं भवदभिमतं मतं विवेचयाम इति चेत् । तत्कि सामान्यलक्षणप्रश्नो वा विशेषणलक्षणप्रश्नो वा ? । न परः । को नामाऽपक्रियमव्यवहार सामान्यमाद्रियते ? । 'भाना एव हि भासन्ते संनिविष्टा यथा तथा' । इति । जातिः सामान्यम् । गोत्वं सर्वत्र । इयं कृष्णा गौरिति दोहनक्रियायां तस्यामेवाऽर्थक्रियाकारित्वम् । न तु सर्वजातौ । मैवम् । किं तत्र गवि स्वरूपसत्त्वं स्वीक्रियते न वा ? । अजातित्वेन खुरककुदः(द) सास्नालक्षणानडुहोऽपि दोहनप्रसक्तेः । स्वरूपसत्त्वाभावात् । स्वरूपपसत्त्वं चेत. तदेव सामान्यम् । तत्रैव सङ्ख्यापरिमाणादिविशेषा इति । निर्विशेष हि सामान्यं प्रागुक्तयुक्त्या सिद्धमेव, किं पिष्टपेषणम् ? । तत्र सामान्यतः प्रमाणलक्षणमुक्तम् । सम्प्रति विशेषतः प्रस्तुतमनुसन्धीयते ॥ प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वे प्रमाणे । सार्वज्ञं ज्ञानं प्रथमं जानाति, ततः पश्यति । अस्मदादिज्ञानं प्रथमं पश्यति, ततो जानाति । आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः । । नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ॥१॥ आगमप्रमाणं निषेधकं क्वापि विधायकम् । प्रत्यक्षं तु विधायि(य)कमेव। 'न निषेद्ध' कोऽर्थः ? । वैशेषिकमतमुद्दिश्य प्रत्यक्षमनुमानाधीनं चक्षुरादिप्रकाशकम् । ननु ग्राहकं पूर्वानुभूतं तदाकारतया तदिष्टं साध्यं साधयतीति । प्रमाणेतरसामान्य-स्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥१॥ इति । चार्वाका अपि प्रत्यक्ष(क्ष)योग्यार्थमात्रग्राह का गिरं सङ्गिरन्ते स्म।नास्त्यात्मा, प्रत्यक्षप्रमाणातिक्रान्तत्वादिति ।। _ 'अक्षं अक्षं प्रति प्रत्यक्ष'मित्यव्ययीभावान्नियतनपुंस्त्वं' स्यात् । अक्षशब्दादपि चेत्, न चैवं स्पर्शनादिप्रत्यक्षं नैतच्छब्दवाच्यं स्यादिति । अतः अक्षमिन्द्रियं, ततः प्रतिगतं प्रत्यक्षमिति सिद्धम् । तदिदं५१ प्रत्यक्षस्वरूपस्य Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 संवेदनस्य स्वाभाविकसामर्थ्यसंकेतितार्थबोधबुद्धिशब्दाभ्यां अनुमानाद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम् । तत् प्रत्यक्षमपि द्विप्रकारं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । तत्र इन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तं देशत: सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् । तत्रेन्द्रियाणि विषयिणः पञ्च - स्पर्शन १ रसन २ घ्राण ३ चक्षुः ४ श्रोत्राणि ५ । विषया अपि पञ्चेति स्पर्श १ रस २ गन्ध ३ रूप ४ शब्दाः ५ । - रसन- स्पर्शन-प्राण-: -श्रोत्राण्ये ५२ (णी?) न्द्रियताबलात् । चक्षुरप्राप्यविज्ञातृ मनोवत् प्रतिपद्यताम् ॥१॥ 33 अपराणीन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि । यथा श्रोत्रेन्द्रियं शब्दपुद्गलं प्राप्यैवार्थं गृह्णीयादिति । तावच्चक्षुरप्राप्यकारि अन्येन्द्रियताबलत्वान्मनोवत् । अन्येन्द्रियासदृशं चैतत्, तस्मादप्राप्यकार्येव । अनिन्द्रियमनित्यं आत्मपरिमाणं मनः । सांव्यवहारिकं मानसमपि प्रत्यक्षम् ॥ परमते तु नित्यमणुपरिमाणं मन इति ॥ चेतः सनातनतया कलितस्वरूपं, सर्वापकृष्टपरमाणुपवित्रितं च । प्रायः श्रियः प्रणयिनीप्रणयातिरेकादेतत्करोति हृदये न तु तर्कतज्ञः ॥ १ ॥ इत्यपि सण्टङ्कविटङ्कः । पारमार्थिकज्ञाने कैवल्ये ह्यात्ममात्राधीनत्वादिति विभङ्गि प्रतिपातिज्ञानस्य संक्षिप्तत्वादेव । मनसो नित्यता स्वप्नेऽपि दुर्लभा स्यादित्युत्तानार्थः ॥ इन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तमपि प्रत्यक्षं चतुर्द्धा । अवग्रहेहावाय धारणाभेदादेकशश्चतुर्विकल्पम् । एकसामयिकः सत्तामात्रग्राहकोऽवग्रहः । विशेषाकांक्षणमीहा । विशेषनिर्णयोऽवायः । स एव दृढतमावस्थापन्नो धारणा ॥ ज्ञसौ हि क्रमोऽमीषामयमेव, अन्यथा प्रमेयाऽनवगतिप्रसङ्गः । सामान्यमात्रग्राही प्रथमसामयिकोऽर्थावग्रहः । क्रमाविर्भूतापूर्वापूर्ववस्तुपर्यायप्रकाशकः स्यात् । संशयादिनिरासान्यथानुपपत्तेः । क्वचिदवग्रहादीनामाशूत्पादात् । ज्ञानोत्पत्तिक्रमस्याऽनुपलक्षणं हि युगपन्नागवल्लीदलशतव्यतिभेदवच्चेति । सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् ॥ 1 तत्र पारमार्थिकं चात्ममात्रापेक्षं प्रत्यक्षम् । तद् द्विविधं-अवधिमनःपर्यायज्ञानभेदात् । क्षेत्रावधिरूपिद्रव्यगोचरं भवगुणप्रत्ययं ह्यवधिज्ञानम् । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 संयमविशुद्धेरुत्पन्नं मनोद्रव्यपर्यायालम्बनं मन:पर्ययज्ञानम् । सकलं तु द्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्र्या क्षपक श्रेण्युपशम श्रेणिभ्यां च क्षीणमोहगुणस्थानोदये ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीया - ऽन्तराय - मोहनीय- अशाता वेदनीयकर्मप्रकृतिषु समूलकाषंकषितासु आयुर्नामगोत्रसातावेदनीयकर्मप्रकृतिषु दग्धरज्जुप्रायासु ५५ सतीषु करकलितामलकीफलवत् समस्तवस्तुपर्यायसाक्षात्कार स्वरूपं केवलज्ञानम् ॥ अत्र पुरुषविशेषप्रकृतयः । अधमाधमः १, अधम: २, विमध्यमः ३, मध्यमः ४, उत्तम: ५, उत्तमोत्तमः ६, इत्येतादृग्विधविष्वद्यङ्मतिविविधबुधसविशेषपुरुषविशेषस्य निःशेषिताशेषदोषस्य हि केवलित्वम् । आत्मनः केवलावस्थानमिति यावत् । तथा सति कृतज्ञानावरणविवरतिमिर व्यतिकरपरिक्षये सार्वज्ञमेव । ननु पुरुषसेमुखी (शेमुषी) तारतम्ययोगतो ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तमेव ॥ अत्र ताथागतः प्रत्यवतिष्ठते । सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ? ॥१॥ अत्र सर्वदर्शित्वे सर्वज्ञत्वे च तात्पर्यं हि सर्वगतपरिज्ञानाभावादन्वय व्यतिरेकाभ्यां हेयापादेयस्वरूपप्ररूपणमसङ्गतं वनीवच्यते ॥ तद्वानर्हन्निर्दोषत्वा [त्], निर्दोषोऽयं प्रमाणाऽविरोधिवाक्यात् । ररूपम् । अनुसंधान-२५ इति विशेषार्थः ॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ? ॥ न च कवलाहारेण सार्व्वज्ञं हीयते । ज्ञानं आधेयभूतं, शरीरमाधा देहो हि पुग्गलमओ आहाराईहिं विरहिओ न भवे । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ इत्याप्तोक्तेः ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 उत्पन्ने ज्ञाने विशदत्वमेव न त्विन्द्रियतृप्तिः । अस (श) नायोदन्ययोराहारेणैव तुष्टिः । ज्ञानं ह्यात्मगुणः, आहारसंज्ञा तु शरीरस्य । क्षुधोदन्ये हि वेदनामुत्पादयतः । शातावेदनीयशेषमस्तीति चेत् । अतो वेदनीयान्तर्भूते एते, नैव मोहनीयकर्मप्रकृती । इति केवलिभुक्तिः ॥ ६ स्त्रीवेदमजितं कर्म, स्त्रीपुंसावात्मकर्मक्षये हि मुच्येते । आत्मा ह्युभयत्र समान एवेति स्त्रीमुक्तिः ॥ महाव्रतिनां हि द्वेधा नयः निश्चयो व्यवहारश्च । व्यवहारनयः समवसरणादिभिर्जिनैरपि स्वीकृतः । व्यवहारनये हि प्रतिष्टार्थं भवत्प्रव्रजितादिभिर्वस्त्रप्रावरणमाद्रियते गुरुभिर्न । कोऽयं गुरुशिष्यन्याय: ? । छद्मस्थैस्तु तीर्थंकरातिशयस्पृहां तु स्वप्नेऽपि दुर्लभ्या । व्रीडापदं द्युभयत्र समानमेवेति सिद्धा वस्त्रप्रतिष्ठा ।। इति प्रस्तावागताः प्रकटं दिक्पटाः परिचये पर्यनुयोज्याः || अथाऽस्पष्टं परोक्षम् । स्मरण १ प्रत्यभिज्ञान२ तर्का३ ऽनुमाना ४ गम ५ भेदतस्तत् पञ्चप्रकारम् । तत्र नैयायिकाः स्मरणज्ञानं प्रमाणाङ्गं नाभिमन्यन्ते । तन्मते ज्ञानमर्थजं, स्मरणं त्वविद्यमानस्यैव पदार्थस्य । तत्तत्संस्कारप्रबोधादुद्भूतमनुभूतार्थगोचरं तदित्याकारं वेदनं स्मरणम् । यथा-स देवदत्त इति । तत्तीर्थकरबिम्बं च । ननु त्वन्मतेऽपि अनुमानमविनाभावभावितधूमधूमध्वजयोः पूर्वानुभवस्मरणादेव प्रमाणमनुमानम् । अप्रामाणिकस्मरणसन्दर्शित- स्याऽनुमानाङ्गस्य स्वीकारः कथं युक्तियुक्तः स्यादिति । परं पूर्वानुभूतसाधनादविद्यमानस्यैव साध्यस्य वह्निमत्त्वादेः परिज्ञानम् । तस्यापि कालान्तरे क्षेत्रान्तरेऽपि प्रत्यक्षीकरणार्हत्त्वाददोषः । एवं तत्तत्संस्कारप्रबोध:५८ साधनं, पूर्वानुभवसंवेदनं साध्यं सिद्धमनुमानाङ्गमिति ॥ - तत्र प्रत्यभिज्ञानं ह्यनुभवस्मरणसाधनाद्यदभिज्ञानं शबलशाबलेयादि परिणामसामान्यवृत्त्या सर्वत्र गोत्वविषयं स एवाऽयं जिनदत्त' इत्यादि । यथा चैत्राभिज्ञानान्मैत्रोऽपि साध्यते ॥ वैशेषिकोपमानं तु गोसदृशो गवय इति । तथा गोविसदृशो महिष इत्यपि स्यात् । नालिकेरद्वीपवासिनो हि द्वयमप्यप्रसिद्धमिति दुर्दुरूढकण्टकोद्धारः ॥ १. तदित्यतीतार्थग्राहिणी प्रतीति: स्मृतिः ॥ 35 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अनुसंधान-२५ तत्र तर्क ऊहापरनामा विचार इति यावत् । कालत्रयवत्तिनोः साध्यसाधनयोरविनाभावसम्बन्धव्याप्त्या वाच्यवाचकविषयाविष्करणम्, इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याकारं वेदनं, तर्क ऊह इति संज्ञान्तरं लभते । ये तु ताथागता ऊहस्य प्रामाण्यं नोहांचक्रिरे, घटपटादिरित्यपोहमात्रम्, तेषामशेषशून्यत्ववादस्य निरवकाशत्वापत्तेः ॥ आः ! किमिदमकाण्डकूष्माण्डाडम्बरोड्डामरमभिधीयते ?। तावच्छृणु, श्रावयामि । तर्कस्तावदनुमानप्रामाण्यस्य प्राणाः । अनुमानं तु प्रत्यक्षप्रमाणप्रामाण्यप्राणाः । प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाश्च कस्यचित् ॥ इत्याहुः ॥ ऊहस्तावत् सामान्यविशेषात्मकवस्तुनः सम्बन्धालम्बनम् । तैस्तु प्रमाणज्ञानविनाकृतैः पदार्थापोहः प्रोच्यते । अत एवाऽयमलब्धपरमार्थः शून्यवादी प्रसिद्धः । ऊहसिद्धिरित्यनुमानविशेषलक्षणं, सामान्यलक्षणं तु साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं प्रसिद्धमिति ॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्ति दोषक्षयं विदुः । क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद् हेत्वसम्भवात् ॥ इत्याप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । उपचारादाप्तवचनं च । अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीतेऽवञ्चक: स आप्तः । स च द्वेधा- लौकिको लोकोत्तरश्च । लौकिको जनकादिः । लोकोत्तरस्तु तीर्थकरादिः । इति कालत्रयप्रमातृप्रवक्तृप्ररूपितस्यागमस्य सिद्धिः ॥ प्रमाणसङ्ख्या-विप्रतिपत्तिरपास्ता ॥ अथ प्राचीनोत्तराकारपरित्यागोपादानेनानुगतप्रतीत्या, तस्य विषयश्च सामान्यविशेषाद्यनेकात्मकं वस्तु, ह्यर्थक्रिया सामर्थ्याऽन्यथाऽनुपपत्तेः । सामान्य द्विप्रकारं-तिर्यगूर्वतासामान्यभेदात् । गोत्र१साधारणरजातित्वात् ॥ विशेषोऽपि द्विरूपो गुणः पर्यायश्च । ज्ञानादिः सहभावी गुणः । सुखदुःखनरनारकादिः क्रमभावी पर्यायः । इति निरस्ता तद्विषयविप्रतिपत्तिः ॥ यत् प्रमाणेन साध्यते तदस्य फलम् ॥ नैगम १ सङ्ग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ ६ एवम्भूताः ७ सप्त नयाः ॥ अस्य नयस्य Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 37 फलं प्रमावत् । तद् द्विविधं - आनन्तर्येण पारम्पर्येण । किन्तु प्रमातृस्वरूपमेव फलम् । न प्रमातरि सत्तावादिनां विप्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ॥ इति प्रमाणसारे प्रमाणस्य सङ्ख्या विषय फल विप्रतिपत्तिव्याषेधको द्वितीयः परिच्छेदः ॥ दर्शनव्यवस्थास्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते । ननु खलु भोः शारदशशाङ्कसमुज्ज्वलयशसो विशारदाः ! शुभवद्भिर्भवद्भिरहरहः शास्त्राभ्यासः समातन्यते। तदिह प्रेक्षाचक्षुःसमक्षं सापेक्षं स्वपक्षे साधनं परपक्षे बाधनं कुर्महे हेच्छाः ॥ हंहो ! आदितस्तावज्जैन १ नैयायिक २ बौद्ध ३ सांख्य ४ वैशेषिक ५ जैमनीया ६ इति दर्शनानि षट् ॥ तत्र जैना अनेकान्तवादिनः । स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । स्यादित्यव्ययं हि अनेकान्तद्योतकम् । एकस्मिन् सम्मुखवास्तुनि वस्तुनि घटादावस्तित्वं नास्तित्वं चेत्यनेकान्तः । सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ॥ इति ॥ घटे घटत्वमस्ति, 'यदेवाऽर्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्' । घटे च पटत्वं नास्तीति तत्रैव पटाभावो युक्त्या जातः केन निराकर्तुं शाशक्यते ? । अपि च नित्यानित्यत्वं परस्परविरुद्धमप्यनेकान्तयुक्त्या ह्येकस्मिन्नेव वस्तुनि उभयम् । यतः - द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः । क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा ? ॥ इति ॥ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । सहभाविनो गुणाः । यथाऽ ऽत्मनि ज्ञानविज्ञानादयः । क्रमभाविनः पर्यायाः । यथाऽऽत्मनि नरनारकतिर्यगादय इति । द्रव्यापेक्षया य एव भावो नित्यः पर्यायापेक्षया स एवाऽनित्य इत्यविरोधः ॥ द्वे प्रमाणे प्रत्यक्षं च परोक्षं च । ज्ञानात् कर्मक्षये मोक्षः । मुक्ताः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अनुसंधान-२५ संसारिणो द्विविधा जीवाः । व्यवयवं वाक्यमनुमानम् । सति कारणे कार्यम् । आत्मा कर्ता भोक्ता च । कर्मवादिनो जैनाः । कर्मणः प्राधान्यं च । न हीश्वरः कर्ता भवितुमर्हति । कर्मापेक्षत्वे सति सामर्थ्यरहितत्वात् । प्र(प्रा)कृतवत् । सृजेच्चेत् स्वार्थात् कारुण्याद्वा ? । न पौरस्त्यः । तस्य कृतकत्वात् स्वार्थः कश्चन नास्ति । न द्वितीयः । परदुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यम्, अतः सर्वान् सुखिन एव सृजेत् । नो वा मूकैडकुब्जजात्यन्धजातमात्रविपत्तिवाग्भिः कर्ममर्मवशगैः किमपराद्धम् ? । अथ च - तुणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादीनामपि कर्तृपारवश्यं न संपश्यामहे । स कर्ता सशरीरो वा [अशरीरो वा]? । सशरीरश्चेत् कुलालकुविन्दादिवद् घटपटोत्पत्तौ दृश्यरूपतापत्तेरिति विशरारुतालतालूता लालग्यात् । अतोऽनीश्वरं जगत्, स्वस्वकर्मविपाकप्रादुर्भूतप्रभूतपुनर्भवत्वादिति सिद्धम् । दत्तः कर्तृवादाय जलाञ्जलिः ॥ तत्र नैयायिका जटाधरविशेषा अक्षपादाः कर्तृवादिनः । उर्वीपर्वततर्वादिकं बुद्धिमद्धेतकं कार्यत्वादिति । कार्यं घटादि । कारणं त्रेधा समवायिकारणं १ असमवायिकारणं २ निमित्तिकारणं च ३ । समवायिकारणं मृदादि । असमवायिकारणं सूत्रखण्डदण्डचक्रचीवरकुलालादि। निमित्तकारणं हीश्वर एव ॥ ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ॥इति।। सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । .. तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुःप्रापमकृतात्मभिः ॥ आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षं विभज्यते ॥ प्रत्यक्षमनुमानमागम इति प्रमाणत्रयम् । प्रतिज्ञा १ . हेतूर दाहरणो ३पनय४निगमनान्य५वयवाः । पञ्चावयवं वाक्यम् । पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसीति नव द्रव्याणि ॥ प्रमाण १ प्रमेय २ संशय ३ प्रयोजन ४ दृष्टान्त ५ सिद्धान्ता ६ वयव ७ तर्क ८ निर्णय ९ वाद १० जल्प ११ वितण्डा १२ हेत्वाभास १३ च्छल १४ जाति १५ निग्रहस्थानानां १६ षोडशपदार्थानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगम इति । षोढा सम्बन्धसम्बद्धसन्निकर्षप्रमाणवादिनो नैयायिकाः सिद्धम् ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 39 अथ बौद्धाः एकान्तानित्यवादिनः । अनधिगतार्थाधिगन्तृप्रमाणवादिनस्ताथागता यौगाः शून्यवादिनः ज्ञानाद्वैतवादिनश्च । ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥१॥ इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तस्य कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥२॥ यथा यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा । यदेतत् स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ? ॥३॥ प्रपञ्चोऽयं मिथ्या प्रतीयमानत्वात् मृगतृष्णाम्बुवत् । क्षणक्षयित्वाद्धि कार्यापोह एव न तत्कारणम् । आलक्तकद्रवभाविते कर्पासे रक्तता यथा । दग्धे रामठे परिमलो वा । क्षयस्वभावाः क्षणाः प्रतिक्षणं क्षीयमाणा निरन्वयविनाशिनः क्षीयन्ते । परमन्वयरूपा वासना तिष्ठति । तयैव व्यवहारः स्यात् । अपि च - गोत्वसामान्यं अर्थक्रियाकारित्वाभावाद् व्यर्थं, किन्तु व्यवहारिणो विशेषा एव । इयं कृष्णा गौर्दोहनक्षमेति विशेषार्थता । प्रमाणद्वयंप्रत्यक्षमनुमानं च । धर्मकीर्तेरमी शिष्या भगवद्वेषधारिणः । माने पद्मे जपन्त्यङ्गं पात्रप्राप्तमदन्ति च ॥१॥ तत्र सांख्याः कापिला एकान्तनित्यवादिनोऽमी । सांख्या निरीश्वराः केचित् केचिदीश्वरवादिनः । सत्कर्मवादिनः केऽपि केचित् कर्तृत्ववादिनः ॥ असदका(क)रणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्याकरणात्कारणा(ण) भावाच्च सत्कार्यम् ।। अतिदूरात् सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनवस्थानात् । [सौम्यायवधानादभिभवात् समानाभिहाराच्च ।] सौख्या(म्या)त् तदनुपलब्धिर्नाभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः । महदादि तच्च कार्यं प्रकृतिस्व(स)रूपं विरूपं च ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ सत्त्वरजस्तमंसां साम्यावस्था प्रकृतिः ॥ मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ अव्यक्तमेकम् । महदहंकारपञ्चतन्मात्राणि (?) त्रयोविंशतिविधं व्यक्तम् । पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नाऽत्र संशयः ।। एषामाविर्भावतिरोभावौ कारणम् । नित्यः शब्दोऽकृतकत्वाद् आकाशवत् । यद्यदकृतकं तन्नित्यं यथा संप्रतिपन्नम् । शब्दो हि ताल्वोष्ठपुटादिव्यापारैः सत्कारण एवाविर्भाव्यते, न तूत्पाद्यते । यथाऽपवरकान्तः सन्तमसे तिरोभूतः पदार्थसार्थः प्रदीपप्रकाशेन प्रादुःक्रियते, न तु जन्यते । यतोऽविद्यमानस्य वाजिविषाणस्याऽनुत्पत्तिरेव । न षष्टस्य भूतस्याऽसद्रूपस्यैवाविर्भावः । भावानां विपत्तिस्तु कारणाभावात्तिरोभाव एव । भावाः सामग्रीसद्भावे प्रादुर्भवन्ति, आविर्भावाभावात् तिरोभवन्ति । कारणवादिनोऽमी । कार्यं हि कारणस्य रूपमन्यथा वा ? । कारणं स्थिरैकरूपं चेद् विश्वं नित्यमेव । प्रत्यक्षमनुमानमागम इति प्रमाणत्रयम् । प्रकृतिवियोगो मोक्षः । प्रकृतिस्वरूपाया विराम एव प्रकृतेः । प्रकृतिः करोति प्रकृतिश्च भुङ्क्ते । आत्मा दर्पणवत् प्रतिबिम्बमात्रफलं लभते ॥ वैशेषिकैस्तु द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ विशेष ५ समवायाः ६ षट् पदार्थास्तत्त्वतयाऽभिप्रेताः । अर्थो पलब्धिहेतु प्रमाणम् । प्रत्यक्षानुमानागमोपमानानि चत्वारि प्रमाणानि । तत्रोपमानं - यादृग् गौस्तादृग गवयः । कीदृग् गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकैर्यदा । वदत्यारण्यको वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा ॥१॥ बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारा नवाऽऽत्मगुणाः । सुखादिगुणसन्तानोच्छेदे मोक्षः । आत्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् । यो य: सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 81 अथैतान् विप्रतिपन्नाः सङ्गिरन्ते-को हि नाम शिलाकल्पमपगतसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत ? । यतः - वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टत्वमपि वाञ्छति । न तु वैशेषिकी मुक्ति गौतमो गन्तुमिच्छति ॥१॥ सामान्यविशेषात्मकवादिनः अक्षपादा वैशेषिका जङ्गमकापालिकविशेषाः ॥ भगावाद्वेषधारिणो भाट्टाः प्राभाकराः । ब्रह्माद्वैतवादिनो मीमांसकापरपर्यायाः सामान्यवादिनः । प्रमाणादिचतुष्टयं न स्वीकुर्वते । सर्वं ब्रह्मविवर्तमेवेति। एक एव हि भूतात्मा. भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ अद्वैतं परमं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किञ्चन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत् पश्यति कश्चन ॥२॥ अशरीरा देवाः । चतुर्थ्यन्तं पदमिति देवताः । यथा वषडिन्द्रायेति । अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते । नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यस्तत्त्वज्ञानार्थनिश्चयः ॥१॥ वाग्व्यवहारार्थं प्राहु मनीयाः प्रत्यक्षमनुमानं च शाब्दं चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमनेः ॥१॥ प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राऽभावप्रमाणता ॥२॥ एतैः पञ्चभिः सत्तावादिभिरिव सर्वं ब्रह्म विवर्तमेव मन्यमानः ये (यै ?)रेवाद्दितया (?) खण्डनवादी अप्रामाणिकः परास्त्रैर्युयुत्सुराशामोदकतृप्त इव । जैनेनापि वाक्चपेटया प्रोच्चाटनीयः ॥ अथाऽसद्दर्शनिनो नास्तिकाः परलोकात्ममोक्षापलापिनश्चार्वाकाः लौकायतिका बार्हस्पत्याः विसदृशप्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनो गिरं सङ्गिरन्ते स्म । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुसंधान-२५ एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य यद्वदन्ति बहुश्रुताः ॥१॥ पिब खाद चयातिशोभने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥ किञ्च- पृथ्वी जलं [तथा]तेजो वायुर्भूतचतुष्टयम् । चैतन्यभूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ॥३॥ किं च - नानाकारं जगत् भ्रान्तिमात्रं, मरुमरीचिकानिचयाम्बुवत् । पृथिव्यप्तेजोवायुरूपभूतचतुष्टयसमवायतश्चैतन्यम् । यथा धातुकीप्रसूनगुडद्रवसंयोगादुन्मादवत् । नास्तिकोऽसौ सर्वापलापी वृथाप्रलापी पापीयान् सर्वैरपि सत्तावादिभिः अभू(भि?)भूय च सम्भूय कैमुतकन्यायेन जैनेनापि निर्वास्य इति सिद्धः षड्दर्शनसमुच्चयतात्पर्यार्थः ॥ इति प्रमाणसारे प्रस्तावागतदर्शनव्यवस्थास्वरूपप्ररूपकस्तृतीयः परिच्छेदः ॥ इति स्वोपज्ञः प्रथमादर्शः ॥ भद्रं भवतु ॥ टिप्पणानि । पाठान्तराणि । १. नमः परमात्मने । २. तदिदमाः किमेतकन्न । ३. प्रोक्तस्तार्किक० । ४. 'सभिप्रायम्' इति टि. । ५. प्रमाणं, तद्धि प्रमिणोतीति प्रमाता वा प्रमाणम् । ६. 'आत्मा' इति टि. । ७. विलक्षणं तद्वेदितव्यं । ८. तं । ९. स्त्यानीभूते । १०. 'चार्वाकमत' इति टि. । ११. द्वैतीयीकं १२. 'अद्वैतपक्षः पुनः' इति टि. । १३. 'कणे मनस् तृप्तौ, तृप्तिं कृत्वा' टि. । १४. 'विषयमात्रग्राहकमेव तत् प्रत्यक्षं न तु प्रमाणभूतं' टि. । १५. ०सत्ताकौटिकुटीरकमटा० । १६. 'विधीयते' टि. । १७. 'व्रात्यः संस्कारवर्जितः कथं चतुर्वेदज्ञाता' टि. । १८. 'यो यो यज्ञोपवीतधारी स ब्राह्मणः' टि. । १९. केन संदृष्टा दृष्टा० । २०. ०ज्ञानमेव युक्त्यन्तरेण स्वीकृतं । २१. अत्यन्तव्या० । २२. चाऽनु० । २३. गोत्वं गोत्वमिति । २४. ०मेव हि भेदो० । २५. ०गुणोपभोग० । २६. रन्ध्रगमिव । २७. पक्षान्तरेण । २८. वृषष्यन्तीं । २९. सदेव सत् दु० । ३०. असमवायकारणं । ३१. समवाय० । ३२. असमवाय० । ३३. प्रतीक्ष्यते । ३४. कमधिकृत्य । ३५. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 नित्यपक्षगुणांश्च । ३६. प्रतिजानानः । ३७. 'गुणोत्कर्षतः' इति टि. ३८. तत्रायं । ३९. धर्ममपेक्ष्य । ४०. ०दर्शः ॥ अविघ्नमस्तु ॥ ४१. ०प्रतिपत्तिविप्रतिपत्तिमुसन्ति । ४२. 'वदन्ति' इति टि. । ४३. प्रश्निः । ४४. कस्कः कृती । ४५. मैवं भव० । ४६. ०मव्यवहारि सा० । ४७. भागा। 'विशेषाः' इति टि. । ४८. नैकत्य । ४९. ०ग्राहकां । ५०. अक्षि । ५१. तदिदं स्पष्टं प्रत्यक्षं प्रत्यक्ष० । ५२. ०श्रोत्रान्येन्द्रिय० । ५३. ०आत्मपरिणामं । ५४. प्रियप्रणयिनी० । ५५. सत्सु । ५६. ०मस्तीति च । ५७. प्रव्रजितार्यादि० । ५८. ०प्रबोधसाधनं । ५९. ०मनुमानमिति । ६०. प्रमाज्ञान० । ५१. ०वादीति । ६२. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीराणभूमीशवंशप्रकाशः सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय 'श्रीराणभूमीशवंशप्रकाश' ए महोपाध्याय श्रीमेघविजयजी म.नो एक नवीन अने अद्यावधि अज्ञात-अप्रकट ग्रन्थ छे. आ ग्रन्थमा राणभूमि अर्थात् राजस्थाननी-राणाओनी भूमिना राजाओनी वंश-परंपरानी वीगत छे. जेमां एकलिंग-महादेव पासेथी वरदान पामेल बप्प नामक महाराणाथी प्रारंभी महाराणा राजसिंह (प्रायः कविना समकालीन) सुधीना राणाओनां वंशपरंपरागत नामोनी अनुक्रमे वीगत आपेली छे.. ___ प्रथम ११ श्लोकोमां राजा बप्पथी लई बादशाह अल्लाउद्दीनने जीतनारा कीर्तिकसिंहराज सुधीना ३२ राणाओनां नाम छे. त्यारबाद १२ थी १८ श्लोकमां, पाठान्तरे प्राप्त थएला, बप्प थी मांडी कर्णसिंह सुधीना २६ राजाओनां नाम वर्णव्यां छे. ते पछी, अहीं वच्चे बीजा पण घणा प्रबळ राजाओ थया, पण तेमनां नामो बीजा पुस्तकोमाथी जाणी लेवां, एवो हवालो आपे छे. तदनन्तर, १९ थी ५४ श्लोकोमां, जेनाथी राजाओनी राणा एवी ख्याति थई एवा राहप राजाथी प्रारंभी राजसिंह सुधीना २६ महाराणाओनां नाम-वर्णन करे छे. जेमां कुम्भलमेरु तथा राणपुर (राणकपुर)मां जेमणे जिनप्रासादोनु निर्माण कराव्युं हतुं तेवा कुम्भकर्ण राजा, उदयपुर वसावनार राणा उदयसिंह, बादशाह अकबर तथा तेना मोगलसैन्यने हंफावनार महापराक्रमी राणा प्रताप, विधर्मीओ पासेथी राणपुर व. तीर्थो जैनोने पाछा अपावनार तेमज तत्कालीन तपगच्छपति आ.श्री विजयदेवसूरि म.नी प्रेरणा तथा उपदेशथी तीर्थयात्रानो वेरो माफ करनार अने पिच्छिल्ल तेमज उदयसागर सरोवरमांथी माछलां पकडवानो प्रतिबन्ध करनार महाराणा जगत्सिंह; तथा छेल्ले तेमनी पाटे आवेला, अत्यंत पराक्रमथी दिल्लीपतिने पण पराजय आपनार महाराणा राजसिंह व.र्नु अत्यन्त सुन्दर तेमज रसळतुं वर्णन छे. छेल्ले, राजाओनी गणना-नाम व. मां घणा पाठो होवाथी, तेमज Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 45 राजाओ पण असंख्य थई गया होवाथी क्यांक नाम-पाठ व. मां परावृत्ति थई जाय तो विद्वानोए व्यामोह न करवो एम जणाव्युं छे. आ प्रतिनुं लेखन सं. १९५०ना बीजा आषाढ मासना कृष्णपक्षनी सातमे-गुरुवारे अजमेर-दुर्गमां मुनि मोहनविजयजीए करेल छे तेवू प्रतिनी प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे. प्रति उदयपुरना हाथीपोळ-सराय भंडारनी छे. तेमां कुल पत्रो-३ आखा तेमज एक अडधुं-एम चार छे. अक्षरो सुन्दर तथा स्वच्छ छे. बेत्रण स्थळे रहेली नानकडी त्रुटिने बाद करतां लखाण शुद्ध छे. आ प्रतिनी जेरोक्स नकल पू.मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी म. द्वारा सांपडेल छे. ॥ अथ श्रीराणभूमीशवंशप्रकाशः ॥ ॥ अर्हम् ॥ जयति विजयलक्ष्मीवासवेस्मा(वेश्मा)भिरामः प्रथितविपुलकीर्तिस्तेजसांराशिरूपः । जलधिरिव विशालश्चारुभूपालरत्नप्रभवभुवनसेव्यो राणभूमीशवंशः ॥१॥ इह महति महीयानन्वयेऽभूत् स भूमान् विदितसकलविद्यो बप्पनामाऽनवद्यः । । । अलभत जगदीशादेकलिङ्गाद् वरं यः प्रतिदिनमतिभक्त्या शुद्धसाम्राज्यसिद्धेः ॥२॥ तदनु दनुजहर्ता भूमिभर्ता गुहोऽभूद् १ गुहिल इति नरेशो २ जाग्रदुग्रप्रभावः ॥ अजनि जनितपुण्यः पुण्यनैपुण्यशाली तदनु बहुमहोमिर्भोजभूपो३ऽशुमाली ॥३॥ विशदसुकृतशीलः शीलदेवो मनस्वी ४ तदनु मनुजराजो राजराजोपमोऽभूत् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 विदलितकलिकालः कालभोजश्चरित्र -५ रजनि रजनिजानिस्पर्द्धिवर्द्धिष्णुकीर्तिः ||४|| तदनु भर्तृभट: ६ सुभगा (टा?)ग्रणी: प्रकटति घटितो (ता)हवपाटव: स्वस(म)हसा सहसा सह सिंहवत् समुदियाय ततोऽप्यरिसिंहकः ७॥५॥ य(ज) ज्ञे महायक ८ इति क्षितिनायकोऽस्मात् विश्वत्रयेऽस्खलितसायक एकवीरः । राजीसुतस्तदनु ९ हेमतुलाधिरोहैः खुम्माण एष भरतेऽप्यकरोत् सुराद्रिम् ||६|| अस्माल्लट : १० क्षितिपति र्नरवाहनो ११ स्माच्छक्त्या कुमार इव शक्तिकुमारनामा १२ । स्यान्मेदनीपतिरतः १३ पुरतोऽ [[प] कीर्तिब्रह्मा १४ नृपस्तदनु भूपतियोगराजः १५ ||७|| पट्टेऽस्य वैरटनृपोऽस्य १६ तु वंशपालः क्ष्मापालभालतिलकार्चितपादपीठ: १७ । श्रीवैरसिंह इति वैरिकरीन्द्रसिंहः १८ खुम्माण नाम निदधे विशदैश्चरित्रैः ॥८॥ अनुसंधान - २५ श्रीवीरसिंहा १९ दुदितोऽरिसिंहः २० श्रीचंदसिंहश्च २१ ततः प्रचण्ड: । जातः क्रमाद् विक्रमसिंहभूमान् २२ सान्वर्थनामा रणसिंहकोऽस्मात् २३||९|| श्री क्षेमसिंह २४ संमतसिंहौ २५ च ततः कुमारसिंहाख्यः २६ | मन्मथसिंहः २७ पद्मात् सिंहः २८ श्रीजैत्रसिंहोऽस्मात् २९ ॥१०॥ तेजस्विसिंह: ३० समरादिसिंहः ३१ तत्परत्नं भुवि निःसपत्नः । अल्लावदीनाह्वयपातिसाहेर्जेता ततः कीर्तिकसिंहराजः ३२ ॥११॥ अत्र पाठान्तरे नामानि पुनरेवम् खुम्माणः क्षितिभृत् स बप्पतनयः २ प्राज्यैर्यशोभिर्जगद्भूषाहेतुरभूत् ततः प्रसृमरैः पूषा स्वतेजोभरैः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 पाणौ यः सततं कृपाणललितैर्कोतिर्गणं भीषयांचक्रेऽद्याऽपि ततः क्षणं न वियति व्यालम्बते यं भिया ॥१२।। गोविन्दो ३ नृपतिस्ततो गजघटागण्डस्थलान्निर्झरद्दानाम्भोभिरिदं भुवस्तलमलङ्कृत्वा सदा पङ्किलम् । म्लेच्छाधीशशिरस्सु भूमिलुठितेषु(पू)निद्रदूर्वाङ्कुरश्रेणी कूर्चकचच्छलेन नितरामुद्भावयामास यः ॥१३॥ महेन्द्र४मुख्यास्तदनु क्षितीन्द्रा जाताः क्रमाद्राजकुलेषु चन्द्राः । व्यावर्णितैस्तच्चरितप्रपञ्चै-रालिख्य पूर्येत नभोविभागः ॥१४॥ ते चाऽमीआलूनसिंहश्च५ ततोऽपि सिंहः ६ शक्ते(क्तिः )कुमारो ७ऽप्यथ शालिवाहः८ । ततो नृपः श्रीनरवाहनाख्यः ९ ततोऽम्बिकादाश १० इति क्षितीशः ॥१५॥ ब्रह्माऽथ११ नरब्रह्मो १२-त्तमराजो १३ ऽभूत् ततोऽपि कर्णाख्यः १४ । श्रीभद्रसेन १५-गोपति १६ -हंसनृपा १७ योगराजेशः १८ ॥१६।। श्रीवैरसिंह १९-वीरौ २० समराद् २१ रत्नात् २२ ततोऽपि] सिंहाख्यौ। शरपञ्जर २३- नवखण्डौ २४ नवखण्डाखण्डविदिताज्ञौ ॥१७॥ कुरुमेरु २५ -जैत्रसिंहो २६ श्रीकर्णसमस्ततोऽपि कर्णपतिः २७ । इत्याद्या भूमिभुजो भुजौजसा विजितसुरराजाः ॥१८॥ अत्रान्तरे प्रबला राजानोऽन्येऽपि बभूवुस्ते पुस्तकान्तराद् ज्ञेयाः । राहपः १ क्षितिपतिः स महौजाः शत्रुराहुदलने हरिबाहाः]। तत्र दुग्धजलधाविव जातः पारिजातशिखरी ह्यवदातः ॥१९॥ यस्मात् सम्प्रति भूतले विजयिनी राणेति भूमीभूजां ख्याति[ः]स्फातिमुपैति चारुचरितैर्गनेव वारां भरैः । यस्याऽद्यापि यशः सितोत्पलमिदं कर्णावतंसायते सर्वेषां दशदिग्वधूप्रणयिनामामोदमेदस्वलम् ॥२०॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुसंधान-२५ तत्पट्टे नरसिंहनामनृपतिः २ सिंहस्फ(स्फुरद्विक्रमो दुप्यद्दानववारदारणविधेः सान्वर्थनामस्थितिः । अद्याऽप्यस्य घनप्रतापदहनोत्तापात्सहस्रद्युतिम(म)न्ये व्योमनदीतटीपरिसरे पर्यट्य यात्यम्बुधिम् ॥२१॥ देवकर्ण ३-नरसिंहभूपती ४ राजपालनृप ५-नागपालकौ । पुण्यपाल ७-पृथिवीपती ८ नृपौ रेजतुर्जगति विस्फुरत्कृपौ ।।२२।। तदनु भुवनसिंहो ९ भीमसिंहः १० क्षितीन्द्रस्तदनु स जयसिंहः ११ क्ष्मापतिः स्फारतेजाः । अजयदमररूपां स्वधुनीं य: पवित्रैः निजचरितविलासैर्दाननीरैस्तथाऽन्याम् ॥२३॥ तदनुजस्तदनु क्षितिवासवः समभवत् किल लक्ष्मणसिंहराट् १२ । भुवनशादरिसिंहनृपस्ततः १३ सुकृतसंस्कृतिसत्कृतसत्कृतः ॥२४॥ हम्मीरसिंहः १४ क्षितिपोऽस्य पट्टे श्रीक्षेत्रसिंहो१५ऽस्य तु लक्षसिंहः१६ । तत्पट्टपूर्वाद्रिसहस्ररश्मि-र्जज्ञे नृपो मोकलसिंहनामा १७ ॥२५॥ येन स्वर्णतुलाधिरोहणविधेरन्यः सुवर्णाचलाः] चक्रेऽनन्यसमानदानममलैनव्याः]सरस्वानपि । कीर्तिर्यस्य नवा सरिद्दिविषदां त्रैलोक्यपावित्र्यकृत् नव्यां सृष्टिममार्गणां स विदधज्जज्ञे विधिनू(नूतनः ॥२६॥ यस्य प्रोद्धतगन्धसिन्धुरघटाकुम्भेषु दिग्भित्तिषु व्यावृद्धेषु सरागनागजभराभ्यङ्गा बभुः शाश्वताः । लक्ष्मीणां दशदिग्भुवां परिणये राज्ञेऽस्य किं कौंकमाः (कौङ्कमाः) हस्तास्तेयप्रताप -- तरणेः (?) सार्वत्रिका रश्मयः ॥२७॥ यस्योद्दामतरप्रतापतरणेस्तापादिव व्याकुलाश्छायामण्डलमातपत्रजनितं सर्वे नृपाः शिश्रियुः । इन्द्रप्रस्थपतिर्भिया स्थपतिवत् काष्ठस्थितिदु(दुर्गतस्तस्थौ शेषतयैष मुण्डितशिराः प्रस्थं न चेत् किं भजेत् ? ॥२८|| Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 यस्याऽऽदेशवशंवदा मरुधरा[:]श्रीगूर्जरत्रा बृहद्बुन्दी-नागपुराजमेरु-सरसावन्तीश्वराद्या नृपाः । चक्री शक्रपराक्रमः कलियुगेऽप्यासीदसीमावनीजम्भारातिरदम्भसम्भवरतिः श्रीकुम्भकर्णस्ततः१८ ॥२९॥ साम्राज्ये नयति स्वयं रसमयं पुष्णात्यनुष्णैः परं गोभिः शोभितमण्डलैः कृतयुगं पीयूषरश्मेरिव । तस्याऽऽसीद् द्विजगोधने कुवलये स्फातिस्तथाऽत्यद्भुता नक्षत्रप्रवरे वणिग्जनगणेऽप्याविर्बभूवुः श्रियः ॥३०॥ प्रासादा व्यवहारिभिर्भगवतां निर्मापिताश्चाऽऽर्हतां श्रीमत्कुम्भलमेरु-राणपुरयोर्यस्य प्रसादोदयात् । तेषां मूर्धनि साम्प्रतं विजयिनी कीर्तिर्नरीनृत्यते तस्य श्रीधरणीधवस्य मधुरा धौतध्वजव्याजतः ॥३१॥ चैत्यार्थं वृषभप्रभोर्भगवातो]दत्ते स्म चित्ते शुचिः श्रीमद्राणपुरे स राणसविता क्षेत्रद्वयं शासने । काश्मीरस्य च टङ्ककं प्रतिदिनं स्वीयं जिना कृते तेनाऽस्य त्रिदिवे सुरैरपि यश:सौरभ्यमभ्यस्यते ॥३२॥ बभूव भूवल्लभसेव्यपादस्तत्सूनुरन्यूनपराक्रमश्रीः । श्रीराममल्लः १९ प्रतिमल्लरूपो म्लेच्छेशदोर्दण्डविखण्डनाय ॥३४(३३)॥ तत्पट्टे स्पष्टकान्तिर्विशदतरगुणग्रामसङ्ग्रामसिंहः २० प्रत्यर्थिक्ष्मापकुम्भिप्रहतगलदसृग्-वाहसोत्साहसिंहः । आकण्ठं यस्य खड्गासमयमभगिनीनीरपूरे निमग्नः सोत्कण्ठं शत्रुरुच्चैरमरमृगदृशालिङ्गिते कण्ठपीठे ॥३५(३४)॥ समुदियाय ततोऽभ्युदयं वहन्नुदयसिंहमहीहृदयेश्वरः २१ । सहृदये हृदयं सदयं वदत् समुदये द्विषतां तु तदन्यथा ॥३६(३५)। तेन स्तेनहता कृता वसुमती स्वर्णादिभिः संस्कृता चातुर्वर्ण्यमिहोत्तमर्णमभवत् सज्जातरूपश्रिया । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसंधान - २५ येनैवोदयनाम - चारुनगरं संवासितं वासव ( वासवे ? ) - इन्द्रस्य (नेन्द्रस्य ? ) स्मयहारिचारुभगवद्भूयोविहारश्रिया ॥ ३७ ( ३६ ) | तत्पट्टस्पष्टपूर्वाशिखरिदिनकरश्वारुचापः प्रतापः २२ क्ष्मापः सन्तापकारी यवनजनपतेर्भानुभास्वत्प्रतापः ॥ दत्तानन्द[:]प्रजानामजनि सुरजनीगीयमान (ना) समानश्लोकालोकात् त्रिलोकीं स खलु धवलयन् वीरकोटीरहीरः ॥३८(३७) | दानवाविनयदुर्नयजल्पं भूम्यजन्यपटलं विनिनीषुः । श्रीसहस्रनयनो ह्यवतीर्णो मूत्तिमानमरसिंहनृपो २३ स्मात् ॥३९(३८)| सौन्दर्यं च तदेव देवभवजं शौर्यं तदेवोर्जितं दानादेरवदानताऽप्युपनता पूर्वैव सर्वोत्तमा । तेजः सातिशयं विपक्षविषयव्याक्षोभदक्षाशयं तत्र त्रासितशात्रवे समभाव]द् भूमीपतौ भासुरे ||४९ (३९) ॥ तदीयपट्टेऽजनि कर्णसिंहः २४ सकर्णवर्णैरभिवर्णनीयः । रात्रिन्दिवं यस्त्रिदिवं पुपोष स्तोमप्रकाशैरसुरप्रणाशैः || ४१ (४०) || यद्विध्वस्तसमस्तदानववपुर्गर्तस्थले धूलिभि श्छन्ने पुष्टतयैव यौवनभराद् भूभामिनी निर्भयम् । सौभाग्येन च यत्प्रभावविभवैर्वासोवसानारुणं छेकानेकविवेकमेकनृपतिं भेजे तमेवोच्चकैः ॥४२ ( ४१ ) ॥ तत्पट्टस्वर्णशैले त्रिदशतरुसमः श्रीजगत्सिंहभूपः २५ साम्राज्यं प्राज्यतेजा विनयनयरुचिर्भुक्तवान् व्यक्तशक्तिः । यस्योद्दामप्रतापज्वलनपरिललज्ज्वालयाऽस्तोदयाद्रि सम्पत्तौ तेन सूर्यस्तुहिनरुचिरपि श्राम्यतो नो चिरेण ॥ ४३ (४२) || येन स्वर्णतुलाविलासललितैर्वर्ण्योत्तमर्णश्रिया स्वर्णं सर्वमखर्वराशिमिलितं दत्तं द्विजेभ्यो भुवि । स्वर्णाद्रि (द्रिं) प्रमदाददास्यत रयात् सोऽयं न चेत् खेचरैरभ्यर्थे(र्थ्ये)न्द्रपुरोहितप्रभृतिभिः स्वार्थं समाधास्यत ॥४४ (४३) ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 51 यद् यद् राणपुरादितीर्थनियतं राणैः पुराणैः पुरा दत्तं शासनमाप्तधीसखपदैलुप्तं च तल्लुम्पकैः ।। सर्वं धर्मधुरन्धुरोद्ध(धुरन्धरोद्धर)धिया प्रादाद् धराधीश्वरो वंशाकाशविभाविभाकररुचिः श्रीमान् जगत्सिंहजः ॥४५(४४)। आघाटे नरसिंहभूमिपतिना पूर्वं तपस्तप्यतो दत्तं यस्य सदावदातविरुदं श्रीमत्तपेत्याख्यया । सूरिः श्रीजगदादिचन्द्रभगवान् निर्विक्रियः सत्क्रियोद्धारेणोद्धरणं चकार चरणाचारैर्जगत्याश्चिरम् ॥४६(४५)। एतत्पट्टपरम्पराप्रणयिनीभालस्थलालङ्कृतेः सूरिश्रीविजयादिदेवसुगुरोधर्मोपदेशादसौ । राणः श्रीवरकांण-राणकपुरश्रीतीर्थयात्रार्थिनां सङ्घस्याऽनघचेतसा सममुचत् शुल्कानि शुक्लाशयः ॥४७(४६)॥ . पिच्छिल्लोदयसागराख्यसरसोनीरे गभीरे सदा जालक्षेपनिषेधमादिशदसौ कारुण्यमुज्जीवयन् । तेनैतत्सरसोस्तटे पटुतरा डिण्डीरपिण्डच्छलात् कीर्तिःस्फूर्तिमियति सम्प्रति जगत्सिंहाख्यराणप्रभोः ॥४८(४७)। प्रतिशरत् शरदिन्तु(दिन्दु)यशारसाद् व्यरचयज्जिनपूजनमञ्जसा । तपगणाधिपतेरुपदेशत-स्तरणिभासुरराणशिरोमणिः ॥४९(४८)। धर्मस्योन्नतये स धर्मतनयः श्लोकप्रकाशेऽर्जुनो भीमो दुर्धरवैरिवारणघटाकुम्भस्थलस्फेटने । . साम्राज्यं समबूभुजत् स सुचिरं विश्वप्रजारञ्जनो राणश्रेणिनभोमणिः सुकृतकृत् श्रीमान् जगत्सिंहराट् ॥५०(४९)। तत्पट्टभूषामणिरामणीयकः श्रीराजसिंहप्रभुरद्भुतप्रभः २६। जेजीयतेऽयं विजयश्रियान्वितः श्रीराणसूर्यो महसा महीयसा ॥५१(५०)। गन्धसिन्धुर इवोद्धरौजसा म्लेच्छराजविटपिव्रजानहो । मूलतोऽयमुदमूलयत् ततः कूर्चमेषु सुखकन्दमूलिकाः ॥५२(५१)। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 श्रुत्वाऽस्य प्रथमप्रयाणपटहं दिग्दन्तिनः कम्पिताः सुत्रामाऽपि समापिताखिलविधि-स्त्रासादिवोत्तानदृक् । दिल्लीशोऽपि विनश्य वेश्मकुहरे कुत्राऽप्यदृश्योऽभवज्ज्येष्ठस्तत्तनयो भयादिव रयात् पातालमेवाऽविशत् ॥५३(५२)॥ अनुसंधान-२५ साम्राज्यं सुचिरं नयार्थरुचिरं श्रीराजसिंहः प्रभूः (भुः) राणः पालयतात् कृपालयतया रामाभिरामः स्वयम् । धीरैः श्रीजयसिंहदेवविलसद्-भीमादिभि: प्रोद्धरैस्तेजोभिर्भुवनाभिनन्दनगुणस्फारैः कुमारैः स्वयम् ॥५४ (५३) | आचन्द्रार्कमयं जयं सविजयं प्राप्नोतु शाखागणैर्वंशोऽनन्यसमानमानवपतिव्याजात् सुपर्वाश्रयः । भूभृद्वाजिशिरः प्रतिष्ठितपदश्छायाभिरामः स्वयं मुक्ताद्वैतविभूतिवर्धितरुचिस्तुङ्गश्रिया संभृतः ॥५५ (५४) ॥ नृपाणां श्रेणीयं जयति विविधा पाठरचनै ( नै)र्न कार्यो व्यामोहस्तदिह निपुणैश्चेतसि मनाग् । समानां साम्राज्यैः परिगणनया न्यायविदुषां बहूनां भ्रातॄणामपि लिखनमासीदिह यतः ॥ ५६(५५)। क्वचित् तत्तत्कार्यैरपरनिजपूर्वाह्वयवशात् परावृत्तः पाठः क्वचिदपि समासेन गणनात् । अगाधेऽस्मिन् नूनं जननजलधौ भूपतिमणीन् असङ्ख्यान् सङ्ख्यातुं प्रभवति मनीषी कथमहो ? ॥५७ (५६) | ।। इतिश्रीमहोपाध्यायमेघविजयगणिसमुचितः श्रीराणभूमीशवंशप्रकाशः ॥ ॥ शुभं भवतात् ॥ ॥ व्योमभूताङ्केन्दु(१९५०) मिते वर्षे द्वितीयाषाढमासे शुक्लेतरपक्षे सप्तम्यां तिथौ गुरुवासरे लिपिकृतं मुनिमोहनविजयेन अजयमेरुदुर्गे ॥ श्रीपार्श्वनाथप्रसादात् ॥ ॥ अहू ॥ श्रीं ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनहिताचार्यकृत चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् ॥ सं. म. विनयसागर श्री भुवनहिताचार्य के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है । "खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास" के अनुसार वि.सं. १३७४ फाल्गुन वदि ६ के दिन उच्चापुरी में श्रीजिनचन्द्रसूरि ने इन्हें दीक्षा प्रदान की थी और नाम रखा था भुवनहित । इनके शिक्षागुरु जिनकुशलसूरिजी और जिनलब्धिसूरिजी थे । जिनलब्धिसूरि ने वि.सं. १३८६ में देरावर नगर में इनको पढ़ाया था । सम्वत् १४०४ के पूर्व ही जिनलब्धिसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और शायद आचार्य पद भी प्रदान किया हो अथवा आचार्य पद जिनलब्धिसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने सम्वत् १४०६ के पश्चात् प्रदान किया हो । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ये प्रौढ़ विद्वान् थे । इनके द्वारा सर्जित दो ही लघुकृतिया प्राप्त होती हैं१. दण्डक छन्दगर्भित जिनस्तुतिः । इस स्तुति में केवल चार पद्य हैं और इसका प्रारम्भ नतसूरपतिकोटिकोटीरकोटी - यह ५७ अक्षरों का संग्राम नामक दण्डक छन्द है । इस छन्द के प्रारम्भ में २ नगण और बाद में १७ रगण होते हैं । इस स्तुति पर श्रीजिनहंससूरि के प्रशिष्य, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर के शिष्य वाचनाचार्य पद्मराजगणि ने वि.सं. १६४३ में टीका की रचना की थी । टीका के साथ यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित श्रीभावारिवारणपाद पूर्त्यादिस्तोत्रसंग्रहः में सन् १६४८ में प्रकाशित हुई थी। २. चतुर्विशतिजिनस्तवनं - इसमें २५ पद्य हैं । प्रत्येक पद्य में एक-एक अक्षर की वृद्धि हुई है । भगवान् ऋषभदेव की स्तुति ८ अक्षर के युग्मविपुला छन्द से प्रारम्भ होकर चरमतीर्थंकर भगवान् महावीर की ३१ अक्षर के छन्द उत्कलिका दण्डक में पूर्ण हुई है। अर्थात् ८ अक्षर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 अनुसंधान-२५ से लेकर ३१ अक्षर तक २४ छन्दों का प्रयोग हुआ है । प्रत्येक पद्य में प्रत्येक तीर्थंकर का नाम भी अंकित है और छन्द का नाम भी अंकित है, यह कृति की प्रमुख विशेषता है । २५वां प्रशस्ति पद्य स्रग्धरा छन्द में निर्मित है। भक्तिपूर्ण रचना होते हुए भी सालंकारिक है । बीकानेर के बड़े ज्ञानभण्डार में संग्रहित १५वीं की शताब्दी की लिखित प्राचीन प्रतिसे इसकी प्रतिलिपि की गई है । -xश्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवनम् । (प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्तिछन्दोविशेषरचितम्) (१) युगादौ जगदुद्धर्तुं, यो युग्मविपुलावनौ । दिदेश धर्ममोक्षौ तं, स्तौमि श्रीनाभिनन्दनम् ॥१॥ युग्मविपुला ।। इन्द्रियगणैरविजितं, योऽर्हति जिनेन्द्रमजितम् । सङ्गतनितान्तमुदयं, सोवन्ति महान्तमुदयम् ॥२॥ उदयम् ॥ (३) चन्दनकर्पूरागुरुशाला, केतकजाती चम्पकमाला । नन्दतिवर्या तेऽङ्गसपर्या, सम्भवनेतः कस्य न चेतः ॥३॥ चम्पकमाला ॥ उपेन्द्रवज्रायुधवामदेवादयोजिता येन नृदेवदेवाः ।। स्मृतेऽपि यन्नामनि सोपि कामो, मृयेत नन्द्यादभिनन्दनोऽयम् ॥४॥ उपेन्द्रवज्रा ॥ द्रुतविलम्बितगीतिरसो लसच्चरणसञ्चरणातिमनोहरम् । (४) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 55 (६) (७) (८) सुरगिरौ सुमतेज्जिनि(न)मज्जने विदधिरे विवुधा नवनतनम् ॥५॥ द्रुतविलम्बित ॥ जगतीहितार्थरचनाभिनदितः, ससुरासुरेन्द्रमनुजेन्द्रवन्दितः । नमतां मतां जनमनोभिनन्दिनी वितनोतु ऋद्धिमरुणप्रभुप्रभुः ॥६।। नन्दिनी ।। सिंहोद्धता अपि जगज्जनताजयेन, मोहक़ुधा मदनलोभमदादयोऽमी । गर्जन्ति तावदतिरंगभरेण यावदन्तः सुपार्श्वसरभस्य न ते स्मरन्ति ॥६|| सिंहोद्धता ॥ हिमकरहिमनीरक्षीरडिण्डीरपिण्डप्रवरकिरणमालामालिनी यस्य मूर्तिः सुकृतदलकसारैनिर्मितेवा च भाति, प्रथयतु स सुखानि स्वामिचन्द्रप्रभो ! मे ॥८॥ मालिनी ॥ सुविधिजिनस्तनोतु मम मङ्गलानि नित्यं, मदनकरीन्द्रकुम्भतटणटनो ससिंहः । तरलन्तरैरपीक्षणसरैर्यदीयचेतः, सरसिरूहमनाग्न बिभिदे धुवाणिनीभिः ॥९॥ वाणिनी ॥ श्रेयोलक्ष्मी वितरतु स वः शीतलस्तीर्थनाथो, यस्मिन्गर्भे स्थितवति करस्पर्शमात्रेण मातुः । दाहोत्साहा जनकवपुषोऽगुः क्रियं(कियद्?) वा मृगेन्द्रैमन्दाक्रान्ता अपि किमु मृगा न म्रियन्ते क्षणेन ॥१०॥ मन्दाक्रान्ता । श्रीश्रेयांसो दिशतु मम महानन्दमन्दोदद्धि, वाणीं यस्यानुपममधुरिमोदारश्रृङ्गारसाराम् । पायं पायं मदनदहनसंहारिणः सच्चकोराः, सञ्जायन्तेऽमृतरसभरितां तां यथा चन्द्रलेखाम् ॥११॥ चन्द्रलेखा ॥ (९) (१०) (११) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 अनुसंधान-२५ (१२) आस्थानं फणिनां फणेषु ललितं बभ्रोरुरभ्रस्य च, घ्राणं व्याघ्रविशालवस्त्रविवरे जृम्भासरं बिभ्रति । यत्रानन्दकरं करेणुकरिणां शार्दूलविक्रीडितं तां श्रीधर्मसभां श्रयामि सततं श्रीवासुपूज्यप्रभुः(भोः) ॥१२॥ शार्दूलविक्रीडित ॥ (१३) विमलाधीश्वरनन्दनंदजगदानन्देन्दिरासुन्दरं, त्वयि भूमीवलयं विहारविधिभिः पूतान्तरं कुर्व्वति । सकलोपद्रवडम्बरा अपि खराः प्रापुः प्रणाशं क्षणा दथवा श्वैरविहारिणी व नु हरौ मत्तेभविक्रीडितम् ॥१३||मत्तेभविक्रीडितं ।। (१४) जन्मस्नात्रं पवित्रं सुरगिरिशिखरे यस्य कर्तुं महा , त्रैलोक्याधीशलोके कृतमहसि परालङ्कृतीः सर्वनारीः । दृष्ट्वा नक्षत्रदम्भादपि गगनरमामौक्तिकस्नग्धराभृ तं पञ्चानन्तकेन्द्रं भजत भवभृतो भावतोऽनन्तदेवम् ॥१४॥ स्रग्धरा । (१५) जनको जज्ञेऽवनीशस्तिमिरितजगती पावना लोकभानुः, समधर्माचारचञ्चुर्गुणसुमणिमहास्त्रग्धरासुव्रताम्बा । उपदेशो यस्य पापोपशमशमचणो जन्तुरक्षादिरूपै, रमणीयस्तं नमामि प्रमुदितमनसा सान्वयं धर्मनाथम् ।।१५।।महास्त्रग्धरा ।। क्षमाधरशिरः स्फुरन्महमविश्वसेनाङ्गभूधर्मचक्रोत्तरः, पदाब्जतलसंवरन्नवसुवर्णपद्मागुरुकसन्निभश्रीभरः । प्रभासवरदामयुग् रुचिररत्नवृन्दारकः श्रेणिसेव्यक्रमः, सुखानि मम षोडशो दिशतु शान्तिरर्हन्सदा पंचमश्चक्रभृत् ॥१॥ वृन्दारकः।। (१७) यदपि भवति चक्रिपद्यापि पादाब्जलग्नाचिरं सादरं देहिनां, तदपि चरणमोचनं नैव कुर्बन्ति सन्तो जनास्तेन मन्ये ध्रुवम् । शरदिजन च मेघमाला बलां तां पराकृत्य य: स्वीचकार प्रभुश्चरणमचलकेवलानन्दमन्दायतं कुन्थुनाथं स्तुवे भावतः ॥१७।। मेघमाला ॥ (१६) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 57 (१८) मदपदसम्पदमन्दसुनन्दज्जनपदकुरुगजपुरनगरं, नवनिधिरत्नचतुर्दशलक्ष्मीहरिकरिरथनरबलकलितम् । पदलुलिताखिलभूपतिराज्यं करतलगतमपि चपलमिदं, सपदि विहाय ललौ व्रतमुग्रं य इह तमरमभिसर शरणम् ॥१८॥ चपलं ॥ (१९) मनसिजहव्यवाहमुरुदाहकरं जगदङ्गिनां समवलोक्य विभु र्दधदुपकारसारमवतारविधिकृपयांचितोकमिषतः प्रदधौ । पदपुरतोयकस्तदुपशान्तिकृते घनसम्भृतं शमसुधाकलशं, प्रदिशतु मोक्षसौख्यकमलाममलामिह मल्लितीर्थपतिरेष मम ॥१९॥ सुधाकलश ॥ (२०) स्वःसन्मालाचित्रमासूत्रयती जनमनसि निरुपमं केवलोत्पत्तिकाले, त्रिप्राकारी यस्य चक्रेऽतिभक्त्या रजतकनकसुमणिश्रेणिभिः सुप्रभाभिः । देवी पद्माश्रीसुमित्राङ्गजन्मा यदुकुलकमलरविर्ध्वस्तमोहान्धकारः, पुण्यांकुराम्भोधरासारसारः स दिशतु शिवकमलां सुव्रताधीश्वरो मे ॥२०॥ मालाचित्र ॥ (२१) तनोतु मे मनोमतं ततं युतं सुमङ्गलैः कलैर्जिनाधिनायको नमिः सदा, यदीयधर्मदेशना सभासु भान्तिसौरभातिलोभलीनलोलषट्पदांगनाः । सुरावली विकीर्णपञ्चवर्णजानुदघ्नपुष्पसञ्चयाः स्वनाशशंकया रयात्, पलाद्यनङ्गशेखरान् महीतलं विसंस्थलं गताश्च्युता इव ध्रुवं पुरः प्रभो! ॥२१॥ अनंगशेखर ॥ (२२) श्रीनेमिनाथ नमन्नाकिनाथं स्तुवे तं सनाथं सदा केवलक्षीमहानन्दमन्दैः, सौभाग्यभाग्याधिके यत्र .सम्मोहनै राज राजीमतीवाक्यनेत्रभ्रमैस्तीक्ष्णतीक्ष्णैः । सार्द्ध जगज्जन्तुजीवातुमर्माविधाविद्धविश्वं भरेशानेवेद्योमुखानेकवेधो, विधं विधातुं न शक्ता विमुक्ता अपि स्वेच्छया । कामबाणा यथा पद्मपत्राणि वजे ॥२२॥ कामबाणा ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अनुसंधान-२५ (२३) श्रीअशोकपुष्पमञ्जरी मरन्दबिन्दशान्त सर्वतो रजोरये सुरप्रमुक्तचंगगन्धबन्धस्तनरंगणे सभाङ्गणे वरात पत्रसत्पवित्रचामरेन्दिरातिरङ्ग । श्रीमृगाधिनायका स नोपविष्टपुष्टवाणि धर्ममर्मदेशनेन बोधिताङ्गशिष्टपृष्टदेशभासमानभावितानदेवदुन्दुभी द्धनादपूज्यपादपार्श्वदेवनन्द ॥२३॥ अशोकपुष्पमञ्जरी ॥ (२४) नरपतिततिनिषेवितपादपीठाग्रसि द्धार्थभूपालवंशाब्दिराकानिशानायकः, प्रणितभविकमहोदयमेदुरानन्दसंभोगभङ्गीभुजङ्गीभवद्भाविभूनायकः । मदनदहनघनोत्कलिकाकुलं मामकीनं मनः शुद्धसम्वेगरङ्गामृतासारतो, रचयतु शमरमारससुन्दरं वर्द्धमानो जिनो जायमानासमानोल्लसन्मङ्गलः ॥२४॥ उत्कलिका ॥ कर्तुः प्रशस्तिः । इत्येवं सर्वदेवा सुरनरबलिराजाधिराजैः सुजातिव्यक्तिच्छन्दोविशेषैरहमहमिकया नव्यनव्यैः सुकाव्यैः । नित्यं संस्तूयमाना दलितकलिमला नाभिराजाङ्गजाद्याः, श्रीवीरान्ता जिनेन्द्रा भुवनहितकृते माङ्गलक्याय सन्तु ॥२॥ स्रग्धरा ।। इति प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्ति छन्दादिशेषरचितं चतुर्विंशति जिनस्तवनम् ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि भुधररचित सरस्वती-बार मासो ॥ . सं. विजयशीलचन्द्रसूरि चारणी लढणमां, मिश्र मारवाडी भाषामां, १९ या २० मा शतकमां मुनि भूधर नामे कोई जैन परंपराना साधुए रचेल आ रचनानी विशिष्टता एकज के तेनो विषय स्थूलभद्र-कोशा, नेमराजुल, कृष्णराधा वगेरे न होतां 'सरस्वती देवी' छे. अलबत्त, विद्यानी देवी सरस्वतीने नायिका बनाव्या छतां, तेना स्वरूप, स्वभाव के जीवन अने सामर्थ्य वगेरे विषे कोई ज वात के वातावरण आ रचनामां प्राप्त थतुं नथी, जे अनपेक्षित लागे छे. मात्र प्रथमना त्रण अने छेल्लु-१६मुं पद्य-एमां देवी प्रत्ये प्रार्थनानुं वलण वर्ताय छे. बाकी तो चीलाचालु, सामान्य, भौतिकताभर्यु वर्णन जोवा मळे छे. मित्र मुनि धुरन्धर विजयजीए वढवाण-भण्डारमां छूटक पानांरूपे प्राप्त आ कृतिनी जेरोक्स करावेली, तेना आधारे आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. अथ श्री सरस्वतीनो बारमासो छंद लषीतं । दुधक : १ नमो देवाधिदेवं, तास प्रसादे श्रुत समरेवं श्रुतसांमण ते जगत कहेवं, ते सरस्वतीने नीत्य प्रणमेवं ॥१॥ नित्य प्रणम्या पुरेजि(ज)ननि आसं अस्खलित आपे बुद्धि प्रकासं । सरस्वतीने करो निवासं सेवक छंद करे बारमासं ॥२॥ बारमास बालिक परि बोले, भावि भक्ति नवि जाण्यु तोले । षान्ति करी माता राखो खोले, तो करुणाये भक्ति कमलदल खोले ।।३।। छंद्द : वैताल | तो कोले दिनकर अवनि उपर मास चैतर अतीतपे झरे वह्नि परजल तरवर नीर सरवरनो खपे । लुह झाल झडपे मीन कलपे छपे उडे नीरवती इण मास माता करो साता सुबुधदाता सरस्वती ॥४॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अनुसंधान-२५ वैशाख वारु दि[व]स चारु भारु भुतल अभिनवि ते कुंलां कुपल नवा पुस्कल सुकल डालुं पलवी । सहकार धाषे सो महोर चाषे आंखे पिकश्वर जति, इण मास० ॥५॥ तपे तडका वाय फरका अरकादिक श्चव (?) पअसमे तिण दिन सुका गौ वसुका जेठ फुरका निगमे । । कठ घांम आकुल थाए व्याकुल सुकुल कुल नर ने सती, इणमास० ||६|| करे घोर विकटा असाढ उमटा घटारी छडीयु नभे गडडाट ग(गा)जे वाअ व(वा)जे षवे वीजलीझुं अभे । जलधार छुटी भर्यां कुटी तुटी पाजा सरवती, इण मास० ||७|| ऊर्द्ध तरुवर नीलकंठधर मधुर स्वर मुख उचरे दादुर टहके मेह टबके हलके श्रावण जल झरे । पीउ पीउ करतो बपेय लवतो छतो जलधर वर्षती, इण मास० ॥८॥ भाद्रव भाल्यो रंग ढाल्यो अभ्र माल्यो नवनवे पचरंग प्रगटे ऐहसुं घटे वटे वादल जुजवे । खलहले खाला नदिनाला ढले ढाला दद्धीवती, इण मास० ॥९॥ आसुह सर्षा हुवा वर्षा गमी ईर्षा दुख टले नवरंग नारि कज्जल सारी नाहवारी आणा वले । हिलिमिले रंगे नाह संगे बिहु उछंगे विलसती, इण मास० ॥१०॥ कात्तिअ कोली घऊंअ पोली घीए झबोली सहु जिमें रस कलस थला हुवा बहुला भला भोजनसुं रमे । ते भले भावन अतिहि आवन संग साजन सोभती, इण मास० ॥११॥ मागिशिर मासे महुल वासे नारी पासे नाहलो जिसो कमल कौले भमर भोले घोले रस ले आकलो । तिम क्रीआ कलीझुं रसे रलीयुं अंगे ढलीयुं वहेलती, इण मास० ॥१२॥ गिर हिम ढाले वह्न बाले शीतकाले पोशमे घिरे घिरे सिगडी जमे खीचडी उलो उरडी नो गमे । तव पहिरि दोटि त्रीआ छोटी दे कसोटी पतिवती, इण मास० ॥१३।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 61 माह मास आधे कंबल कांधे जोग साधे जोगीआ जे ग्रहवासि निर्द्धनासि प्रेहवासि उठिआ । । धन धन करतां देस फिरता प्रवहण चडता भगवति, इण मास० ॥१४॥ फागुण फुले रंग धुले बहु अमुले कस कसी मृगमद्द अर्गे प्रेमवर्गे नाहशंगे रसमसी । इम रंग राति जोवन जाति मदि माती ऋतिपति, इण मास० ॥१५।। कलसः कवित ॥ सदा सुबुध सरसत वत्त (?) देजो सेवकने सदा सुबुध सरसत सुमति समपो मुझने । सदा सुबुध सरसत छठ सोपो छात्तरने सदा सुबुध सरसत सत्त श्री माताजी सरने ॥ सदा लहु मान सनमान जस द्यो विसे विसवा कविपणो । श्रीजसराज गुरु शिष भणे मुनि भुधर सुमति गणो. ॥१६॥ इति श्री सरस्वतीजीना बारमासो छंद स्तोतर संपूर्ण ॥ -x Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदयाकुशलकृत लाभोदय रास ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि तपगच्छनायक श्रीविजयसेनसूरि महाराजना शाह अकबर साथेना मेळापने अने ते प्रसंगे थयेल जीवदयानां कार्योंने केन्द्रमां राखीने रचवामां आवेलो आ रास पण त्रुटक छे, अने अद्यावधि अप्रगट छे. लगभग अज्ञात छे. 'सूरीश्वर अने सम्राट् ' मां मुनि विद्याविजयजीए आना विषे नोंध्युं होवानी स्मृति छे. आनी जेरोक्स पण शिवपुरी (म. प्र. ) ना ग्रन्थसंग्रहमांथी ज प्राप्त थई होवानुं झांखुं स्मरण छे. आनी अन्य हस्तप्रति कशेय होवानुं जाणमां नथी. कुल ९ पानांनी प्रतिमां ५-६ - ७ ए त्रण पत्रो छे ज नहि. तेथी रचना त्रुटक रूपमां ज उपलब्ध छे. कर्ता मेघविजय शिष्य पं. कल्याणकुशलजीना शिष्य पं. दयाकुशल मुनि छे, तेवुं छेल्ली कडीओ जोतां स्पष्ट थाय छे. दयाकुशलजीए रचेल 'पदमहोत्सव रास' (सं. १६८५) विषे तथा 'हीरसूरिस्वाध्याय' (प्रकाशित) विषे नोंध मळे छे. तेओनो सत्तासमय १७ मा शतकनो पश्चार्ध होय तेम पण ते नोंध परथी जणाय छे. आ रासमां रचनासमयनो निर्देश कर्यो नथी. छतां तेनी रचना विजयसेनसूरिमहाराजनी विद्यमानतामां ज थई होय; अथवा तो आ समग्र घटनाक्रमना कर्ता स्वयं साक्षी पण रह्या होय अने तेमणे आंखे देख्यो हेवाल आ रासरूपे लख्यो होय, तेवी शक्यता वधु लागे छे. रासनो आरंभ विजयसेनसूरिना देह-गुण-वर्णन करतां दूहाथी थाय छे. 'विजयवल्ली रास'मां वर्णव्या प्रमाणे अहीं पण वर्णन छे के, गुरु राधनपुरमा हता अने अकबरनुं तेडुं आयुं छे. कड़ी क्र. १२ थी २१ अकबरशाहना प्रतापनुं वर्णन छे. अने कडी २३ थी २९मां लेभागु जोगीफकीरो प्रत्येनी शाहनी अरुचि वर्णववापूर्वक ३० थी ३९ मां 'हीरगुरु' ने याद करीने तेमना साचा संन्यासना शाहे करेला वखाणनुं बयान छे छेवटे शाह शेख (अबुल फजल ) ने 'हीरगुरु' ने मळवानी पोतानी इच्छा जणावे छे, त्यारे शेख हीरगुरुना तेमना जेवा ज श्रेष्ठ साधु-शिष्य 'विजयसेन' नुं वर्णन करी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 तेमने बोलाववानी भलामण करे छे (४१-४२). शाह तत्काल बे मेवडा ( खेपिया) ने राधनपुर संदेशो लखीने मोकले छे. अहीं प्रतनां ३ पानां अनुपलब्ध होवाने कारणे सळंगसूत्र वर्णनमां मोटुं भंगाण पडे छे, अने घणीबधी महत्त्वपूर्ण वातो, संवादो, घटनाओथी आपणने वंचित रहेवुं पडे छे. (त्रुटित कडी ४४ थी ९२ ) . 63 हवे ९३मी कडीमां सीधुं लाहोरमां पधारेला गुरुना सामैयानुं वर्णन जोवा मळे छे. शाहने खबर पहोंचतां ज ते जाते 'काश्मीरी मोहल्ला' सुधी सामो लेवा आवे छे (९९) ते वात खूब नोंधपात्र लागे छे. पछीथी ( सभामां पहोंचीने) शाह अने गुरु वच्चे थयेल संवाद नोंधवामां आव्यो छे. ते संवादने छेडे कविए गुरुना प्रभाव उपर वारी जईने गुरुप्रशस्तिरूप जे बे पंक्तिओ लखी छे, ते तो अत्यन्त मीठी अने प्रेरणाप्रद छे : "ए गुरु दरिसणि थई दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह" आ पछी गुरुनुं उपाश्रये आगमन, संघनी खुशाली वगेरे वर्णव्या पछी, जैनद्वेषी जनोना कावादावा, विवादो अने तेना गुरुए करेला सुयोग्य समाधान- शमननी वात संक्षेपमां ज वर्णवाई छे. १०९-१७ कडी १२०-२१ मां शेखे महोत्सव मंडावीने केटलाक खास मुनिवरोने उपाध्याय पद अपाव्यानो उल्लेख छे. आ पछी 'विजयहीर - विजयसेन'नी प्रेरणाथी बादशाहे जीवदयानां तथा धर्मरक्षानां जे कार्यो करेलां तेनी नोंध आपवामां आवी छे. अने अ साथे ज रासनी पूर्णाहुति थाय छे. कर्तानुं प्रयोजन उपरोक्त वातोनुं वर्णन ज मात्र करवानुं छे, ते आ उपरथी सिद्ध थई जाय छे. विजयसेनगुरुना शिष्य मेघ मुनि छे, तेमना शिष्य पं. कल्याणकुशल छे (१३७), तेमना पिता 'शाह लटकण' तथा माता 'लीलादे' (१३८) होवानुं पण सूचवायुं छे; अने तेमना शिष्य दयाकुशले आ वृत्तान्त को होवानुं सूचवी रास पूर्ण थाय छे. आ रास अहीं प्रथम वार प्रगट थाय छे तेनो जेटलो हर्ष छे, तेटलो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥४॥ 64 अनुसंधान-२५ ज, अधूरो मळवानो खेद छे. कोईने पण आनी अन्य प्रति क्यांयथी जडी आवे तो जाण करवा तथा उपलब्ध कराववा नम्र विनति छे. श्रीलाभोदयरास ॥ पं. श्रीकल्याणकुशलगुरुभ्यो नमः ॥ सरसति मति अतिनिरमली, आपु करी पसाय । जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दे तु माय नडोलाई नगरी भली, धन्य धन्य श्रीओसवंस । साह कर्माकुलि चंदलु, सुर नर करइं प्रसंस ना।। धन कोडमदे जनमिउ, तपगछनऊ सुलतान । अधिक अधिक तेजिई सदा, वाधइ जुगहप्रधान ॥३॥ जस मुख सारद चंदलु, जीह अमीनु घोल । दंतपंति हीरा जिसी, अधर सो कुंकुमारोल अति अणीआली आंखडी, वांकी भमह कमान । सरल सकोमल नासिका, मोहे भविक सुजान ॥५॥ गजगति चालिई चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जायो, जास अनोपम नूर श्री गुरु हीर सदा जयो, तास तणु ए सीस । रास रचुं रलीआमणु, प्रणमी जिन चउवीस चुपई ॥ विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां राधनपुर नयर प्रसिध, लोक वसई पुन्यवंत समरिध ॥८॥ तिहां गुरु गुणवंत करई चुमास, पुरइं भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, एक दुधमाहे साकर भली ॥९॥ तिउं सोहइं गुरु-गुरुनी जोडि, मंगल महानंद पूरइ कोडि । उच्छव आनंद तिम उद्योत, श्रीगुरुतेजे सुखी सहु लोक ॥१०॥ ॥६॥ ॥७॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 65 दूहा ॥ अवसरि एणइ अतिबली, अकबर साही सुलतान । श्रीगुरु रंगि बोलाविया, ते सुणो भविक सुजाण ॥११॥ ढाल ॥ अतिहठी अकबरसाह कह्यवइ, दुजु दुनीमई उपम को नावई । कोओ नाहीं अकबर बलि पूजइ, नाम सुणता वयरी तन धूजइ । दुरि कीया वयरी मद मोड, विषम लीओ तेणई कोट चित्रोड । कुंभलमेर अजमेर समाणु, जोधपुर जेसलमेर ए जाणु ॥१२॥ जुनु गढ लीउ सूरत कोट, भूरुअछकोट लीउ एकदोट । मांडुंगढ लीउ बल मांडी, हाडा गया रणथंभर छांडी ॥१३॥ लीयो सीयालकोट रोहीतास, अनेक विषमगढ पार न जास । सो लीया अकबरि एक नीसाण, हवे सुणो देसना नाम सुजाण ॥१४॥ ॥१५॥ ढाल ॥ गउड बंगाल तिलंग वंग अंग घोडा घाट दुलखु ओडीसु खंधारदेस जाकी विसमी वाट । कांमरु कमनाबल देस परबत सवालाख मगध कासी कासमीर देस तिहां झाझी द्राख सिंध कच्छ जे नगरथट्ठउ काबिल खुरासाण दिल्लीमंडल मेवात देस मघलइ साही आण । मरहठ मेवाड मारुआडि मालव गूजराति सोरठ कुंकण दखिण देस सहू अकबर हाथि निजबलि अकबरि देस लीआ ताकु लहुं पार कउतिग कारणि देस नाम कहीआं दोए-च्यार । रथ सुखासण पालखी परतखि चक्रवरति पुन्य विवेकी मु(सु) सारबुधि अडीग्ग आछी मति ॥१६॥ ॥१७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ॥१८॥ ॥२०॥ अनुसंधान-२५ ताजा तूरीय तोखार सार जाकु न लहुं पार मोटा मयगल मलपता ए दीसइ केइ हजारि । सेवइ जासु सुलतान खांन उंवरा राय राण रोमी फीरंगी हींदू हठी मूलां काजी पठाण अइसु दूनिमइ कोउ नाही लोपइ अकबर लीह विधिना एही ज आप घड्यो अडीग्ग अबीह जाकइ तेजि सहू लोक सुखी परजा प्रतिपालइ चाड चबोड अन्याई चोर धूतारा टालइ ॥१९॥ आनंद अधिक सुगाल सदा मोटु वडभागी लाहोरनगर मई लील करइ अकबर सोभागी दुहा ॥ परवतसिर जिउं मेरगिरि, ग्रहगण माहे चंद । सेषनाग सहू नाग सिरि, जिउं सुरवरमई इंद। ॥२१॥ सकल छत्रपति तिलकसम, एकदिन सभा मझारि ।। बोलइ अधिक उच्छाहसुं, वचन अमरीत []सधार ढाल ॥ साही कहइ सुणो वात इयारां, दोउ दूनीमई वात आसकारां । एक भले दूनीआंदार भोगी, दूजे फकीर निरंजन योगी ॥२३॥ जोगी सोई जे जोग अभ्यासइ, फूटी कउडी न राखइ पासइ । चित्त लगाई निरंजन धावइ, भलु बूर सुणी खेद न पावइ ॥२४॥ जाकइ जोरुंसुं नाहीं टूक संग, एक निरंजन सेती रंग । खोजी थाई बहु खोज करायो, सांचु जोगी कोए नजरि न आयो ॥२५॥ बहु उवोलइ इउं अकबरभूप, जोई जोउं सोउ रसरूप । सेष दरवेस सोफी इउ चालइ, हीक्क कहइं उर कूतुक उच्छालइं ॥२६।। भंगि पाई होवई अति लाल, संखला पहरी दीसई विकराल । नामि जोगी फूनी इयाही ज भेष, नामि सन्यासी सन्यास न रेख ॥२७|| ॥२२॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 67 ॥३१॥ खाजइं पीजइ कीजई तीय भोग, बोधा बोलई जगि इयाही ज जोग। पंच वखत नमाज गूजारइं, छरीय लेई बहु जीव संहारई ॥२८॥ काजी मूलां कहीइं सुणो साह, खुदाई इयाही फूरमाया राह । साही कहइ ए सब हइं जूठे, खुदाय थकी चालइ अ पूठे । इउं करतां किउं पाईइ दीन, जाकु मन दूनीआसुं लीन ॥२९।। दुहा ॥ ए सव रजब जूठे कीए, वडवखती कहइ मीर । दुनीआं दीपक एक मइ, श्रवणि सुणे गुरु हीर ॥३०॥ सो हम वेगि बोलाईउ, देखि तास दीना(दा)र । कहणी-करणी सांचउ, जोगीसर संसार ढाल ॥ ताकी करणी बहुत कठीन, किन पई कही जाय जीव न मारइं । जूठ नहीं, तीय सहु जिसी माय, कउडी न राखइं पास एक करइ खुदाकी । लेत नाही काछू गयर दिउ, परवाह न कीसकी खाना खावइ एक बेर, पीवइ ताता नीर बाजी तमासु खेल नाहीं ध्यावइ एक पीर । हरी तरकारी नहीं थालई नाहीं लेत तंबोल नांगे पाउं उ फीरइं, सदो बहु(सदोस हु?) बोलइ न बोल ॥३२॥ बाल उचावई धरम जाणि अ- सेह इं उही (?) देस विलाति सहु गाम फीरइं प्रतिबंध न मोही । सत्तु-मित्त समचित गिणइं, कीसहिं न दीइं दोस महिनइ दस रोजा करइ, न करइ टूक रोस भुइं सोवइ धूपकांलि धूप सीतकालिइं सीत समतिणमणि-नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । पाढ पढइ गुरु ध्यान धरई होवई गुणरागी ॥३३॥ ॥३४॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ ॥३९॥ · टाणुटुंणु उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सोइ कथन कथइं नाहीं कि न सारु ॥३५॥ दूहा ॥ वली निजमुखि साही कहइ, अइसे वचन अनेक । इया यूदाई तई निसप्रही, कीआ सो हीर जु एक ॥३६॥ एक ज हीर दीदार थई, हुया हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डांवर तलाव ॥३७॥ भादुं नव रोज जनमदीन, जीव मरता मभ(न)य कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंध पलासी दीध ॥३८॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मूलक पुर गाम । लालची देखाई घणी, गुरुजी कइ नाही काम साही कहइ गुरु हीरजी, दरसण देखण की चाय । जइ सेषजी तुम्ह कहु कुली, जइ बहु डबोलाइ ॥४०॥ ढाल ॥ सेषजी इउ बोलइ साही सुणो अरदास तुम्ह जानत नी कई पंथ उंदाका उदास । करणी सी पालई उर भए उ वृध कइसइ करि आवई सेषई उत्तर दीध जइ चाहु बोलाए तु, एक अरज हमारी आलमपनां सलामत को मेटइ दोही तुहारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ एक सिष्य सुजाण साही ताकुं बोलायो वेगि लिखि ऽह(फ)रमान ॥४२।। ए वात सुणी तब साही खूसी बहु मानी श्रीविजयसेनसूरि सांचे हई गुरुग्यानी । मेवडे दोउ पठए साही लिखि फूरमान राधनपुर आए जिहां गुरु गुणह निधान ॥४१॥ ॥४३॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 69 तुम्ह गुन रंज्यो इह दिल्लिपति पतिसाह जाकइ राति . . . . . . . . . . . (पत्र ५ थी ७ नथी. प्रति खण्डित) ॥९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ इणि परिइं बहुत मंडाण, सांम्हु संघ सुजाण अबीर लाल गुलाल तोरण वनरमाल पूजा नवे अंगे कीजइं, दान जाचकजन दीजई देखइं चतुर मिली थोक, कउतिकि मोह्या ए लोक इणि परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ । श्रीगुरु वंदना निहालई, पू(दू)रीत हु(दु)रि पखालइ श्रीगुरु रंगि सधारई, लाहोरमाहे पधारइं नगरी सारी सिणगारी, भलइ आयो हीर पटोधारी दुहा ॥ ईरजासुमतिइं चालतु, बोलइ जुगहप्रधान । पहिलई तिहां हम जाएसु, जिहां अकबर सुलतान ढाल ॥ श्रीगुरु दरबारिइं आवई मनि नइ रंगि समतारस-रागी ऊल्हट अतिघण अंगि । वेगि खवरि करावी अकवर साहीकु एह आए हई गुरुजी खूसी बोलायौ तेह ॥९८॥ साही अधिक विवेकी आचारजि पधरावइ कासमीरी महुलिई साम्हु दिलीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिई आणी मनि उछाह तपगछपति सेती बोलइ इउं पतिसाह "चंगे हउ गुरुजी चंग हइं गुरु हीर आलस सारी मई कोउ नाहीं तुम्हसा पीर । ॥९७॥ ॥९८॥ ||९९॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 - रोस तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पइ नाहीं दूक - रे तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस वडे फकीर निरंजन साध तुं हउ नित जोग चित लायो खूदासुं नाहीं दूनी काम भोग । हम जानत नीं कइंसा तुम्ह आचार साही सभा सुणत हई प्रसंसा वारवार हम बहुत खूसी हइ देखीत तुम्ह दीदार सुखिई आए पइंडइ सुखी सहु तुम पीर वार । तिहां श्रीआचारजि धर्मदेसन दीध भविकजन केरा मनवंछित सहु सिध अकबर केरा मनवंछित सहु सिध ते कहुं हुं कीनी परिइ कहता नावइ पार । ए गुरु दरिसणि थइं दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह ॥१००॥ 11211 ॥२॥ अनुसंधान-२५ ॥३॥ दुहा ॥ खुसी हुउ दिलीधणी, खुसी हुआ गुरुराज । उद्योत हुआ जग जइनकु, सिधां मनवंछित का ||४|| चालि ॥ मनवंछित काज समारी, हरखिउ हीय हीरपटोधारी । सीख साही पासि तिहां मागई, बहु नुबति नींकी बाजइ ॥५॥ उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर- चीर पटकूल, गंठउडा चूरी बहुमूल रूपानाणइ दुजणसाह, प्रभावना मांडिउ प्रवाह । ध्यन दिवस गिणुं ते लेखइ, एहवा आनंद ते देखइ दुहा ॥ पणइ अवरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उग्गइ भाण 11211 ॥६॥ 11611 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 माखी त्यजइ जीउ अप्पणपु, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मन अप्पणां, देखि परायां सुख चालि ॥ ब्राह्मणे जाई चूगली कीधी, मूकी मइदा माली] दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानु, कीछू उहांकी करणी जानु ||१०|| मानत नाही सूरज गंगा, उर श्रीपरमेसर चंगा | नाही दंडवरतकी वात, पापी चूगले घाली घात दूहा ॥ दुर्जन कर तन वेवही, सनमुख लेत संताप । गुरुड बरावरि किउं होवइ, जुरे भलेरा साप 11811 — ॥११॥ चालि ॥ जेसंगजी साही हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणकी फाली सूभट सूणी रणतूर, किउं झाल्या रहइं तिहां सूर । दुसमन जे विसिमसि करता, फिरता साकीदा ते कीआ जिउं आटा माहे लूंण, तुझ विण समझावत कुंण । वाद हुउ साही हजूर, जिता श्रीविजयसेनसूरि ॥ १४॥ ॥१५॥ ॥१२॥ ब्राह्मणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी । हुआ ते हाकावीका, पडीआ दुसमन सहु फीका एक एककुं इउं समझावई, अपनु कीउ सहु कोए पावइ ||१७|| ॥१६॥ ॥ जय जय वाद वरी तिहां, श्रीगुरु मन उल्हासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहोरि करई चउमासि शेषजी श्रीगुरुकुं कहई, भल सिष्य तु हीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण 71 ॥ १८॥ ॥१९॥ ॥१३॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अनुसंधान-२५ ॥२४॥ चालि ॥ गुरु कह्या हमारा कीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ । साही अकबर दिउ खताब, मनि जाणी बहुत सबाब ॥२०॥ मुहुरत भलु दिन लीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ । महोछु करइ सेष सुजाण, द्रव्य खरचइ बहुत मंडाण ॥२१॥ दुहा ॥ चूआ चंदन छांटणा, श्रीफल उ तंबोल । जाचिक अजाची कीया, आणी सेषि उलोल ॥२२॥ चालि ॥ मनि आणी अति उलोल, सेष करइ सबल रंगरोल । उपाध्याय पदवी द्यावी, जगमई जसपडहु वजावी ॥२३॥ अकबर सहगुरुकुं बकसइ, ते सुणतां हीयडु विकसयइ । नगरथठउ सिंध कच्छ, पांणी बहुला जिहां मच्छ जिहां हुता बहुत सिहार, ध्यन ध्यन सहगुरु उपगार । च्यार मास को जाल न घालइ, वसेषिइं वली वरसालइ ॥२५।। गाय मरती मनय सहु कीधी, दिन बार अमारि वर दीधी ॥२६॥ दुहा ॥ जइ गुरु सांचा निसप्रही, तु मागई अभयदांन । साही पासि करावीया, एह अडीग्ग फूरमान ॥२७॥ चालि || इय बोलइ साही सुजाण, - गुरु - प्रमाण । जेसंग अकबर साही, दुजेउं अविचल पतिसाही ॥२८॥ जिहां मेर जलही सूरचंद, तिहां प्रतिपु एह मुणिंद । साधु साधवी श्रावक श्रावी, उदयवंत सुगुरु पद पावी ॥२९॥ करतव्य जे अकबरि कीधां, सहु जाणे लोकप्रसिद्धां । जगतगुरु दीधुं नाम, छ मास अमारि फरमान ॥३०॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 73 ॥३१।। ॥३२।। ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ सेतुंजादिक तीर्थ जेह, वकसइ सहगुरुकुं तेह । जीजीउ दंड दोर जगाति, अकबरसाही कइ नहीं वात जोर जूलम न कीजइ जाकइ, हुउ ए अधिक इसा कइ भोगीजन करु बहु भोग, आतम साधउ जोग । देस नगर पुर गाम, सुखी जिहां जिहां अकबर नाम तेह सहगुरुनउ उपदेस, समुअरइसुं सदा वंछेसि । चउथउ आरु परतख्य दीसइ, पूजीजइ जिन चउवीसइ उछव होवइ नित झाझा, जिनसासनि बहुत दिवाजा . श्रीविजयसेनसूरिंद, चीर प्रतिपउ महामुणिंद । जस गुणकु न लहुं पार, सोहम जंबू अवतार सकलपंडित सिरताज, कल्याणकुशल गुरुराज । न्यानी गुणवंत मुनीश, श्रीमेहमुनींदकु सीस दूहा ॥ साह लटकण सुत गुणनिलु, लीलादे जसमाय । कल्याणकुशल गुरु भेटतां, दारीद दुरि जाय चालि || अहनिसि जपतां गुरु नाम, सीझइ मनवंछित काम । कहइ दयाकुशल तस सीस, सुप्रसन सहगुरु निसदीस इति श्री लाभोदयरास समाप्तं ॥ ग्रंथाग्रं २५१ ॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ -x Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 कडी क्र. १२ १९ २६ ३३ ३४ ३५ ३७ ४१ ४२ ९७ १०० १०५ दुनी चाड चबोड वोल बाल उचावई विलाति रोजा ११९ १२१ १२२ समतिणमणि टाणुटुंणु सबाब मनय उंदाका दोही जासुमति दूक- रोस सीख नुबति नींकी १०६ उपसरइ ११० मइदा १११ दंडवरत डेकाविली महोछु उलोल कठिन शब्द कोश दुनिया चाडी चपाटी करनारा डोळवु (?) - विचारवं वाळ चा विलायत - विदेश उनहाका द्विधा उपवास तृण- मणिमां समदृष्टिवाळा कामण टुमणना अर्थमां स्वभाव (वस्तुस्थिति) (?); मालसामान मनाई - मर्यादा (?) दंडवत् (?) महोच्छव उल्लास (केशलोच क्रिया) अनुसंधान - २५ उनका (?) ईर्यासमिति (जैन परिभाषानो शब्द ) दुःख - रोष रजा सरस नोबतो उपाश्रये Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमुनिचन्द्रसूरिगुरुगुणगहुँली ॥ सं. आ. प्रद्युम्नसूरि .. आ गहुंली रचनानी दृष्टिए साव सादी छे पण तेमां गूंथेली घटनानी दृष्टिए ते नोंधपात्र छे. श्रीपूज्यनी प्राणवान परंपरामां आ आ.श्री मुनिचन्द्रसूरिजी महाराजनुं नाम छेल्लं मळे छे. तेमना जीवननी माहिती बाबत जिज्ञासा रहेती हती. ते संयोगोमां आ नानी रचना थोडो प्रकाश पाथरे छे. रचना पाटणमां तेओश्री पधार्या ते प्रसंगे थई छे. व्याख्यानमां गहुंली गावानी प्रणालिका श्रीपूज्योमा हती तेवू जणाय छे. आ.श्री मुनिचन्द्रसूरिमहाराजने सूरिपद नानी वयमां प्राप्त थयुं होय तेवू जणाय छे. वि.सं. १९५९ अखात्रीज वृषभलग्नमां दीक्षा जणावे छे. खंभातथी पूना जवानी वात छे. महेन्द्रविजय गणी ए नाम आचार्यपद पूर्वे हशे? आ बधी विगतो तपासवा चकासवा माटेनां साधनो शोधवानां बाकी छे. छतां आ रचनामांथी केटलीक विगतो तारवी शकाय छे. जन्म स्थान - राजस्थान-चांपासणी, पिता नाम - भीखाजी, माता नाम - धापुबेन. वि.सं. १९५९मां दीक्षानी साथे सिंह पदनो उल्लेख छे. सिंहपद एटले शुं अभिप्रेत छे, ते जाणवू बाकी छे. नवमा वर्षनो उल्लेख दीक्षा संबन्धमां होवो जोइए । कर्ताना नामनी अटकळमां छेल्ली कडीमां आवतां लावण्य अने हर्ष ए बे शब्द द्वारा लावण्य ओ गुरुर्नु नाम अने हर्ष ए शिष्यनुं नाम होइ शके. आ एक ऊभुं चीरीयुं छे. कोबास्थित आ.श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमन्दिरना व्यवस्थापकना सौजन्यथी प्राप्त थयुं छे. लेखन संवत् - १९६५ छे, एटले रचना पण ते दरम्याननी गणी शकाय. क्यारेक आवी सामग्रीमांथी इतिहासनी खूटती एकाद कडी मळी रहे तेटलुं आनुं मूल्य मानवू जोइए. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 श्रीमुनिचंद्रसूरि गुरुगुण गहुंली ॥ अथ गुंहलि लिख्यते ॥ ( बेनी अपापानयरी उद्यान के वाजा वाजियारे लोल ॥ ए देसी ॥1) बेनी चालो गुरु-गुण गावा के हर्ष हीयें घणो रे लोल || बेनी पाटण नयर मोझार । के विचरंता वली रे लोल ||१|| बेनी पधार्या गुरुराय के, वर पटोधरु रे लोल । बेनी गुण छत्रीसना धार, के तपगच्छपति रे लोल ||२|| बेनी सित्तेरमो ए पाट के परंपरा गणी रे लोल । बेनी श्री मुनिचंद्रसूरीस के, लघु वय पद लह्युं रे लोल ||३|| बेनी मरुधर नामे देश के, गाम चांपासणी रे लोल । बेनी उत्तमकुले उतपन्न के, भीखाजी पिता रे लोल ||४|| बेनी माता धापुनाम के; कुखे अवतर्या रे लोल बेनी पूरव पुन्यं संजोग के, प्रगट्यो लघु वये रे लोल ॥५॥ बेनी गीतारथें करी सोध के, ततक्षण ते मल्या रे लोल । बेनी देखी भाग्य विशाल के, शांत दांत मुद्रा भणी रे लोल ॥६॥ बेनी राजेन्द्रसूरीजीरा शिष्य के गुण रयणे भर्या रे लोल । बेनी मुखकज तेहनो देखी; के मन विकसे घणो रे लोल ॥७॥ बेनी लाव्या खम्भातनयर के, महेन्द्रविजयगणी रे लोल । बेनी त्यांथि पूना नयर कें, जाये सहु मल्या रे लोल ॥८॥ बेनी पूना केरो संघ के, मलि बहु एकठो रे लोल । बेनी देस - विदेसे लखाय के, कंकुपत्रिका रे लोल ॥९॥ बेनी उत्सवनो बहु ठाठ के, न जाये कह्यो रे लोल । बेनी विक्रम संवत जाण के; ओगणी- ओगणसायठो रे लोल ॥ १०॥ बेनी मास वैशाखना जाण के, बेनी सुभ वृष लग्ने दीक्षा के; अनुसंधान- २५ अक्षय [तृतीया ] तिथी रे लोल । सींहपद लह्यो रे लोल ॥ ११ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 77 बेनी नवमे वरसे प्रगट्या के पूर्व पुन्यावलि रे लोल । बेनी लावण्य तेहने देखी; के हर्ष हिये घणो रे लोल ॥१२॥ इति गुंहलि समाप्त ॥ संवत् १९६५ रा माह सुद० १ श्री मुनिसुव्रतजीन प्रसादात् गामे - मांडवाडा ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ ___C/o. जितेन्द्र कापडिया __ १२-बी, सत्तर तालुका सोसायटी, अजन्ता प्रिन्टरी, नवजीवन, अमदावाद-१४. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक मुक्तिसौभाग्यगणि कृत स्तवनचोवीसी : डो. अभय दोशी एक संक्षिप्त परिचय आ चोवीसीनी एकमात्र हस्तप्रत श्री ला. द. प्राच्यविद्यामंदिरमांथी प्राप्त थई छे. १० पत्र धरावती आ हस्तप्रत व्यवस्थित स्वच्छ अक्षरो धरावे छे, परंतु केटलेक स्थळे अक्षरो एकसरखा होवाथी भ्रम उपजावे छे. अंते पुष्पिकामां लिपिकार आदिनुं नाम आदि आपवामां आव्युं नथी. परंतु लखावटनी दृष्टि प्रत विक्रमना १९ मा शतकनी होय एवं संभवित जणाय छे. वाचक मुक्तिसौभाग्य गणिनो पण कोई परिचय प्राप्त थतो नथी. परंतु तेमनुं 'सौभाग्य' एवं अंतिम नाम तेमना गच्छ तरीके तपागच्छनी 'सौभाग्य' शाखानो निर्देश करे छे तेमज कृतिमां व्यापकपणे प्रयोजायेली १८ भा शतकना स्तवनोनी देशीओने कारणे तेमनो काळ १८मा शतकनो उत्तरार्ध के १९मा शतकनो होवानुं निश्चित करी शकाय छे. आ चोवीशी भक्तिप्रधान - भक्तिहृदयना भावोल्लासथी सभर एवी मनहर कृति छे. कवि पर यशोविजयजी, मानविजयजी आदि कविओनो प्रभाव जोई शकाय, एम छतां कवि हृदयनी सच्चाई तेम ज केटलीक मनोहर नाविन्यसभर अलंकाररचनाओ, काव्यात्मक उक्तिओने कारणे आ चोवीशी एक नोंधपात्र चोवीशी तरीके स्थान पामे एवी बनी छे. आ उपरांत कविओ तेरमां स्तवनमां करेलो चारणी शैलीनो कमलबंधनो प्रयोग पण नोंधपात्र छे. कवि अभिनंदनस्वामी स्तवनमां परमात्माना प्रभावने वर्णवतां मनहर कल्पना करी छे. कवि कहे छे के, ज्यारथी मारा हृदयमां परमात्मा वस्या छे, त्यारथी चिंतामणिरत्न, कामकुंभ अने कल्पवृक्षनुं मूल्य मारे मन क्रमशः पथ्थर, माटी अने काष्ट समान ज थई गयुं छे. तो सुमतिनाथ स्तवनमां चातक - मेघ, भ्रमर - मालती आदि परंपरागत उपमाओनी साथे ज छात्रने मन विद्या अने समदर्शीने मन शांति, नयवादीने मन नय जेवी नाविन्यसभर उपमाओनुं आलेखन जोवा मळे छे. छठ्ठा पद्मप्रभस्वामी स्तवनमां परमात्मा साथेनी दृढप्रीति अंगे प्रयोजेलुं दृष्टांत नोंधपात्र छे. कवि कहे छे, कोई शुभ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 79 दिवसे, शुभ मुहूर्ते मारा हृदयमां सज्जन पुरुषनी जेम आपनो वास थयो छे, ते कायम माटे अंकित थयो छे. जेम चित्रमा हाथी पर एकवार महावत दोरवामां आवे, तेने ऊतारवानो गमे तेटलो प्रयत्न करवामां आवे, छतां ते जेम ऊतरतो नथी एम, तमे मारा हदयमांथी पळभर पण दूर थता नथी. चौदमा श्री अनंतनाथ स्तवनमां परमात्मानी उपस्थितिने कारणे कर्मोनी केवी दशा थई छे. तेनुं अलंकार-लययुक्त आलेखन कर्यु छे; 'तुं हि ज मुझ शिर राजीउ, कर्म अहितस्युं जोर, ते वनि पन्नग गत विरहें, जिहां विचरे हरखे मोर.' हे प्रभु ! जो आप मारा शिर पर बिराजमान हो, तो कर्म-अहित शुं करी शके ? जेम जे वनमां हर्षपूर्वक मोर क्रीडा करता होय, त्यां साप केवी रीते रही शखे ! श्री कुंथुनाथ स्तवनमां 'अर्क' शब्द परनो श्लेष्ट नोंधपात्र छे; 'अरक नामें तरु छे जेह, अरकसमान दीपे स्युं तेह.' अर्क वृक्ष (आकडो) | अर्क (सूर्य) समान दीप्तिमान थई शके ! ए भले वृक्ष तरीके अर्क नाम धरावे छे, पण ते वास्तविक सूर्य जेवो प्रकाश धरावी शकतो नथी. ए ज रीते श्री नेमिनाथ स्तवनमा पोतानी प्रीतिनी दृढताने वर्णवता कहे छे; "थाई जूनी देहडी, प्रीत न जूनी होइं रे.. वागो विणसें जरकसी, पिण सोनुं श्याम न होई रे.'' ए ज रीते महावीरस्वामी स्तवनमा परमात्माना शासन पाम्यानो आनंद मनहर वर्णानुप्रास अलंकार. द्वारा आलेखायो छे. 'मेरु थकी मरुभूमिका रे, रुडी रुडी रीति रे.' आवी अनेक मनोहर-काव्यसौंदर्य भावसौंदर्यमय अभिव्यक्तिने लीधे आ चोवीस मध्यकालीन स्तवन साहित्यनी एक महत्त्वनी कृति तरीके स्थान पामे तेवी छे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अथ चोवीसी लिख्यते (देशी रसीयानी) प्रथम जिणेसर माहरि प्रीतिने, निरखो घणुं करी प्रेम. सनेही पूरण कलाई जिम दीपतो, चंद चकोर ती तेम. माहरें तमस्युं प्रीति अनादिनी, जिम जलसफरीनी रीती. सेवकने उवेखी मुकस्यो, साहिब एह न नीति. पोते सेव्युं काष्टने जाणीनें तारें नावने नीर. तस संगे लोह तरें तिम जाणीइं, मुझ अवगुणनैं धीर नीरागी थइने जो छूटस्यो, तो नही फावो रे दाय. भगति कर अम्हे मनमां लावस्युं तव ही स्यो साहिब सरवाये. स० ४ प्र० अथवा भगति जो अमनें आपस्यो, तोरी कि बुद्धिनुं काम. वीरुइ मजइ मज जो तुम्ह तणुं, तो बोहिदयाणं स्युं नाम स० ५ प्र० पिण हुं सेवक स्वामी तुं माहरो, प्रभु छो गरिबनिवाज. महेर कर्यानी हवे वात तो, न रह्यो अजर समाज. पूरव पुण्य पसाई पामिउ, दरिसण ताहरें आज. हुं इम मानुं जिनजी मुगतिनां, सहजें सरियां हो काज इति श्री ऋषभजिन स्तवनं अनुसंधान-२५ स० १ प्र० स० २ प्र० स० ३ प्र० स० ६ प्र० ( थारा मोहलां उपरि मेह झरुंखें वीजली हो लाल - ए देशी) अजित जिणेसर साहिब सांभलो जगधणी हो. सां० आणि वउं शिर माहरे नित नित तुम तणी हो. नित० तुम सम बीजो जगतमां पेखु को नही हो पे० सुख अनंतनुं मूल छे माहरे तुं सही हो लाल. मा० १ तुमस्युं बांध्यो प्रेम जे साचा चित्तथी हो ला सा० ते किम थाई फोक कें माहरा हेतथी [ हो ] मा० स० ७ प्र० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 भमरे बांधी प्रीति तें कमलस्युं जिम खरी हो क० गोत्र सूता पिण प्रीति करीने शिव वरी हो क० २ । दिनकरनें कमलनी, जिम वली कुमुदिनी हो जि० चंदनें इ छे जिम शचि मुरति इंद्रनी हो मू० जिम वली कमला माधव प्रीति जिम कामने हो प्री० तिम हुं चाहुं देव तुमारा नामनें हो. तु० ३ तुमस्युं बांधी प्रीति जे जालिम जोरस्युं हो जा० ते मिथ्या किम थाई अपजन सोरस्युं हो अ० काक कुशब्दथी कोकिल रूत किंम मुंकस्यें हो रू० देखी आंबा मोहरने, दूरिजन झूरस्यें हो. दु० ४ पिण ए वातनी लाज तो ताहरे हाथे छे हो ता० मीन मोटुं पिण जीवन कारण पाथ छे हो.. जे जननु परि रा वस्यो प्रीतिने तोरय रे हो. निरमल आतम करीनें, मुगतिने ते वरें हो मु० ५ इति श्रीअजितजिनस्तवनं ॥२॥ (वाटडी विलोकुं रे वाहला वीरनी रे-ए देशी) वंदना मानो रे संभव माहरी रे, तुमचो वंद्य स्वभाव. वंदक भावे रे हुं वरतुं सदा रे, जिम स्वामि सेवक भाव. १ वं. आगम रीतिं रे वांदी नवि सकुं रे, पिण वांदवा घणुं हेत. जिम कोइ वामन उंचा फल प्रति रे, यत्न करीस्युं नही लेत. २ वं. वंदक निंदक मान अपमानने रे, वली कंचन पाषाण. मुगति संसारनें मणि तृण सम गणो, वली जाण नैं अजाण. . ३ वं. इणि रीते रे समदरशी पणे रे, वरतो छो महाराज. तारों मुझने ते माटे प्रभु रे, बांहि ग्रह्यानी छ लाज. ४ वं. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अनुसंधान-२५ . मोडुं वहेलुं जो प्रभु आपज्योरे, तो शी अरजनी वात. कोकिल चाहे कंठ सुशब्दनें रे, अंब छै मांजरि दात. मोटो दानी तुम सम को नही रे, हुं इम मा निरधार. चंद चकोरनें दानी जेहवो रे, तेहवो स्युं दूजो संसारि. ते कारणथी हुं तुमन्हें कउं रे, तुमे छो देवना देव. वाचक मुगति इम विनवें, आपो भवोभव सेव. . . इति श्रीसंभवजिनस्तवनं ॥ ३ ॥ (कुंथु जिणेसर जाणज्यो रे-ए देशी) अभिनंदन जिन सेवना रे, करो भवि ओक मनरे एह सम बीजो को नही हो लाल, मानु ए अनुभववन्त रे. वा०१ आतम आधार ए अछे हो लाल टेक. एहनी साथें प्रीतिने रे, पामी ए पुण्यनो योग रे वा० जिहां तिहां एहवी नवि होइं हो, भवि भवि जिम सुर भोग रे. वा०२ आ० हुं तो पाम्यो पुण्यथी रे, एह प्रभुपद कज केलि रे तस आगें तरj थइ हो, 'मोहन चित्रावेलि रे वा० ३. सुरमणि सुरघट सुरतरु रे, उपल माटि काष्ट रे थइनें अगोचर ते गयां हो ला. मुझ मन जव ए प्रतिष्ट रे. वा०४ सु० ए अभिनव सुरगवी रे ला. स्युं मंत्रादि सिधि रे माहरे एहथी होइ छे हो, मुगतिसुखनी रिधि रे. वा० ५ आ० इतिश्रीअभिनंदनजिनस्तवनं ॥४॥ चातुक मति जिम मेह, मधुकर जिम मालती री. जिम पोयणी चिति चंद, छात्रनें जिम भारती री. १ गज मनि जिम नदी रेव, पद्मस्युं जिम कमला री. पंथी मन जिम गेह, शूक जिम धूप फला री. १. मोहनवेलि तथा चित्रावेली तृणतुल्य छै. . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 83 मानससरने हंसा, जिम चाहें एक मने री. सीता हृदें जिम राम, धनि मनि जेम धने री. समदरशि मनि शांतिरसस्युं जिम नेह , री. धरमी मन जिम धर्म, जननी जिम वछे री. नंदनवनने इंद, जिम चाहें चित्त खरें री. वली भूख्या- मन्न, लालचु जिम घेबरे री. कामिनी मनि जिम कंत, मुनि मनि जिम दया री. नयवादिने मन्त्रि, वसिया जेम नया री. ६ तिम मुझ मन जिनराज, सुमतिनाथ वश्या री. वाचक मुगति सौभाग, कहें शिवसुख उल्लस्यां री. ७ m इति श्रीसुमतिनाथस्तवनं ॥ ५ ॥ २ पा० पद्मप्रभ जिन सांभलोजी, सेवक विनती एक. माहरा मनमां तुं वस्योजी, विद्यामां जिम विवेक पारंगत प्रभुजी धरिइ धर्मनो राग. आंकणी. कोईक सुदिन सुमुहूरतीजी, सज्जन चित्त चढ्या जेम. उतार्या पिण ते न उतरेजी, चित्र गज महावत जेम. ते माणस किम वीसरेजी, जेहस्युं घणो स्नेह. रातिदिवस अति सांभरेजी, जिम बप्पीया मेह. प्रीति जड जडी जे सद्मनेंजी, टंकण नेहस्युं सार. ते जड किमें नहीं नीसरेजी, जो मिले लक्ष लोहार. अचल अभंगई माहरेजी, तुंमस्युं अविहड राग. सुरगवी घृत जे पामिउंजी, तेजस्युं तस नही लाग. कोयल काली पिण अति भलीजी, हृदये जास विवेक. अंब विना सा अन्यस्युंजी, बोलइ बोलत एक ३ पा० ४ पा० ५ पा० ک یه ६ पा० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 अनुसंधान-२५ माहरें मनि प्रभु तुंही तुहीजी, पंकज मनि जिम अर्क. वाचक मुगति कहे तुं मिल्येजी, सवि गया चित्त वितर्क. ७ पा० इति श्रीपद्मप्रभस्तवनं ॥ ६ ॥ (कपूर होई अति उजलुं रे-ए देशी) श्री सुपास जिन साहिबारे, तुमे छो चतुर सुजाण. सेवक विनती सांभलोरे, मन धरी अतिहित आणि रे. सोभागी जिन महाराज सारो मुझ वंछित काज सो० तुमे छो सुर शिरताज. सो० टेक. तुम चरणे हुं आवीयो रे, लोकनगर भमी आज. दायक तुम ने पेखीने रे, हरखे मुझ आतमराज. २ सो० गुण अनंता तुम तणा रे, छाना ते न छीपाय. तेहमांथी एक आपतां रे, स्युं तुझनुं ओर्छ थाय. रयणायर एक रयणनें रे, याचकने दिइं आप. तो तस थोडां नवि होवे रे, तस जाइं दुख संताप. नही हाणी पंकजवने रे, देतां परिमल रेख. पिण परिमलने पामीनेंरे, अलि होइं सुखविशेष. चंद्रने स्युं ओछलुं रे, दीषे अमीयनो अंश. पामी अमीयने पिण होइं रे, हरखित चकोर हंस केवलनाण गुण आपवा रे, स्युं करो ताणाताणि. वर समयादि दाखतां रे, दातपणुं किम इंम जाणि केवलनाण गुण आपवा रे, स्युं करो ताणाताणि. वर समयादि दाखतां रे, दातपणुं किम इजा जाणिसो० बालकनें समझाववा रे, कहेस्यो भोली वात. पिण हठवाद मुंकु नही रे, विण आप्ये जगतात. ८ सो० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 85. जो चित आप्यानुं अछेरे, तो सी ढील जिणंद खीजवी चातुक जल दीधे रे, श्याम थया जलदंद. चाकर हुं जिन ताहरो रे कहिवाणो जगमांहि. हवे कुण मुझ गांजी सके रे, बलियानी भली बांहि. जिम जाणो 'तिम कीजीओ रें, स्युं कहुं वारोवार. मुगतिसोभाग उवज्झायने, तारो भवपार रे. इति श्रीसुपार्श्वजिनस्तवनं ॥ ७ ॥ १ चं० २ चं० चंद्रप्रभ जिन भेटीने करुं निरमल चित्त रे. जेहने तन मन सुंपियां, तेहथी छान स्युं वीत्तरे. देव अनेक छे जगतमां, एह सम अवर न कोय. ग्रहगण गगनि छे गाजतो, गुणिस्युं चंद्र सम होय रे. एहथी जे सुख संपजे, अन्यथी ते किम थात रे. देवमणि जिम होय छे, तिम स्युं काच अवदात. तारक बिरुद छे अहनें, अवरथी कहो किम थाय रे. धोरीनो भार तरेलथी, वह्यो किणि परि जाय रे. माहरें अहना संगथी, उल्लसे आतम अंश रे. मान सरोवर देखीनें, मुदित जिम होइ हंस रे. अष्ट महासिधि सुखनु, कारण ए जिनराज रे. मानुं हुं तनमनि सेवंता, सिझस्यें मुगतिनां काज रे. इति श्रीचंद्रप्रभजिनस्तवनं ॥ ८ ॥ (देशी-आज होनी) पुष्पदंत जिनराज, दीठा नयणें आज आज हो माहरे रे स्युं अपूरव सुरतरु फल्योजी. १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 अनुसंधान-२५ किंस्युं अनुभवरूप, स्युं शुक्लध्यान अनुप आज हो अथवा रे समकित शितरुचि हल्योजी. किं अम सित पुण्य अंकुर, स्युं समता नइखें पूर. आज हो मुझनें रे, शातनो कांदो मल्योजी. दरिसणि अहने आज सिधां वंछित काज. आज हो माहरो रे दुखनो पुंज सवि टल्योजी. थयो मुझ आतम शुद्ध, नाणदशाइं प्रबुद्ध. आज हो मानु रे, मुगतिना सुखने हुं रल्योजी. इति श्रीसुविधिजिनस्तवनं ॥९॥ mo 3 प्र०१ शी० प्र० २ शी० प्र० ३ शी० (संभवर्जिन अवधारीइं-ए देशी) शीतल जिनवर सांभलो सेवकनी अरदास प्रभुजी. माहरे तुमस्युं प्रीतिनो भाव बन्यो अति खास. तुं छे निरागी साहिबो, हुं छं रागी एकांत अहो निरागी रागीने, किम मले प्रीतिनो तंत प्रिण उपसर्गथी रहितने, किम नीरागी भाव. जुओ विचारी चित्तमां, रागी निरागी दाव. रागीनें रागी जो मिलई, प्रगटें प्रीतिनुं मूल प्र० दीवें दीवो जिम मिले, तेज होइं अनुकूल. जगतमा सघलुं सहेल छे, दोहिलो प्रीतिनिभाव. प्र० दुराराध्य छई लोकनो, जे जेहनो सहाव. पिण तुम साथे जे प्रीतिनो, जेहवो चोलनो रंग। फाटे पण फीटें नही, तेम छे माहरे अंग. जगनायक जगतारणो, भगतवच्छल भगवान. तुमस्युं बांधी जे प्रीतडी, ते मुगतिनुं निदान. इति श्रीशीतलजिनस्तवनं ॥ १० ॥ प्र० ४ शी० प्र० ५ शी० प्र० ६ शी० प्र० ७ शी० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 (प्राणी वाणी जिन तणी-ए देशी) श्री श्रेयांस तुझ निरखतां, मुझ लोचन हरखित थाय रे. मन आणंद वधे घणो, चकोर जिम चंदनें पायरे. च० १ त्रिभुवनि तुं भलो जगतात रे, जगतात विष्णुसुत सुजात श्री जिन सांभलो सुवात रे आंकणी. मोटा जनस्युं प्रीतडी,ते तो आंबे भरवी बाथ रे. पिण चित्तलगन जो मिलें, तो मोटा लघु श्याना नाथ रे. २ तो० त्रि० श्री० जे करस्य ते जाणस्यें, चित्त लगननी जे वात रे. प्रसववतीनी वेदना, वंध्याने ते किम थात रे. ३ वं० त्रि० श्री० तालेवरस्युं प्रेम जे, ते तो भरमें मुंघो होय रे. भाग्य भरमें तें सही, सुंघो पिण पामें कोय रे. ४ सुं० त्रि० श्री० साचा संग न उलखी, जे वलग्या ते किम छोडि रे. मुगताफल पाणी चढ्यां, कहो स्वामी कुंण विछोडी रे. ५ क० त्रि० श्री० मन मान्यास्युं प्रीतडी, छै जगमां श्री जिनराय रे. ते विना स्युं अन्यथी, तस चित्त हरखित थाय रे. ६ त० त्रि० श्री० माहरे तुमस्युं प्रेम छे, जिम चोल मजीठे रंग रे. वाचक मुगतिना साहिबा, जो निभवो तो ते अभंग रे. ७ जो० त्रि० श्री० इति श्रीश्रेयांसजिनस्तवनं ॥ ११ ॥ (देशी-एहज) वासुपूज्यप्रभु सांभलो, चाकरनी अरदास रे. माहरा मनमां तुं वस्यो, जिम अलि मनि पंकज वास रे. १ जि० श्री जिन तुं जयो जयवंत रे. जयवंत महंत अनंतज्ञानी तुं थयो जसवंत रे आंकणी. जो पिण देव अनेक छे, पिण माहरे तुं जिनराय रे. दूध सवादी छासस्युं किम चित्त हरखित थाय रे. २ कि० श्री० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 अनुसंधान-२५ स्युं करीइं बउ देवनें, जेहथी होइं कर्मनो संच रे. लेहणुं ते स्या कामनु, होइं उलटुं देणुं घंच रे. ३ हो० श्री. सोनुं ते स्यां कामनु, जे तोडें वेहलो कान रे. जे राग वागें स्युं भलुं, जेहमां तुटें मुख्य तान रे. ४ जे० श्री०झा० ते यशि स्युं होय छे, जेहथी अपयश थाइ निदान रे. ते माने नवि राचिइं, जेहथी होई बहु अपमान रे. ५ जे० श्री॰झा० ते वाहलो कश्या कामनो, जे आपदकालें र रे. ते राजा स्युं मानीओ, जेहथी पामें दुखपूररे. ६ जे० श्री॰झा० इंम ते सवि अवगणी, एक कीधो तुमस्युं नेहरे.. सर आदि जल मुंकीने, जिम बप्पीया मन मेहरे. ७ जि० श्री झा० सोनुं ने सुगंध छइ माहरें, दरिसण ताहरें आज रे. वाचक मगतिने तारीइं, एक बांहि ग्रह्यानी लाज रे. ८ श्री०झा० इति श्रीवासुपूज्यजिनस्तवनं ॥१२॥ हेत धरी अमंदरे, श्री विमल जिणंद रे. विनमें सुरइंदरे, मनना टाले दंद रे. लहें सुखना वृंद रे, जिम मुख निशींद रे. नमतें वारे दंदरे, वश इंद्रिय गयंद रे. रस भवना मंदरे, मांन हस्ती मृगेंद रे. तान गाई आनंद रे, रदन रश्मि चंद रे. यति वर्गनो इंद रे, ताम सारवु फणींद रे. रस शांतनो कंदरे, यशि जिम दिणंद रे. ४ तिम अनुभव रंगे रे, प्रणमु उमंगे रे. आणि उलट अंगे रे, मुगति अंभगे आपो मुझ साहिबा रे. इति श्रीकमलबंधेन श्रीविमलजिनस्तवनं. १-२. शांतरसनुं सुंदर घर छै भगवान, मानरूप हस्तिने हणवाने सिंह सरखा भगवान छे. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 89 हे ! श्रीविमलजिनवर मां तारय तारय इति भावः सूचितः पदस्य आद्याक्षरेण इति १३।। (देशी-ललनांनी) अनंत जिणेसर विनती, सांभलो माहरी आप. ललनां. माहरा मनमां तुं वस्यो, जिम चातुक मेह जाप. ल० १ अ० तुह अयोगी केसरी थकी, नाठा कर्म गयंद. ल० अगम अगोचर तिहां जयी, सेवें तेह दिगंत. ल० २ अ० तुं हि ज मुझ शिर राजीउ, कर्म अहितस्युं जोर. ते वनि पन्नग गत विरहें, जिहां विचरें हरखे मोर. ल० ३ अ० जो पिण अवगुण हुं भर्यो, तो पिण माहरो तुं जाणि वडवानल जल ज्वालते, न तजे सिंधु बहुमान. ल० ४ अ० कलंकी करे पिणि शशकनें, शशी न मुंके हजी सुधि. ल० । अंगीकृतने नवि मुंको, उत्तम नर मनि बुद्धि. ल० ५ अ० दुख नासे तुम नामथी, तैम (तम) जिम उंगते भाण ल० । वाचक मुगतिने तुं सही, आपें परम निधान. ल. ६ अ० इति श्रीअनंतजिनस्तवन ॥१४॥ (देशी-जी होनी) जी हो धर्मजिणेसर सांभलो, जी हो हुँ छु दासनो दास. जी हो तुझ पद कमल सेवनी, जी हो मुझ मन अलिने आस. जिणेसर तुं मुझ प्राण आधार, जी हो तुम विण दुजो को नही. जी हो मुझने करवा सार. जि०. जी हो कहिवू जे जाणने आगलें, जी हो ते सवि हासनु काम. जी हो सुरगुरुने भणाववं, जी हो भाषाने अख्यर ठाम. २ - १. अंधकार सूर्य उगें त्यारे क्षय जाय. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ जी हो वात करतां ईष्टस्युं, जी हो सासोसास जे जाय. जी हो ते लेखे मानुं घj, जी हो अवर अकों थाय. ३ जि० जी हो एकपखी जे प्रीतडी, जी हो ते श्या कामनी होय. जी हो जेहनें मनि पिण जे वस्यो, जी हो ते विण बीजानें जोय.४ जि० जी हो मालिम तुझनें ताहरी, जी हो मुझने माहरी देव ते स्वरूपिण मूंको रखे, जी हो बांहि ग्रह्यानी टेव. ५ जि० जी हो जिम वाहे चकोर चंदने, जी हो तिम हुं तव मुख कंज. जी हो ए भावें मुझ संपजे, जी हो मुगतिसुखनो पुंज.६ जि०. ___ इति श्रीधर्मजिनस्तवनं ॥१५॥ भ० १ जि० भ० रजि० भ० ३ जि० (सूरिजन-ए देशी०) जिनवर शांतिनी प्रीतिनें, करवा वांछे मन्न. भविजन. प्रभुजीनी मूरति जोइनें, उलसें माहरी तन्न. वाहलानी साथै प्रेमने, देखी किम खमें दुष्ट भ० तो पिण मनमां नवि धरूं, दिन दिन थाउं पुष्ट भुंडो भुंडाश न मुंको, करीइं कोडि उपाय. भ० काजल दूधे पखालीओ, तो हि न उजल थाय. जे गुणे नवि माचे छे, अवगुणें राचै जेम. भ० मुगताफल तजी भीलडी, गुंजा उपरि प्रेम. मुह मीठे बोलावीइं, दुरजन सुजन न थाय. भ० करि इं सिंह स्वाननें, भश्या विना न रहिवाय. परघरभंजक खल घणा, जेहनी मति विपरीत. भ० हुं पिण तेहनें नवि गणुं, पुरुषनी एह छे रीति. रांक अंधारुं स्युं करें, सूरय आगलि दीस भ० पुंण वीसी तिहां नवि रहे, जिहां छे वीसवावीस. भ० ४ जि० भ० ५ जि० भ० ६ जि० भ० ७ जि० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 91 भ० ८ जि० धरमथी जय जाणज्यो, पापथी किम होई तेहु. भ० जे जेहवो तेहवो फल भोगवे छे देह. दशा विभावनी दुष्ट छे, शिष्ट दशा स्वभाव. ---गुणै जोर हैं, मुगति सहजें भाव. ___ इति श्रीशांतिजिनस्तवनं ॥१६॥ भ० ९ जि० (देशी-मोतीडानी) माहरे तुमस्युं अपूरव प्रीति, जिम चलचंचु सुधाकर रीति. साहिबा कुंथुनाथ जिनेशा, मोहना कुंथुनाथ. अवर नी नावें मोरें मंनयामे, किम हंसा माचे परिखा ठामें. १ सा० कमलमधुमां जे अलि माचे, करीर तरुमां ते किम राचें. सा० सूरभाषाई जे जन लीना, अपजन भाषाई ते स्युं लीना. २ सा० जलधर नें जे चातुक इछे, सरोवरजलने ते स्युं प्रीछइं सा० समकित मित्रस्युं प्रेम छे जेहनें, मिथ्या अहितस्युं रुचि तेहनें ३ सा० इंम ते प्रीतडी तुमस्युं बांधी, नरभव उत्तम कुल तक सांधी. गुणवंतास्युं जिम जिम प्रीति, तिम तिम प्रगटें अनुभव रीति. ४ सा० रागद्वेषनें जीते ते जिनराय, सुगत हरि जिन न कहाय. अरक नामें तरु छे जेह, अरकसमान दीपे स्युं तेह. सा० ५ निरागीस्युं किम प्रीति स(सं)च, पिण प्रीति भावे मो मन अंच. भगति दूतिनुं जो छे तान, मुगतिस्वामी, तो प्रीतिमान सा० ६ इति श्रीकुंथुनाथस्तवनं ॥१७॥ (कुंअर गभारो नजरे देखतांजी-ए देशी) श्री अरजिनवर तुमस्युं बन्योजी, माहरे धर्मनो नेहरे. करुणानिधि करुणा करिजी, निभवो आप गुणगेहरे. १ श्री० Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 नहि जस मो टालउं आंतरुजी, गिरुआ साहिब तेह रे. शशी जलधि कैरव प्रतिजी, हरख वधारे जूओ जे हरे . अंजली रह्यां जे फूलडां जी, वासें ते कर दोय रे. प्रायें सुमनस तणीजी, समवृत्ति वामावाम जोय रे. तिम सहुनें नर सरखापर्णेजी, गणिई श्री जिनराय रे. जो होई अंतर मुझ प्रतिंजी, समदरशीपणुं किम थाय रे. ठोर कुठोर नवि गणेजी, जो पिण जळधार मेह. वरसीनें जगहित करेंजी, इम जाणी धारो मुझ नेह रे. गुण देखाडि जे हेलव्याजी, ते किम मुंके मित्त रे. हवे आनाकानी नवि घटेंजी, जूउं विमासी चित्त रे. मुझ मन तुम चरणे वस्युंजी, जिम पोयणी चित्त चंद रे. वाचक मुगतिनें तुम थकीजी, वरतें सुख आणंद रे. इति श्रीअरजिनस्तवनं ॥ १८ ॥ अनुसंधान - २५ बहु आसंगे बेदबी होई, इम बीहाव्यो नवि बीउं कांइ. आप पीयारुं को नवि दीसें, ताहरे जाणुं वीसवावीसें वाचक मुगतिनें साहिब तारो, दासनां आतम कारय सारो. इति श्रीमल्लिजिनस्तवनं ॥१९॥ २ श्री० ३ श्री० ४ श्री० ५ श्री० (शीतलजिन सहजानंदी - ए देशी) मल्लि तुज दरिसण संगें, हरख हुउ मुझ अंगोअंगे. चकोर जिम चंदने पेखी, मानुं फलिउ समकीत शाखि सुरासुरपूज्य तुं प्रभु मोटो, तुमथी दूजो देव छें छोटो, सु०आं० गुण अनंता तुमचें प्रगट्या, पिण देवा वेलेस्युं जिन विघट्या. इम कीधे मोटानी माम, किम रहिं कहो विचारी स्वामि. आप कमाई आपे खाई, दातपणुं किम इम थायें आज लगें जे गुणने आप्यो, ते दाखी तथापणुं थाप्यों. ६ श्री० ७ श्री० २ सु० ३ सु० ४ सु० ५ सु० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 (भाविकानी - देशी) सज्जन मन सज्जनताई, रति मनि जिम रतीश. पद्मा मनि जिम गोविंदस्वामी, जिम गिरिजा मनि इश रे. सुरिजन. तिम मुझ मनमां वसीयो, मुनिसुव्रत जिन रसीयो रे सु० पाप तिमीर सवि खसीयोरे सु० धर्मे आतम हसीयो सू०ति०आं० पायसमांहि जिम घृत वसीउं, वस्तुमांहि जिम अर्थ रे. २ सू० पारस उपलमां जिम कंचन, अ ( स ? ) त्तामां आतम धर्म. चंदनमां जिम वांसनुं कारण, कारणें कारय मर्म रे. भूमिमां जिम उषधि सधली, जिम गुणमांहि गुणना धर्म. जिम लोके षटकाय रे. जिम स्यादवादें नयना भेद, मृदमां घटनी व्यक्ति. अरणीमांहिं जिम अग्नि दीपें, सुरतरुमां सुखशक्ति... द्रव्य भावनी पुष्टि करीनें, कीजे एहनी भक्ति. शाश्वत सुखने पांमो भविजन, जेहनुं नाम छे मुक्ति रे. इति श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तवनं ॥२०॥ ( क्रीडा करी घर आवीउं - ए देशी) स्वामी नमी जीन सांभलो, तुमस्युं अविचल नेहो रे. टाल्यो ते न टलें कदा, जिम पर्वतशिर रेहो रे. तुं नथी मुझ वेगलो, छे मुझ चित्त हजूरो रे. सास पहिलां जे सांभरे, ते किम थाई दूरी रे. साकर सहित दूधनें, पीधूं जिणे हित राखी रे. मुंकी तेहने सर्वथा, स्युं ते अन्यनो चाखी रे. थाई जूनी देहडी, प्रीत न जूनी होई रे. वागो विणसें जरकसी, पिंण सोनुं श्याम न होइ रे. १. (हस्तप्रतनोंध :, जरकसी वाघो फाटे पिण तेहमां सोनुं बिगडें नहि.) ३ सू० ४ सू० 93 सू० ५ १ स्वा० सू० ६ २ स्वा० ३ स्वा० ४ स्वा० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 अनुसंधान-२५ ५ स्वा० ६ स्वा० तिम मुझ तुमस्युं प्रीतडी, प्रगटी अंगो अंगे रे. साहिब तुमे पण निभवो, जिम होई अचल अभंग रे. मलयाचल शुभ वासथी, कंटक होई सुगंधो रे. सज्जन सउने आदरें, ए उत्तम अनुबंधो. रे. जिनवर तुमस्युं प्रीतिथी, होई गुण सुवासो रे. जिम तिलफूलें वासीया, स्नेह होइं अतिखासो रे. शाश्वतसुखने आपवा, तुमस्युं प्रीति बद्धकक्ष रे. मुगतिनायक मुझ प्रति, स्युं करें प्रतिपक्ष रे. इति श्रीनमिजिनस्तवनं ॥२१॥ ७ स्वा० (धणरा ढोला-ए देशी) केनि-णिणेसर मुझ प्रात र, तुमे स्यो काढ्यो वांका. पेसना नाणी. टालो माहरी प्रीतिने रे, इंम किम उत्तम लांका. पे० १ आवो आवो रे प्यारा नेम, स्युं जाउं छोरी सावी एम. हित गोठे उपजे प्रेम. पे० टेक. चंद कलंकी जिणें करी रे, सीतने रामवियोग. पे० ते कुरंगना वाक्याथी रे, पति आवे कुंण भोग. पे०२आ० सघलां दुख ते सुख होई रे, जो स्वामी सानुकूल पे० ते सवि सुख ते दुख परे रे, जो स्वामी प्रतिकुल सहिदुं सरवे सोहिलुं रे, दोहिलो एक वियोग. वेधकने मरवू नहि रे, जो नही इष्टवियोग. __ ४ पे० न मल्यानी शोच न तहिरे, जस प्रेमनुं नही नाम. मलीने प्रीति केलवी रे, तस वियोगे खेदे राम. छे सुखीयो अंध जातिनोरे, जस नही नयण स्वाद. पामी नयणना प्रेमनें, गयें होइ दुखनो वाद. पे०६आ० पे० ३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 95 इम कहेती राजुल भली रे, जायें रैवत आप. नेम वांदी भक्तिस्युं रे, पामें मुगति ते थाप. इति श्रीनेमिजिनस्तवनं ॥२२॥ प०७आ० (वीरजिणंद जगत उपगारी-ए देशी) पास जिणेसर तुं जगनायक, तुझ सम अवर न कोयजी. संकटचूरण आशापूरण, नामें नवनिधि होयजी. १ पा० कर्म पसाई नरभव पाम्यो, कागताल न्याई हुं देवजी. जिम भूख्यो पंचामृतनें, तिम वांछु हुं ताहरी सेवजी. २ पा० यथाप्रकारे सेव न जाणुं, जिम कहे प्राचीन शिष्ठजी. वांको चूको पिण घेउनो मांडो, सहुने लागें मन मिष्टजी. ३ पा० गुणी थइने सेवाइं राजी, काहा कुण गाम ए नीतिजी. शुद्ध मणि उपरि नवि चालें, मणिकना यत्ननी रीतिजी. पिण जगतारक नाम छे ताहुरूं, मुज तारें तो प्रमाणजी. सम विषमें वरसें जगहेतें, मेघ न मागे दाणजी. वेधक जाणने चित्तनी वातो, मुखथी कही न जायजी. अंगित आकारें विधक वेधे, अंतर दूरे थायजी. ६ पा० तुम समो जाण अवर न पेखुं, सी कउ काफी वातजी. कृपा करीने बोधी दीजें, वाचक मुगतिने महंतजी. ७ पा० इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनं ॥२३॥ ४ पा० ५ पा० (इणि अवसर तिहां-ब- रे-ए देशी) वीर जिणेसर देवनी रे, सेवा करूं एक चित्त रे. वालेसर. अहवो एके को नहीं हो लाल, दुसमसमयनी कालमां रे, राखे जिम नीर रे वा० दास पोतानो जाणी करी हो लाल. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 आ आरो पंचम नही रे, मानुं चोथो निरधार रे. जिहां जस शासननी रुचि हो लाल. मेरु थकी मरुभूमिकारे, रुडी रुडी रीति रे वा० जिहां छाया सूरतरुतणी हो० अगनि थकी अगर तणो रे, जिम प्रगटें सुवासरे वा० दह दिशि दीपें अति घणुं हो. जिम जावुनद पारस थकी रे, तिम कलिथी गुणहेत रे. वा० जो वीरशासन शुभ रीति हो लाल. ३ जिम निशी दीपक, समुद्रमां रे द्वीप, जीम मरुमां रेव वा० जीम वनमां नगर भलुं हो, भूखमां जिम भोजन वरु रे, जिम तममां उद्योत रे वा० तिम कलिमां वीरसेवना हो. ४ हुं ईम मानु मुझ थकी रे, तालेवर नही कोय रे वा० पाम्यो वीर पद पूजना हो लाल. कोय कोयनें कोयनो रे छें उपगार विशेष रे वा० मुगतिसौभाग्य वाचक भणें हो लाल. अनुसंधान - २५ इति श्रीवीरजिनस्तवनं ॥ २४ ॥ महोपाध्याय श्रीमुक्तिसौभाग्यगणिकृता चतुर्विंशतिका समाप्तः d. A - 31, ग्लेडहर्स्ट, फिरोजशाह रोड, सांताक्रुज (वे.) मुंबई - ५४ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र अनुसंधान - २३मां एक सुदीर्घ प्राकृत रचना छे, उच्च साहित्यिक कक्षानी आठेक लघु कृतिओ छे, एक गुजराती महालेख, त्रण गुजराती कृतिओ, बे विस्तृत अभ्यासनोंधो पण छे. आम, विषयवैविध्य अने लेख संख्यानुं सन्तुलन आ अंकमां सारुं जळवायुं छे. 'श्रुतास्वाद' नामक प्राकृत कृतिनो विषय बोधात्मक छे. श्री सकलचन्द्र वाचक कवि तरीके इतिहासप्रसिद्ध छे. प्रत्येक श्लोकमां वर्णसगाई अने प्रासोनी धारा सहजतया वही नीकळी छे ते नीवडेला कवित्वनी परिचायिका छे. कविए केटलीक छूट लीधी जणाय छे. श्लो. ६१ मां 'स + उग्गसेणं' ने स्थाने 'सोग्गसेणं', श्लो. ४१मां 'कुणस् + अप्पं'नी संधि 'कुणसुप्पं' नियमविरुद्ध छे. श्लो. ९४२मां त्रीजा चरणमां द्रव्य उपकारनुं वर्णन छे. संपादके 'सुयणाणा' पाठ कल्पीने अशुद्धिनुं निवारण सूचव्युं छे. परंतु अहीं द्रव्य परोपकारनी वात छे ते जोतां 'सुयणाण' अप्रस्तुत छे. औषधदान वगेरे द्रव्य उपकारमां समाय. आथी 'पढमो ओसहदाणाइ' एवो पाठ कल्पवो पडे. तेमांय छन्दोभंग थतो होवाथी 'पढमोसहदाणाइ' एवो सन्धिनियमभंग करवानो थाय अने कविने ते इष्ट पण हशे एम अनुमान थाय छे. श्लो. १४७मां प्रथम चरणमां 'सुसंगो'ने स्थाने 'संगओ' पाठ वधु उपादेय बने - अर्थनी तथा प्रासनी दृष्टिए श्लो. १५२मां अशुद्धि छे 'धहयसु' पाठ बेसतो नथी. कुटुम्बनामगर्भित तथा सुखडीनामगर्भित कृतिओ जेवी रचनाओ संस्कृत भाषानी खूबीओनो पूरो कस काढीने रची शकाय, जेना माटे तीव्र कल्पनाशीलता तथा शब्दकोशनी समृद्धि अने व्याकरणनुं प्रभुत्व जोइए. शब्दवैभव, सन्धिनियमो, उच्चारोनी लाक्षणिकताओ आ बधुं आमां कामे लगाडवुं पडे. व अने ब ड अने ल जेवा वर्णो वच्चे साहित्यकारो अभेद स्वीकारे छे, ए सगवड अहीं खूब काम लागे. छन्दोगत अने सन्धिगत छूटछाटो पण मददरूप थाय. कुटुम्बनामो अने मीठाईनामो जेवी एक सरखी सामग्रीमांथी बे - - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२५ कविओए कृतिरचना करवानुं बीडं झडप्यु एमां कविओनी सज्जता देखाई आवे छे. आवी रचनामां केटली कल्पनाशक्ति कामे लगाडवी पडे ते तो संस्कृतना ऊंडा अभ्यासीओ ज समजी शके. छन्दोना नाम साथेनु नेमिनाथस्तवन एक अभ्यासयोग्य रचना छे. कुमारसम्भवादि महाकाव्योनी अनुकृति/पादपूर्ति रूप चार लघुकाव्योना रचयिता श्री रविसागरजी प्रखर प्रतिभाना धारक जणाइ आवे छे. कुटुम्बनाम-सुखडी नाम युक्त बे रचनाओ पण आ ज कविनी छे. श्रमणसंघना इतिहासमां आवी प्रखर प्रतिभाओ केटली स्थान लई चूकी हशे तेनो वास्तविक निष्कर्ष कदी नहि आवी शके, केमके अगणित कृतिओ कालकवलित थई चूकी हशे. 'गिरनारवर्णन' श्लो. ९२ना बीजा चरणमां अक्षरो खूटे छे. 'जिनशतक'नी अनुकृतिमां श्लो. १३मां 'भ्राज्यशोकद्रुमस्य' (?) छे त्यां 'भ्राजि + अशोक' एम लइए तो. 'शोभता-चळकता एवा अशोक वृक्षना' एवो अर्थ मळे. एज श्लोकमां 'मा व्याघातापजाभूत्' छे त्यां ‘मा व्यथा तापजाऽभूत्' पाठ समजवो जोईए. श्लोक २३ मां 'पदीयं' छपायुं छे त्यां 'यदीयं'ठीक लागे छे. 'चार ध्यान विचार'ना संपादकीय हस्तप्रतमां कृतिना अंते चार दोहा शा माटे नोंधेला छे ते विशे संपादिकाए प्रश्न को छे. वस्तुतः लेखक/ लिपिकारोनी तथा प्रतिना मालिकोनी एवी शैली हती के प्रतिना अंते जगा वधती होय तो त्यां कोई रसिक, माहितीप्रद दूहा- श्लोक वगेरे नोंधी लेवा. 'चीचीतारी' शब्द अशुद्ध जणाय छे. _ 'कोठारीपोळ चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन' अने 'रतनगुरु रास' बने रसप्रद कृतिओ छे. संपादिकाए प्रतिपरिचयमा प्रतो क्या भंडारनी छे ते नोंध्यु नथी. चि. पार्श्वनाथ स्तवननी पांचमी कडीमां 'चोबारो' शब्द छे तेना पर संपादिकानुं ध्यान गयुं नथी जणातुं. आ शब्दनो अर्थ 'चार द्वार वाळु' थाय. देरासर चार दरवाजावाळु हतुं एवी महत्त्वनी माहिती आमांथी फलित थाय. आ देरासरमां चार द्वारवाळो मण्डप छे के नहि ते नोंधवू पडे. मल्लिनाथ प्रभुनी प्रतिमाओ विशे अने 'प्रबन्धकोश'गत महत्त्वपूर्ण विगतो विशे श्री शीलचन्द्रसूरिजीनी नोंध माहितीसभर छे. प्रबन्धोमां ऐतिहासिक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 99 दृष्टिए अगत्यनी होय एवी घणी बधी वस्तुओ भरी पडी होय छे, तेम गरबड़गोटाळा पण इतिहासने नामे नोंधाइ गया होय छे. सिद्धर्षि विषयक प्रचलित मान्यता निराधार होवा छतां बहु प्रचलित छे. आवी कथाओ वार्तारस पूरो पाडे अथवा कोइक बाबतने वधु पुष्टि आपे त्यां सुधी तो ठीक छे, पण तेना आधारे केटलीक अन्य धारणाओ प्रस्थापित थई जाय त्यारे सत्यने हानि थाय. आथी ज ऐतिहासिक दृष्टि केळववी आवश्यक बनी रहे छे. आ ज नोंधमां बप्पभट्टिसूरिना प्रसंगमां भा.शु. पंचमी विषयक चर्चा छे. भादरवा सुदि पंचमीए बप्पभट्टिसूरि राजा साथे नावमां बेसीने कोई तीर्थमां गया हता. एना परथी समजाय के तेओ चतुर्थीना पर्युषण करनारा हता. वधुमां राजाना मान खातर आवी रीतनो नौकाप्रवास पण तेओ करता हता.संपादकश्री नोंधे छे के चोथ/पांचमना विसंवादमां आ प्रसंग सूचक बनी रहे तेवो छे. आ प्रसंग पर्युषण दिवसना विवादमां कई रीते षोपयापक बने ते अंगे संपादकश्रीए वधु स्पष्ट निर्देश कों होत तो उपयोगी थात. ' । 'बीजा देवलोके गया' - आ प्रकारना उल्लेखोने आधारे तार्किक चर्चा के व्यावहारिक प्रश्नोमां कोई निर्णय पर आवळू मुश्केल अने मुश्केलीजनक बनी रहे. अन्य आचार्यो / मुनिओना सम्बन्धमां पण आवा ज प्रघोष चालता होय तेने पण यथातथ स्वीकारवानी आपत्ति आवे. आवा महिमावर्धक प्रघोष ते ते महापुरुषना भक्तवर्गनुं सर्जन होवानी संभावना वधारे गणाय. आपणे महापुरुषोनां कार्यो के कथनोनां आधारे ज तेमनुं मूल्यांकन करवानू धोरण स्वीकारवू वधु सलामत गणाय. जैन देरासर __ नानी खाखर- ३७०४३५ कच्छ, गुज. नोंध : 'अनु.' २४मां 'अठोतरसो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र' प्रसिद्ध थयुं छे. तेना संपादकीयमां आ पंक्तिओना लेखके एक नाम खूटतुं होवान नोंध्युं छे. किन्तु कृतिमाथी पूरां १०८ नामो मळी रहे छे. कडी-६मां 'जोधपुर' नाम छे, जेनो समावेश सूचिमां सरतचूकथी थयो नथी. अभ्यासीओए आनी नोंध लेवा विनंती. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रचर्चा महोपाध्याय सहजकीर्ति म. विनयसागर अनुसन्धान, अंक २३, पृष्ठ ४ से ८ में मुनि श्रीभुवनचन्द्रजी का 'अठोतर सो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र', शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है । भगवान् पार्श्वनाथ के १०८ स्थानों के सम्बन्ध में इस लेख से अच्छी जानकारी मिलती है । सम्पादक ने इन भौगोलिक स्थानों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी देने का प्रयत्न किया है। इन स्थानों में छवटन (चौहटन) आसोप ये तो मारवाड़ में ही है । मरोट सिंध प्रान्त का भी ग्रहण कर सकते है। वैसे सांभर के पास भी मरोट है। कुकड़सर मेरे विचारानुसार कच्छ का न हो कर कुकडेश्वर है जो कि मन्दसोर के पास है, इसका ग्रहण किया जाना उपयुक्त है । जेसाण शब्द से जैसलमेर समझना चाहिए, क्योंकि प्राचीन उल्लेखों में जैसलमेर के स्थान पर जेसाणों का उल्लेख मिलता है । इस रचनाकार के सम्बन्ध में सम्पादक ने लिखा है- "रचयिता श्री सहजकीर्तिनी बार जेटली कृति जै.गू.क.मां नोंधायेली छे. सं. १६६१ मां एमणे सुदर्शन श्रेष्ठी रास रच्यो छे. स्तोत्र जेवा ज विषयनी अन्य कृति 'जेसलमेर चैत्यप्रवाडि' १६७९ मां रचाई छे. प्रस्तुत कृति पण एमनी ज रचना होवानी पूरी संभावना छे." अर्थात् रचयिता श्री सहजकीर्ति की बारह जितनी कृतियां 'जैन गुर्जर कवियों' में उल्लिखित हैं । सन् १६६९ में इन्होंने सुदर्शन श्रेष्ठी रास की रचना की है। प्रस्तुत स्तोत्र जैसे विषय की अन्य कृति "जेसलमेर चैत्य प्रवाडि" १६७९ में रची गई है। प्रस्तुत कृति भी इन्हों की रचना हो, ऐसी पूर्ण सम्भावना है। पाठकों को सहजकीर्ति के सम्बन्ध में विशद जानकारी प्राप्त हो सके, इसी उद्देश्य से इनके गच्छ, गुरु और निर्मित साहित्य का उल्लेख कर रहा हूँ। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 101 खरतरगच्छ के जिनकुशलसूरिजी के पौत्र शिष्य और गौतमरास के प्रणेता विनयप्रभोपाध्याय के शिष्य उपाध्याय क्षेमकीर्ति की परम्परा में आठवें नं. पर वाचक हेमनन्दनगणि हुए । उन्हीं के शिष्य सहजकीर्ति थे । ये प्रकाण्ड विद्वान् और श्रेष्ठ कवि थे । लोद्रवपुर पार्श्वनाथ मन्दिर में सुरक्षित ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण 'शतदल पद्मयन्त्रमय श्री पार्श्वस्तव' आपकी अद्वितीय कृति हैं । यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित “अरजिनस्तवः" सहस्रदलकमलगर्भितचित्रकाव्य के परिशिष्ट में सन् १९५३ में प्रकाशित हो चुकी है । सेठ थाहरुशाह भणसाली कारित लौद्रवा पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा विक्रम सम्वत् १६७५ में आचार्य श्रीजिनराजसूरि के कर-कमलों से हुई है । इस प्रतिष्ठा में सहजकीर्ति भी उपस्थित थे । आपके द्वारा निर्मित अन्य साहित्यिक की सूची इस प्रकार हे - १. कल्पसूत्र टीका कल्पमंजरी शब्दार्णवव्याकरण (ऋजुप्राज्ञव्याकरण) १६८५ नामकोष सारस्वतवृत्ति एकादिशतपर्यन्तशब्दसाधनिका प्रवचनसारोद्धार बालाबोध १६९१ प्रतिक्रमण बालाबोध दसवैकालिकटब्बा १७११ महावीरस्तुति वृत्ति १६८६ गौतमकुलकवृत्ति थिरावलि १२. अनेकशास्त्रसमुच्चय १३. रायप्रसेणी उद्धार १४. देवराजवच्छराज चौपाई १६७२ खीमझर १५. शत्रुजयमहात्म्यरास १६८४ आसनीकोट १६. सागरसेठ चौपाई १६७५ बीकानेर ॐ 3 o ; voi १०. ११. । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 अनुसंधान-२५ १७. हरिश्चन्द्र रास १६९७ १८. नवदेव चौपाई १९. सुदर्शन चौपाई १६६७ २०. कलावती चौपाई १६६७ २१. शीलरास १६८६ २२. शान्तिनाथविवाहलउ १६७८ वालसीसर २३. विसनसत्तरी १६६८ २४. प्रीतिछतीसी १६८८ २५. यशोधर संबंध २६. लौद्रवापार्श्वस्तव १६८३ २७. जैसलमेर चैत्यपिपाटी १६७९ 24 उपाभाविधिताप २९. १०९ स्थान पार्श्वस्तव ३०. जिनराजसूरिगीत ३१. अल्पबहुत्वस्तव १६८३ मा.व. ७ जैसलमेर ३२. वैराग्यशतक १७०४ स्तवन गीत आदि की अनेकों लघु कृतियाँ उपलब्ध हैं, शोध करने पर और भी कृतियाँ प्राप्त हो सकती हैं । C/0. प्राकृत भारती अकादमी, 13-A, मैन मालवीय नगर जयपुर - ३०२०१७ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय श्रीमद्हरिभद्राचार्यरचित स्वोपज्ञवृत्तियुत पञ्चवस्तुक प्रकरणमांथी पसार थतां जडेलुं भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्राचार्यनो साधु आचारने केन्द्रमां राखीने रचायेलो एक शास्त्रग्रन्थ ते आ 'पञ्चवस्तुक' प्रकरण. पांच विषयोनुं विस्तृत स्वरूप वर्णव्युं होवाने कारणे तेनो आ नाम मळ्युं छे. आम तो आमां मात्र जैन मुनिजीवनने स्पर्शतो ज विषय छे, परन्तु तेमां प्रसङ्गवश केटलीक रसप्रद वातो सहेजे ज नोंधाई गई छे, तेनी नोंध अहीं आपवी छे. (१) घणां वर्षो अगाउ गुजरातना आन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त 'पतंग' विशारद अथवा 'पतंग' विषे ऊंडुं संशोधन करनार श्री भानु शाह जाणवा चाहेलुं के जैन ग्रन्थोमां 'पतंग' विषे कोई सन्दर्भ छे खरो ? ते क्षणे तो १७मा शतकनो एक गुजराती सन्दर्भ सांभरी आवतां ते तेमने आपेलो. पण ते समये प्राकृत शास्त्रोमां ते माटेनो कोई उल्लेख हशे तेनो अंदाज नहोतो आव्यो. 'पञ्चवस्तुक' वांचतां वांचतां तेनी ३०० मी गाथामां ८ प्रकारनी गोचर भूमिनुं वर्णन छे, जेने अनुसरीने मुनिए आहारचर्या (गोचरी) माटे जवानुं होय छे. तेमां एक गोचरभूमिनुं नाम छे 'पतङ्गवीथि' तेनो अर्थ समजावतां 'वृद्धसम्प्रदाय' - वडीलोनी परंपरानो हवालो आपता ग्रन्थकार कहे छे के "पयंगविही अणियया पयंगुड्डणसरिसा " अर्थात् जेम पतंग ऊडी ऊडीने अनियत गतिथी ऊडे फरे तेम साधु वच्चे वच्चे घरो छोडीने अनियत क्रमे गोचरी माटे फरे ते 'पतङ्गवीथि' छे. (पृ. १४०–४१). आ सन्दर्भ सातमा सैका जेटलो प्राचीन तो गणाय ज. अने ए साथे ज मने सांभर्युं के आ विषय तो आनाथीये पुराणां आगम, तेनी निर्युक्ति तथा चूर्णिमां मळे ज. एटले जैन सन्दर्भों प्रमाणे भारतमां पण पतङ्गनी प्रवृत्ति खासी पुराणी होवानुं निःसन्देह स्वीकारी शकाय . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 अनुसंधान-२५ (२) गा. ३४७नी वृत्तिमां ग्रन्थकारे एक नवतर रूढ प्रयोग निर्देश्यो छे : 'लाटपञ्जिकामानं न कुर्यात्'-फक्त लाटपञ्जिका न करवी. आनुं स्पष्टीकरण अनुवादके आम आप्युं छे : पञ्जिका एटले मोंमाग्युं दान. लाट देशना माणसो 'मारी पासेथी मोंमांग्युं दान लई जाव' एम बोले खरा, पण आपे कांई नहि. सामान्य व्यवहारमा 'लपोडशङ्ख' एवो प्रयोग सांभळवा मळे छे. जे वातो मोटी करे, ने आपवामां शून्य होय तेने माटे आ प्रयोग थाय छे. आनी एक उक्ति पण मळे छे : 'नमो लपोडशङ्खाय, वदामि च ददामि न ।' परन्तु 'लाटपञ्जिका'नो प्रयोग तो आ ग्रन्थमां ज जाणवा मळ्यो. (पृ. १६२) (३) आपणे त्यां गामीण प्रजामां लोकवाद्य तरीके 'रावणहथ्यो' नामे वाद्यनी खूब प्रसिद्ध छे. आजे पण गुजरातनां गामडामां आ लोकवाद्य वगाडनारा वादको जोवा मळे. आ वाद्यनो सम्बन्ध रावण साथे हशे; रावणे शोधेल वीणानुं आ ग्राम्य के अपभ्रष्ट स्वरूप हशे, एवी कल्पना करी शकाय. पञ्चवस्तुकनी गाथा १०७८नी वृत्तिमां ग्रन्थकारे एक पद्य-सन्दर्भ अवतार्यो छे, तेमां 'रावणवाद्य'नो उल्लेख मळे छे, ते आ प्रमाणे : सङ्गीतकेन देवस्य प्रीती रावणवाद्यतः । तत्प्रीत्यर्थमतो यत्नः, तत्र कार्यो विशेषतः ॥ (पृ. ४६१) आ रावणवाद्य ते रावणहथ्थानुं सूचन हशे ? के पछी रावणवीणानुं ? (४) गा. १२२७मां 'वाचकग्रन्थो'नो निर्देश करवापूर्वक वाचक श्रीउमास्वातिकृत (कोई ग्रन्थनी) २ गाथाओ (पद्यो) उद्धृत करवामां आवी छे. (पद्यो अनुवादमां अनुवादके दर्शाव्यां छे), ते गाथाओ उमास्वाति महाराजना कोई अप्राप्य ग्रन्थमां हशे तेम अटकळ थाय छे. कदाच 'श्रावकप्रज्ञप्ति' मां होय. उपरांत आ ज गाथानी वृत्तिमां 'धर्मरत्नमाला' नामे ग्रन्थ, नाम मळे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 छे. आ ग्रन्थना प्रणेता विषे कोई निर्देश नथी. अने "वाचकग्रन्थेषु तथा धर्मरत्नमालादिषु" ए प्रकारनो निर्देश होई, 'धर्मरत्नमाला' ए हरिभद्रसूरिमहाराजे ज रचेल ग्रन्थ होवो जोईए, तेवुं अनुमान करवानुं मन रोकी सकातुं नथी. आवो ग्रन्थ जो के प्राप्त नथी. (पृ. ५२३) आधारभूत पुस्तक : पञ्चवस्तुक ग्रन्थ, सटीक, सानुवाद अनुवादक : आ. राजशेखरसूरि प्रकाशक : हालारी जैन संघ, भीवंडी, वि.सं. २०४६ 105 - - शी. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रॅक नोंध (१) जैन धर्म विशे भ्रान्त धारणाओ अमेरिकाना होनोललुनी Hawai university ना इतिहास विभागमा काम करता प्रो. जगदीश प्रसाद शर्माए, टोरन्टो युनि. ना 'सेन्टर फोर साउथ . एशियन स्टडीज' द्वारा प्रकाशित एक ग्रन्थमां “The Jinasattvas : Class and Gender in the social origins of Jaina Heroes” नामे लेख लख्यो छे. जेमां तेमणे जैनोना २४ तीर्थंकरोने, बौद्ध धर्मना जातककथानायक बोधिसत्त्वनी जेम 'जिनसत्त्व' एवं नाम आपीने, 'काल्पनिक' गणाव्या छे; २४ पैकी ५ सिवायना जिनोने अनैतिहासिक कह्या छे : तेमणे निरीक्षण आप्युं छे के "मेरी मान्यता यह है कि जैनों के ५ तीर्थंकर ही ऐतिहासिक एवं पालपिक कहे जा सकते है। महापुराण एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र में दिये विविध उल्लेख जैनों के अन्ध भक्त अनुयायियों को ही लुभा सकते हैं ।"(अंग्रेजीनो सारानुवाद : मांगीलाल भुतोडिया, जयपुर). बीजी पण अनेक वातो ऊतारी पाडती भाषामां आ लेखमां लखाई छे. धर्मो अने धार्मिको वच्चे तो घणीवार निम्नस्तरनी भाषा एकमेकने ऊतारी पाडवा माटे लखाती आवी छे, जे जाणीती वात छे. परंतु शोधविद्याने वरेला प्राध्यापक, एक ऐतिहासिक अने मान्य धर्म विषे, पोतानी ब्राह्मणसुलभ द्वेषबुद्धिथी प्रेराईने, आq घसातुं लखे, ते विद्वानो माटे चिन्ताप्रेरक अने शोचनीय बनी रहे तेवं छे. (२) 'पतियाला' ना राजमहेलमां जैन भींतचित्र मुंबईना 'मार्ग पब्लिकेशन्स'ना जून '२००३मां प्रकाशित Marg ना Vol. 54 No. 4 नो विषय छे : "New Insights into Sikh Art." आ पुस्तकना p. 77 तथा p. 78 पर बे जैन चित्रोनी तसवीरो छपाई छे, जे कुतूहलप्रेरक छे. ते विषे माहिती आ प्रमाणे छे : . (१) महेलना Qila Mubarak विभागना Sheesh Mahal Chamberमां जैन तीर्थंकर- एक भीतचित्र छे, जेने त्यां “Arihanta Deva” एवा नामे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 ओळखावेल छे. १९मी सदीमां दोरायेल, नील वर्णनी आकृति धरावतुं आ चित्र पद्मासनवाळी ध्यानमुद्रा धरावता, प्रलम्ब केशपाशवाळा, सिंहासनारूढ तीर्थंकरनुं छे. तेनी बे तरफ बे पुरुषो छे, जेमां एक चामर वझे छे, तो एक हाथ जोडीने खडो छे. वैष्णवोने मान्य २४ अवतारोनी चित्रावलिमां समावाएल आ चित्रनो परिचय आपतां लेखिका कविता सिंघे लख्युं छे के Thus the green-bodied Jain figure would be "Arihanta Deva", a Jain preacher who was sent down to spread false knowledge among the daityas." (2) आ ज Qila Mubarak मां एक अन्य चित्र छे, जे जैन धर्म साथे सम्बन्ध राखतुं होई ध्यान खेंचाय छे. ते चित्रनी तसवीर साथे आपेल परिचय आ प्रमाणे छे : The Kapalika rushes at the jain monk with his sward. Prabodhachandrodaya series on the roof of the Qila Mubarak, Patiala. आनो सन्दर्भ तपासतां जाणवा मळ्युं के कृष्णमिश्र यति नामना, संभवतः दाक्षिणात्य विद्वाने, 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामनुं वैष्णवमतानुसारे वैराग्यपरक नाटक रचेल छे. (प्र. निर्णयसागर, ई. १९१६). तेना तृतीय अंकमां दिगम्बर सिद्धान्त अने दिगम्बर जैन साधुनुं पात्र - बन्नेनुं वर्णन छे. ए साधुना वर्णनमां बीभत्सरसनो प्रयोग थयो छे. तेना मुखमां मागधी भाषामां ' णमो अलिहंताणं' व. पदो तथा वाक्यो पण मूकायां छे. ए पात्रने पछी एक कापालिक साधे मेळाप थाय छे, अने तेना आचरणनी दि.साधु ठेकडी उडाडवा मांडतां, कापालिक तलवार वडे तेने मारी नाखवा दोडे छे, ते वखते दि. साधु बौद्ध साधुनी गोदमां लपाई जाय छे अने ते तेने न मारवा पेला कापालिकने समजावे छे आ प्रसंगने तादृश आलेखतुं आ भतचित्र छे. 1 107 आ पछी तो कापालिक ते दि. साधुने वाममार्ग समजावे छे, तेने स्त्रीसंग अने सुरापान करावीने पोतानो अनुयायी बनावे छे, तेवुं चित्रण अ नाटकमां छे; अने दि. साधुनी जैन मत माटेनी श्रद्धा ते तमोजन्य - तामसी श्रद्धा होवानुं पण निरूपण थयुं छे. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 अनुसंधान-२५ जैनमतद्वेष वैरागी लेखकोने पण कई कक्षाए घसडी जाय छे ते समजवा माटे आ उदाहरण पूरतुं छे. उपरांत दक्षिण भारतमां दिगम्बरपणे विचरतां जैनो पर केवा अत्याचारो थया हशे तेनो संकेत पण आ द्वारा पामी शकाय तेम छे. (३) ते धन्ना० स्तोत्र विषे __अनुसन्धान-२४मां श्री प्रद्युम्नसूरि-सम्पादित स्तोत्र प्रगट थयुं हतुं, . तेमां एक गाथा खूटती होवा विषे संभावना व्यक्त करेली. मित्र कवि धुरन्धर विजयजीए ते खूटता अंशनी सरस कल्पना करी लखी मोकली छे ते आ प्रमाणे छे : "इअ चवणजम्मनिक्खमण-नाणनिव्वाणकालसमयम्मि । [भत्तिभरनिब्भरेहिं ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥२०॥ मूटभयादि अनी सिंधुओ मया भयवं ।] तं कुणसु नाभिनंदण ! पुणो वि जिणसासणे बोहिं ॥२१॥ उपरांत तेमणे ते समग्र स्तोत्रनो हरिगीत छन्दमां गुजरातीमां प्रांजल पद्यानुवाद पण करेल छे. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2003 109 खुलासो अनुसन्धान-२३ मा मुनि धुरन्धरविजय-सम्पादित “चार जिनस्तुतिओ” प्रकाशित थई छे, ते तमामनुं प्रकाशन, आ पूर्व अनुसन्धान-८मा थई गयेलुं छे. नवू प्रकाशन श्रीदेवचन्द्रजी कृत स्तवन चोवीशी : स्वोपज्ञ टबा सह. सं. कान्तिभाई बी. शाह, प्र. श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अमदावाद-१४, ई. २००३. अक विज्ञप्ति प्रो. हीरालाल रसिकलाल कापडियाना जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भा. १-२-३नुं प्रकाशन थई रह्यं छे. एमां छेल्ला ४० वर्षमा प्रसिद्ध थयेला ग्रन्थोनी / प्रकाशन थनारा ग्रन्थोनी विगत नीचेना सरनामे मोकलवा विनंती छे. To: आ. मुनिचन्द्रसूरि श्री पावापुरी तीर्थधाम देहली कंडला हाईवे, कृष्णगंज, सिरोही - 307001 (राज.) आवरणचित्र : सरस्वती देवीनी एक अद्भुत प्राचीन प्रतिमा : वरमाण, राजस्थान Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________