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________________ निवेदन जैन धर्म पासे तेनां आगवां शास्त्रो-आगमो छ, स्वतन्त्र दर्शन छ, मान्यताओ अने परंपरा छे, क्रियाकाण्ड तथा अनुष्ठानो छे, साधना-पद्धति छे. आथी, स्वाभाविक रीते ज, ते बधां परत्वे आगवी परिभाषा एटले के पारिभाषिक शब्दावली पण, जैन धर्म धरावे छे. आम तो प्रत्येक दर्शन, धर्म तथा सम्प्रदाय पासे पोतानी विशिष्ट परिभाषा अने शब्दावली होय ज छे, जेना अर्थ तथा तात्पर्य समजवानू, ते धर्मथी जुदी मान्यता धरावनार व्यक्ति/विद्वान् माटे, अटपटुं तथा कठिन पडतुं होय छे. आम छतां, 'जैन' परिभाषा वधु जटिल, कठिन तथा अटपटी छे तेवो सूर व्यापक रूपे सांभळवा मळ्या करे छे. कदाच आ कारणे ज, घणा घणा विद्वानो तथा जिज्ञासुओ, जैन धर्ममां रस होवा छतां, तेनाथी अळगा रही जता होवानी के दूर रहेवू पडतुं होवानी फरियाद पण सतत संभळाया करे छे. आ फरियादनो उकेल आणवानो एकमात्र अने श्रेष्ठ उपाय छे, जैन पारिभाषिक शब्दार्थकोश निर्माण. जैन धर्म-सम्प्रदाय साथे संकळायेल रोजिंदा कर्मकाण्डो, अनुष्ठानो तथा व्यवहारोमा प्रयोजाता शब्दोनो एक सरस संग्रह होय, अने तेना गुजराती, हिन्दी तथा खास तो अंग्रेजी अर्थो तथा पर्यायशब्दो होय, एवा एक कोशनी आजे अनिवार्य आवश्यकता वरताय छे. जैन धर्ममा प्रयोजाता दार्शनिक अने शास्त्रीय शब्दो तथा तेना अर्थोनो समावेश करता 'जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश' जेवा शब्दकोशो तो आजे पण प्राप्त छे ज, अने तेनी उपयोगिता-उपकारकता पण घणी छे, तेमा शंका नथी. परन्तु अहीं जे आवश्यकता दर्शाववामां आवे छे, ते तो मुख्यत्वे जैन धर्मना व्यवहारोमा उपयुक्त शब्दोना कोशात्मक संग्रहनी छे. आवो कोश रचवा, काम, जो थोडाक अभ्यासी जैन विद्वानो मळीने करवा धारे, तो अवश्य थई शके तेवू काम छे. ___ आजकाल आपणे त्यां अनेक लोको M.A., Ph.D. थता जोवा मळे छे : जेमनो विषय जैन धर्म-सम्बद्ध होय छे. खास करीने साध्वीसमुदायमां Ph.D. थनारो वर्ग विपुल छे. आ वर्ग Ph.D. थया पछी पोताना अध्ययन पर महदंशे पूर्णविराम मूकी देतो होय छे. पछी ते वर्ग कां तो धार्मिक-सामाजिक प्रवृत्तिओमां, कां तो प्रवचनव्याख्यान- दायित्व संभाळवामां जोडाई जतो होय छे. परन्तु, आवा Ph.D. थनार वर्गमांना थोडाक जण, जो पोतानी अध्ययनप्रियताने उद्दीप्त राखे, अने आ प्रकारना कोशनी रचना जेवा अध्ययन-संशोधननां कार्य हाथ पर ले, तो जैन धर्मनी मोटी सेवा करी शके अने जैन धर्मना प्रचार-प्रसारमा घणो वेग आवी शके. - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520525
Book TitleAnusandhan 2003 07 SrNo 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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