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________________ अनुसंधान-२५ ॥३९॥ · टाणुटुंणु उ करत नाही, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सोइ कथन कथइं नाहीं कि न सारु ॥३५॥ दूहा ॥ वली निजमुखि साही कहइ, अइसे वचन अनेक । इया यूदाई तई निसप्रही, कीआ सो हीर जु एक ॥३६॥ एक ज हीर दीदार थई, हुया हम बहुत सबाब । मरती मछी मनय कीई, बकस्या डांवर तलाव ॥३७॥ भादुं नव रोज जनमदीन, जीव मरता मभ(न)य कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंध पलासी दीध ॥३८॥ हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मूलक पुर गाम । लालची देखाई घणी, गुरुजी कइ नाही काम साही कहइ गुरु हीरजी, दरसण देखण की चाय । जइ सेषजी तुम्ह कहु कुली, जइ बहु डबोलाइ ॥४०॥ ढाल ॥ सेषजी इउ बोलइ साही सुणो अरदास तुम्ह जानत नी कई पंथ उंदाका उदास । करणी सी पालई उर भए उ वृध कइसइ करि आवई सेषई उत्तर दीध जइ चाहु बोलाए तु, एक अरज हमारी आलमपनां सलामत को मेटइ दोही तुहारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ एक सिष्य सुजाण साही ताकुं बोलायो वेगि लिखि ऽह(फ)रमान ॥४२।। ए वात सुणी तब साही खूसी बहु मानी श्रीविजयसेनसूरि सांचे हई गुरुग्यानी । मेवडे दोउ पठए साही लिखि फूरमान राधनपुर आए जिहां गुरु गुणह निधान ॥४१॥ ॥४३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520525
Book TitleAnusandhan 2003 07 SrNo 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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