________________
September-2003
69
तुम्ह गुन रंज्यो इह दिल्लिपति पतिसाह जाकइ राति . . . . . . . . . . .
(पत्र ५ थी ७ नथी. प्रति खण्डित)
॥९३॥
॥९४॥
॥९५॥
॥९६॥
इणि परिइं बहुत मंडाण, सांम्हु संघ सुजाण अबीर लाल गुलाल तोरण वनरमाल पूजा नवे अंगे कीजइं, दान जाचकजन दीजई देखइं चतुर मिली थोक, कउतिकि मोह्या ए लोक इणि परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ । श्रीगुरु वंदना निहालई, पू(दू)रीत हु(दु)रि पखालइ श्रीगुरु रंगि सधारई, लाहोरमाहे पधारइं नगरी सारी सिणगारी, भलइ आयो हीर पटोधारी
दुहा ॥ ईरजासुमतिइं चालतु, बोलइ जुगहप्रधान । पहिलई तिहां हम जाएसु, जिहां अकबर सुलतान
ढाल ॥ श्रीगुरु दरबारिइं आवई मनि नइ रंगि समतारस-रागी ऊल्हट अतिघण अंगि । वेगि खवरि करावी अकवर साहीकु एह आए हई गुरुजी खूसी बोलायौ तेह ॥९८॥ साही अधिक विवेकी आचारजि पधरावइ कासमीरी महुलिई साम्हु दिलीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिई आणी मनि उछाह तपगछपति सेती बोलइ इउं पतिसाह "चंगे हउ गुरुजी चंग हइं गुरु हीर आलस सारी मई कोउ नाहीं तुम्हसा पीर ।
॥९७॥
॥९८॥
||९९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org