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- रोस
तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पइ नाहीं दूक - रे तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस
वडे फकीर निरंजन साध तुं हउ नित जोग चित लायो खूदासुं नाहीं दूनी काम भोग । हम जानत नीं कइंसा तुम्ह आचार साही सभा सुणत हई प्रसंसा वारवार
हम बहुत खूसी हइ देखीत तुम्ह दीदार सुखिई आए पइंडइ सुखी सहु तुम पीर वार । तिहां श्रीआचारजि धर्मदेसन दीध भविकजन केरा मनवंछित सहु सिध
अकबर केरा मनवंछित सहु सिध ते कहुं हुं कीनी परिइ कहता नावइ पार । ए गुरु दरिसणि थइं दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह
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अनुसंधान-२५
॥३॥
दुहा ॥ खुसी हुउ दिलीधणी, खुसी हुआ गुरुराज । उद्योत हुआ जग जइनकु, सिधां मनवंछित का ||४|| चालि ॥
मनवंछित काज समारी, हरखिउ हीय हीरपटोधारी । सीख साही पासि तिहां मागई, बहु नुबति नींकी बाजइ ॥५॥ उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर- चीर पटकूल, गंठउडा चूरी बहुमूल रूपानाणइ दुजणसाह, प्रभावना मांडिउ प्रवाह । ध्यन दिवस गिणुं ते लेखइ, एहवा आनंद ते देखइ
दुहा ॥
पणइ अवरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उग्गइ भाण
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