SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ September-2003 माखी त्यजइ जीउ अप्पणपु, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मन अप्पणां, देखि परायां सुख चालि ॥ ब्राह्मणे जाई चूगली कीधी, मूकी मइदा माली] दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानु, कीछू उहांकी करणी जानु ||१०|| मानत नाही सूरज गंगा, उर श्रीपरमेसर चंगा | नाही दंडवरतकी वात, पापी चूगले घाली घात दूहा ॥ दुर्जन कर तन वेवही, सनमुख लेत संताप । गुरुड बरावरि किउं होवइ, जुरे भलेरा साप 11811 — Jain Education International ॥११॥ चालि ॥ जेसंगजी साही हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणकी फाली सूभट सूणी रणतूर, किउं झाल्या रहइं तिहां सूर । दुसमन जे विसिमसि करता, फिरता साकीदा ते कीआ जिउं आटा माहे लूंण, तुझ विण समझावत कुंण । वाद हुउ साही हजूर, जिता श्रीविजयसेनसूरि ॥ १४॥ ॥१५॥ For Private & Personal Use Only ॥१२॥ ब्राह्मणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी । हुआ ते हाकावीका, पडीआ दुसमन सहु फीका एक एककुं इउं समझावई, अपनु कीउ सहु कोए पावइ ||१७|| ॥१६॥ ॥ जय जय वाद वरी तिहां, श्रीगुरु मन उल्हासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहोरि करई चउमासि शेषजी श्रीगुरुकुं कहई, भल सिष्य तु हीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण 71 ॥ १८॥ ॥१९॥ ॥१३॥ www.jainelibrary.org
SR No.520525
Book TitleAnusandhan 2003 07 SrNo 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy