SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ September-2003 67 ॥३१॥ खाजइं पीजइ कीजई तीय भोग, बोधा बोलई जगि इयाही ज जोग। पंच वखत नमाज गूजारइं, छरीय लेई बहु जीव संहारई ॥२८॥ काजी मूलां कहीइं सुणो साह, खुदाई इयाही फूरमाया राह । साही कहइ ए सब हइं जूठे, खुदाय थकी चालइ अ पूठे । इउं करतां किउं पाईइ दीन, जाकु मन दूनीआसुं लीन ॥२९।। दुहा ॥ ए सव रजब जूठे कीए, वडवखती कहइ मीर । दुनीआं दीपक एक मइ, श्रवणि सुणे गुरु हीर ॥३०॥ सो हम वेगि बोलाईउ, देखि तास दीना(दा)र । कहणी-करणी सांचउ, जोगीसर संसार ढाल ॥ ताकी करणी बहुत कठीन, किन पई कही जाय जीव न मारइं । जूठ नहीं, तीय सहु जिसी माय, कउडी न राखइं पास एक करइ खुदाकी । लेत नाही काछू गयर दिउ, परवाह न कीसकी खाना खावइ एक बेर, पीवइ ताता नीर बाजी तमासु खेल नाहीं ध्यावइ एक पीर । हरी तरकारी नहीं थालई नाहीं लेत तंबोल नांगे पाउं उ फीरइं, सदो बहु(सदोस हु?) बोलइ न बोल ॥३२॥ बाल उचावई धरम जाणि अ- सेह इं उही (?) देस विलाति सहु गाम फीरइं प्रतिबंध न मोही । सत्तु-मित्त समचित गिणइं, कीसहिं न दीइं दोस महिनइ दस रोजा करइ, न करइ टूक रोस भुइं सोवइ धूपकांलि धूप सीतकालिइं सीत समतिणमणि-नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । पाढ पढइ गुरु ध्यान धरई होवई गुणरागी ॥३३॥ ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520525
Book TitleAnusandhan 2003 07 SrNo 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy