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स्वाध्याय
श्रीमद्हरिभद्राचार्यरचित स्वोपज्ञवृत्तियुत
पञ्चवस्तुक प्रकरणमांथी पसार थतां जडेलुं
भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्राचार्यनो साधु आचारने केन्द्रमां राखीने रचायेलो एक शास्त्रग्रन्थ ते आ 'पञ्चवस्तुक' प्रकरण. पांच विषयोनुं विस्तृत स्वरूप वर्णव्युं होवाने कारणे तेनो आ नाम मळ्युं छे. आम तो आमां मात्र जैन मुनिजीवनने स्पर्शतो ज विषय छे, परन्तु तेमां प्रसङ्गवश केटलीक रसप्रद वातो सहेजे ज नोंधाई गई छे, तेनी नोंध अहीं आपवी छे.
(१) घणां वर्षो अगाउ गुजरातना आन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त 'पतंग' विशारद अथवा 'पतंग' विषे ऊंडुं संशोधन करनार श्री भानु शाह जाणवा चाहेलुं के जैन ग्रन्थोमां 'पतंग' विषे कोई सन्दर्भ छे खरो ? ते क्षणे तो १७मा शतकनो एक गुजराती सन्दर्भ सांभरी आवतां ते तेमने आपेलो. पण ते समये प्राकृत शास्त्रोमां ते माटेनो कोई उल्लेख हशे तेनो अंदाज नहोतो आव्यो.
'पञ्चवस्तुक' वांचतां वांचतां तेनी ३०० मी गाथामां ८ प्रकारनी गोचर भूमिनुं वर्णन छे, जेने अनुसरीने मुनिए आहारचर्या (गोचरी) माटे जवानुं होय छे. तेमां एक गोचरभूमिनुं नाम छे 'पतङ्गवीथि' तेनो अर्थ समजावतां 'वृद्धसम्प्रदाय' - वडीलोनी परंपरानो हवालो आपता ग्रन्थकार कहे छे के "पयंगविही अणियया पयंगुड्डणसरिसा " अर्थात् जेम पतंग ऊडी ऊडीने अनियत गतिथी ऊडे फरे तेम साधु वच्चे वच्चे घरो छोडीने अनियत क्रमे गोचरी माटे फरे ते 'पतङ्गवीथि' छे. (पृ. १४०–४१).
आ सन्दर्भ सातमा सैका जेटलो प्राचीन तो गणाय ज. अने ए साथे ज मने सांभर्युं के आ विषय तो आनाथीये पुराणां आगम, तेनी निर्युक्ति तथा चूर्णिमां मळे ज. एटले जैन सन्दर्भों प्रमाणे भारतमां पण पतङ्गनी प्रवृत्ति खासी पुराणी होवानुं निःसन्देह स्वीकारी शकाय .
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