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अनुसंधान-२५ (२) गा. ३४७नी वृत्तिमां ग्रन्थकारे एक नवतर रूढ प्रयोग निर्देश्यो छे : 'लाटपञ्जिकामानं न कुर्यात्'-फक्त लाटपञ्जिका न करवी. आनुं स्पष्टीकरण अनुवादके आम आप्युं छे : पञ्जिका एटले मोंमाग्युं दान. लाट देशना माणसो 'मारी पासेथी मोंमांग्युं दान लई जाव' एम बोले खरा, पण आपे कांई नहि.
सामान्य व्यवहारमा 'लपोडशङ्ख' एवो प्रयोग सांभळवा मळे छे. जे वातो मोटी करे, ने आपवामां शून्य होय तेने माटे आ प्रयोग थाय छे. आनी एक उक्ति पण मळे छे :
'नमो लपोडशङ्खाय, वदामि च ददामि न ।'
परन्तु 'लाटपञ्जिका'नो प्रयोग तो आ ग्रन्थमां ज जाणवा मळ्यो. (पृ. १६२)
(३) आपणे त्यां गामीण प्रजामां लोकवाद्य तरीके 'रावणहथ्यो' नामे वाद्यनी खूब प्रसिद्ध छे. आजे पण गुजरातनां गामडामां आ लोकवाद्य वगाडनारा वादको जोवा मळे. आ वाद्यनो सम्बन्ध रावण साथे हशे; रावणे शोधेल वीणानुं आ ग्राम्य के अपभ्रष्ट स्वरूप हशे, एवी कल्पना करी शकाय.
पञ्चवस्तुकनी गाथा १०७८नी वृत्तिमां ग्रन्थकारे एक पद्य-सन्दर्भ अवतार्यो छे, तेमां 'रावणवाद्य'नो उल्लेख मळे छे, ते आ प्रमाणे :
सङ्गीतकेन देवस्य प्रीती रावणवाद्यतः ।
तत्प्रीत्यर्थमतो यत्नः, तत्र कार्यो विशेषतः ॥ (पृ. ४६१)
आ रावणवाद्य ते रावणहथ्थानुं सूचन हशे ? के पछी रावणवीणानुं ?
(४) गा. १२२७मां 'वाचकग्रन्थो'नो निर्देश करवापूर्वक वाचक श्रीउमास्वातिकृत (कोई ग्रन्थनी) २ गाथाओ (पद्यो) उद्धृत करवामां आवी छे. (पद्यो अनुवादमां अनुवादके दर्शाव्यां छे), ते गाथाओ उमास्वाति महाराजना कोई अप्राप्य ग्रन्थमां हशे तेम अटकळ थाय छे. कदाच 'श्रावकप्रज्ञप्ति' मां होय.
उपरांत आ ज गाथानी वृत्तिमां 'धर्मरत्नमाला' नामे ग्रन्थ, नाम मळे
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