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श्री मुक्तिविमलजी जैनग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क १७
॥ ॐ हो श्री अहं श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ । परमपूज्य विश्ववंदनीय-तपोनिधि-निष्कलंकचारित्रचूडामणि सकलसंवेगीशीरोमणि तपागच्छाधिपति श्रीम
त्पन्यासप्रवरश्री दयाविमलगणि-शांतमूर्ति श्रीमत्पन्यास श्रीसौभाग्यविमलगणिवर पादपद्मभ्यो नमोनमः॥ ॥ परमपूज्य सकलसिद्धांतवाचस्पति अनेकसंस्कृतग्रन्थप्रणेताश्रीमत्पन्यास प्रवर श्रीमुक्तिविमलगणि विरचितः ॥
॥श्री अञ्जनासुन्दरीचरित्रम् ॥ विमलगच्छीय प्रवर्तिनी विदुषी साध्वी नवलश्रीजी तथा तन्छिया साध्वी उत्तमश्रीजी स्मरणार्थ तत्शिष्या साची मंगलश्रीजी सदुपदेशेन श्रीमुक्तिविमलजी जैनरन्थमालायाः कार्यवाहक नगरशेठ मणिलाल मोहनलालेन प्रकाशितम् ।
संशोधक प्रवर्तक-मुनिश्री कनकविमलजी. वीर सं. २४७७ ] ज्ञानमूरि २२५ मुक्ति सं. ३३ [वि. सं. २००७
पञ्चशतः प्रतयः । मूल्यम् ०-८-० **** * * ** * * ** ** * ** * ** * * * *
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प्राप्तिस्थान नगरशेठ मणिलाल मोहनलाल दोसी.
ठे० दोसीवाडो, मु. विजापुर, (उ. गुजरात).
मुद्रक : पंडित मफतलाल झवेरचंद गांधी.
श्री नयन प्रिन्टींग प्रेस.. ठे रीचीरोडना पुल नीचे ढींकवानी वाडी पासे-अमदावाद.
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नि....वे....द....न
अमारी आ श्री मुक्तिविमलजी जैन ग्रन्थमालामांथी सत्तरमा ग्रन्थ तरीके " श्री अञ्जना सुंदरी चरित्र" विद्वानाना पूनित करकमलमां रजु करतां अमो हर्षित थईए ए स्वाभाविक छे.
आ ग्रन्थना रचयिता परमपूज्य विश्ववंदनीय अखंडब्रह्मचारी सकलसंवेगीशीरोमणि तपोनिधि तपागच्छाधिपति श्रीमत्पंन्यासप्रवर श्री दयाविमलगणिवरशिष्य शांतमूर्ति पंडीतप्रवर श्रीमत्पंन्यास श्रीसौभाग्यविमलगणिवरान्तेवासी परमपूज्य सकलसिद्धांत वाचस्पति अनेकसंस्कृतग्रन्थप्रणेता सच्चारित्रचूडामणि बालब्रह्मचारी विद्वन्मार्तण्ड श्रीमत्पंन्यासप्रवर श्रीमुक्तिविमलगणिवर महाराज साहेब छे.
आ ग्रन्थ स्व० पू० गुरुदेव सं. १९७४ ना भादवा सुदि ४ ना पूनित दिवसे स्वर्गवास पाम्या तेथी अपूर्ण अस्तव्यस्त दशामां हतो तेथी आ ग्रन्थने तेओश्रीना अनन्य पट्टालंकार विद्वान् शिष्यरत्न पूज्यपाद जैनागमपरिशीलनशाली
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मातीश
जैनशासनप्रभावक व्याख्यानवाचस्पति कविदिवाकर आबालब्रह्मचारी महान्तपस्वी प्रातःस्मरणीय श्रीमत् आचार्यदेव श्री रंगविमलसरीश्वरजी महाराज साहेबना परिश्रमथी तेमज उपदेशश्री आ ग्रन्थने ड्राइंग पेपरमा प्रकाशित कराव्यो छे, तो आ ग्रन्थने सहृदयी विद्वद्वर्य स्वीकार करी तेनो लाभ उठावशे एटले आ प्रकाशन सफल थयुं मानीश.
आ ग्रन्थनी शुद्धि माटे यथाशक्ति साहित्याचार्य श्रीमान् पंडित माधवानन्द शास्त्रीए प्रयत्न कर्यो छे, छतां दृष्टिदोष तथा प्रेसदोष विगेरेने लइने कोइ स्थले स्खलना जणाय तो विद्वद्वर्ग क्षमा करे ने साथे सूचना करे.
..
अमदावाद (राजनगर) ठे० देवशाना पाडामा
विमलगच्छनो उपाश्रय वि. सं. २००७ मागशर सुदि १५)
पूज्यपाद प्रसिद्धक्ता श्रीमद् आचार्यदेव श्रीरंगविमल सूरीश्वरजी
महाराजान्तेवासी प्रवर्तक मुनिश्री कनकविमलजी.
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परमपूज्य सकलसिद्धांतवाचस्पति अनेकसंस्कृतग्रन्थप्रणेता सञ्चारित्रचूडामणि कविशेखर बालब्रह्मचारी विद्वन्मार्तण्ड तपागच्छाधीश्वर श्रीमत्पंन्यासप्रवर श्रीमुक्तिविमलजी गणिघर,
[शार्दूलवृत्तम्] मुक्तिप्रार्थनमुक्तिमानसरुचिमुक्तयः चरान्दर्शकम् ।
मुक्तानार्थपथं विमुक्तकलुषमसाधना सद्धियम् ।।
मुक्तानिष्टपथादरं बुधमतं सिद्धान्तपारीणकम् ।
वन्दे-मुक्तिममन्दगौरवपदं मुक्ति श्रियं सद्गुरुम् ॥१॥
जन्म-१९४९ वैशाख सुदि ३ दीक्षा-१९६२ मागसैर वदि ३
[राजनगर] गणिन्यासपद--१९७० कारतक वदि ११. (राजनगर अमदावाद.)
स्वर्गगमन-सं. १९७४ भादरवा सुदि ४. [संवत्सरिकदिन अमदाबाद.]
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张悉整參悉悉悉悉张张张张柴柴带张杰游张张张张務然张张张张张张张继然继张继柴柴柴柴端端游端端樂器幾號幾
परमपूज्य--जैनागमपरिशीलनशालोजैनशासनप्रभावक-कविदिवाकर--व्या
जन्म सं. १९४० आसो सुदि १० ख्यानवाचस्पति - आबालब्रह्मचारी
आहोर ] महान् तपस्वी विद्वद्वर्य प्रातःस्मरणीय श्रीमद् आचार्यदेवश्री १००८ श्रीरंग
दीक्षा-सं. १९६६ कारतक वदि ६. विमलसूरीश्वरजी महाराज,
[सिद्धक्षेत्र-पालीताणा]
गणिपद-सं. १९८४ मागसर सुदि ३. पूर्णः पूर्णगुणैस्तपोहतमलश्चञ्चद्
[विजापुर] द्युतिः सन्मतिः ।
पंन्यासपद-सं. १९८४ मागसर वदि ६ काव्योष्णां गुरमोघवाक्यरहितो वश्ये
[विजापुर] न्द्रियः सौम्यधीः ॥ व्याख्यानेज्यमहीऽयकीर्तिविभवः
आचार्यपद-सं. २००५ फागण सुदि सर्वप्रियः सूत्रविद्-।
द्वितीय ३. रङ्गादिविमलान्तसरिरिह सजीया
[पाटण ] उ. गुजरात. चिरं शमणे ॥ १॥
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2089-90
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परमपूज्यनिष्कलंकचारित्र-चूडामणि, तपस्वी, सकलसंवेगीशीरोमणि-तपागच्छाधीश्वर श्रीमन् पंन्यास प्रवर श्री.
१००८ श्री दयाविमलजी महाराजनी आज्ञावर्ति वयोगद्ध प्रवर्तिनी
साध्वीजीश्री नवलश्रीजी- जीवन चरित्र • जगत्मा सेंकडो मानवो जन्मे अने मरे छे पण जेना जीवनमां कांइ पण परोपकार, उत्तपता के गुणीयलता होय तेना जीवननेज लोको याद करे छे...
प्रवर्तिनी साध्वीश्री नवलश्रीजी भद्रिकपरिणामी, गुणीयल अने घणाने संयम अने धर्मरुचि . करावनागं हता तेथी आजे पण तेमने तेमनो परिवार अने धार्मिकवृत्तिवाळी आधिकाओ याद करे छ.
प्राचीन ग्रंथ भंडारो अने जिनमंदिरोथी शोभता लोंबडीमां वीसाश्रीमाळी झातिना आगेधान शेठश्री हकमचंदभाह हता. पतिना चित्तने अनुसरनार गुणीयल शीलवंती सुरजबाइने प्रथम पुत्ररत्ननी प्राप्ति थइ अने तेनुं नाम तेमना मातपिताए गुणने अनुरुप डाह्याभाइ पाडयु.
आ डाह्याभाइ पछी हकमचंद शेठने त्यां पुत्रीरत्ननो जन्म थयो, तेनुं नाम कुंकुमपगलांवाळी ते पुत्रीतुं नाम केसरवाइ पाडयु.
समय जतां धंधार्थे मातपिताना स्वर्गवास बाद डाह्याभाइ भावनगर सकुटुंब पधार्या. केसरबाइ पण भाइनी साथे भावनगर
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॥
गयां. त्यां तेमनी धार्मिक वृत्तिथी जळहळी अहिं ते विमळ संप्रदायनां गुणीयल साध्वीश्रीजी रूपश्रीजीना परिचयमां आव्या अने तेमने संयमरुचि जागी.
सुलक्षणा केसरवाइए पोतानी दीक्षानी भावना पोताना वडीलभाइ डाह्याभाइने जणावी अने धर्मनी महत्ता अने देहनी भंगुरता समजावी तेनी संमति मेळवी, भाइनी संमति पछी तेमने बीजानी संमति मेळववामां बहु वार न लागी.
तेमनुं कुटुंब ते वरखते अमदावादमां वीराजता परमपूज्य भद्रिकपरिणामी सकळसंवेगी शिरोमणि तपागच्छाधिपति श्रीमद् पंन्यासप्रवर श्रीदयाविमळजी गणिवरने भावनगर पधारी केसरवाइने दीक्षा आपवा विज्ञप्ति करवा आव्यु. महाराजश्री शत्रुजयगिरिनी सानिध्यमां आवेल भावनगर आववा खुब इच्छा राखता हता पण अनुकुळता नहि होवाथी आवी शक्या नहि परंतु त्यां बीराजता पंन्यास श्रीगंभीरविजयजीने दीक्षा आपवानी भलामण करी, परमपूज्य पंन्यास गंभीरविजयजी महाराजे मुक्तिविजयजी (मुलचंदजी महाराजने)ने योगोद्वहनपूर्वक गणिपद आपनार ते महापुरुषनी आज्ञाने प्रसादरुप समजी वधावी लीधी अने चतुर्विध संघ समक्ष महोत्सवपूर्वक भावनगरना संघे पंन्यास गंभीरविजयजीना हस्ते केसरबाइने वि. सं. १९५५ अपाड शुदि ११ ना दीवसे दीक्षा अपावी. अने तेमने विमळसंप्रदायनां साध्वी रुपश्रीजीनां शिष्या बनाच्या अने तेमन नाम साध्वीजीश्री नवलश्रीजी पाडयु.
साध्वीश्री नवलश्रीजीए दीक्षाबाद विशेष अभ्यास वधारया मांड्यो जोत जोतामां तो तेमणे साधुक्रिया चार प्रकरण, त्रण भाष्य, कर्मग्रंथ, संग्रहणी. क्षेत्रसमास विगेरे अर्थपूर्वक तैयार कर्यां अने तदुपरांत बीजं पण घणुं वांचन कयु तेमज धणी
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॥३॥
昨举张峰张张张张张张举张黎张张拳拳拳器需添举泰张张帝带
बाळाओ अने श्राविकाओने तेमणे धर्ममां स्थिर करो धर्म प्रभावना करी.
काळनी गति न्यारी छे ते मुजब वि.सं. १९७५ मां फागण बदि १३ ना दीवसे पाडापोळना विमळगच्छना उपाश्रयमां तेमना गुरुणी रुपश्रीजीए काळ कों. आथी तेमने घणुं मार्छ लाग्युं कारण के तेमन शिरछत्र गयु. नवलश्रीजी जोके ते वरखते पुरतां तैयार थयां हतां तोपण तेमने गुरुनो विरह खुब साल्यो तेमणे उपदेश आपी तेमनी पाछळ अहाह महोत्सव विगेरे धार्मिक कार्यों कराव्यां. ___आ पछी तो नवलश्रीजीए खुब खुब धर्मभावना प्रवर्तावी तेमने हाथे घणा अढाइ महोत्सवो, उजमणां अने दीक्षाओ थइ,
छे भावनगरमां शेठ कुंवरजी आणंदजीए नव छोडनु उजमणुं अने सुरतमा शेठ घेलाभाइ खीमचंदे अगियार छोडर्नु उजमणुं तेमना उपदेशथी कर्यु हतुं. ते प्रसंगे अट्ठाइ महोच्छवो वरघोडा नोकारसी विगैरे थयुं हतुं.
. ज्ञान अने उपदेश साथे साध्वीश्री नवलश्रीजीए तपश्चर्यामां पण कंइ कमीना राखी नथी तेमणे तपथी तेमनी कायाने सारी दमी हती. तेमणे ज्ञानपंचमी तप ३ वखत, बीसस्थानकनी ओळी, छमासी, चत्तारि अठदसदोय, सिद्धितप, वर्धमान तपनी ओळी १२, अठाइ २, दश उपवास १, ज्ञान दर्शन, चारित्रना अहम, अठ्ठावीस लब्धितप, चोवीश कल्याणक तप, प्रकृति तप विगेरे विविध तपश्चर्याओ करी हती तेमज शत्रुजयनी २१ वखत गिरनारनी सात वखत अने आबु मारवाडनी पंचतीर्थी तारंगा विगेरे तीर्थोनी यात्राओ करी तेमणे तेमना जीवनने भावित कयु.
अमदावादमां विमळगच्छना आ प्रभावशाळी साध्वी. ज्ञान तप अभ्यास अने चारित्रथी संघ उपर उपकार करतां वि. सं.
聚聚謠张张张张张张张张张张张张张张张张张张杀带带带带
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॥
२००३ना जेठ सुद १५ना रोज पाडापोळमां टुक मांदगी भोगवी काळधर्म पाम्यां. तेमना काळधर्मथी तेमनी स्वर्गस्थशिष्या उत्तमश्रीजीनी शिष्या मंगळश्रीजी आदि परिवारने खुब लागी आव्यु. तेमणे गुरुणीनी पूर्ण वैयावच्च करी होवा छतां
प्रभावशाळी गुरुणीनो अभाव अद्यापि तेमना हृदयने साली रह्यो छे. तेमना सगाव्हाला तथा साबुगोळावाळाना कुटुंबे, अने । | त्यांनी बेसनार श्राविकाओए तेमनी पाछळ खुब धर्मप्रभावना करतो अठाई महोत्सव अने शांतिस्नात्र विगेरे धार्मिक कार्यों
कराव्या. आजे तो ते गुरुणी नथी पण तेमना उपकारने याद करतो ते चारित्रखपी शिष्य प्रशिष्या आदिनो समुदाय अने तेमना उपकारने याद करनार भक्तवर्ग घणो छे.
प्रवर्तिनी साध्वीजीश्री नवलश्रीजीना चातुर्मासोनी यादि भावनगर १२, पालिताणामां ५, विसनगरमां ७, कोठमां १, इडरमा १, वडावलीमा १, पाटण २, सुरत ३, सीनोर १, अमदावादमा १२ जुनागढमां १, बंथलीमां १, तलाजामा १.
स्वर्गवास करी गया छ तोपण ज्या ज्यां चातुर्मास कर्या छे, त्यांनो श्राविका वर्ग हजु पण तेमने भूलतो नथी ने तेमना गुणाने संभारे छे.
पू. साध्वीश्री रुपश्रीजीनो परिवार नीचे मुजब छे.
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પ્રવર્તિની સાઈથી શ્રીજી નવલશ્રીજી એ,
સાધ્વીજી શ્રી ઉત્તમશ્રીજી મ.
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साध्वीश्री रुपश्रीजीनो परिवार साध्वीजीश्री नवलश्रीजी
सावजीधी शांतिश्रीजी
मानश्रीजी चंपाश्रीजी उत्तमश्रीजी
श्रीजी असुमीनी
मंगलश्रीजी
ताराश्रीजी चास्त्रिीजी त्रिलोचनाभीजी संयमश्रीजी
सरस्वतिधीजी समताश्रीजी मंगलधीजी अजीतश्रीजी अंजनाश्रीजी मधीजी । । विद्याश्रीजी मनोरमाश्रीजी मंजलाधीजी इंद्रश्रीजी दमयंतीथीनी तिलकधीजी
प्रमोदश्रीजी
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आभार दर्शन. ___ आ पुस्तक प्रकाशनमा साच्चीजी श्री मंगळधीना सदुषदेशथी परमपूज्य प्रवर्तिनी साध्वीश्रीजी नवलश्रीजी तथा परमपूज्य साध्वीश्रीजी उत्तमश्रीजीना स्मरणार्थे रु. ८००) आठसो आपवामां आव्या छे.
ली. प्रकाशक. ***** *
800***
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# # # #ી શકીશ કે
## # # # # # # # # # # # # @ આ પુસ્તક છપાવવામાં સાધ્વીજી શ્રીમંગળશ્રીજીના ઉપદેશથી જે જે ગૃહસ્થોએ મદદ આપી છે
તેમના નામની યાદી. રૂ. ર૦૦ શેઠ કાંતિલાલ હાલચંદ, પાટલા
૧૦૦ શેઠ લહેરચંદ નાલચંદ. !! ૧૦૦ કુસુમચંદ્ર. ૧૦૦ ' છોટાલાલ હરગોવનદાસ. ૧૦૦ શાહ ખાતાના. ૨૫ ચંપા બહેન. ૨૫ કેશર બહેન. ૨૫ પુનમચંદ.
૧૧ર જ્ઞાન ખાતાના. 聯發器器端端验器聽聽器聽器器器端端端端端端端聯聯發器將帶蒂蒂蒂端端端路张佛佛聯佛聯佛聯聯
樂器馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨馨
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॥ ॐ ही श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ परमपूज्य विश्ववंदनीय तपोनिधि निष्कलंक चारित्रचूडामणि सकलसंवेगीशिरोमणि तपागच्छाधिपति श्रीमत्पन्यास
प्रवर श्रीदयाविमलगणिवर सद्गुरुभ्यो नमोनमः ॥ ॥ परमपूज्य सकल सिद्धांतवाचस्पति अनेक संस्कृत ग्रंथप्रणेता श्रीमत्पन्यासप्रवर श्रीमुक्तिविमलगणिवर विरचितम् ।।
॥ श्री अञ्जनासुन्दरीचरित्रम् ॥
HEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERB
॥ तत्रादौ मङ्गलानि ॥
(वसन्ततिलकावृत्तम् ) विश्वम्भरोभवभवान्तरबन्धभेदी । मारादिवैरिगुरुवारनिवारणेशः ॥ आद्यो जिनो मुनिरनन्तउदारधामा । नाभीश तात इह वः कुशलं विदध्यात् ।। १॥
शार्दूलविक्रीडितम् )
रागद्वेषभुजङ्गदष्टनिखिलप्राणिजपा
रागद्वेषभुजङ्गदष्टनिखिलप्राणिव्रजप्राणदः, शान्ति विश्वतलेऽखिले खलजनेऽप्युत्पादयन् शान्तिभः॥ शान्ताकारविभूतिविश्वशमदः शान्ति स्थितो निर्ममः, श्रीमच्छान्तिजिनेश्वरोऽखिलनतो देयाच्छिवं वोनिशम्।। २ ।।
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अअना० चरित्रम्
(इन्द्रवज्रा) आध्मातकम्बुप्रथितस्वनेन, लोकत्रयी येन च पूरिताऽभूत् । येनाश्रितः पावनरेवताद्रिस्तीर्थकरो, नेमिरसौ श्रियेऽस्तु ॥ ३ ॥ पार्श्वप्रभुः पार्श्वश्रितांधिपद्मः, प्रोद्दामतेजाः प्रभुवर्द्धमानः । विश्वोपकारप्रथितप्रभावी, स्तां वः श्रिये नित्यमुभौ जिनेशौ ॥ ४ ॥ सा भारतीभाजितविश्ववामा, ज्ञानालया ज्ञानिमनोविलासा ।
वाचि स्थिता या कविकोविदानां, भूयाचरित्रे नितमां सहाया ॥५॥ पुण्येन यो लब्ध चरित्रभानुः, कर्माणि निम्नन्निव सञ्चकाशे। श्रीमद्यावैमलसद्गुरुः स, विश्वस्य भूत्यै भवतात्तपस्वी॥६॥ पंन्याससौभाग्यगुरुर्गुरुणां, तीर्थङ्कराणां गुरुवाचि दक्षः। ज्ञानादिसम्पद्विलसत्सुभाग्यः, स्तान्छेयसे वो महते महीयान् ॥ ७॥ ध्यात्वाईतः शान्तसमस्तकामान्, नत्वा गुरूणाक्रमवारिजानि । सत्यञ्जनायाश्चरितं पवित्रं, पंन्याससमुक्तिर्विमलो विधत्ते ॥८॥ यातः पदव्यां स्वलनकदाचिन्नुर्जायते मेऽपि तथा चेत्स्यात् । शोध्यं च तत्सरिभिरार्यवृत्तरार्याध्वनीना निखिला प्रवृत्तिः॥९॥
ऽणीयसी शेमुषिका मदीया सत्यञ्जनायाश्चरितं क्व चेदम् । परं तथापीह गुरुप्रसादाद्यास्यत्ययं भद्ररुचिविरेकम् ॥१०॥ शीलोत्तमासी रिपुकामनाशी, दिव्यच्छविर्यस्य करे विभाति । नो तस्य भीतिर्भुवनत्रयेऽपि प्रामोति देवेष्वपि पूज्यतां सः ॥ ११ ॥ चरित्रमञ्जनासत्याः, पूर्वोक्तरीतिना मया । शीलप्रस्तावके साधु रच्यतेऽखिलकामदम् ॥ १२ ॥
॥ अथ चरित्रोपक्रमः॥
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際端端端端端端端端端端端蒂露露器聯聯端端器端游除器染染等
सर्वद्वीपशिरोरत्नं जम्बूद्वीपोऽस्ति भासुरः । यत्राऽस्ति भरतक्षेत्रं, क्षेत्रराजिविराजितम् ॥१॥ दक्षिणोत्तरयोर्मध्ये, क्षेत्रयोरति सौम्ययोः । विद्यते गिरिचताढ्यो, विद्याधरनिषेवितः ॥ २॥ यत्रादित्यपुरीजेत्-पुरमादित्यसंज्ञकम् । सर्वर्तुसुखदं भाति, दिव्यचिपूरितान्तरम् ॥३॥प्रल्हाद इव प्रह्लादः, प्रजावारिजभास्करः । आसीद्यत्र महीपालो, राज्ञी केतुमती सती ॥४॥ पवनञ्जयनामाऽभूत्सुतस्तत्कुक्षिसम्भवः । बलेनावस्थानेन मातरिश्वेव यो जयी ॥५॥ तदानीं भरतक्षेत्रे, सिन्धुपकण्ठवतिनि । दन्तिशैले पुरश्चासीन्माहेन्द्रपु मुज्ज्वलम् ॥६॥सुत्रामेव प्रभूतद्धि-महेन्द्रनामलालितः। विद्याधरधराधीश-स्तत्रासीद्रतिपोपमः॥७॥ज्योत्स्नेव शान्तिपीयूष चर्पिणी हृदयङ्गमा । हृदयसुन्दरी तस्य, प्रियाऽऽसीत्प्रीतिमन्दिरम्॥ ८॥अभिधेयगुणश्लाघाः, कुमारा इव नाकिनाम् अरिन्दम मुखास्तस्याः शतपुत्राश्च जज्ञिरे॥९॥ तदुपरि कनी चैका, सर्वावयवसुन्दरी। अञ्जना सुन्दरी चाभूद्विरिञ्चिसृष्टितः परा ॥१०॥ कलेव शशिनोदशैं, प्राप्यासौ गतशैशवा । प्राप्तयौवनसाम्राज्या, शुशुभेऽखिलमोहिनी ॥ ११ ॥ दर्पपादपमारूढा, माधवीमिव तां पिता । विलोक्य पदमाधत्त, वरचिन्ता च तद्बुदि ॥१२॥ इङ्गितज्ञास्ततः प्रादुर्मन्त्रिणो मौलिपाणयः । युवविद्याधराणां हि, नामानि बहुसङ्ख्यया ॥१२॥ विनाऽऽकृतिमसौ भूपो, न चाऽनुष्यत नासतः। ऋते शब्दार्थबोधेन, विद्वानिव विलक्षणः ॥ १३ ॥ भूयो भूपनिदेशेन, सचिवैः प्रौढबुद्धिभिः । विद्याधरकुमाराणां, समग्राणां यथास्थितम् ॥ १४ ॥ विचित्रचित्रपट्टेषु, तद्रूपश्च पृथक् पृथक् । आलेख्थानीय भूपस्य, दर्शितास्तेऽपि पेशलाः॥ युग्मम् ॥॥१५॥आसीत्कश्चिद्धिरण्याभो, विद्याधरमहीपतिः भार्या च सुमना यस्य, विद्युत्प्रभसुतस्तथा ॥ १६॥ एवं प्रह्लादभूपस्य, पवनञ्जयकुमारकः । आस्तां यौ रूपसौर्याम्याञ्जयन्तगुहकाविव ।। १७ ॥ एकदा च तयोः कश्चित्सचिवचारुकाकृतिम् । विलिख्य पट्टके साधु-धुरि राज्ञस्त्वदर्शयत् ॥१८॥ चित्रपट्टे तयो रूपं, कन्दर्प शशिनोरिख । वीक्ष्य विद्याधराधीशो, निनिमेषी क्षणं बभौ ॥१९॥ प्रसन्नवदनाम्भोजः प्राहेति मन्त्रिणं
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अञ्जना०
चरित्रम्
प्रथम गुच्छः
॥२॥
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नृपः। आकृत्या द्वाविमौ मन्ये, कुलीनौ रूपशालिनौ ॥ २० ॥ तन्मध्ये कतमो मन्त्रिनञ्जनापाणिपीडनम् । अश्चतीति वद प्राह, सचिवोऽपि नताञ्जलिः ॥२१॥ विद्युत्कान्तिस्यं स्वामिन् , विद्युत्प्रभकुमारकः। अष्टादशाब्ददेशीयो, मोक्षमेष्यति निर्भयम्॥२२॥ नैमित्तिकः पुरा कश्चित्प्राहेति प्रति मां प्रभो !। प्रह्लादतनुजन्माङयश्चिरायुः पवनञ्जयः॥२३॥ वायुवेगी वरस्तस्मादेष एव परन्तपः। अञ्जनासुन्दरीयोग्यो, देया साऽस्य सुता मुदा ॥ २४ ॥ इतो विद्याधराधीशाः, स्वपरिग्रहमण्डिताः । नन्दीश्वरमहाद्वीप-वरयात्रा कृते ययुः ॥ २५ ॥ महेन्द्रपृथिवीपाल-मृक्षाणामिव भास्करम् । तेजो-भिरुज्वलैः स्वस्य, हरन्तं क्लेशतैमिरम् ।। २६ ॥ मन्दं मन्दं प्रयान्तं तं, गजराजमिवाऽपरम् । पप्रच्छ भूपप्रह्लादः समयज्ञः कुलोचितम् ॥ २७ ॥ अञ्जनासुन्दरी राजन् , राजन्ती तेऽस्ति पुत्रिका । देहि तां मम पुत्रस्य, पवनञ्जय संज्ञिनः ॥ २८ ॥ महेन्द्रोऽपि महीपालस्तद्वचो हृदि धारयन् । तुतोषाऽतिसुतादाने, हिमाद्रिरिव शूलिने ॥ २९ ॥ तत्सुतेन सुतोद्वाह - विचारोऽस्य पुराऽभवत् । प्रार्थनाऽस्य परञ्जज्ञे, निमित्तफलदर्शिनी ॥३०॥ अद्यतस्तृतीये घस्र, मानसाख्ये सरोवरे । विवाहो भवितेत्युक्त्वा, जग्मतुस्तौ निजालयम् ।। ३१ ॥ महीयसा महेनैव, कार्याणि महतामिह । करपीडनसम्भारा, जाताश्चोभयपक्षगाः॥ ३२॥ महेन्द्र अपि प्रह्लाद, उभावपि महीश्वरौ । मुदितौ तत्सरस्तीरे, सकुटुम्बौ समागतौ ॥ ३३॥ निवासाञ्चक्रतुस्तत्र, मनोज्ञदूष्यनिर्मितान् । दन्तिघोटकसेनाभिः, शोभितान् विश्वतस्तथा ॥३४॥ मित्रं प्रहसितं तत्र, कालवित्पवनञ्जयः । विश्रम्भालयमापृच्छ-दात्मानमिव चापरम् ॥ ३५ ॥ अञ्जनासुन्दरी मित्र ! कीदृशी किमु वीक्षिता । सखायमन्तरा चान्यः, कः परस्तथ्यमावदेत् ।। ३६ ॥ ईषद्धास्य प्रसन्नास्यः, प्रसितः प्राह भोः ! सखे । रम्भादि स्वःपटुस्त्रीणां गणना का च तत्पुरः ॥ ३७॥ नागगन्धर्वयक्षाणां, कुमार्यस्तजिता हताः । मन्ये निश्वासधूमेन, मलिनास्याः प्रतिक्षणम् ।। ३८॥ निरुपमामतस्तस्या, रूपलावण्यसन्ततिम् । मुहुर्दष्ट्रवाऽपि को वाग्मी, वर्णयेद्वाङमन पराम् ॥३९॥ निशम्य
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तद्गिरः स्वस्थः, पीयूषरसगर्भिणीः। पवनञ्जयकौमारो, हियेति मन्दमावदत् ॥ ४० ॥ हन्त हा मित्र ! दुरेऽस्ति, पाणीपीडनवासरः अद्यैव द्रष्टुमिच्छामि, बालां तां हृत्सरःस्थिताम् ।। न चेतो रज्यते कापि तां विना मित्र ! साम्प्रतम् । ऋते सारसिकां कान्तां, सारसः किमु जीवति ॥४२ ॥ श्रुतादृष्टप्रियाप्रेम-रज्जुबद्धकजक्रमः । विश्वं भो मन्यते शून्यं शून्यवादीव तल्लयः ॥४३॥ अतः कः सरलः पन्था, दर्शनेऽस्या रमामणेः । अपनेतुं परं दुःखं, मित्रस्य नापरः प्रभुः॥४४॥ तल्लावण्यसुधापानाऽऽसक्तचित्तस्य मेऽधुना । क्षणं धस्रति घस्रोऽपि, मित्र ! मासायते ध्रुवम् ॥ ४५ ॥ दिनानि त्रीणि हा ! कष्टं, त्रियुगा इव भोः सखे ! । कथं यास्यन्ति धिक् कामं, यत्कृते विद्यते जगत् ।। ४६ ॥ कन्दर्पबाणविद्वाझं प्रियाप्रेमविसंस्थुलम् । प्रहसित उवाचेत्थं, मित्रं मित्र! स्थिरो भव ॥ ४७॥ नक्तं तत्र व्रजिष्यावः, पराग्लक्षितविग्रहौ । उत्पश्यावः सुखासीनां, सरोजवदनां सतीम् ॥४८॥ मित्रामृतवचःपानक्षीणतापलसत्तनुः । ध्यायन तामेव तस्थौ स, उपासक इवेष्टकम् ॥४९ ॥ आगतायां विभावया पवनः सह तेन च । उड्डीय हृदि तां ध्यात्वा, तदाऽऽगारमुपागमत् ।। ५० ॥ आसीत्सा सप्तम्यां भूम्यां, विशालायां द्विजानना । गत्वाऽपश्यच्च तां तत्र, ससखश्च्छन्नचारवत् ॥ ५१ ॥ अञ्जनाऽऽननलावण्यं, निपीयासौ मुहुर्मुहुः । न तृप्तिमाप वर्षायां, केकीव जलदध्वनिम् ॥५२॥ वसन्ततिलका तस्या, आसीदेका सहचरी । अपरा मिश्रका नाम्नी, नामोपमगुणोज्ज्वला ॥ ५३ ।। वसन्ततिलका पाह, दिष्टया वर्द्धस्व भोः सखि ! पवनञ्जयकौमारो, यत्त्वाकामयते स्वयम् ॥ ५४ ॥ मध्य एव परोवाच, वाचाला तिपटीयसी । विद्युत्प्रभवरं हित्वा कोपरो वण्यते त्वया ॥५५॥ सर्वदःकसुरद्रः स, करीरः क्व च निर्दलः। वियन्मणेः पुरश्चेवं, रिङ्गणस्य च का कथा ॥५६॥ विद्यारूपगुणश्रीणां निधानमवनौ सकः । सखीयोग्यो वरः सोऽतः सृतं सत्यमपरेणतु ॥ ५७ ॥ निःसारां मिश्रकोक्ति सा, खण्डयन्तीव चेय॑या । प्राहेति नितमां मुग्धा, मुग्धेसि फल्गुभाषिणि ! ॥१८॥ अविचारवचःसारः, सुन्दरोऽपि मुधायते ।
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अञ्जना०
चरित्रम्
प्रथम गुच्छ
त्रुट्यन्मूलशिफः शाखी, सुच्छायः किमु सेव्यते ॥ ५९॥ शीतला सपना छायाऽपरार्द्धस्य न सम्मता ।अचिरक्षयहेतुत्वाद्दशैं चेन्दुकला यथा ॥ ६० ॥ श्रुता किं न च ते पूर्व, सचिवोक्तिरियं सखि !। अल्पायुः सर्वथा सोऽस्ति, विद्युत्प्रभकुमारकः ॥६१।। अल्पायुषा समं तेन कुमार्याः पाणिपीडनम् । शस्यते वद भोस्तथ्यं, त्वमेव चतुराशये! ॥६२॥ अवधीयैव तद्वाणी, मिश्रिकोवाच मानिनी। मूढाऽसि नितरां मन्ये, मन्दबुद्धितया सखि ! ॥६३।। अणुरपि सुधाबिन्दुर्वरीयानिह गण्यते । महदपि विषंम्बाले । निन्द्यमेवातिहेतुतः ॥६४ ॥ निशम्येति तयोरुक्तिं, स्वस्वकोद्गारसूचिकाम् । पवनः पवनोज्जेता दध्याविति हृदन्तरे ॥६५।। अञ्जनैषा हृदा मन्ये, विद्युत्प्रभं हि वाञ्छसि। प्रकव्यति मौनं हि, भावमस्याः तकं प्रति ॥६६॥ मदनुरागिणी चेत्स्यादियं, खञ्जनलोचना । निवार्यते कथं नैषा, मिश्रिका मद्विरोधिनी ॥६७। विचिन्त्येति महाध्वान्ते, रात्रिश्चर इवापरः । प्रवृद्धमन्युरक्ताक्षः, पाणावसिं विकृष्य च ॥६८।। भीषयन्निव लोकत्रिं, कम्पयन्निव मेदिनीम् । आविर्बभूव चण्डात्मा, काल मूर्तिधरस्त्वरा ॥६९॥ वृणुते या तडित्कान्तं, परिणेतुं समं तथा । तेन या चेहते मूर्ना, छिद्यते मयका तयोः ।।७०॥ व्यालपनिति कोपेन, यावदुद्राव तत्पुरः । तावत्तद्वाहुदण्डञ्च, गृहीत्वा प्रहितो जगौ ॥७१ ॥ विवेकबुद्धिहर्तारं, कुलमानादिलोपिनम्। धिक् कामं येन विज्ञोऽपि, जन्तुखि विडम्ब्यते ॥७२।। भो मित्र नच जानासि, वृद्धानां वचनं ह्यदः। सापराधाऽपि नो वध्या, गौरिख वामलोचना ।। ७३ ॥ अञ्जना सर्वथा सौम्य ! निर्दोषा प्रिय ! वर्तते निषेधिता सखीनैव त्रपया केवलं तया ॥७४॥ कामं त्वामेव सा साध्वी, हृदा कामयते सखे ! । मुश्च कोपं वधे बुद्धि त्यज सुन्दर ! सुन्दर ! ७५।। अरौत्सीत्तद्वधादेवं, प्रहसितस्तडित्प्रभम् । अन्यथा मूलनाशेन, कुतः स्वादुफलोदयः ॥७६।। कम्पमानतनुः क्रुद्धो रक्ताक्षो मलिनाननः । पवनो व्यथितस्वान्तः, स्कन्धावारमुपाययौ ।।७७॥ चिन्तासन्तापसन्तप्तो, विनिद्रो विकलेन्द्रियः। कथञ्चिद्यापयामास, रजनी त्रियुगीमिव ।।७८॥ तमोभिदि दिवानाथे, दिशि चन्द्रयामुपागते । मित्रं हसितमाहासौ, चित्तखेदाप
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हारकम् ।। ७९ ।। उद्वाह्यापि न योग्यैषा, सव्याजप्रीतिदर्शिनी । सुधाकुम्भोऽपि सन्त्याज्यो, यदि स्याद्विषमिश्रितः ॥ ८० ॥ स्वामिश्रीतिलताभेदी, विरक्तो यदि सेवकः । पदे पदे च सोऽप्यत्र, परमापत्तिहेतुकः ।। ८१ ।। प्राणभूता प्रिया चेत्स्याद्विरूपपथयायिनी । मरणं शरणं तत्र, ससर्पगृहवासवत् ।। ८२ ।। न यत्र सरला प्रीतिर्न, प्रीतिवचनक्रमः । गृहवासेन तेनालं कुमित्रेणेव भिना ||८३ || विमुच्यातः कनीमेनां, यावः स्वनगरों प्रति । सदम्भप्रीतिभावानां त्यागेऽपि न च दोषता ॥ ८४ ॥ नानाव्यञ्जनपाका सरसं मधुरं मृदु । भोजनं विफलं मन्ये, विनाऽऽत्मरुचिमन्तरा ।। ८५ ।। उदीर्येति मनोभावं, याबद्जन्तुभि एप सः । करे धृत्वा च तं तावद्बोधयामास सत्सखा ॥ ८६ ॥ स्वयं स्वीकृतकार्याणां पालनं धर्म एव च । उल्लङ्घनमतस्तेषां नोचितं महतामिह ॥ ८७ ॥ नम्यांघ्रिगुरुपादैश्व, स्वीकृतं वस्तु यद्भवेत् । तत्यागकरणं हन्त, महादोषनिबन्धनम् ॥ ८८ ॥ विक्रीणन्तु स्वयं ते हि, यच्छन्तु दयया तथा । प्रमाणञ्च सतां तद्धि, गतिर्नान्याऽत्र विद्यते ॥ ८९ ॥ अञ्जनायां परं मित्र, नास्ति दोषलवोऽपि च । मुधादोषप्रदानेन, निजात्मैव विगोप्यते ||१०|| अनालोडित कार्यस्य, मनसो वाऽपरस्य च । क्रियते तत्र चेद्रेकाऽज्ञात्वा भावं नु मूर्खता ॥ ९१ ॥ महात्मानौ कीर्तिमन्तौ दृढसन्धौ मनस्विनौ । अञ्जनायास्तथा ते च पितरौ भुवि विश्रुतौ ॥ ९२ ॥ तन्निर्धारितसत्कार्यमनादृत्य सखे यदि । गम्यते त्वयि वैयात्यं, धास्यति चिरसंस्थितिम् ||९३ || वैयात्येन तथाऽनेन, कथञ्जिद्वेषिनो सखे । उत्तमान्वयजातेभ्यो, वैयात्यं न च रोचते || १४ || पितरावपि ते मान्यौ, तव कृत्येन साम्प्रतम् । लञ्जिष्यतस्ततो मुञ्च, हठतां कार्य घातिनीम् ।। ९५ ।। बन्धो ! स एव सत्पुत्रो, येन वंशः प्रकाश्यते । एकः श्रीखण्डवृक्षेण, वनं विश्वं सुगन्धितम् ॥ ९६ ॥ हितोप्रियमित्रस्य, विवेकी पवनञ्जयः । तस्थौ तत्र दधत्स्वान्ते, निजापमानशल्यताम् ॥९७॥ निर्णीतवासरे भूयः, पूरयन्निव वावाञ्छितम् । पवनाञ्जनयोर्जज्ञे परिणयमहोत्सवः ॥ ९८ ॥ वरवध्वोस्तदा शान्त्या निष्पन्ने पाणिपीडने । बभूवुर्मुदिताः सर्वे,
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प्रथम
अअना० चरित्रम् ॥४॥
गुच्छ
साधका इव सिद्धितः ॥९९ ॥ राकेन्दुखि तत्पित्रोनेत्रकुमुदमोददः । मिथः प्रीतिजुषोर्जज्ञे, पाणिगृहमहोत्सव; ॥ १०॥ यथा रत्नानि शोभन्ते, विशदरुक्मभूषणे । कन्यारत्नं तथा चात्र, युनि शुद्धकुलोद्भवे ॥१०१॥ चश्चाद्विद्याधराधीशो, महेन्द्रनृपतिस्ततः । आप्तसम्बन्धि प्रह्लाद-भूपालं पर्यपूजयत् ॥१०२।। लब्धस्नेहमहापूजा, प्रहादनृपसत्तमः ।नगरी स्वां समायतो, वरवधुपुरस्सरः॥१०३।। सत्यञ्जनायाः पवनेन साकमुद्रावृत्तेन महापवित्रे । पंन्यासमुक्तिप्रथिते चरित्रे, लेमे समाप्तिं प्रथमोज गुच्छः ॥१०४॥ इति श्रीमत्तपोगच्छनभोनभोमणि, शासनसम्राट्-जङ्गमयुगप्रधान-कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक-क्रियोद्धारक, श्रीमदानन्द विमलसरीश्वरपट्टपरम्परागततपोनिष्ठ-सकलसंवेगिशिरोमणि-पंन्यासदयाविमलगणि शिष्यरत्नपण्डितशिरोमणि श्री सौभाग्यविमलगणिवरशिष्यपन्यासमुक्तिविमलगणि विरचिते-सती-अञ्जनाचरित्रे-अञ्जनापवनञ्जय विवाह
सम्बन्धिचारुवृत्तरमणीयः प्रथमो गुच्छः समाप्तः ।।
॥४
॥
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॥अथ द्वितीय गुच्छः ॥
इतः सप्तधरारम्ये, प्रासादे गगनस्पृशि । स्थिताऽपि कर्मदोषेण, रतिं लेभे नचाऽअना ॥१॥ अडुरा इव सद्भूम्यामुत्पद्यन्ते मनोरथाः । कुमारीणां पुरोद्वाहात्स्वान्ते के के न भावजाः ॥२॥ सह कान्तेन पूर्यन्ते, कासान्ते नवसङ्गमे । क्षीयन्ते क्षीणपुण्यानां लता इव च शैशिरे ॥३॥ तन्मनोरथपूर्तिस्तु दूरमस्तु, परं बत । दर्शनेनापि सा साध्वी, कान्तस्य वञ्चिताऽभवत् ॥ ४ ॥ निजापमानशल्येन, विद्धोऽसो पवनञ्जयः । सस्मार न च वाचापि, तां सती तत्पदालिनीम् ॥५॥ विना तमश्रुधाराभिन्तिोपममुखंधरा । विगतेन्दुनिशेवैषा शुशुभे न मनागपि ॥ ६॥स्वल्पावधीरणाऽप्यत्र कष्टाय महते भवेत्, तारुण्ये सह कान्तेन, विप्रयोगस्य का कथा ॥७॥ धवापमानदुःखेन, तरुणी सा कृशोदरी । स्थले मत्सीव तल्पेऽपि, पर्यलुठयत निर्भरम् ॥८॥ पार्श्वद्वयीं विवृत्यैवं, कुरुरीव वियोगिनी । तत्तापदग्धगात्रेयं, पर्यङ्केपि बतातपत् ॥ ९ ॥रम्योज्ज्वलमहासौधस्थिताया अपि रात्रयः । जज्ञिरेऽब्दोपमास्तस्या, मुश्चन्त्याः श्वाससन्ततिम् ॥ १० ॥ अन्तर्जानुमुखाब्जेय-मनन्यचित्तशालिनी । ध्यायन्ती केवलं नाथ-मनैपीद्वासरं ह्यपि ॥११॥एकतो मदनागार-यौवनं तापदायकम् । परतः स्वामिनोयोति-हाहा कष्टपरम्परा॥१२॥ कलेव शशिनः श्यामे. वीणाङी सा व्यजायत । अपश्यन्ती परोपायं, मौनमेवाश्रयत्तदा ॥१३॥ आह्वयामासुरालापैः, सख्यस्तां मधुरैर्मुहुः । तथापि नात्यजन्मौनं,
हेमन्ततौं यथा पिकः ॥ १४ ॥ तदुःखदुःखिता जाताः, सख्यस्ता निखिला अपि ॥ शिरसि वेदनाभाजि, सत्यङ्गानाश्च का कथा | ॥ १५ ॥ इत्थं कालः कियानस्या, ययौ यौगोपमा दधत् । प्रायः कष्टस्थितिस्थानां, क्षणोऽपि वत्सरायते ॥ १६ ॥ कदाऽऽगत्य
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अअना० परित्रम्
द्वितीय
8HERE RAME SHREE REPRENERENERGYE
सुखासीनं, दूतो लङ्काधिपस्य च । प्रह्लादभूपभूशक्र-मित्थं नम्रो व्यजिज्ञपत् ॥ १७ ॥ दुरात्मा वरुणो देव ! रात्रिश्चरपतिं प्रति ॥ वैरानुबन्धमाधत्ते, मार्जारमिव मूषकः ॥१८॥ विश्वविख्यातदोर्दण्डं, रावणमवगण्य च । वृत्तिं वैनयिकी दुष्टः, स्वीकरोति पुरोऽस्य न ॥ १९ ॥ नम लङ्काधिपं पाशिन्, याचितोऽपि मदद्रुमः ।। दुर्वचा रक्तनेत्रास्यः, स्वभुजाववलोकते ॥२०॥ इत्थं ब्रूते च दीप्तात्मा, कम्पयन्निव मेदिनीम् । कस्कोऽयं रावणो रक्षः, क्रियते तेन किं मम ॥२॥ इन्द्रो वैश्रवणश्चैवं, नलकूबरभास्कराः, वायुकीनाशकैलासा, इतरे ये च कातराः॥२२ ।। निर्वीया भुवि ते सर्वे, बिभ्यतु हन्त रावणात् । अहन्तु पयसांनाथस्तत्समो न च भीलुकः ॥२३॥ युग्मम् ॥ यथा न मरुता चाल्यः, सुधापायि गिरीश्वरः । हरिणर्न यथा सिंहस्तथाऽहं तेन सङ्गरे ॥२४॥ खललकेशो, देवाधिष्ठितरत्नकैः । अहंयुर्यदि जातोऽस्ति, जायतामिव किङ्करः ॥ २५ ॥ अत्रायातु स तस्याहं, चिरकालीयदुर्मदम् । हरिष्ये सत्वरं राशि, प्राणिनामिव मारिका ॥ २६ ॥ इत्थं दृतोक्तिमाकर्य, श्रुतिष्टविभेदिनीम् । ववृधे मन्युना सद्यो, विन्ध्य इवाश्रपाधिपः ॥ २७॥ भालाग्रेभ्रधनुष्कोटिं, दर्शयन्निव रावणः । काराघातमहीं दीप्तः, स्फोटयन्निव गर्वितः॥२८॥ चतुरङ्गी महासेनां पुरस्कृत्य हरिजयी । क्वासौ पाशी महाव्याधो, ब्रुवन्नित्यं च निर्ययौ ॥२९॥आगत्य वारुणीं विश्वम्, रुरोध नगरी बली। तीरस्थभूधरं । सद्यो, वेलेव कूलिनीपतेः ॥ ३० ॥ लोकपालः पयोनाथो, वरुणोऽपि रणोत्सुकः । जन्यदुन्दुभिनादेन, बोधयन्निव रावणम् ॥ ३१॥ अरुणाक्षो महाशक्तिवै-रिमातङ्गकेसरी । राजीवपुण्डरीकाद्यै-निजपुत्रैः समन्वितः ॥ ३२ ॥ चतुरड्या पुरान्मानी, प्रोल्लसद्रोमकञ्चुकः । निर्ययौ घोरसङ्ग्रामो, जज्ञे चोभयसैन्ययोः ॥३३॥ चतुर्भिविशेषकम् ॥ महत्यस्मिन् रणे धीराः, पाशिपुत्रा नियुध्य च। खरदूषणको वध्वा, निन्युश्च तत्पुरं प्रति ॥ ३४॥ पराजये तयोर्जाते, खरदूषणरक्षसोः। पृतना कौणपानां सा, बभन सर्वतोमुखी ॥ ३५ ॥ वरुणोऽपि महायोधा, धन्यंमन्य इवाययौ । नगरी स्वां यशो दिक्षु, स्थापयन्निव वासवः ।। ३६ ॥ हीम्लानवदनाम्भोजो,
张晓號樂器晓號樂器器器端端藥鱗器端端號號號端端端端端樂館
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भग्नगर्वमहीरुहः । शोच्यां दशां दशग्रीवः, प्रापाहिरिव मन्त्रितः॥ ३७ ॥ प्रतिविद्याधरेशान् स, पुन राहातुमात्मनः । प्रेषयामास सद्वृतान्, मांञ्चत्वां प्रति भो नृप! ॥३८॥ इत्थं प्रह्लादभूपाल, उक्ति लेखहरस्य च। निशम्य दशवक्त्रस्य, सहाय्ये सजितोऽभवत् ॥३९॥ यावत्तावन्महाधीरः, पवनः समरप्रियः । आगत्य प्राञ्जलिः प्राह, पितरं प्रश्रयाश्चितः॥४०॥ सूर्योदयाद्यथा पूर्वम-रुणो ध्वान्तनाशकः॥ तथाऽहं समरे तात ! त्वां विनाऽपि रिपुक्षयी ॥ ४१ ॥ प्रजाकल्प ! पितः ! सझ, विचिन्तः सुखमास्यताम् । पूरयिष्ये दशास्यस्य, रणे पूर्णमनोरथान् ॥ ४२ ॥ हन्त्येकोऽपि यथा नागान् , कष्ठीरवकिशोरकः । त्वदङ्गलब्धजन्माऽयं, तथा वैविरूथिनीम् ॥ ४३॥ उदीर्येति निरोधेन, लब्धाज्ञः पितुरेष च । अरिभूधरदम्भोलिसैनिकैः सह निर्ययौ ॥४४॥ रणयात्रोन्मुखं श्रुत्वा, लोकेभ्यः पतिमझना। चक्रवाकीव तं द्रष्टुं, भृशमुत्कष्ठिताऽभवत् ॥४५॥ उत्तरन्ति सुरीवैषा, व्योम्नः सप्तमभूमितः। अवातरच्छनैः सौम्या, कमलेव परा भुवः ॥४६॥पाश्चालिकेव तं द्रष्टुं स्तम्भमाश्रित्यसा सती। निनिमेषदशातस्थौ,प्रियेन्दुपानलालसा॥४७॥ द्वयचन्द्रप्रभेवाभाद्-द्वारस्तम्भस्थिता सका । मन्ये भ्रद्राय भूतानां, मर्त्यलोकमुपागता ॥४८॥ उद्वहन्तीं कचान् रुक्षा-नलिकेन महीयसा । नितम्बे शिथिलामेवं, धारयन्ती भुजद्वयीम् ॥ ४९ ॥ विताम्बूलाधरां क्षामां, विवणी मलिनाम्बराम् । धौतास्यामश्रुधाराभिर्व्यञ्जननयनाम्बुजाम् ॥५०॥ इत्थं स पवनो वो रणे यानानां प्रियाम् । अद्राक्षीच्च परं दध्या वन्यथैव मनोऽन्तरे ॥५१॥ चतुर्भिविशेषकम् ॥ दुष्टबुद्धे रहो चास्याः, कीद गस्ति विलज्जता । निर्भयत्वं परञ्चेतः, को जानाति खलस्त्रियः ॥५२॥ मत्रीतिविमुखी पूर्व-मियमासीदुराशया । गुर्वाज्ञाऽतिनिरोधेन, परिणीता परम्मया ॥५३॥ तस्मिन्निति विचारस्थे, यावत्तावद्यशस्विनी । पपात पादयोः पत्युः, कल्पवल्लीव जङ्गमा ॥ ५४॥ प्रेमाश्रुस्वच्छधाराभिः, क्षालयन्तीव तत्पदम् । बध्वाऽञ्जलिमुवाचेदं, सतीव्रातमतल्लिका ॥ ५५ ॥ नाथ ! कान्त ! कुलद्योतिन् ! प्राणेश्वर ! दयानिधे !, सम्भावयसि सर्वास्त्वं, मधुरोक्तिप्रसादतः ॥५६॥ भुक्तिस्थितिप्रियालापै-रितरैश्वारुचेष्टितैः।
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अञ्जना
चरित्रम्
॥६॥
प्रसन्नास्यः सदा स्वामिन्, रञ्जयसि निजाश्रितात् ॥५७॥ उद्धाहदिनमारभ्य, चाद्यावधि परंप्रभो! गणिता न मनागेषा, मलनष्टमनोरथा ॥५८ ॥ अपराधं न पश्यामि, येनत्वं मयि चोन्मनाः । मोदयसे न वाचाऽपि, किम्परैः सुखसाधनैः ।। ५९ ॥ कुर्वे तथापि | विज्ञप्ति, त्वत्क्रमध्यानयोगिनी। नाथम्विना परः कोऽस्ति, सतीनां दुःखभेदकः॥६०॥ विस्मर्तव्या कदा नैषा, विजयस्व रणे रिपून् । शिवास्ते सन्तु पन्थानस्त्वरादेहिच दर्शनम्॥६१॥ उक्त्वेति हार्दिकं नम्रा,विरराम मनीषिणी। प्लावयित्वा क्षितिं विश्वङ्, मेघधारेव सुन्दरी ॥६२॥ विनयगर्भवाक्यानि, वदन्तीमपि तां सतीम् । तिरस्कृत्य ययौ मंक्षु, विजयाय सदागतिः ॥६३।। गणयन्ति नवा कान्तां,भू र्भुवः स्वःश्रियं तथा । मानिनो मान एवास्ति, तेषामुत्तमभूषणम् ॥६४॥ स्वामिनाथापमानासि, जर्जरितकलेवरा । कथमपि महाधीरा, चान्तगृहमजीगमत् ॥६५॥ शिथिलाङ्गी जातकम्पा, दैवहीनाऽरमा सदा ॥ सद्योभिन्ननदीकूल-मिवैषां न्यपतद्भुवि ॥६६॥ इत उड्डीय जन्येहः, सरो मानसमुज्ज्वलम् ॥ ययौ वैरिब्रजध्वंसं, सूचयन्निव मारुतः॥६७।। प्रदोष समये तत्र, स्वविद्यायाः प्रभावतः।। विकुर्व्य भवनं दिव्यं, निवासश्चक्रिवान् सुखम् ।। ६८ ॥ तत्र तल्पे निषण्णोऽसौ, दृष्टिं दिक्षु नियोजयत् ॥ पीडितां विरहेणैकाञ्चक्रवाकी ददर्श च ॥ ६९॥ सरो रम्यं पयः शीत-मत्तुं मृणालनालिकाः ॥ स्वच्छों वायुस्तथाप्येषा, दुःखिनीव विभाव्यते ॥७॥ मुखाग्रस्थितमार्णाल-लतामपि न खादति। शीतेनापि जलेनालं, परितप्तेव दृश्यते !७१॥ वह्निज्वालोपमामेवं,मन्यते चन्द्रचन्द्रिकाम् । करुणार्तस्वरेणैषा, रोरुदीति परं भृशम् ॥७२॥ इत्थं तां पक्षिणीं वीक्ष्य, विलुठन्तीमितस्ततः । दध्यौ प्रभअनो हन्त ! वियोगिन्या हि का दशा ।।७३।। चक्रवाक्य इमा घस्र, रमन्ते पतिभिः सह । रजनीविरहं किन्तु, सहन्ते न दवोपमम् ॥७४॥ कान्तानां विरहो मन्ये, कामिनीनां हि दुःसहः। येन ताः परसौख्यानि, त्यजन्ति चासुभिः क्षणम् ।।७५।। क्रूरोऽहं विदयो मूढो, येन सा वरवर्णिनी। उद्वाहदिनतस्त्यक्ता, गणिता न परस्त्रीवत् ।। ७६ ॥ अत्रागमनवेलायामपि सा चरणाश्रिता । आश्वासिता नवा चोक्ता, प्रीतिगर्भव
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चोऽमृतैः ॥ ७७ ॥ मत्समागमजं सौख्यं, यया किञ्चिन्नचेक्षितम् । पर्वतोपमदुःखौधैः, पीडिता या च मूलतः ॥ ७८ ॥ अअने का दशा तेऽभूत्कान्तापमानदःखिते ! । अविवेकपदारूढं, घिग धिक त्वां पवनञ्जय ! ॥७९ ॥ मदपमानदुःखेन, खेदिता सा चिरं सती । प्राणान्-त्यक्ष्यति तद्धत्या, जातपापेन का गतिः॥८०॥ विचार्येति मनोभावः, पवनेन स्वकोऽखिलः । ग्रहसितोत्तममित्राय, न्यगादि प्रश्रयोक्तिना ।।८१॥ मित्रं विना यतः कश्चिन्नापरो हृद्यचिन्तकः । ततः सुखं तथा दुखं, मित्रस्यैव निवेद्यते।।८२॥ श्रुत्वेति प्रहसितः प्राह, चिरेणापि सखे त्वया । स्मृताऽसौ वियोगार्ता, साधु साधु-कुलोत्तम!॥८३॥जीविताऽस्ति नवा बाला, सारसीव वियोगिनी । जीविताऽपि भवेद्वाऽसौ, त्वत्समागमाञ्छया ॥ ८४॥ आश्वासनमतस्तस्याः, कर्तव्यमुचित तव । तत्र गत्वा च तां सद्यः, प्रीणय मधुरोक्तिभिः॥८५ ॥ तदाज्ञामुररीकृत्य, पुनः स्वस्वार्थसिद्धये । आगन्तव्यं त्वया मित्र ! गच्छ स्वस्त्यस्तु ते सखे ॥ ८६॥ हितशिक्षाप्रद मित्रं, विवेकी पवनञ्जयः । नीत्वा सहैव चोडीय, जगाम तत्र सत्वरम् ।।८७॥ ___अननासुन्दरी सौध-म्यद्वारि स्वयं स्थितः। प्रहसित साखा चैकः, प्राविशत्तद्गृहान्तरम् ।।८८॥ अञ्जना सा तदा तल्पे, मत्सीव विरले जले । वियोगाग्निज्वलद्गात्री, भृशमुद्रजिताऽभवत् ।। ८९ ।। ज्योत्स्नयापि विधोस्तप्ता, हिमेनेव मृणालिनी । आसीत्सा विरहो मन्ये, यमराजसहोदरः ।। ९० ॥ हृदन्तस्तापतस्तस्या, हारमुक्ताफलान्यपि । अत्रुटचन् कुन्तलश्रेणी-श्वासेन प्राचलन्मुहुः ॥ ९१ ॥ असबवेदनातोऽस्याः, प्रसिपम॒जयोरपि । काचवत्स्फुटिताः शिघ्र, सत्मणिवलया अपि ॥९२॥ वसन्ततिलका नाम्नी, सखी तस्या वचः पटुः । सदृष्टान्तमदाद् धैर्य, व्यसने यत्सुधायते ॥९३॥ शून्यदृष्टिमना यावजज्ञे काष्ठमयीव सा । ईदृस्थितिगता बाला, प्रहसिनेन वीक्षिता ॥ ९४ ॥ कृशाङ्गयष्टिमातप्तां, निपतन्तीमितस्ततः । त्यजत्पाणामिवैनां स, दृष्ट्या हृदि व्यचिन्तयत् ।। ९५ ।। अहो बालिश्यमेतस्य, येनेयं मन्तुमन्तरा। गमितेमां दशां हन्त, धिम् दैव! चेष्टितं तव ॥ ९६ ॥
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द्वितीय
अअना० चरित्रम्
संसारावासतप्तस्य, वैराग्यमिव सन्मुनेः । चिन्तयन्निति शुद्धात्मा, तदन्तिकमुपागमत् ॥ ९७ ॥ अकाण्डे पतिमित्रं तं, व्यन्तरमिव निजालये । प्रविशन्तअगादेषा, भीताऽपि धैर्यशालिनी ॥ ९८ ॥ कोऽसि त्वमागतो हेतो, कुतो रे परपूरुष !। अलं ज्ञातेन वा भद्र !, गम्यतां मद्गृहारम् ॥९९॥ प्रविष्टोऽसि विशङ्कम्त्वङ्कथमत्र वधूगृहे । वसन्ततिलके ! सबो, भुजग्राहं निसारय ॥१०॥ निर्मला चन्द्रवचास्मि, न द्रष्टव्यः सको मया । नान्यः प्रवेष्टुमीशोऽत्र, मत्पतिपवनम्विना ॥१०१॥ नाधिकारः परस्यात्र, प्रवेशे मनिकेतने । पुण्यात्मानं विना स्वर्गे, कः परो गन्तुमीहते ॥ १०२॥ श्रुत्वेति भारती सत्याः, प्रहसितसखा शनैः । नियोज्य पाणिपाथोज, व्याजहारेति सद्गिरः ॥१०३।। स्वामिनि ! स्वस्ति ते भूयान्मा चिरं दुर्मना भव । गतस्ते विरहोत्तापः, पूर्वकर्मविजम्भितः ॥ १०४ ॥ चिरात्वयि समुत्कण्ठः, स्वामिश्रीपवनञ्जयः । आगतः सोऽद्य ते द्वारि, वर्धापनमिदं तव ॥१०५॥ प्रहसितसखा चाहं, तस्यैव तव सविधौ । वसन्त इव कामस्थ, चागतोऽस्मि विभावय ॥१०६॥ मत्पृष्ठानुगतः स्वामी, छायेव तव मानिनि । विद्यते दर्शनाद्यस्य, सन्तापस्ते प्रयास्यति ॥१०७॥ त्वत्स्वामीति सुधाकल्प-वचःश्रुतिगतज्वरा । जाताऽपि खिन्नवक्त्रेव, बभाषे श्वाससन्ततिः ॥१०८॥ हासितेयं विधात्राऽस्ति, ग्रहसित महामते ! । हासयसि मुधा मां कि, पुनस्त्वं मन्दभागिनीम् ॥१०९॥ न नर्मसमयश्चैष, को दोषस्तव वा विह । मत्पूर्वकर्मदोषोऽयमन्यथा मां कथं त्यजेत् ॥११०॥ पाणिग्रहणमारभ्य, द्वाविंशवत्सरा मम । गतास्त्यक्ता च कान्तेन, तथाप्येषा च जीवति ।। १११ ।। दुःखनिश्वासपूर्वोक्ति, निशम्यैव स मारुतः । खण्डयनिव तदुःखं, प्रविवेश गृहान्तरम् ॥११२।। साश्रुरव्यक्तभारत्या, करुणारससजुषा । जामुवाच प्रियां वायु-स्ताराभिव कपीश्वरः ॥ ११३ ।। वैधेया पण्डितंमन्या, इव चेषोऽपि बुध्यताम् । निर्दोषा येन भो भद्रेऽत्याजि वैवाहवासरात् ॥११४ ॥ मद्दोषादीशी शोच्या, दशां यातासि साम्प्रतम् । अचिरादेव दुखार्ता, मृता चैव न संशयः ॥ ११५ ॥ जीविता यन्मया दृष्टा, मद्देवं तत्र
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कारणम् । ब्रुवन्तमिति कान्तं स्व-मज्ञासीदाना तदा ॥ ११६ ॥ तदैव हीमती वाला, तल्पादवततार च । तल्पपादाश्रिता तस्थौ, पश्यन्ती भुवमेव सा ॥ ११७ ॥ विनयो हि कुलस्त्रीणां, स्वागतमिह सुन्दरम् । वेदनाक्षीणकायाऽपि, प्रश्रयं न च सा जहाँ ॥ ११८ ।। सकङ्कणभुजं तस्या, लतामिव मतङ्गजः। गृहीत्वा पवनो धीमान् , पर्यसमभूषयत् ॥११६॥ भूयोऽपि व्यथमानाङ्गो, व्याजहार वचोऽनिलः । प्रिये क्षुद्रधिया काम, मया त्वञ्च कदर्थिता ॥१२०॥ सर्वथा व्यपराधाऽसि, कान्ते ! मदङ्गसङ्गिनि ! । दोपवानहमेवास्मि, क्षन्तव्योऽयं जनस्ततः ।। १२१ ॥ आकर्येति गिरः पत्युः, स्वकापराधबोधिकाः । नश्यत्तापोल्लसन्मोदा, प्राहेति क्षितिपात्मजा ॥ १२२ ॥ प्राणेश्वर! गुणागार !, नाथ ! नेत्थं निगद्यताम् । त्वत्पादपद्मभृङ्येषा, क्षमायाचा न चोचितम् ॥१२३॥ इत्थम्परस्परालापैरन्योन्यप्रीतिवर्द्धकैः । अपूर्वानन्दपाथोधौ, बुडिताविव तावुभौ ॥ १२४ ॥ सन्ततिलका दासी-मित्रं प्रहसितस्तदा । अज्ञात्वेव शनैर्दक्षौ, बहिः सत्वरमागतौ ॥१२५॥ जायापत्यो रहः प्रीत्यामुल्लसन्त्यां हृदेकयोः । न स्थातव्यं तदा तत्र, चतुरैश्च नियोगिभिः ॥१२६ ।। रेमाते च ततः स्वैरं, रतिभावविशारदौ । विना मारकलां केलि-मुधैवेति बुधा जगुः ॥ १२७ ।। यामैका रजनी जाता, तयोश्च रममाणयोः । विषयानन्दलीनानां वत्सरोऽपि क्षणायते ॥ १२८ ।। व्युष्टायाश्च ततो रात्रौ, सति प्रगे च निर्मले । कार्यार्थी पवनः प्राह, चिरप्रीत्यानां प्रति ॥ १२९ ॥ विजयायाधुना कान्ते !, रावणारेश्च याम्यहम् । अन्यथा चेष्टितं सर्व, ज्ञास्यन्ति गुरवो मम ॥१३०॥ प्राणेश्वरि ! न ते कार्यः, खेदो हि पूर्ववविह । त्वत्प्रेमपाशबद्धांधि-र्जातोऽहं साम्प्रतं प्रिये ! ।। १३१ ॥ यावलकापतेः कार्यकृत्वाऽऽगन्छेयमत्र च । तावच्च ससुखं कालः, सखीभिः सह याप्यताम् ।। १३२ ॥ अष्टमीन्दुल्लसद्भाला, बाला साथ वियोगतः । यमानापि कान्तस्य, सधैर्येव जगाविति ॥ १३३ ॥ तावकोपमवीराणां, कार्यन्तु सिद्धमेव च। त्वमामश्रवणेनैव, क्व यान्ति रिपुवारिदाः ॥१३४ ॥जीवन्ती
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द्वितीय
अअना० चरित्रम् | ॥८॥
गुच्छ
यदि मां नाथ! द्रष्टुमिच्छति चेत्पुनः । साधयित्वा निजङ्कार्य-भागतिर्दाग विधीयताम् ॥१३५॥ त्वन्मनोमानसाम्भोऽन्तःप्रीतिमुक्ताफलस्पृहा । पूर्यतामाशु मे नाथ!, गम्यतात्रयवैरिणः ॥१३६ ॥ परमासीदियं स्वामिन्नृतुस्नाता च साम्प्रतम् । अन्तर्वत्नी भवेयञ्चेल्लोकोक्तिः केन वार्यते ॥१३७॥ दूरस्थे यदि कान्तेऽपि, दुर्जनः किं वदिष्यति । रहस्यं दर्जनानां हि, हृदये नोपतिष्ठते ॥१३८ ॥ पवनः प्राह मा ताम्य, चागमिष्यामि सत्त्वरम् । आगते मयि भोः कान्ते ! किं वदिष्यन्ति ते खलाः ॥ १३९ ।। मनाममुद्रिका वाऽथ, मत्समागमबोधिकाम् । गृहाण तादृशे काले, प्रकाश्या सा त्वयाऽनधे ॥ १४० ॥ उक्त्वेति मुद्रिकां दत्वा, प्रोड्डीय पवनस्ततः । मानसाख्यसरोऽभ्यर्णे, स्वशिविरमुपासरत् ॥ १४१ ॥ देववत्सह सैन्येन गच्छन्, खे पवनजयः । लङ्कापुरी समागत्य, पौलस्त्यश्च ततोऽनमत् ।। १४२ ॥ तरुणार्कनिमः कान्त्या, रावणोऽपि ततस्त्वरा । वरूथिन्या सह योधु, वरुणं प्रति प्राचलत् ॥ १४३॥
बाबानासङ्गमवृत्तरम्ये, लकेशवातामिप्रयाणसौम्ये ।
पंन्यासमुक्तिप्रथिते चरित्रे, गुच्छो द्वितीयस्त्वगमत्समाप्तिम् ॥ १४४ ॥ - इति श्रीमत्तपोगच्छ नभोनभोमणि-शासनसम्राट्, जङ्गमयुगप्रधान, कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक, क्रियोद्धारक, श्रीमदानन्दविमलसूरीश्वरपट्टपरम्परागत तपोनिष्ठ, सकलसम्वेगिशिरोमणि, पंन्यासदयाविमलगणिवरशिष्यरत्न, पण्डितशिरोमणि पंन्यास सौभाग्यविमलगणिवरशिष्यपन्यासमुक्तिविमलगणिविरचिते, सत्यननाचरित्रे पवनभयस्य तथा अअनाया एकान्तसङ्गमवृत्तभाबुकस्तथा वरुणजयप्रस्थितलकेशपवनञ्जयादिवृतान्तमनोहरः-द्वितीयगुच्छ समाप्तः॥
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॥ अथ तृतीय गुच्छः ॥
इतोऽञ्जनासती सौम्या, दिवसेऽस्मिन्मनोरमे । गर्भन्दधार विश्वेऽयं, सन्निधिमिव काश्यपी ॥ १ ॥ गर्भप्रभावतस्तस्याः, शरीरावयवाः स्फुटम् । शुशुभिरे क्षितेर्मार्गाः, शरदीव समन्ततः॥२॥ आनने पाण्डुवर्णाऽभूद, गण्डयोः सुपमा तथा । शिशिरतौं यथाऽरण्ये, पालाशपुष्पसन्ततः ॥३॥ दधतुः श्यामतामेवं, स्तनाग्रचारुचूचुकौ । गतिश्च मन्थरा जज्ञे, नेत्रे दीर्घसमुज्ज्वले ॥४॥ साङ्कुरा धरणीवैषा, गर्भलक्षणलक्षिता । यदा जज्ञे तदा प्राह, श्वश्रूः केतुमती रुपा ॥ ५॥ आः पापे ! नितमां दुष्टे !, वंशद्वयकलङ्किनि! । अकारि किन्त्वयाऽकार्य-मिदं भूरि त्रपाकरम् ॥६॥ स्थिते देशान्तरे कान्ते, जाताऽसि गर्भिणी कथम् ? । किं वदिप्यन्ति हा! लोका, कुकृत्ये तव पुंचलि ? ॥७॥ अवज्ञा ते यदाकार्षीन्मत्पुत्रपवनस्तदा । अज्ञासिषमसो मौढ्या त्वां दूषयति वै सुधा ॥८॥ आस्ते त्वं पांसुला ज्ञातं, मया नाद्यावधि ध्रुवम् । परं सद्यः फलत्यत्र, कर्म पापक्रियोद्भवम् ॥९॥ तिरस्कृता यदाश्वश्वा, सतीयं परुषाक्षरैः । अश्रुभिः क्षालयन्तीव, तत्क्रमौ प्राह सुन्दरी ॥१०॥ मातर्वाच्यमवाच्यं न, किं हिमादग्निसम्भवः । कुलजायां कथन्दोष-स्त्वया चारोप्यते मयि ॥११॥ त्वत्स्नूरहरागत्य, भुक्त्वा माश्च पुनर्गतः । अमोघवीर्यहेतुत्वाजातेयं मामिकी स्थितिः॥१२॥ विश्रम्भो यदि नो मातः, स्वामिनाथसमागमे । प्राणेश्वरकराम्भोज-दत्तेमां पश्य मुद्रिकाम् ॥१३॥ मुद्रिकादर्शनेनापि, संशयालुः सकाऽभवत् । विपरीते विधौ सर्व-श्चेष्टितायतेऽन्यथा ॥१४॥ लज्जानम्रमुखी साध्वी, अजनां पुनरेव च । पवनजननी प्राह, तिरस्कारकटूक्तिभिः ॥१५॥ रे खले! तव नामाऽपि, पतिऍाति नो कदा । सङ्गमः सह ते तेन,
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तुती
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अजनाका
घटते च कथं वद ॥ १६॥ मुद्रिकादर्शनेनाऽतो, लुप्तशीले गतत्रपे । प्रतारयसि नः स्वीय-कलङ्कदोषगोपनात् ॥ १७ ॥ विदन्ति चरित्रम् कुलटा नार्यो, बहुधा वञ्चनाविधिम् । ब्रह्माऽपि चरितं यासां, न जानाति परः कुतः ॥१८॥ स्वच्छन्दगतिके पापे, दुराचार
पथाश्रिते । निर्गत्य मद्गृहादाशु, व्रज स्वजनकालयम् ॥ १९॥ न स्थातव्यन्वया चात्र, त्वद्योग्यं न च मे गृहम् । कणमात्रोऽपि कार्शानु-दहति सकलं वनम् ॥२०॥ तिरस्कृत्य वधूमेवं, केतुमतीच निर्दया । आहूय सेवकान् प्राह, विचाराध्वविवर्जिता ॥२१॥ अद्यैव सत्त्वरञ्चैतां, नयध्वं पितृमन्दिरम् । क्षणमपि मुखश्चास्या द्रष्टुं नाहश्च कामये ॥ २२ ॥ तदाज्ञामुररीकृत्य, सेवका अपि तान्तदा । वसन्ततिलकोपेतामारोप्य वरवाहनम् ॥ २३॥ माहेन्द्रनगराभ्यण, निन्युश्च वायुवल्लभाम् । साश्रुनेत्राश्च ते मन्द, वाहनादुदतारयन् ॥ २४ ॥ मातृवत्तां नमस्कृत्य, क्षमाप्य निर्ययुः पुनः । स्वामिवत्स्वामिकौटुम्बे, समानाः सेवकोत्तमाः॥२५॥ एकाकी विजने बाला, तापसीव च सा तदा । तस्थौ तत्र निजाधार-स्वामिनाथमनःस्थितिः ॥२६॥ तदानीमेव मन्येऽहं, तद् दुःखदुःखितो भृशम् । विश्वप्रकाशिमूर्योऽपि, पश्चिमाम्बुधिमाश्रयत् ॥ २७ ॥ यतः सन्तः परापत्ति, वीक्षितुं प्रभवो न हि । असन्तस्तत्र मोदन्ते, भेदोऽयमुभयोरिह ॥ २८॥ पुनः सा घूकघूत्कारैः, फेरुफेत्कारकैस्तथा । कष्ठीरवमहाक्रन्दै-मृगयूनाञ्च कलकलैः ॥ २९ ॥ रक्षः सङ्गीतसादृश्यैः, पिङ्गलायाश्च निस्वनैः । निर्भग्नश्रुतिरन्]व, योपयामास यामिनीम् ॥ ३० ॥ उदिते च दिवानाथे, स्फुरत्सु किरणेषु च । अजना सत्कुलोत्पन्ना, हिया भृशमयत ॥ ३१ ॥ सपरिवारसंयुक्ता, भिक्षुकीव शनैः शनैः । म्लानास्यकमला साध्वी, चाययौ पितृमन्दिरम् ॥३२॥ यावद्वारि समायाता, प्रतीहारेण सेक्षिता । अकस्मादागतां दृष्ट्वा, संभ्रमोऽभून्महान् क्षणम् ॥३३॥ विद्याधरमहाधीश-माहेन्द्रतनुसम्भवा । दृश्यते च निरानन्दा कष्ट कि पतितं महत् ॥ ३४ ॥ इत्थं वितर्यमाणं तं, वसन्ततिलका सखी । आद्योपान्ताखिलोदन्तं, निजगाद. पटीयसी॥३५॥
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तवृत्तं सकलं सोऽपि, कथयामास भूभुजः । श्रुत्वेति लज्जया नमः, श्यामास्यश्चाभवन्नृपः ॥ ३६॥ दध्यौ च हृदि भूपालो, विपाक इव हा विधेः । अचिन्त्यञ्चरितं स्त्रीणां, भार्गवोऽपि खलायते ॥ ३७ ॥ अञ्जना कुलटा चैषा, कुपुत्री कुमतिः शठा । श्यामीकर्तुलकुलं मेऽद्य, मदालयमुपागता ॥ ३८॥ दूषयत्युज्ज्वलं वासश्चाअनस्य लवोऽपि तु । निष्कलङ्ककुलं पूर्व दृषितमनयाधुना ॥३९॥ इत्थञ्चिन्तयतो राज्ञः, प्रसन्नकीर्तिस्तस्सुतः । अप्रसन्नमुखाम्भोजो, नीतिमानाह कोपनः ॥४०॥ अधुनैव गृहादेनां, निसारय पितस्त्वरा । परम्परागतं पूतङ्-कुलं दूषितं मे तया ॥ ४१ ॥ पुत्रीथं ममता त्याज्या, स्वैरिणीयं गतत्रपा । छिदन्ति सुधियः किं नो, चाङगुलिमुरगक्षताम् ॥ ४२ ॥ महोत्साहाभिधो मन्त्री, तदाऽऽह विनयान्वितः । श्वश्रसन्तापतप्तानां कन्यानां शरणं पिता ॥४३॥ कदाचित्रयाश्वश्वा, चारोप्यास्यांच दुषणम् । निष्कासिता भवेद्वाला, प्रत्ययः कोन बुध्यताम् ॥४४॥ सदोषा वाऽथ निर्दोषा, यावद्राजन् ! न निर्णयः । रक्षणीया रहस्ताव-दनुकस्प्या च सुता भवेत् ॥ ४५ ॥ राजाऽऽह साधु भो मंत्रिन् पुत्रीयं मम वल्लभा । नष्टशीला परअजे, श्लाध्यस्त्यागस्ततो मतिः ॥४६॥ श्वश्वः सर्वत्र ही दुष्टा, भवन्ति खलबुद्धयः । ईदृशश्चरितं किञ्च, वधूनां न क्वचिद्भवेत् ।। ४७ ॥ द्वेषिणीयं खला पत्यौ, पूर्वमेव श्रुतं मया । प्रीतिभावस्ततोऽमुष्यां, वायो। भून्मनागपि ॥४८॥ तं विना गर्मिणी पापा, जातेयश्च कथं वद । बन्धकीय ततो मन्त्रिन् , सदोषैव विभाव्यताम् ॥४९॥ तच्छ्वश्वा केतुमत्या तु, कृतं साधु बहिष्कृता । इतोऽप्येषा च निष्कास्या, चादृश्यास्या हि सत्वरम् ॥ ५० ॥ इत्थम्भूपाज्ञया कल्पे, क्रन्दमानजनेक्षिताम् । अअनां द्वारपालोऽपि, गृहादहिस्त्वकारयत् ॥५१॥ क्षुत्पिपासाकुला बाला, मुञ्चन्ती श्वाससन्ततिम् । धरणीमश्रुधाराभिः, सिञ्चन्तीव पदे पदे ॥ ५२ ॥ दर्भविद्धक्रमच्योतद्रुधिरेण नु मेदिनीम् । रअयन्ती स्वलन्ती च विश्राम्यन्ती प्रतिद्रुमान् ।। ५३ ।। रोदयन्ती दिशश्चापि, सह सख्याति
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अनना चरित्रम् ॥१०॥
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पीडिता । अपश्यन्ती परोपाय, ततः खिन्ना विनिर्गता ॥५४ ॥ येषु येषु पुरेष्वेषा, ग्रामेषु नगरेषु च । प्रयाति तत्र भूपालः, पुरुषश्च निवार्यते ॥ ५५॥ हेतुनाऽनेन सा बाला, स्थितिं क्वापि न चाकरोत् । आपतद् व्यसने हन्त भवन्ति रिपवोऽखिला: ।। ५६ ॥ इत्थं विश्वग-निराधारा, श्रान्ता गर्भभरा सती। क्रमशो दैवयोगेन, ययौ सा भीषणाटवीम् ।। ५७॥ तत्रादिरम्यनकुञ्जद्रुमस्याधः सखीद्वया । स्थिताऽतिवेदनामुढा, विललाप भृशं मुहः॥६८॥ उवाचेति धरापृष्ठे, चैकाऽहं मन्दभागिनी । माहेन्द्रतन याप्येषा, रोख्दीति वनान्तरे ।। ६९ ॥ अथवा क्व पिता माता, क्वासौ बन्धुजनः प्रियः । चीर्णकर्मविपाकस्य, चोदये विप्रियोऽखिलः ॥ ६० ॥ यतो गुरुजनैश्चापि, सत्यान्वेषणमन्तरा । दासीव धर्षिणीवैषा, विदयैश्च खलीकृता ॥६१॥ श्वश्वा तु केतुमत्यापि, कौलकलङ्कभीतया । कृतं साधु यया गेहादहं सद्यो निर्वासिता ॥६२ । सम्बन्धिभयभीतेन, पितस्तेऽपि सुचिन्तितम् । लोकरीति पुरस्कृत्य, सुतेयमनपेक्षिता ॥ ६३ ॥ दुःखपीडितनारीणां, मातेका शरणम्भुवि । अनुसृत्य पितुर्वाक्य, तयापि विमुखीकृता ।। ६४ ।। जीवति जनके भ्रातर्न दोषस्तव कश्चन । हा नाथ ! त्वयि दूरस्थे, सर्वे मे रिपवोऽभवन् ॥६५॥ पतिम्विना प्रिया नार्यो, न जीवन्ति क्षणं त्वपि । जीवत्यद्यापि हन्तैषा, मन्दभाग्यशिरोमणिः ॥६६॥ अअनामिति दीनास्यां, रुदन्तीं तत्सखी पुनः । आश्वास्य मधुरैर्वाक्य-स्ततो धुरिव्यचालयत् ॥ ६७॥ गच्छन्त्यौ ते पथि क्लान्ते, श्रुत्तचिन्ताऽतिविह्वले । क्रूरसत्त्वखराराव-चैपमानकलेवरे ॥६८॥ कन्दरायां विशालायां, ध्यानस्थं शान्तवासनम् । अमितगतिनामानं, मुनिमेक मपश्यताम् ।।६९॥ युग्मम् ॥ चारणश्रमणं भक्त्या, तं मुनि विनयानते। नमस्कृत्य पुरस्तस्य, तस्थतुर्विगतज्वरे॥७०||आत्मनीनं मुनि
निं, समाप्य दक्षिणं करम् । उत्थाय सर्वकल्याणी, धर्मलाभाशिषं ददौ ।।७१।। नमस्कृत्य पुनर्भक्क्या, दासीवसन्तसेनिका । आमूलचूलवृत्तान्त-मअनायास्त्वजीगदत् ॥ ७२ ।। गर्भेऽस्याः कोऽयमस्तीह, कर्मणा केन वाज्नया । अवस्था वेशी प्राप्ता, पृष्ट
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॥१०॥
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SEASEAN
इति मुनीश्वरः ।। ७३॥ सर्वज्ञाननिधिर्भूयो, मुनिरप्यतिनिर्मलः । द्विजज्योतिस्तमस्काण्डं, प्राचिवान् शालयन्निव ।। ७४ ॥
ढव भरतक्षेत्रे. जम्बद्वीपस्य पावने । पुरवारपरो नाम. परं मन्दरसंज्ञकम ॥ ७५ ॥ आसीत्तत्र जगन्नन्दी, प्रियनन्दी वणि गवरः । स्वर्वधूरूपलावण्य-जयाथ वल्लभा जया ।। ७६ ॥ जयायाः कुक्षितो जज्ञे, चन्द्रवच्च कलानिधिः । इन्द्रियदमनोत्कण्ठः, दमयन्ताभिधः सुतः॥ ७७ ।। उद्यानेऽसौ कदा रन्तुमगमद्वाललीलया। तत्रैक्षिष्ट मुनि दिव्यं, स्वाध्यायध्यानतत्परम् ।। ७८ ॥ शुद्धबुध्या ततो धर्ममश्रौषीत्स महामनाः । सम्यक्त्वं नियामांश्चैव, जग्राह प्रतिबोधितः ॥ ७९ ॥ तदिनात्स च भव्यात्मा, मुनियोग्यमनिन्दितम् । दानश्च शुद्धभावेन, व्यतरन्मुदिताशयः ।। ८०॥ तपसि संयमे निष्ठा, तस्याभूदति प्रेत्य च । परमर्द्धि सुरो जने, द्वितीयाऽमरलोकके ।। ८१॥ जम्बूद्वीपे विभात्येवं, मृगाङ्कनाम सत्पुरम् । वीरचन्द्रनृपो यत्र, प्रियङ्गुकमला प्रिया ॥ ८२॥ तत च्युत्वा च तत्कुक्षौ, पुत्रत्वेन व्यजायत । सिंहचन्द्राभिधानेन, विख्यातो भुवि योजनि ।। ८३ ।। स्वीकृत्य जैनधर्मञ्च, नियमेन व्यपालयत् । मृत्वा देवत्वमापासो, पुण्यकर्मप्रभावतः ।। ८४ ॥ ततश्च्युत्वात्र वैताढये, गिरौ वारुणसंज्ञके । नगरे दिग्यशोभाजः, सुकण्ठधरणीपतेः ॥५॥ स्वर्णोदरीप्रियाकुक्षेः, सिंहवाहननामकः । पुत्रोञ्जनि चिरं राज्यं, भुक्त्वा देव इवापरः।। ८६ ॥ विमलप्रभुसत्तीर्थे, लक्ष्मीधरमहामुनेः । व्रतअग्राह धीरात्मा, स्वर्निर्वाणफलोदयम् ॥ ८७ ॥
सुदुष्करतपस्तप्त्वा, मृत्वा जले च लान्तके । अवातरत् ततश्च्युत्वा, अञ्जनायाः शुभोदरे ॥ ८८ ॥ गुणराशिर्महायोधा, विद्याधरमहीपतिः । चरमाङ्गी शुद्धचेताः, पुत्रोऽयश्च भविष्यति ॥ ८९ ॥ स्वसरल्या अअनायास्तु, शृणु पूर्वभवं तथा । श्रुत्वा यं खेदसन्तान, उभयोरपि यास्यति ॥ ९० ॥ अस्तीह नगरं रम्यं, कनकपुरसंज्ञकम् । कनकरथभूपोत्र, महारथिशिरोमणिः ॥ ९१ ॥ स्मरस्येव रतिप्रीती-आसीत्तस्य प्रियाद्वयी। कनकोदरी चेका हि, परालक्ष्मीवती तथा ॥९२॥ श्रद्धालुः श्राविका चासीत,
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अञ्जना चरित्रम्
चतु
लक्ष्मीवती महासती । धर्मभ्यानमनोभावा, गुर्वादिसेवनोत्सुका ॥९३॥ गृहचैत्ये च या स्वस्य, जिनबिम्ब सरत्नकम् । संस्थाप्य पूजयामास. त्रिकालमतिभक्तितः॥ ९४ ॥ स्वर्णोदरी परञ्चाभदावती खलाशया । आदाय जिनबिम्ब सा. प्राक्षिपत्सरोद ॥९५।। तदाऽनगारिणां काचिज्जया नाम्नी तपस्विनी । विहरन्त्याययौ तत्र, दृष्टा सा च तथाकरी ।। ९६ ॥ आह सा सान्त्वया वाचा, भद्रे ! किं हा त्वया कृतम् । वीतरागप्रभोर्बिम्बे केयेय, तव हा हता ॥९७ ।। भगवद्विम्मतिरोधाना, मौढ्यादागा त्वया भवे । विवेकरहिते ! चात्मा दुःखभोक्ता कृतो भृशम् ।। ९८॥ स्वल्पाप्याशातना मुग्धे, बह दःस्वाय जायते । प्रतिमेषा प्रभोः साक्षाद्वाच्यं तत्र च किं खले ! ॥ ९९॥ ___ जयश्रीवचनैः साऽपि, राज्ञी स्वर्णोदरी तदा । अकृत्यकरणाद्भीरुः, पश्चात्तापमथाकरोत् ॥ १०० ॥ आत्मानं बहु निन्दन्ती, सद्य एव ततः प्रभोः । बिम्बमादाय प्रक्षाल्य, क्षमाप्य च मुहुर्मुहुः ॥ १०१॥ यत्रासीत्तत्र नीत्वा च, यथापूर्वमतिष्ठिपत् । स्वदोषनिन्दनेनापि, चात्मा भवति निर्मलः ॥ १०२ ॥ तदिनात्सा च सम्यकत्व-धारिणी शुद्धचारिणी । त्रिकशुद्धथा शुभावस्था, जैनधर्ममपालयत् ॥ १०३ ॥ पूर्णायुषि ततो मृत्वा, शुभध्यानेन सा शुभा। सौधर्मकल्पके जज्ञे, देवीत्वेन महीयसि ॥१०४ ॥ ततश्च्युत्वा सखी सेय, महेन्द्रक्षितिपाङ्गजा । जज्ञे च वृत्तमेतत्ते, मयाऽऽख्यातं परं शृणु ॥१०५॥ निन्द्यस्थाने प्रभोम्बिं, प्राक्षिपदीयया पुरा । तत्कुकृत्य फलं सम्यकगधुना भुज्यतेनया ॥१०६॥ अनुमोदयित्री पुरा त्वञ्च, तथाऽस्याश्च सहायदा । एतयातः समं दुःखं त्वयाप्यनुभूयते ॥१०७॥
दुष्टकर्मफलं प्रायो, भुक्तमेवाशुभोदयम् । जिनधर्ममतः सेव्यः, प्रतिभवसुखप्रदः ॥ १०८ । आगत्य मातुलश्चैव-मअनाया वितर्कितः । नेष्यति स्वगृहं स्वस्था, तत्र स्थास्यति ते सखी ॥१०९।। अचिरेणैव संयोगः, सह पत्या च मोददः । भविष्यति
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महासत्या, अञ्जनाया विभाव्यताम् ॥ ११ ॥
___ सत्यजनागर्भकलङ्दोष,-निर्वासितोदन्तभवादिवृत्ते ।
पंन्यासमुक्तिप्रथिते चरित्रे, तार्तीयगुच्छस्त्वगमत्समाप्तिम् ।। १११ ।। इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणि, शासनसम्राट्-जङ्गमयुगप्रधान-कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक क्रियोद्धारक, श्रीमदानन्द विमलसूरीश्वरपट्टपरम्परागततपोनिष्ठ-सकलसंवेगिशिरोमणि-पंन्यासदयाविमलगणि शिष्यरत्नपण्डितशिरोमणि पंन्यासश्रीसौभाग्यविमलगणिवर-शिष्यरत्नपन्यासमुक्तिविमलगणिविरचिते-सत्यञ्जनाचरित्रे-अञ्जनागर्भकलङ्कप्रदान
तभिवासनादिव्यतिकरपावनः तार्तीयगुच्छः समाप्तः ।।
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॥ अथ चतुर्थ गुच्छः ॥
अभना०
चरित्रम् ॥१२॥
पूर्वभवादिवृत्तं स्व, स्वामिनाथमिलापकम् । मुमुदाते च ते श्रुत्वा, दुःखितेऽपि चिरन्तनात् ॥१॥ उदीयेति सुनिः शान्तथाअनामअनासखीम् । धर्माहते च संस्थाप्य, ययौ तार्य इवाम्बरम् ॥२॥ तदैव तत्र पञ्चास्यो, यौवनस्थो भयावहः। देवाहूतइबोदयो, ददृशे भीषणाकृतिः ॥ ३॥ स्वपुच्छाघातभूपृष्ठं, स्फोटयमिव विश्वतः। पूरयमिव दिक्कुञ्जान्, निनादैरतिभीषणैः ॥४॥ क्रकचदशनबरो वहिज्वालास्फुरत्कचः । लोहाड्डशनखास्यास्त्रः, शिलावक्षाः सटाधरः ॥ ५॥ मदोन्मत्तकरीन्द्रासृक्-लिप्तदेहकरालकः । प्रज्वलद्दीपदृक्तेजा, वज्रदंष्ट इवाशरः* ॥ ६ ॥ दृष्ट्वैवं तं महासिंह हरन्तमिव जीवितम् । ते उभे वेपमानाङ्गे, ततो मन्दं प्रचेलतुः ॥ ७ ॥ प्रविशन्त्यौ मृगीते, कातराक्ष्यो धरातलम् । किंकर्तव्यतया मूढे, यावद्भीत्या च तस्थतः ॥ ८॥ तावतत्कन्दराधीशो, गन्धर्वमणिचूलकः । शीघ्रमष्टापदीभ्य, प्राणांस्तस्य त्वपाहरत् ॥ ९ ॥ पुनरष्टापदं रूपं, संहृत्य सप्रियः सकः । तद्धर्षाय स्तुतिञ्चक्रे, गुणानामर्हतः प्रभोः ॥ १० ॥ अमुक्त्वा तस्य सामिप्य-मुषतुस्तत्र ते सुखम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, बिम्ब संस्थाप्य पूज्यते ।। ११ ॥
वज्रचक्राकुमावात्रिं, भूरिविक्रमशालिनम् । सिंहीव चैकदा सिंह-मजनाऽसौष्ट सत्सुतम् ॥ १२ ॥ तत्सखी मुदितास्याब्जा, बसन्ततिलका ततः । अन्नपानादिभिस्तस्याः, प्रसूतिकर्म चाऽचरन ॥ १३ ॥ अझना च तदा पुत्रं, कृत्वा चोत्सङ्गवर्तिनम् ।
* राक्षसः इति ।
* 2 RENESE HERE HERese ke kee
॥ १२ ॥
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विललापाश्रुधाराभी, रोदयन्तीव तद्गुहाम् ॥ १४ ॥ ___महात्मन् ! पुत्र! घोरेऽस्मिन्-कान्तारं तव जन्म च । अपुण्या च कथं कुर्वे, त्वदुत्पत्तिमहोत्सवम् ॥१५॥ रुदन्तीं तां तथा वीक्ष्य, सदयो गगनेचरः। प्रतिमूर्याभिधश्चेत्य, प्रोवाच मधुरोक्तिभिः ॥ १६॥ क्रोडीकृत्य सुतं दिव्यं, रोरुदीति कथं बहु । दुःखस्य कारणं किन्ते, ब्रूहि बाले ! यथातथम् ॥ १७ ॥ साश्रुनेत्री तदा पाह, वसन्ततिलका सखी। आविवाहसुतोत्पत्तिपर्यन्तोदन्तजातकम् ।।१८।। श्रुत्वा तद्विषमं वृत्तं, मुमोचाणि सोऽपि च । तदुःखपकतां मन्ये, क्षालयन्निव सन्मताः ॥ १९॥
तदेव हृदयं हृद्य, परदुःखैश्च यन्मुहुः । द्रवति चान्यथा हन्त ! पाषाणकल्पमेव च ॥२०॥ चित्रभानुः पिता माता, सुन्दरी मालिका मम । तत्कुक्षिसम्भवश्वैष, ज्ञायतां शुभलक्षणे! ॥२१शामानसवेगनानी या, तव माता च-सुन्दरि !तदाता बुध्यतामेष, मातुलोस्मि तवानधे ।।२२ ॥ महता भाग्ययोगेन, जीविता त्वं निरीक्षिता । दिवसोऽयं महानन्दी, भव स्वस्था च साम्प्रतम् । ॥ २३ ॥ एष मे मातुलः साक्षाद्-दुःखहर्ता विशेषतः । ज्ञात्वेति रोदनश्चक्रे,भृशमेषातिपीडिता॥२४॥ चिरं स्वेष्टजने दृष्टे, दःखोत्पत्तिविशेषतः । स्वनाशमयतो मन्ये, दुःखं रोदिति वै स्वयम् ॥ २५ ॥ रोदनात् तां विनिर्वार्य, चाश्वास्यामृतवाचया । सहस्वेनाऽऽगतं कश्चित्पप्रच्छ गणकोत्तमम् ॥२६॥ दैवज्ञ ! वद पुत्रोऽयं, कीडाविधिर्भविष्यति । नैमित्तज्ञोऽपि तद्विद्यो, यथार्थफलमचिवान् ।। २७ ।। रवेचरेश ! महाराज ! कुमारोऽयं जगत्त्रये । जो चाद्भुत एवाहो, विचित्रगुणकर्मभिः ॥२८॥ शुभादृष्टसल्लग्ने, जनिरस्याऽभवच्छभा, पुण्यात्माऽयं महाभूपो। भविष्यति न संशयः।।२९॥ भवेऽस्मिन्क्षीणकर्माऽयं, निर्वाणपदमेष्यति। दिगन्तख्यातमोजा. दिवानाथ वाजनि ॥३० ॥ सूचयन्ति ग्रहा एव, भाग्यमस्य शिशोमहत् । गदतो मे च भो राजन, शणु खेटफलश्रतिम ॥३१॥ विद्यते मध मासस्य, त्वद्य कृष्णाष्टमी वरा । नक्षत्रं श्रवणं दिव्यं, वारेषु रविवासरः॥ ३२ ॥ उच्चः सन मेषराशिस्थो
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अञ्जना चरित्रम् ॥ १३॥
वर्तते च दिवाकरः । रजनीशोऽपि नक्रस्थो, मध्यभावे च संस्थितः ॥३३॥ भूमिपुत्रोऽपि मध्ये सन् , वृषराशिसमाश्रितः । बुधोऽपि मध्यभावस्थः, पाठीनराशिमाश्रितः ॥३४॥ अत्युच्च संश्च जीवोऽपि, कर्कराशिविराजितः । निजोच्च मीनराशिस्थो, भार्गवोऽपि प्रभासते ॥३५॥ मन्दोऽपि मीनराशिस्थी, मीन लग्रोदयी तथा । विद्यते ब्रह्मयोगोऽपि, ततोऽयं शिशुरुत्तमः॥३६॥ निमित्तज्ञोदितां वाचं, सद्ग्रहोदयमूचितां निशम्य रखेचरेन्द्रोऽपि, मोदमापाति हत्कजे॥३७॥ सपुत्रसखिकोपेतां, भाग्नेयीमअनां ततः। विमानीकृत्य प्रतस्थे, प्रतिसूर्यपुरं प्रति ॥३८॥ मार्गे यानअनीपुत्र-चपलो निर्भयः सकः । पश्यन् कौतुकजालानि, क्रीडन रिङ्गन् रुदन हसन् ॥ ३९ ॥ विमानाकाशसंन्धान, लभ्वमानान् मनोहरान् । नानारत्नमयान गुच्छान-द्राक्षीद्विस्फुरत्त्विपः ॥४० ॥ रत्नस्तबक जिज्ञासो, जनन्युत्सङ्गतस्त्वरा । उत्प्लुत्य वज्रवत्तस्मा-त्पपात गिरिसानुनि ॥४१॥ तदाघातेन शैलोपि, काचघच्चूर्णितोऽभवत् । स्वयंभीत्या च भग्नो वा, यतोऽयचड उच्यते ॥ ४२ ॥ पुत्र पतनसन्तप्ता, मुछिनेव स्वलद्वचाः । अरोदीदाना काममुरस्ताडनपूर्वकम् ॥ ४३ ॥ रोदनप्रतिनिस्वानैः-रोदयन्ती दरी अपि । चुक्रोश विविधालाप-गर्हयन्ती निजाअनिम् ॥ ४४ ॥ हा पुत्र ! पुत्र ! किं त्यक्त्वा, मातरं मन्दभागिनीम् । गतस्त्वङ्कुत एवास्या-कलङ्कदोपशङ्कया ॥ ४५ ॥ विडम्बनाश्च भूयस्या, साढा में पुत्र! त्वत्कृते । त्वाविना तात! स्वन्माता, क्व मुखं दर्शयिष्यति ॥४६॥ मन्दमाग्येन मे मन्ये, देवज्ञोऽपि मुधाऽभवत् । अकाण्डे पतितो यस्मात, खेलन्नुत्सङ्गतो मम ।। ४७ ॥ प्रतिसूर्योऽपि तत्पृष्ठं, पतन्निव त्वराऽगमत् । अक्षताङ्गश्च तं बाल-जग्राह चित्रसंस्थितिम् ॥ ४८ ।। आदाय तं सुतं सोऽपि, निधिमिव चिराद्गतम् । भाग्नेग्यै चार्पयामास, न्यासमिव यथास्थितम् ॥४९॥ सुताननमलं दृष्ट्वा, धननिर्गतभास्करम् । दिदीप पद्मिनी वैषा, गतार्भलब्धिहर्षिता ॥५०॥ मनोवेगोपमेनाथ, विमानेन नभोऽध्वना । प्रतिसूर्या ययौ, सद्यः, सोत्सवां नगरी निजाम् ॥ ५१॥ अञ्जनामतिहर्षेण, विमानानिजसबनि । उत्तार्य कुल
॥१३॥
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देवीव, शुद्धान्तस्थैः सकाऽर्चिता ॥ ५२ ॥ कुलाकाशदिवानाथो, वर्चस्वी .गुरुविक्रमी । हनुपुरे सुतवैष, जात एव समाययौ ॥५३॥ धियेति मातुलस्तस्य, प्रतिसूर्यो विधानतः । अञ्जनाभस्य सच्चक्रे, हनुमानिति नाम च ॥ ५४ ॥ पतदेहावधातेन रखण्डशोऽभून्महागिरिः। हेतुनाऽनेन श्रीशैलः, द्वितीयं नाम चक्रिवान् ॥ ५५ ॥ ववृधे तत्र सानन्दं, क्रीडन् वायुकुमारकः । सरोमानसपमाली, राजहंस शिशुर्यथा ।। ५६ ॥ कलकेलि शिशोर्दृष्टवा, चापूर्वानन्ददायिनीम् । अञ्जना मुदिताऽप्यन्त-दुःखि तेत्र निरन्तरम् ।। ५७ ।। श्वश्रूदत्तकलङ्को हि, शल्य इव पदे पदे । दुःखाकरोति तां बाला, यावनिर्णयमन्तरा ॥५८॥ इतो लकेशसाहाय्ये, प्रस्थितः पवनो बली । जलेशपार्श्वतः साम्नाऽमोचयत्वरदूषणौ ।। ५९॥ अपूर्वविक्रमं दृष्ट्वा, लङ्कशोऽपि नभस्वतः । अत्यन्ततोषमापान्त-विष्णोरिख सुराधिपः ॥६०॥ ततो लङ्काधिपः सत्रा, परिवारेण हर्षितः । लङ्कामाप विशाला स्वां, पुण्यात्मेव सुरालयम् ॥ ६१ ॥ रावणाज्ञां शिरः कृत्वा, पवनः पवनोपमः । हारस्फारयशा दीप्तः, स्वपुरीं समवासरत् ॥६२।। प्रणिपत्य पितुर्मातु-श्चरणावतिभक्तितः । लब्धाशीराययौ मङक्षु, स्वप्रियावासमुत्तमम् ।। ६३॥ चन्द्रमिव कलाहीन, निद्रुममिव काननम् निकुञ्जमिव निर्वल्लिं, निष्पर्णमिव पादपम् ॥६४॥ यतिमिव क्रियाशून्यं, रमाहीनमिवाङ्गिनम् । पुत्रहीनमिवागारं, निस्तोयामिव कूलिनीम् ॥ ६५ ॥ पुष्पमिव विनिर्गन्धं, निष्पामिव वापिकाम् । अअना रिक्तमावास, दृष्ट्वाऽसौ विगतप्रभम् ॥६६॥ आपमृच्छी पपातोा , लब्धसंज्ञश्चिचिन्त च । मद्वियोगेन सा कान्ता, मृता वाऽन्यत्र हा गता ॥ ६७ ॥ प्रविष्टा वा धरारन्ध्र, वा मां दृष्टवा तिरोहिता । कान्ते ! भो! दर्शनं देहि, नेयश्च नर्मवेलिका ॥ ६८॥ वदनिति सकोऽपश्य-त्काञ्चिदेकां स्त्रियं स्थिताम् । पृष्टा सा मत्प्रिया क्यास्ति, दृगजरविभोपमा ॥ ६९ ॥ दृष्टा चेद्वद भद्रास्ये ! ताम्विना जीवितं क्षणम् । उत्थायविनयेनाऽह, साऽपि तवृत्तमादितः ॥ ७० ॥ गते च रणयात्रायां, त्वयि सौम्य ! यशस्विनि ! कियत्काले गते साऽभूद्-गर्भ
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अजना०
चरित्रम्
॥१४॥
लक्षणलक्षिता ॥ ७१ ॥ पतिरस्यां विरक्तोऽस्ति, गतश्च रणमूर्धनि । सगर्भा दृश्यने चैषा, श्वधरिति व्यतर्कयत् ॥ ७२ ॥ तर्जयन्ती च तां प्राह, श्वश्रः केतुमती तदा । द्वयान्वयकलविन्या, कृतं किम त्वया खले! ॥७३॥ मुद्रिकादर्शनेनापि, श्वश्वा नाऽभूच्च प्रत्ययः । कलङ्कदोषभीत्याऽत-स्तदेवैषा निराकृता ॥ ७४ । आजया ते ततो मातु-निर्दया अपि सेवकाः। अञ्जनां मन्दभाग्यां तां, महेन्द्रनगराहिः ॥ ७५ ॥ समीपस्थे वने त्रस्तां, हरिणीमिव पामराः। नीत्वा च मुमुचुः पापाः, रुदन्ती ससवीं सतीम् ।। ७६ ॥ वज्रोपमगिरं श्रुत्वा, पवनः पवनोज्जवी । प्रययौ श्वशुरागारं, प्रियादर्शनमुत्कलः ॥७७ ॥ तत्रापि देवयोगेन, नैक्षिष्ट दयितां प्रियाम् । वजाहत इव श्वासान, मुश्चन् यावच्च तस्थिवान् ॥ ७८ ॥ तावत्काञ्चित् खियं धीरः, पप्रच्छ विरसाननः । अञ्जना मत्प्रिया चात्र, त्वागता वा नवोच्यताम् ।। ७९ ॥ सापि भाले करौ कृत्वा, स प्रश्रयमुवाच च । आगता चात्र सामान्या, बसन्ततिलकान्विता ।। ८० ॥ अन्तर्वलीश्च तां दृष्टवा, व्यभिचारकशङ्कया। बाला हा ! जनकेनापि, सद्य एव निराकृता ।। ८१॥ प्रलयकालदम्भोलि-सोदरं तद्वचःक्रमम् ॥ श्रुत्वा च गतसंज्ञोऽसौ, सस्वजे धरणीं परम् ।। ८२ ॥ लब्धसंज्ञः पुनश्चाशा-पाशबद्धक्रमाम्बुजः । स्वस्थीभूय स्थिरीकृत्य, मनो दध्याविति स्फुटम् ॥ ८३ ।। मनो मे शङ्कतेऽद्यापि, प्रियासगमलालसम् ।। सती सा जीविताऽवश्यं, भविष्यति कुतश्चन ॥ ८४ ॥ आशया धार्यते प्राण-श्वाशा हि दृढ़ बन्धनम् । आशामयमिदं विश्वं, तथा सा जीविता भवेत् ॥८५॥ अतः सा मयका पूर्व-मन्वेष्टव्या प्रयत्नतः। गवेषणा कृतेऽवश्यं, मिलिप्यति प्रिया मम ॥ ८६ ॥ निर्धायेति महाधीरो, विचचार बनान्तरे । गिरिषु गिरि कुजेषु, पर्यन्तेषु वनेषु च ॥ ८७॥ कुलेषु सरितामेवं, कन्दरामु द्रमेषु च । गुप्तस्थानसहस्त्रेषु, मागिताऽनेन सा भृशम् ॥ ८८ ॥ न दृष्टा न च वाऽश्रावि, तद्विशुद्धिः कुतोऽपि च । किं कर्तव्यतया मूढो, धीरोऽपि स तदाऽभवत् ।। ८९ ।। खेदवान् तप्यमानात्मा, शापभ्रष्ट इवाऽमरः । प्रहसितं
苏张继攀举柴柴柴柴柴柴柴张张张晓染染染张骁骁张继张
*॥१४॥
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निजं मित्रं, प्रोचिवानिति विह्वलः ॥९० ॥ मित्र ! गत्वा त्वया वाच्यौ, पितरौ मे सचिन्तितौ । धरणीमटता विश्वगनाऽजना वीक्षिता मया ॥ ९१ ॥ भूयोऽपि गहनारण्ये, पुरीषु नगरेषु च । शोधयिष्यामि तां कान्तां, भूरि प्रयत्नशतैरपि ॥९२॥ प्राप्ता चेत् सुन्दरं नोचे-प्रवेश्यामि हुताशने । उपायो नापरः कश्चि-ताम्विना मम जीपने ॥ ९३॥ सखा सोऽपि ततः शीघ्र-मादित्यपुरमाश्रयत् । वाचिकं तस्य तत्पित्रोः, पुरस्तादखिलअगौ ॥ ९४ ॥ श्रुत्वेति जननी तस्य, बचःश्रुति विदारकम् । पपात मूर्छिता भूभौ, हृदि ग्राव्णैव ताडिता ॥ ९५ ॥ लब्धसंज्ञा च निश्वस्य, साश्रुनेत्राऽनिलप्रसूः ॥ ईषत्क्रोधमुखी प्राह पुत्रमित्रहसितं ततः ॥९६॥ प्रहसित ! महाक्रूर ! कठोरहृदयान्तर !। मर्तुकाम सुतं त्यक्त्वा-कथमत्र समागतः ॥९७ ॥ एकतो विपिनं घोरं, परतोऽसुविमोक्षणम् । असहायस्य ते पुत्र ! का दशा हि भविष्यति ॥९८ ॥ संकटे व्यसने घोरे, रक्ष्यः शत्रुपि ध्रुवम् । सखाते पवनो हृद्य-स्त्यक्त्वा तं कथमागतः ॥ ९९ ॥ अथवा नितमां पापा, विवेककपथवर्जिता । अहमस्मि यया गेहा-स्नुषा साध्वी विवासिता ॥१०॥ धिङ् मौख्य॑मविवेकित्वं, ममेह च मुहुर्मुहुः । ययाऽकारि कुलध्वंसि, कार्यमेतत्सुनिन्दितम् ॥ १०१॥ दृष्टाङ्गुलीयचिहापि, रुदन्ती पीडिता सती। निष्कासिता मया काल्या, पिशाच्या व्यनुकम्पया ॥१०२॥ नष्टावधूश्च पुत्रोऽपि, प्राणांस्त्यक्ष्यति चेत्तदा । मृत एव पिता तस्य, जात एव कुलक्षयः ॥१०३॥ अत्युन पुण्यपापाना-मिहेव फलमश्नुते । अयकोविदवादोऽपि, सत्यं मयि त्वजीघटत् ॥१०४ ॥ इत्थं केतुमती राज्ञी, स्वनिन्द्यकर्म पीडिता । पुत्रवाचिकदुःखेन, पश्चात्तापमतिव्यधात् ॥ १०५ ॥
प्रत्यावृते वायुकुमारवीरे, सत्यञ्जनान्वेषणवृत्तभव्ये ॥ पंन्यासमुक्तिग्रथिते चरित्रे, गुच्छचतुर्थः समगात्समाप्तिम् ॥ १०६ ॥
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अना० स्त्रिम्
इति श्रीमत्तपागच्छ नभोनभोमणि-शासनसम्राट्, जङ्गमयुगप्रधान, कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक, क्रियोद्वारक, श्रीमदानन्दविमलसूरीश्वरपट्टपरम्परागत तपोनिष्ठ, सकलसम्वेगिशिरोमणि, पंन्यासदयाविमलगणिवरशिष्यरत्न, पण्डितशिरोमणि पंन्यास सौभाग्यविमलगणिवरशिष्य पंन्यासमुक्तिविमलगणिविरचिते सत्यञ्जनाचरित्रे वरुणरावणसन्धि विधाय प्रत्यावृत्ताअनादर्शन-तदन्वेषणादिवृत्तभावुक:-चतुर्थी गुच्छ समासः॥
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॥ अथ पञ्चम गुच्छः ॥
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इत्थं केतुमती राज्ञी, पुत्रचिन्तापरा सती । न भुंक्त न च वा शेते, न कृत्येषु प्रवर्तते ॥१॥ रुदन्तीं तां ततो भूपः, प्रह्लादो विनिवार्य च । पुत्रं पुत्रवधुं चैव, तदेवान्वेष्टुमाकणत् ॥२॥ अअनायाः सुतस्याथ, मार्गणाहेतवे नृपः । सर्वविद्याधराधीशाऽभ्यर्णे प्रायुक्त दूतकान् ॥ ३ ॥ स्वयं विद्याधरैः सार्द्ध-मनेकैरवनीपतिः । पुत्रवधूविशुध्यर्थ, बभ्राम क्षितिमण्डलम् ॥ ४ ॥ शुद्धिं विधाय सर्वत्र, चालब्ध्वा क्रमशस्ततः । नाम्ना भूतवनं नाम, भूतवनमजीगमत् ।।५।। तत्र कृत्वा चितां वह्नि, दीपयन् पवनः सुतः । सन्नाहो मरणे दृष्टः, सविद्याधरभूभुजा ॥६॥ चितोपकण्ठमाश्रित्य, मुमुर्पुरञ्जनाकृते । प्राहेति पवनः शान्त-थोद्दिश्य वनदेवताः ॥७॥ कृत्याकृत्यदृशः पूज्याः, शण्वन्तु वनदेवताः! लोकपालाः! परे वापि, मन्मनोवृत्तसाक्षिणः ॥८॥ विद्याधरमहाधीशः, प्रह्लादोस्ति परन्तपः। राज्ञी केतुमती मान्या, सूनुरस्मि तयोरहम्॥९॥ नानाऽञ्जना प्रिया मेऽभून्महेन्द्र तनया सती। पाणिग्रहः सहाऽकारि-तया मोदप्रदो मया ॥१०॥ विवाहदिनतः किश्च, दुर्दैवदुर्धिया मया । विनिर्दोषाऽपि सा बाला, कुता च बहु दुःखिनी ॥ ११ ॥ त्यक्त्वा तां स्वामिकार्याय, सरलां कुलजां प्रियाम् । रणदोर्दण्डकण्डूतिः, समव्ययात्राकृते चलन् ॥१२॥ निर्दोषां दैवयोगेन, बुध्वा तां कलभाषिणीम् । तत्त्रीतिपाशबद्धोऽहं, प्रत्यावृतस्ततस्त्वरा ॥ १३॥ सप्तभूमिमये रम्ये, प्रासादे जम्मिवानहम् । व्यरसि स्वेच्छया सत्रा, कान्तया तत्र शुद्धया ।।१४॥ प्रत्यभिज्ञाकृतेऽदायि, स्वनामाङ्कितमुद्रिका । प्रच्छन्नः पुनरेवाह, स्वकटकमुपागमम् ॥१५॥ तद्दिने तत्क्षणे साऽपि, दधार गर्भमुत्तमम् । सुचारुक्षेत्रबीजोप्तिः, फलाय कल्पते न किम् ॥१६।। सर्वथा शुद्धशीलाऽपि, मद्दोषेण विगर्हिता।
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पश्चम
82-228****
गुच्छ
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कलङ्कभयतः पूज्यैः, पित्रादिभिर्बहिष्कृता ॥ १७॥ न जाने क्यास्ति सैतर्हि, धृतप्राणाऽथवा मृता। पुराऽपि चाधुना कान्ता, सती निर्दोषकेतनम् ॥ १८ ॥ मदीयाज्ञानदोषेण, दुःखं प्राप्ता च दारुणम् । मत्समं निर्धियं क्रूर, घिधिक् कान्तं खलाशयम् ॥१९॥ भ्राम्यता सकलां क्षोणी, शोधिता सा मया प्रिया । प्राप्ता न मन्दभाग्येन, रत्नवद्रलकारखनौ ॥२०॥ ज्वलज्ज्वालाऽनलेदेह-मतोऽद्यैव जुहोम्यहम् । कान्तां विना च देहोऽयं, निष्प्रभमणिवन्मुधा ॥२१॥ यावज्जीवश्च जीवन् सन् , दुःसहो विरहानलः । तस्मान्मे मरण श्रेयो, जीवितश्च विनश्वरम् ॥ २२ ॥ तस्माद्भो देवता वोऽहं, प्रार्थये विनयान्वितः । साक्षिणो यूयमेवात्र, निर्जनेऽस्मिन् वने मम ।। २३ ॥ यदि पश्यन्तु मे कान्तां, कुत्रापि क्लेशपीडिताम् । वाचिकं मे पुरस्तस्या, वदन्तु हृदयङ्गमम् ॥२४॥ त्वद्वियोगेन दुःखार्तः, पतिस्ते पवनञ्जयः । स्वयं कृत्वा चितां तत्र, प्रविवेश त्वदाशयः ॥ २५ ॥ उदीयेति महाधीरो, ज्वलद्दीसचितानिले । झम्पापातं समुत्प्लुत्य, यावत्कर्तुं समुद्यतः ॥ २६॥ तावदेव पिता तस्य, प्रह्लादः श्रुतवृत्तकः । ससंभ्रमं समागत्य, पतन्तं तं न्यवारयत् ॥२७॥ गृहीत्वा प्रियपुत्रस्य, करौ द्वौ हृदयेन च । सस्वजे सुचिरं स्नेहः, सुतस्यात्र वचः परः ॥२८।। प्रियावियो दुःखेन, पीडथमानोऽनिले पतन् । रुद्घोहन वा मृत्यौ, प्रत्यूहोऽयं कुतो महान ॥२९॥ विघ्नखिन्नमना वायु-स्तारस्वरमुवाच च । निर्जने कानने केन, वन्तरायः मृतौ कृतः ॥ ३० ॥ अष्टक्रमसञ्चाराः, कान्तारान्तरदेवताः । आगत्य ताभिरेषोऽयं, साहसो विफलीकृतः ॥३१॥ वदाति सुते सद्यः, प्रह्लादोऽश्रुर्वहन बहु । जगादेति पिता नेऽयं, वधूपुत्रदुःस्वपदः ॥३२॥ पुत्रवधूबहिष्कारे, कृतोपेक्षः स्खलन्मतिः । प्रह्लादो नितमां मूढो, दशेशी यतस्तव ॥३३॥ विवेकबुद्धिहीनाया, मातुम्ने सुतवत्सल !। अपराधो महान् येन, दुःखमेतद्विजृम्भितम् ॥३४॥ विरम मरणात्तात! तातदुःखानुबन्धिनः । स्थिरो भव च धीरोऽसि, मतिमानसि मा तप ॥ ३५ ॥ त्वद्वधशोधनार्थाय, मया विद्याधराः प्रिय ! । आज्ञापिताः पुरा सन्ति, सहस्रशो महाधियः ॥३६॥ तदागम
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नवेला त्वं, प्रतीक्षस्व मनः स्थिरं । कृत्वा येन महच्छ्यो, भविष्यति न संशयः ॥ ३७॥ विशुद्धशीलशालिन्याः, प्रियायास्तव साम्प्रतम् । शुद्धिमानीय चायान्ति, ते च विद्याधरा ननु ॥३८॥ प्राप्तापदि महाधैर्य, सर्वश्रेयोनिधिर्भुवि । धैर्यमालम्ब्य तिष्ठस्व, जीवन् भद्राणि पश्य च ॥३९॥ इतो ये च गता दिक्षु, विद्याधरा हि मार्गणे । शोधयन्तः कियन्तो तौ, हनुपुरमुपागमन् ॥४०॥ प्रतिसूर्यमअनामेते, व्याचख्युरथ सादरम् । दिष्टया वर्धस्व वै स्वामी, दृष्टा यदअना सती ॥४१॥ अअनाया वियोगेन, किश्च भर्ताऽतिपीडितः । प्रवेष्टुमनलेऽनेन, प्रतिज्ञा च कृता दृढम् ॥ ४२॥ दुःश्रवं तन्मुखान्छुत्वा, वचः सा पवनप्रिया । विषपानादिव क्षोणी, पपात मूर्छिता सती ॥५३॥ वीजिता व्यजनैरेवं, सिञ्चिता चन्दनाम्भसा। शीतोपचारकै दीर्घ-चेतनामाप चाजना ॥४४॥ उत्थाय शनकैः साध्वी, सुम्लानवदनाम्बुजा । दीनोक्त्या रुदती प्राह, हा नाथ ! प्राणवल्लभ ! ॥ ४५ ॥ श्रूयते समये चैत-बार्यों याच प्रतिव्रताः । पतिशोकेन तास्तप्ताः, प्रविशन्ति हविर्भुजि ॥ ४६॥ स्वामिनाथं विना तासाञ्जीवितं दुःखहेतवे । नित्यक्लैशवरं वहूनौ, सतीनामिह संस्थितिः॥४७॥ सन्ति नार्यः परं येषां, स्वामिनां भूतिशालिनाम् । सहस्रशः प्रियाशोक-स्तेषान्तु स्तोक एव च ॥ ४८ ॥ सति स्त्रीणां सहस्रपि, राजवंशभवे धवे । अकाण्डे का परो हेतु बृहद्भानुप्रवेशने ॥४९॥ विरहान्मम चेत्स्वामिन्, त्वया वह्नौ प्रविश्यते। जीवेयं हतधीश्चाई, वैपरीत्यमहो महत् ॥५०॥ सत्ववान् स्वामिनाथोऽस्ति, निःसत्त्वाऽहमिति स्फुटम् । अन्तरमधुना ज्ञातं, मणिक्षारकयोखि ॥५१॥ सत्यो भवन्ति नार्यों हि, पतयो न श्रुतिस्त्वया । मुधाऽकारि मुदाऽकारि, साहसोऽयं महाव्रत ! ॥५२॥ मातुस्ते श्वशुरस्यापि, पित्रोर्वा मम वल्लभ ! । नात्र दोषः परं मन्ये, मत्कृतपूर्वकर्मणः ॥५३॥ रुदन्तीमिति भाग्नेयी-माश्वास्य वाचया मुहुः । सपुत्रां तां सह स्वेन, चादाय तकमातुलः।। आरुह्योत्तमवैमानं, देव इव लसद्रुचिः । प्राचीचलत्ततः सद्य, पवनस्य विशुद्धये ॥ ५४॥ भ्राम्यन् विश्वग् धरां विश्वां, भूतवनमुपागमत् । प्रहसितेन दृष्टोऽसौ, साश्रुनेत्रश्च
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अअना० चरित्रम्
पुन
दूरतः ॥५५॥ साधनमातुलस्याथ, शुभागमनोदन्तकम् । पितृपुत्रपुरोऽवादीन-मुदा प्रहसितः सखा ॥५६॥ अञ्जना प्रतिसूर्योऽथ, विमानादवतीर्य शम् । प्रह्लादचरणौ भक्त्या, ववन्देऽवनिमौलिना ॥ ५७ ॥ प्रतिसूर्य ततः प्रीत्या, परिष्वज्य महीपतिः । हनुमन्तं स्फुरत्कान्ति, पौत्रं क्रोडे निधाय च ॥५८॥ अपूर्वानन्दपाथोधिवीचित्रुडद्दधाति । प्रतिसूर्यअगादेव-मानन्दाचस्खलद्वचाः॥ ५९॥ सकुटुम्ब मज्जन्त-मगाधदुःखवारिधौ । उदिधीर्घस्त्वमेवाऽसि, भद्र ! स्वस्ति तवानध ! ॥६० ॥ सम्बन्धिभ्योऽखिलेभ्योऽतो, बन्धु रग्रथोमवान् मम । मरणायेन मे पुत्रो, वयम्वा रक्षिताः सुखम् ॥६१॥ मद्वंशपूर्वशाखेयं, सन्ततिहेतुसत्कला। निर्दोषाऽपि वधूदिव्या, मया मौढ्यान्निराकृता ॥ ६२ ॥ आप्तमित्रैर्भवद्भिः सा, रक्षिताशान्तिसागरैः । साधु साधु महाभागा ! उत्तमानामियं स्थितिः ॥ ६३ ॥ पवनश्चिररात्रेण, प्रियां वीक्ष्य निजां सतीम् । उद्वेल इव पाथोधि-निवृत्तिमाप दुःखतः ॥६४ ॥ चिरप्रदीप्तशोकाग्नि, ज्वलत्कुशवपुस्ततः । प्रियाप्राप्तिसुधासेका प्रशशाम प्रभअनः ॥६५॥ चिरवाञ्छितलाभेन, मोदमापाति मारुतः। विनष्टार्थस्य लाभेन, तत्स्वामीव निरन्तरम् ।। ६६ । सर्वविद्याधरैर्भूय--स्तत्रानन्दपयोनिधौ । महामहो मुदा चक्रे, राकेन्दूपमपेशलः ॥ ६७ ॥ पश्चात्स्वैः स्वैर्विमानस्ते। प्रोज्ज्वलैगंगनाङ्गणम् । सतारमिव कुर्वन्तो, हनुपुरमजीगमन् ॥६८॥ महेन्द्रभूपतिश्चापि, सह मानसवेगया। शच्येव वासवस्तत्र, मुदितात्मा समाययौ ॥ ६९ ॥ देवी केतुमती चैवं, परे सम्बन्धिनोऽखिलाः । आययुर्मिलतास्तत्र, सुधर्मायामिवामराः ॥७० ॥ इत्थं तत्र मिथो दैवा-च्चिरात्सम्बन्धिनोत्करः । बान्धवा बन्धुभावाढथा, मिलिता हर्षमादधुः ॥७१।। विद्याधरमहीनाथै-मिलितैरतिहर्षितैः । पूर्वतोऽप्यधिकश्चक्रे निर्जरेक्ष्यो महोत्सवः ॥७२ ॥ तदाऽऽनन्दमहासिन्धु-वीचिप्रेङ्गत्कलेवराः । बुबुधिरे न चात्मानं, समाधिस्थमना इव ।। ७३॥ लब्धाज्ञाश्च मिथः सर्वे, कृतकृत्यास्तदुत्सवे । ओकांसि भेजिरे खानि, विमानानीव नाकिनः ॥ ७४ ॥ पवनोऽपि गतक्लेशः, सप्रियासुतशोभितः । तत्रैव तस्थिवान् दिव्ये, महेन्द्रश्वशुरालये ।। ७५ ॥ कुमारहनुमां
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१७॥
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थापि, समं पितृमनोरथैः । ववृधे विक्रमी धीर-चन्द्रस्येव जयन्तकः ॥ ७६ ॥ अचिरेणैव धीमान् स, जग्राह सकलाः कलाः । साधयामास विद्याश्च, विविधाः श्रुतिमात्रतः ॥७७॥ पूर्वचीर्णसुकृत्यानां, स्फुरन्ति मतयः पुरा । निमित्तं गुस्खो मन्ये, साधुभाग्ये सहायकाः ।।७८ ॥ फणीशलम्बबाहुःस, दीर्घवक्षाः सितद्विजः । प्रवीणो नितमाञ्जज्ञे विद्यायामस्रशास्त्रयोः ॥७९।। दिनमणिखि द्युत्या, कुमारः सर्ववल्लभः । क्रमेण यौवनं प्राप, मकरध्वजताण्डवम् ।।८० ॥ साक्षादलमहाशैल, इतः क्रोधिशिरोमणिः । निजाभिमानदीप्तात्मा, रावणो रिपुरावणः ॥ ८१ ॥ सन्धौ दृषणमुत्पाद्य, विजेतुश्च जलेश्वरम् । स्फुरद्रोमा ययौ मन्ये, रौद्ररस इवापरः ॥ ८२ ।। हूताहूता महाविद्या, विद्याधरचमूचराः। विरच्य कटकं प्रेयु-चैतादयगिरिसन्निभम् ॥ ८३ ॥ तत्र यातुं यदा जातो पवनप्रतिसूर्यको । समाहौ गिरिवत्तावत्-हनुमानेत्य प्रावदत् ।। ८४ ॥ पूज्यतातौ ! पुरो वाम्मे-विज्ञप्तिरियमस्ति च । तिष्ठतं ससुखं गेहे, जेष्येऽहं रिपुमेककः ॥८५।। सत्सु शस्त्रेषु तीव्रषु, विकुण्ठेषु रणाध्वरे । बाहुभ्यां कः पुमान् युद्धं, प्रकुर्यादिति धार्यताम् ॥८६॥ बालोऽयमिति मा मय्य,-नुकम्पां कुरुतम् युवाम् । दन्तिनो हन्ति नोऽरण्ये, बालोऽपि सिंहिनीसुतः ॥ ८७॥ समये सति भो मान्यौ, भावत्ककुलजन्मनाम् । पुरुषाणां वयोऽपेक्षा, न जातु गण्यते मनाक् ॥ ८८ ॥ उदीर्येति निरोधेन, महता तो निरुध्य च । स्वयं गन्तुं तदाज्ञां च, प्राप्तवान् वायुनन्दनः ॥ ८९ ॥ स्फुरन्तं तं तथा वीक्ष्य, फणितोकमिवोत्कटम् । पवनः प्रतिसूर्यश्च, प्रशशंस चुचुम्ब च ।।९०॥ तन्मौलौ तौ करौ धृत्वा, दत्ता चाशीः सहस्रशः। अकार्टी मङ्गलं प्रीत्या, प्रास्थानिकमनुत्तमम् ॥९१ ॥ परिष्कृतमणीवैष, दिदीपे कृतमङ्गलः । अनेन हत एवारि-रमन्येताच ताविति ॥ ९२ ॥ रथारूढैगजारूढे-रश्वारूढः पदातिभिः । सामन्तैर्भूमिविख्यातैः सेनाधीशैश्च सैनिकैः ॥९३॥ वेष्टितो विश्वतः खेळ-ग्रहेखि महोज्वलैः । चञ्चद्दोर्दण्डशौण्डीर्यः प्रतस्थे हनुमांस्ततः । युग्मम् ॥९४॥ असङ्ख्यवाहिनीयुक्तः, क्रमशो हनुमांस्ततः। अहंयुरावणस्यागात्-स्कन्धावारमत्युद्धतम् ॥९५||
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GREH
अअना०
चरित्रम् ॥१८॥
गच्छ
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मूतिमान् विजयश्चैषः, परो वाऽपरविश्वजः। व्यतर्कि रावणेनैवं, तदाकृतिनिरीक्षणात्॥९६॥ प्रणमन्तं परं वीक्ष्य, हनुमन्तं दशाननः । दधन्मोदं स्वकाङ्के तं, न्यविविशत्सतोपमम् ॥९७ ॥ पुण्यपीयूषपाथोधि, वीरविक्रमशालिनम् । बादं गादमिमं प्रीत्या, सस्वजे रावण • चिरम्॥९८॥ ततो दुर्दमलकेशो, वरुणस्य पुरोऽन्तिके । गत्वा जन्याय सन्तस्थौ, बिलमूल इवाचलः ॥९९॥ ततः पाशी च तत्पुत्राः,
शतसङ्ख्या महाबलाः । निर्ययुनिर्भयाः सद्यो, दर्या इव मृगाधिपाः ॥१०॥ पाशिपुत्रा रणव्यग्रा भुजस्फालनपूर्वकम् । ययुधु दशवकोण, दैत्या इव पुरारिणा ॥१०१॥ सुग्रीवादिमहावीरे-वरुणो जन्यमातनोत् । उभयोः सैन्ययोरेवं, प्राचलघुद्धमुल्बणम्
॥ १०२ ॥ रक्तनेत्रैर्महावीर्यैः, पाशिपुत्रर्दशाननः । सङ्गरे खेदितोऽत्वन्तं, पोत्रीव जात्यकूकुरैः ॥ १०३ ॥ कदर्थीक्रिय__माणं तं, पाशिपुत्रर्मुहुर्मुहुः । रावणं वीक्ष्य दुर्दान्त, उवाचेति मरुत्सुतः ॥ १०५ ॥ रे पाशितनया मूढा, एकोऽयं शत
सङ्ख्यकैः । कदर्थ्यते च धिग् युष्मान्-भवन्तु सजिताः पुनः ॥१०५॥ मदोन्मत्तमहादन्ति-घटायामिव वायुजं । केसरिडिम्भवन्मक्षु प्राविशद्रिपुभीप्रदः ॥१०६॥ स्वविद्यायाः प्रभावेण, हनुमांश्च जलेशितुः । बबन्ध तनयान्-सर्वान्, हरिणानिव जालिका ॥१०७॥ पशुवत्तनयान बद्धान्-वरुणोऽपि निरीक्ष्य च । जज्वाल मन्युना भूरि-प्रलयानलवत्क्षणम् ॥ १०८॥ दन्तीव पथि सालांच, कम्पयन्-वरुणो बली । सुग्रीवादिमहायोधृन् दधावे वायुनन्दने ॥१०९॥ वर्षयन्-विशिखश्रेणि लङ्काधीशो जलेश्वरम् । अरौत्सीन्मध्य एवाशु-नदीवेगमिवाचलः ॥ ११॥
अनुडुद्भिर्यथोक्षाणो, दन्तिभिर्दन्तिनस्तथा । क्रोधान्धपाशिना सत्रा, युयुधे रावणश्चिरम्॥११॥ मायावी युद्धविद्यायां, निपुणो वरुणं शनैः । हस्तशखादिनिक्षेपः, खेदयित्वा दशाननः ॥११२॥ उत्प्लुत्य सिंहवत तञ्च, वास्तोष्पतिमिवाहवे ॥ अबध्नात साहसी मानं, खण्डयन्निव मूलतः ॥ ११३॥ युग्मम् , सर्वत्र कार्यसिद्धौ हि, दम्भ एव महाऽऽयुधम् । वामनीभूय गोविन्दो, बलिभूपं न
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चाच्छलत् ॥ ११४ ॥ चिरस्वरिपुनीरेश-विजयोत्फुल्लगात्रकः । रावणो हर्षनादेन, शब्दाद्वैतअगद्व्यधात् ॥ ११५ ॥ मांसलदीर्घस्कन्धोऽसौ, दशास्ये ! रविभासुरः। विजयी रावणो दिव्यं, निजावासमुपागमत् ॥११६॥ ससुतं वरुणं भूयो, निजाज्ञावशवर्तिनम् । मोचयामास लङ्कशो, वैनतेय इधोरगम् ॥११७॥ उत्तमान्वयसम्भूति-मानवानां सदेवहि । प्रणिपातावधि प्रायः, कोपाडम्बरडिण्डिमः, ॥११८ ।। प्रीतिनीरमहाकुल्या, प्रशान्ते द्वेक्शुष्मणि । एकात्मभावनाभावो, ववृद्धे च मिथस्ततः ॥ ११९ ॥ सत्यवतां पुनः पाशी, नाम्ना सत्यवती सुताम् । प्रत्यक्षवीर्याय, प्राददद्वायुसूनवे ॥ १२० ॥ रावणोऽपि ततो लक्षा-निताहितः समाययौ । उत्सवास्तेन तेने च, वारुणजयमोदिना ॥ १२१ ॥ हनुमते सुते द्वे स्वे, प्रोत्याऽतिददिवान् वरे। चन्द्रणखां तथाऽनङ्ग-कुसुमामतिसुन्दरीम् ॥ १२२ ।। पमरागनिभा पुत्री, पनरागां यशस्विने । सुग्रीवोऽपि ददौ प्रीत्या, चाशनीवीरमनवे ॥१२३ ॥ नलोऽपि तनयां स्त्रीयां, नाम्ना च हरिमालिनीम् । हनुमते मुदा प्रादात् वीरविक्रमशालिने ॥१२४ ।। अपरेऽपि महावीराः, पवनञ्जयसूनवे । सहस्रशो निजाः कन्याः, प्रायच्छन् हृदि मुत्कलाः ॥१२५ ॥ बाडमालिङय निर्व्याज-प्रीति कल्लोलितान्तरः । हनुमन्तं महावीर रावणोऽथ व्यसयत ।। १२६ ॥ हस्तीय हस्तिनी बात-मण्डितो वायुनन्दनः, सहस्राधिकमार्थाभि-हनुपरमपाययौ ॥१२७ ॥ अनना चारुचारित्रा, सतीत्वपधशेखरा । नितमामचनीयाऽभू-कुटुम्बादिजनान्तरे ॥१२८।। वीरोत्तंसमुतप्राप्त्या, पतिप्रीतिपरायणा विस्मृतसर्वकष्टाऽसौ, सिषेवे सुखमुज्ज्वलम् ॥ १२९ ॥ इत्थं सांसारिकं सौख्यं, माहेन्द्रनगरे सती । सेवमाना परां स्फीति, प्रापात्मस्वजनैः सह ॥ १३० ॥ पयनोऽपि सतीप्रीति-व्यापृतात्मा कुलामरः । कुर्वन् धाणि कार्याणि, सुखं कालमवाहयत् ॥१३१॥ आपातमधुरे सौख्ये, परिणामक्षतिप्रदे। अनासक्तमना धीमान-धर्मध्यानपरोऽभवत् ॥ १३२॥ निःसारः किल संसारो, भावनामिति भावयन् । वीतरागपदप्राप्त्य, वाञ्छा तस्य तदाऽभवत् ॥१३३॥ शुद्धलेश्यो जिनाध्यासो, वैराग्यमयजीवनः ।
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पञ्चम
अञ्जना चरित्रम् ॥ १९ ॥
गुच्छ:
पवनः पावनी दीक्षा-चकमे निर्मलात्मना ॥१३४॥ अञ्जनायाः पुरश्चैवं, सचिवानां सुतस्य च । प्रकटितो मनोभावः, परस्यापि शमप्रदः ॥ १३५ ॥ म्लानैरपि स्थितिज्ञानैः, समयोचितवेदिभिः । स्वीकृतं तद्वचः सर्वै गुरवोऽलध्यशासनाः ॥ १३६ ॥ महाधीर महावीर, तनये श्रीहनुमति । राज्यभार समासो, परिव्रज्यां ललौ वराम ॥ १३७ ।। क्रमशः क्षीणकर्माऽलं, शुक्लध्यान कुटीचरः । अविनाशि घनानन्द, मुक्तिधाम ययौ यमी ॥ १३८ ॥ अञ्जनापि धवक्राम-पङ्कजासवभृङ्गिका । विमुखीभूयभू सौख्या-क्षणिकापातभङ्गुरात् ।। १३९ ।। अभ्यर्णे चन्द्रसूरीणां, गृहीत्वा व्रतमुत्तमम् । ध्यानानलेन कर्मेध्मं, दग्ध्वा मोक्षमुपागमत् ॥१४० ।। हनुमानपि भव्यात्मा, तारहारयशाः सुधीः । आत्मवत्सकलां क्षोणी, पालयामास धर्मतः॥ १४१ ॥ एकदा मधुमासस्य, राकायामञ्जनीसुतः । शाश्वतचैत्यवन्दारु-जंगामामर भूधरम् ॥१४२॥ प्रकाश्य निखिलं विश्वं, विशन्तमपराम्बुधौ । सहस्रमालिनं दृष्टवा, दध्याविति मरुत्सुतः ॥ १४३ ॥ आकीटब्रह्मपर्यन्तं, सर्वे ये जीवराशयः । उदयन्ति विलीयन्ते, भ्रमन्तो भवसागरे ॥१४४॥ सहस्ररश्मिरेवात्र, जगत्काशी महाप्रभः । दृष्टान्तः किम्परैः सोऽपि, चोदयास्तगतिः सदा ॥ १४५॥ पदार्था यत्र विद्यन्ते, नाशवन्तोऽखिलाबत ! । प्रपञ्च बहुला ध्यासं, धिगू धिग् संसारमीदृशम् ॥१४६ ॥ संसारासारताप्राप्त-ज्ञानोदय महोदयः । हनुमान प्राप्तवैराग्यो, ययौ स्वां नगरी ततः ॥१४७॥ आप्तमित्रादि बन्धुभ्यः, सूचयित्वाऽऽत्म भावनाम् । निर्वाणपदसन्दात्रि-दीक्षायात्युद्यतोऽभवत ॥१४८ ॥ राज्यभारं प्रजात्राणं, दत्वा सूनोश्च धीमतः। धर्मरत्नमहासूरे-रन्ति दीक्षा ललावलम् ॥१४९ ।। साधु भावाश्च तत्पल्यः, सर्वा अपि ततो व्रतम् । आर्या लक्ष्मीवती पार्श्वे, जगृहुभव भीरवः ॥ १५० ।। क्रमशो विचरन् क्षोण्या, हनुमांश्च महामुनिः। प्रादहत्सर्वकर्माणि, दिव्यध्यानकृशानुना ॥ २५१॥ दशां शैलेशिकां प्राप्य--सर्वत्र समभावनः । अव्ययपदमालेमे, द्वन्द्वातीत मनुत्तमम् ॥१५२ ।। इत्थमेतन्महादिव्य-मञ्जनाचरिता
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॥१९॥
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मृतम् । कणेहत्य महाभागाः, पिबन्तु भवमुक्तये ॥ १५३ ॥ चरित प्रथितञ्चासी, च्छ्रीमत्पन्यासमुक्तिना । पर मध्ये ययौ स्वर्ग, भाद्रे मासि सिने दले ॥ १५४ ॥ पर्युषणमहापर्व, चतुर्थ्याश्च वयो लघुः । युगौलाकचन्द्राब्दे, रम्यराजपुरान्तरे ॥१५५ ॥ तत्पट्टारामकल्पद्रुः, सम्पूर्तिमतनोदय । श्रीमत्पंन्यासरङ्गादि, विमलान्तमुनीश्वरः ॥ १५६ ॥ भूस्वगौँर्जरदेशस्थ-विशादिनगरे वरे। चन्द्राभ्रखद्वये वर्षे भूदस्य समाप्तिका ॥ १५७ ॥ चरित्ररत्नमेतद्धि, येषां भाति गलान्तरे । दुष्कर्मध्वान्तनाशो हि, भूयातेषां ततोऽमृतम् ॥ १५८ ।।
सत्यअनावायुकसङ्गरम्ये, नीरेशयुद्धादिजयप्रकाशे ।
पंन्यासमुक्तिग्रथिते चरित्रे, गुच्छः समाप्तः शिववृत्तवाणः ॥ १५६ ॥ इति श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणि, शासनसम्राट्-जङ्गमयुगप्रधान-कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक-क्रियोद्धारक, आचार्य भगवान् श्रीमदानन्दविमलसूरीश्वरपट्टपरम्परागततपोनिष्ठ-सकलसंवेगिशिरोमणि-पंन्यासदयाविमलगणि शिष्यरत्नपण्डितशिरोमणि श्रीमत्पन्याससौभाग्यविमलगणिवर-शिष्यरत्नपन्यासमुक्तिविमलगणिविरचिते-अञ्जनासतीचरित्रे-अञ्जनावायुसङ्गमवरुणयुद्धविजयरमणीयतमः पवनञ्जायाजनाहनुमदादि-दीक्षाग्रहणनिर्वाणपवित्रितः पञ्चमो गुच्छः समाप्तः ॥
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प्रशस्तिका
अञ्जना चरित्रम् । २०
॥ अथ ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिका ॥
-:००००आसीन्महामहिमविश्वतलैकमान्यः, श्रीमत्तपाविमलगच्छनभोविवस्वान् । ज्ञातस्वकान्यमतसारप्रवृद्धकीर्ति-रहद्वचोऽमृतसुधारसपानतृप्तः ॥ १॥ शत्रुञ्जयोधृतिकरो विकलक्रियाया, उद्धारको निगमबोधवुधाभिजेता । भेत्ताघवारकुमृतेनिखिलात्मभाव,-श्रानन्दवैमलमुनीश्वरसरिराजः ॥ २॥ युरमम् । तत्पदृसागरतरङ्गमृगाङ्ककल्पः, कल्पोपमः कलगुणः कलगीः कलाङ्गः । ज्ञानर्द्धिवैभवजितापरमर्द्धिगर्वः, पंन्यासऋद्धिविमलो विमलो बभूव ॥३॥ यत्कीर्तिभाजितविधुर्गगनाङ्गणाटी, कैलासकासघनसारचयो जडश्च । तत्पदृसालफलसौमरसाचमोऽभूत् , पंन्यासकीर्तिविमलो दशदिग्यशस्वी ॥ ४ ॥ अक्षाश्ववैरणमहाबलवीरशाली, शाल्यङ्गिशालिगुणगौरवसर्वनम्यः। नम्येतरः समजनि प्रतिवादिवादी । पंन्यासवीरविमलस्तकपाटकाशी ॥५॥
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शान्त्योदयोऽखिलदयश्वरणोदयाढ्यो, ध्यानी प्रभो गजप्रससुदयी विमायी। अद्योतयत्तकपदं गगनं तु इवार्कः, श्रीमान्महोदयबुधो जिनवाग्विलासी ॥ ६ ॥ द्राक्षाऽमृतेक्षुमधुराभिरिहाङ्गिचेतः, प्रामोदयन्मुनिवरः कमनीयवाग्भिः । योऽसौ तदीयगुरुपीठमलञ्चकार-स्तज्ज्ञः प्रमोदविमलः शमतोदधीन्दुः ॥७॥ चारित्र्यरत्नरुचिमुष्टसृतान्धकार-स्तत्पादपीठगिरिचूलविशोभिसिंहः । पंन्यासरत्नमणिवैमलयोगिराजो, जज्ञे जिनाधिकलतामरसाभिनन्दी ॥ ८ ॥ तद्धाग्नि खेऽर्क इव चारुप्रतापधामा, प्रोद्योतवैमलमुनियुषराडू विरेजे । उद्योतितञ्जिनविभूदितधर्मवम, येनात्र देहिनिकरेऽखिलसातकारि ॥९॥ तत्पट्टनन्दनवनोत्तमनाकिशारखी, पंन्यासदानविमलो व्यधराड्-बभूव । यज्ज्ञानपावननदीजलपानपूताः के नो बभूवुरिह शान्तमनोऽभिलाषाः ॥ १० ॥ तत्पाटविन्ध्यकरिराजमहातपस्वी, श्रीमद्दयाविमलविज्ञमुनिर्बभूव । प्रद्युम्नशस्त्ररमणीगणवेष्टितोऽपि, ब्रह्मव्रतं न च जहौ किलयो मनस्वी ॥ ११ ॥ तत्पट्टमानसचरद्वरराजहंसः, सौभाग्यवैमलमुनीश्वरविज्ञविज्ञः । जझे च यो विमलबोधजनावतारी, शान्तः शुचिः शिवमतिर्विममः परार्थी ॥ १२ ॥
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प्रशस्तिका
अअना० चरित्रम् ॥२१ ।।
प्राभूषयत्तकपदं विमलैर्गुणैः स्वः, पंन्यासमुक्तिविमलः समयाध्वनीनः । योऽभूच्छिशावपि महान् बुधसाधुरत्नम्, धीर कृती निजपरागमदक्षशिक्षः ॥ १३ ॥ तेनाञ्जनाचरितमेतदनयरत्नं, दृब्धं परं सुरसदो ययिवान् महात्मा । वेदाद्रितत्वरजनीपतिमाविताब्दे, भाद्रे सिते युगतिथौ वरपर्वभाजि ॥ १४ ॥ यातेऽव्यये गुरूवरे गुरुधामधाग्नि, शब्दादिशास्त्रनिपुणे निपुणो विनेयः । तत्पूर्तिमार्यमहितस्तकपादभृङ्गः, पंन्यासरङ्गविमलः समकारयद्वै ॥ १५ ॥ तत्पूर्तिका गुरुवरक्रमकानुकम्पा-तोऽभूत्प्रधाननगरे विशपूर्वरम्ये । ग्लौखांभ्रंयुग्मप्रमिते वरवत्सरेऽलं, भाद्रे सिते दशतिथौ कलगौर्जराब्जे ॥ १६ ॥
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२००२
॥ २१॥
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श्रीमत्तपागच्छमहाकाशवासरमणिशासनसम्राट्-जङ्गमयुगप्रधान-कनकाचलतीर्थषोडशीयोद्धारक-कियोद्धारकमरिचक्रचक्रवर्ति-श्रीमदानन्दविमलसूरीश्वरपट्टपरम्परासमायात-सुशिष्यरत्नतपोनिष्ठ नैगमतत्वावबोधदक्षधिषणाश्चितश्रीमत्पण्डितऋद्धिविमलगणिपट्टवारिधि पूर्णशशाङ्कश्रीपण्डितकीर्तिविमलगणिपट्टालङ्कारब्रह्मवर्मक्षपितकर्मतिमिरसत्पथाचारचारि-श्रीपण्डितवीरविमलगणिपट्टपाथोजभास्करप्रज्ञस्तोमजेगीयमानकीर्तिनिकुरम्बसततोदयश्रीपण्डितमहोदयविमलगणिपट्टासीनतत्क्रमसरोरुहमकरन्दस्वादैकचञ्चरीकनिखिलासुमत्प्रमोदकारिपण्डितप्रमोदविमलगणिपट्टाभरण विशिष्टशिष्ट चरणलब्धप्रभावविमलीकृतजगन्मण्डलश्रीपण्डितमणिविमलगणिपट्टकेदारवारिदोपमशमितनिः शेषप्राणिनिकरतापोद्भुतयशश्चयश्रीपण्डित उद्योतविमलगणिकमनीयचरणारविन्दविलसन्मधुपवृत्तिसद्देशनादानदक्षशेमुषीविदित श्रीपण्डितदानविमलगणिपट्टोतुङ्गगिरिकूट पञ्चाननोपमपरमदयोदधितपोनिष्ठयोगनिष्ठश्रीपण्डितदयाविमलगणिपाद कमलरोलम्बायमानस भाग्यभाजन श्रीपण्डित सौभाग्यविमलगणिपट्ट पूर्वाचलदिवाकर सकलसिद्धान्तवाचस्पति आबालब्रह्मचारी अनेकसंस्कृतग्रन्थप्रणेतचारित्रचूडामणिविद्वच्छिरोमणि
श्रीमतपण्डितमुक्तिविमलगणिविरचित-अजनासदरीचरित्रम् समाप्तम् । *ERESERREERARE*8-9eegesesedese seksee keedee******
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________________ प्रशस्तिका अअना. चरित्रम् // 22 // 華錄器器等等等等藥藥鱗器等器器器錄器器器誘器器器器器 ॥श्री अञ्जनासुन्दरीचरित्रम् // समाप्तम्. // 22 // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com