Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४ 1 www.kobatirth.org कहा गया है ---- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिक्षाव्रतों का वर्णन है तथा माँस, मधु, उदम्बर खाने से उत्पन्न होने वाले दोषों की चर्चा । योगशास्त्र चौथे प्रकाश में १३६ श्लोक हैं । इसमें आत्मा और रत्नत्रयी की एकता को सिद्ध किया गया है तथा संसार और मोक्ष का स्वरूप बताया गया है । संसार का मूलभूत कारण कषाय है और कषाय इन्द्रियों के विषयों के प्रति श्रासक्ति से उत्पन्न होते हैं, इसका गहन विवेचन किया गया है । मन विशुद्धि की आवश्यकता, राग द्वेष जीतने के उपाय तथा मैत्री श्रादि चार एवं बारह भावनाओं का वर्णन किया गया है । योगशास्त्र ग्रन्थ जलनिधि, मथोमन करी मेरु मथान । समता श्रमरत पाइके हो, अनुभव रस जान |१| योगशास्त्र रूपी समुद्र को मन रूपी मथनी ( बिलौनी) से मथने पर समता रूपी अमृत की प्राप्ति होगी, तभी समत्व के अनुभव रस की जानकारी हो सकेगी । अथ योगानुशासनम् योगस्य अनुशासनम् अर्थात् योगानुशासनम् योग्य अधिकारी व्यक्ति के लिये ही यह योगशास्त्र ग्रन्थ है । क्योंकि योगविद्या ही ज्ञान और जीवन का पाया है, अतः योगविद्या के ज्ञान के बिना जीवन जीना भी हानिकारक है For Private And Personal Use Only जैसे चूल्हे पर पानी की पतेली चढ़ाने पर जब पानी गरम होने लगता है, तब पानी के प्रदेशों में जिस प्रकार का स्पन्दन उत्पन्न होता है, एक प्रकार का आन्दोलन चलता है, चंचलता प्रकट होती है, उसी प्रकार बाह्म और आभ्यंतर निमित्त मिलते ही श्रात्म प्रदेशों में स्पन्द उत्पन्न होता है, प्रान्दोलन मचता है, चंचलता प्रकट होती है, उसी को शास्त्रीय परिभाषा में योग कहा जाता है । यह योग तीन प्रकार का है । मनयोग, वचनयोग और कामयोग । शास्त्र में अनेक स्थानों पर योग शब्द का प्रयोग हुआ है । उसमें ऐसा भी कहा गया है कि योग से कर्म टूटता है । परन्तु हम कहते हैं कि योग से कर्मबन्धन होता है । श्रापको यह दोनों वाक्य परस्पर विरूद्ध लगते होंगे : जहाँ योग का अर्थ प्रणिधान से है, वहाँ अत्यन्त शुद्ध बने हुए ऐसे धर्म व्यापार के अर्थ में ग्रहरण करने से योग

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