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चारित्र योग
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आधारित हैं, आगे की १० भूमिकाएँ ( पांचवें से १४ वें गुणस्थान तक) चारित्र पर ही निर्भर हैं। चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और १३ वें गुणस्थान में सम्यक्ज्ञान की पूर्ण उपलब्धि होती है । किंतु चारित्र को पूर्णता के प्रभाव में मुक्ति प्राप्त नहीं होती । ज्यों ही चरित्र पूर्ण हुआ कि अयोगी बनकर आत्मा मुक्ति को प्राप्त कर लेती है ।
ज्ञान से पदार्थों का स्वरूप जाना जाता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चरित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा निर्मल होती है । घर में कूड़ा-कचरा भरा हुआ है, किंतु उसे निकाल कर बाहर फेंकने का प्रयत्न नहीं किया गया तो जानने का क्या अर्थ होगा ? अमुक औषधि के सेवन से रोग नष्ट हो जायेगा, ऐसा जानते हुए भी यदि औषधि का सेवन न करें तो क्या रोग चला जायेगा ? थाली में भोजन परोसा हुआ है, आप यह भी जानते हैं कि भोजन करने से भूख मिट जायेगी, फिर भो यदि आप भोजन न करें तो क्या भूख मिटेगी ? इसीलिये कहा गया है कि:'हयं गाणं क्रिया हीणं'
क्रिया रहित ज्ञान व्यर्थ है । ज्ञान के द्वारा संसार और उससे पार होने का उपाय समझा जा सकता है, किंतु संसार समुद्र से पार होने के लिये तो चारित्र ही आवश्यक है । अत: ज्ञान और चारित्र दोनों को साधना से ही मुक्ति होती है । किसी कवि ने ठीक ही कहा है:
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'चर्चा ही चर्चा करे, धारण करे न कोय |
धर्म बिचारा क्या करे, धारे ही सुख होय ॥ '
कुछ उदाहरण ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने बिना चारित्र लिये ही मोक्ष प्राप्त किया है, जैसे भरत चक्रवर्ती, कूर्मापुत्र, इलाचिपुत्र, आषाढ़भूति, मरुदेवी माता श्रादि, किंतु वे अपवाद स्वरूप है ।
चारित्र किसे कहते हैं ? इस विषय में शास्त्र में कहा है:
'सुह किरिया चाम्रो, सुहासु किरियासु जोय अपमान । तं चारितं उत्तम गुणजत्तं पालह निरुत्तम ॥'
अशुभ क्रिया का त्याग और शुभ क्रिया का राग एवं गुण धारण रूप उत्तम चारित्र का पालन करो । चारित्र में क्या करना चाहिये ? कहा है:
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