Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 139
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचौर्य व्रत जैसे तेल रहित दीपक क्षीण हो जाता है, चाबी भरे बिना घड़ी बंद हो जाती है और भोजन के बिना यह शरीर भी नहीं टिकता, वैसे ही प्रात्मा की प्रगति के लिये व्रत, नियम, संयम आवश्यक है। इनके बिना जोवन प्रगतिशील नहीं बनता किंतु पतनशील बनता है। इससे बचने के लिये अणुव्रतों और महाव्रतों की आवश्यकता है। श्री वीर विजयजी म.सा. ने १२ व्रतों की पूजा में तीसरे अचौ व्रत के विषय में कहा है 'चित्त चोखे चोरी नविकरिये, भेद अढार परिहरिय ।' चित्त को निर्मल रखने के लिये चोरी का सर्वथा त्याग करना चाहिये । प्रदत्तादान का अट्ठारह प्रकार से त्याग करना चाहिये । हमारे मन का स्वभाव हो ऐसा है कि वह प्रभाव को पकड़ता है। अपने पास क्या क्या है इस पर मन कभी नहीं सोचता, किंतु हमारे पास क्या क्या नहीं है इस विषय पर बार बार सोचता रहता है। संसार में 'है' की अपेक्षा 'नहीं' की संख्या ही अधिक है। इसो लिये असंतोष की चोरी का मूल यह नहीं' को लिस्ट ही है। प्रात्मा नोचे की गति से ज्यों ज्यों ऊपर को गति में प्रातो है, त्यों त्यों सामग्री को अावश्यकता में वृद्धि होती है। जब यह जोव एकेन्द्रिय में था, तब उस में चलने फिरने की शक्ति भी नहीं थी, कर्म सत्ता के नीचे रहना पड़ता था, जैसे वृक्ष पेड़ पौधे आदि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय में आया तो घर (बिल) बनाने की आवश्यकता हुई, शरीर को टिकाने के लिये भोजन ढढना पड़ा। नरक में तो दुःख के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, अशुभ लेस्या में ही जीवन बिताना पड़ता है। तिर्यं च गति में मकान, भोजन, सर्दी, गर्मी, बच्चों की चिंता, मृत्यू को रोकने और जीवित रहने की चिता। मनुष्य भव में भी उपर्य क्त सभी चिताएं हैं । देव गति में जन्म के समय जितनी सामग्री प्राप्त होती है, मृत्यु तक वंसी हो रहती हैं, कम अधिक नहीं होती। परन्तु बती हई सामग्री का उपयोग मनुष्य के पास है। मनुष्य को बढ़ती में For Private And Personal Use Only

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