Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 152
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरिग्रह भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पांच महाव्रतों को उपदेश दिया। परन्तु पांच महाव्रतों में अधिक महत्त्व अहिंसा और अपरिग्रह को दिया, क्योंकि अहिंसा और अपरिग्रह दोनों ही परस्पर घनिष्ट संबंध हैं । इसीलिये उन्होंने जहाँ जहाँ हिंसा का निषेध किया वहाँ वहाँ परिग्रह का भी निषेध किया, क्योंकि प्रायः परिग्रह के लिये ही हिंसा का पाचरण किया जाता है । __ पाप पूछेगे कि परिग्रह क्या है ? सामान्यत: धन, दौलत, जमीन, जायदाद, स्त्री, शरीर प्रादि सब परिग्रह माने जाते हैं । आप कहेंगे कि यदि ये सब परिग्रह हैं तो इनका त्याग करके मनुष्य अपना जीवन कैसे निभा सकता है ? भगवान् ने कहा कि उपर्युक्त सभी वस्तुएँ परिग्रह हैं भी और नहीं भी हैं । वास्तव में तो ये सब परिग्रह नहीं हैं क्योंकि ये तो सब बाह्य वस्तुएँ हैं, जब कि परिग्रह तो मनुष्य की एक प्रांतरिक अशुद्ध चेतना की वृत्ति है । कहा है: 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।' जब बाह्य वस्तुओं के प्रति मन में प्रासक्ति-मूर्छा या ममत्व पैदा होता है तब वह परिग्रह है। परिग्रह वस्तु में नहीं किन्तु भावना में है। किसी भी सिद्धांत को सही ढंग से समझने के लिये उसके मूल कारण को जानना आवश्यक है यदि मात्र वस्तु को ग्रहण करना ही परिग्रह होता, तब तो साधु सन्त भी सड़क पर चलते हैं. मकान में ठहरते हैं, बैठते हैं, तब उसे ग्रहण तो करना ही पड़ेगा, तो क्या यह परिग्रह है ? हवा, पानी, पाहार, पुस्तक, शास्त्र आदि को भी साधु सन्त ग्रहण करते हैं, तो क्या ये भी सब परिग्रह हो गये ? नहीं। शास्त्र में परिग्रह की परिभाषा इस प्रकार है: 'परिसमन्तात् मोहबुद्धया ग्रह्यते स परिग्रहः ।' अपने चारों ओर की वस्तुओं को मोह बुद्धि से ग्रहण करना परिग्रह है । हम समझते हैं कि हम अमुक वस्तु के स्वामी हैं, किंतु स्वामित्व को प्राप्त करने में वह वस्तु ही हमारी स्वामी बन जाती है। For Private And Personal Use Only

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