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अपरिग्रह
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भगवान् पार्श्वनाथ के समय में चार ही महाव्रत थे। उस चौथे महाव्रत में पांचवे का समावेश कर लिया गया था क्योंकि परिग्रह में स्त्री का समावेश भी हो जाता है और सोना, चाँदी, मिल्कियत, नौकर, चाकर, खेत आदि भी परिग्रह में माने जाते हैं, अतः स्त्री से संबंधित ब्रह्मचर्य का समावेश भी परिग्रह में हो जाता है।
भगवान् महावीर के समय ब्रह्मचर्य को चौथा व्रत तथा स्त्री के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को परिग्रह में समाहित किया गया। यह परिग्रह नौ प्रकार का है । परिग्रह का मूल क्या है ? शास्त्र कहता है --.
___ 'संसार मूल मारम्मास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।' ___ संसार का मूल कारण प्रारंभ है और प्रारभ का मूल कारण परिग्रह है। जो वस्तु अपनो नहीं है उसको अपनी मानना ही प्रज्ञान दशा है, इससे तीन अवगुण पैदा होते हैं-(१) वस्तु मात्र क्षणिक सुख देने वाली है, (२) वस्तु मात्र दु:ख गभित है क्योंकि प्राप्ति के बाद वस्तु से मोह उतर जाता है और (३) उसे फिर से प्राप्त करने की इच्छा होती है। उपरोक्त दोष संसार के सभी पदार्थों में विद्यमान हैं। इसीलिये परिग्रह को त्यागने के लिये कहा गया है।
आवश्यकता और इच्छा में बहुत अन्तर है। ग्रावश्यताएं मर्यादित होती है, जबकि इच्छाएं अमर्यादित । आवश्यकता तो भिखारी की भी पूर्ण हो जाती है, पर इच्छाएं तो करोड़पति की भी पूर्ण नहीं होती। कारण यह है कि प्रावश्यकताएं प्रायः शरीर केन्द्रित होती हैं, जबकि इच्छाएं मन केन्द्रित होती हैं । शरीर की आवश्यकता कितनी ? खाने को चार रोटी, पहनने को दो कपड़े और सोने के लिये ५-६ फुट जमीन, जबकि मन की इच्छाएं तो आकाश के समान प्रनन्त होती हैं -
'इच्छा हु प्राकास समा अनन्तया ।' - नये नये फैशन के कपड़े, मसालेदार चटपटें भोजन मादि । प्राप कहेंगे कि प्रावश्यकता से अधिक संग्रह करने की इच्छा ही क्यों होती है ? इसके दो कारण हैं-(१) इस पात्मा को अपने पुण्य पर विश्वास नहीं है, उसे भय है कि उसके जीवन को आवश्यकताएं पूरी होंगी या नहीं ? (२.) भविष्य का भय सदा बना रहता है कि भविष्य में प्रावश्यकतानुसार
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