Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 118
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म पुरुषार्थ यदि स्वभाव को विभाव में परिवर्तित करने वाला कोई है, तो वह कर्म समवाय है । आत्मा तो शुद्ध स्वरूपी अविकारी है. परंतु उसे विकृति में लाने वाला कर्म है। जैन धर्म के जितने मुख्य सिद्धांत हैं, उनमें कर्म सिद्धांत भी एक मुख्य सिद्धांत है । विश्व की विचित्रता का मूल कारण कर्म ही है । एक ही मां के पेट से जन्म लेने वाले दो भाईयों में एक बुद्धिमान् है तो दूसरा मूर्ख । कर्म सिद्धांत को जानने से फायदा क्या ? उसको जानने से यह लाभ है कि फिर आपको अन्य किसी व्यक्ति पर क्रोध या बैर जागृत नहीं होगा । आप जब यह समझ जायेंगे कि प्रापत्ति को निमंत्रण देने वाला मैं स्वयं हूं तब अन्य पर क्रोध क्यों आयेगा ? गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा, "भगवन् ! जीव प्रात्मकृत दुःख को भोगता है या परकृत दुःख को भोगता है, या उभयकृत दुःख को भोगता है ?" भगवान् ने कहा, "देवानु प्रिय ! जीव स्वकृत कर्म को ही भोगता है । पाप कर्म के मूल चार भेद हैं (१) स्पष्ट, (२) बुद्ध, (३) निघत्त और (४) निकाचित । ( १ ) स्पष्टः सुइयों के पेकेट में सभी सुइयें एक दूसरी से चिपकी रहेगी, पर जब आप उन्हें हाथ से स्पर्श करेंगे तो वे अलग अलग हो जायेंगी। इसी प्रकार उपयोग वाले प्राणी को अचानक ( सहसात्कार पूर्वक) कोई कर्म बंध हो जाय तो वह कर्म निंदा गर्हा से नष्ट हो जाता है । जैसे प्रसन्न राजर्षि ने विचार ही विचार में ७० वीं नरक तक के कर्म बाँघ लिये थे, पर जैसे ही उनका हाथ मस्तक की तरफ गया और अपने मुंडे हुए सिर का ध्यान आया, उनके विचार बदले, अरे कैसा युद्ध ? मैं तो साधु हूं, मुझे तो श्रात्मा के शत्रुओंों से युद्ध करना है | बस इतना सोचना था कि उनके सभी कर्म क्षय हो गये । जो कर्म पश्चात्ताप से सहज में क्षय हो जाँय, वे स्पष्ट पाप कह जाते हैं । For Private And Personal Use Only

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