Book Title: Yogshastra
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 136
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ ] धान जैसा है, ग्रात्मा विश्वव्यापी है, ग्रात्मा तांदला जैसा है ग्रादि । (३) प्रथन्तिर हो कुछ और बताये कुछ, गाय को घोड़ा कहे और मनुष्य को ईश्वर कहे । ( ४ ) ग असत्य, जिससे पाप प्रवृत्ति हो जैसे खेत जोतो, घोड़े की खसी करो, जिससे प्रप्रीति हो जैसे कार को कारण कहना, अंधे को अंधा कहना श्रादि श्रप्रीतिकर वचन नहीं बोलना चाहिये। किसी को क्रोध से अपमानित करने वाली भाषा नहीं बोलनी चाहिये जैसे दुराचारिणी के पुत्र ! पापो ! वेश्या पुत्र ! ! आदि आदि । सत्य सत्य के प्रतिचार (१) सहसाभ्यारख्यान: बिना विचारे जल्दबाजी में किसी निर्दोष को दोषी कह देना, इससे चारित्र निर्माण में कमी आती है । कोई व्यक्ति किसी संस्था का सच्चाई से कार्य कर रहा हो और उसके विषय में यदि कोई पूछे तो गोलमाल उत्तर देना जैसे "सब ठीक है, कहने जैसा नहीं है, मैं तो इनके विचार बरावर जानता नहीं, इनकी प्रवृत्तियों से मैं परिचित नहीं, आदि आदि । (२) रहस्याभ्याख्यान कोई भी दो व्यक्ति एकांत में बात करते हों तब ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि ये मेरे विरूद्ध कोई षड़यंत्र रच रहे हैं | क्योंकि प्रायः वे आपसी संबंध की बात ही करते होते हैं । (३) स्वदारमंतभेदे : पुरुष स्त्री की और स्त्री पुरुष की गुप्त बात को प्रकट नहीं करे क्योंकि इससे कई बार गृह कलह हो जाता है। इससे घर की बात बाहर जाती है और आपसी श्रनवन भी होती है । (४) मृषोपदेश: किसी को गलत उपदेश, झूठी सलाह नहीं देनी चाहिये । ( ५ ) फूट लेख : किसी के लेख में अक्षर या शब्द आगे पीछे करना, अर्थ का अनर्थ करना, दूसरे के लेख को अपने नाम से छपवाना, कोर्ट कचहरी में झूठे दस्तावेज पेश करना प्रादि । किसी को ऐसा कहना कि "मुझे तो श्रसत्य न बोलने का व्रत है, असत्य लिखने का प्रत्याख्यान तो नहीं है, अतः असत्य लिखने में कोई दोष नहीं है ।" श्रादि । For Private And Personal Use Only सत्यव्रत के आगार गृहस्थ श्रावक को इस व्रत में छ: आगार या छः प्रकार की छूट

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